Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ ७० ऐसे क्या पाप किए! भक्तामर स्तोत्र : एक निष्काम भक्ति स्तोत्र से वीतराग परमात्मा के गुण-गान एवं आराधना करता है, उसकी मन्द कषाय होने से पाप स्वयं क्षीण हो जाते हैं एवं शुभभावों से सहज पुण्य बंधता है। पुण्योदय से बाह्य अनुकूल संयोग मिलते हैं और प्रतिकूलतायें स्वतः समाप्त हो जाती हैं। यह तो वस्तुस्थिति है। इसी वस्तुस्थिति या यथार्थ तथ्य का दिग्दर्शन कवि ने किया है। जैसे फल से लदे वृक्ष के नीचे जो जायेगा, उसे फल तो मिलेंगे ही, न चाहते हुए भी छाया भी सहज उपलब्ध होगी। उसीप्रकार वीतराग देव की शरण में वीतरागता की उपलब्धि के साथ पुण्यबंध भी होता ही है। कभी-कभी धर्मात्माओं को पूर्व पापोदय के कारण प्रतिकूलता भी देखी जाती है; तब भी ज्ञानी खेद नहीं करते और भक्तिभावना के प्रति अश्रद्धा भी नहीं करते, क्योंकि वे निर्वाञ्छक धर्माराधना करते हैं और वस्तुस्वरूप को सही समझते हैं। दूसरे, साहित्यिक रुचिवाले इस काव्य की साहित्यिक सुषमा से प्रभावित और आकर्षित होते हैं; क्योंकि इसकी सहज बोधगम्य भाषा, सुगमशैली, अनुप्रासादि अलंकारों की दर्शनीय छटा, वसन्ततिलका जैसे मधुरमोहक गेय छन्द, उत्कृष्ट भक्ति द्वारा प्रवाहित शान्त रस की अविच्छिन्न धारा - इन सबने मिलकर इस स्तोत्र को जैसी साहित्यिक सुषमा प्रदान की है, वैसी बहुत कम स्तोत्रों में मिलती है। इन सबके सुमेल से यह काव्य बहुत ही प्रभावशाली बन गया है। तीसरे, लौकिक विषय वांछा की रुचिवालों को भी मंत्र-तंत्रवादी युग ने इसके प्रत्येक काव्य को आधार बनाकर विविध प्रकार के मंत्रोंतंत्रों द्वारा नानाप्रकार की रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त होने की चर्चायें कर दी हैं। कल्पित कथाओं द्वारा चमत्कारों को भी खूब चर्चित कर दिया है। संभव है तत्कालीन परिस्थितियों में इन मंत्रों-तंत्रों की कुछ उपयोगिता एवं औचित्य रहा हो, पर आज तो कतई आवश्यकता नहीं है; तथापि आज वह भी इसकी लोकप्रियता का एक कारण बना हुआ है। भक्ति और स्तोत्र के स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए यदि भक्तामर स्तोत्र की विषयवस्तु पर विचार किया जाय तो स्तोत्रकार ने इस स्तोत्र द्वारा अपने इष्टदेव-वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा की आराधना करते हुए भक्तिवशात् व्यवहारनय से उनमें कर्तृत्व की भाषा का प्रयोग तो किया है, किन्तु किसी भी छन्द में कहीं कोई याचना नहीं की, मात्र निष्काम भाव से गुणगान ही किया है। वीतरागी परमात्मा में कर्तृत्व का आरोप यद्यपि विरोधाभास-सा लगता है, तथापि स्तोत्र साहित्य में ऐसे प्रयोग हो सकते हैं; क्योंकि स्तवन या स्तोत्र की परिभाषा या स्वरूप बताते हुए आचार्यों ने लिखा है - "भूताभूतगुणोद्भावनं स्तुति:" अर्थात् आराध्य में जो गुण हैं और जो गुण नहीं हैं, उनकी उद्भावना का नाम ही स्तुति है। इसीप्रकार की स्तुतियों या स्तोत्रों में परम वीतराग अरहंतदेव को सुखों का कर्ता या दु:ख का हर्ता कह देना उन्हें सिद्धि या मोक्षदाता कह देना, उनके साथ स्वामीसेवक संबंध स्थापित करना, उन्हें भक्तों को तारने का कर्तव्य-बोध कराना, उपालंभ देना, दीनता-हीनता प्रगट करना आदि कथन पाये जाते हैं। वस्तुतः ऐसे औपचारिक उद्गार यदि भक्त की यथार्थ श्रद्धा और विवेक को विचलित नहीं करते तो स्तोत्र की दृष्टि से निर्दोष ही कहे जायेंगे, किन्तु केवल भक्ति की विह्वलता और भावुकता में ही ऐसे उद्गारों का औचित्य है। विचारकोटि में आने पर वीतरागता के साथ इनका मेल नहीं बैठता। भक्ति में जैसा वाणी से बोले वैसा ही मान ले, तो वह मान्यता यथार्थ नहीं है। भक्ति एक त्रिमुखी प्रक्रिया है, इसके तीन बिन्दु होते हैं - भक्त, भगवान और भक्ति । इसमें भक्त और भगवान के बीच संबंध जोड़नेवाले प्रशस्त राग की मुख्यता रहती है। जब भक्त अपने आराध्य वीतरागीदेव के यथार्थ स्वरूप को जानता है, पहचानता है तो उसके हृदय में उनके प्रति सहज अनुराग उत्पन्न होता है। इस प्रशस्त गुणानुराग को ही भक्ति कहते हैं। (36)

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