Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ ऐसे क्या पाप किए! तथ्यों से पता चलता है कि भक्तामर के रचयिता मूलतः ब्राह्मण, धर्मानुयायी और कुकवि थे। बाद में अनेक परिवर्तनों के बाद दिगम्बर जैन साधु हो गये थे। उन्हीं ने यह भक्तामर काव्य बनाया है।" __“पाण्डे हेमराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद तो सर्वाधिक प्राचीन, सर्वश्रेष्ठ व सरस रचना है ही, उन्होंने भक्तामर पर हिन्दी गद्य वचनिका (१६५२ ई.) भी लिखी थी तथा प्रसिद्ध आध्यात्मिक विद्वान पं. जयचन्दजी छाबड़ा (१८१३ ई.) ने भी 'भक्तामर चरित' लिखा है और भी पण्डित घनराज आदि के प्राचीन पद्यानुवाद मिलते हैं। उपसंहार - प्रस्तुत लेख के माध्यम से हमने संक्षेप में भक्तामर का माहात्म्य, जनसामान्य में इसकी लोकप्रियता के कारण, इसकी विषयवस्तु, आगम के आलोक में भक्ति-स्तुति का स्वरूप, व्यवहार भक्ति में परमात्मा में कर्तापन के आरोप का औचित्य, भक्तामर स्तोत्र पर विविध प्रकार के साहित्य का सृजन, भक्तामर के रचयिता मानतुङ्ग, उनका समय, काव्यों की संख्या, स्तोत्र का नाम, भक्तामर पर युग का प्रभाव आदि विविध विषयों का सामान्य परिचय कराने का प्रयास किया है। विशेष जानकारी के लिए यथास्थान संदर्भित टिप्पणियाँ भी दी गई हैं। सभी लोग इस ग्रन्थ के द्वारा भक्ति का यथार्थ स्वरूप समझकर भक्त, भक्ति और भगवान की त्रिमुखी प्रक्रिया को अपने जीवन में साकार करके सच्चा सुख प्राप्त करें - इस पवित्र भावना के साथ विराम । ॐ नमः। जिनागम के आलोक में विश्व की कारण-कार्य व्यवस्था जगत का प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है। द्रव्य के उस परिणमन को ही पर्याय या कार्य कहते हैं। कार्य बिना कारण के नहीं होता और एक कार्य के होने में अनेक कारण होते हैं। उनमें कुछ कारण तो नियामक होते हैं और कुछ आरोपित । आरोपित कारण मात्र कहने के कारण हैं, उनसे कार्य निष्पन्न नहीं होता। उनकी कार्य के निकट सन्नधि मात्र होती है। जिनवाणी में कारणों की मीमांसा निमित्त व उपादान के रूप में की गई है। __पदार्थ की निज सहज शक्ति या मूल स्वभाव उपादान कारण है इसके तीन भेद होते हैं - १. त्रिकाली ध्रुव उपादान कारण २. अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती-पर्याय युक्त द्रव्य एवं ३. तत्समय की योग्यता रूप क्षणिक उपादान । यह तीसरा कारण स्वयं कारण भी है और कार्य भी। ये कारण स्वयं कार्य के अनुरूप परिणमन करते हैं। ___कार्य की उत्पत्ति के समय पर पदार्थों का जो परिणमन कार्य के अनुकूल होता है, उसे निमित्त कारण कहा जाता है। निमित्त कारण कार्योत्पत्ति में कुछ करते नहीं है। अत: इन्हें यथार्थ कारण नहीं माना जाता। आगम में इन्हें उपचरित या आरोपित कारण कहा जाता है। उदासीन व प्रेरक आदि सभी प्रकार के निमित्तकारण कार्योत्पत्ति में अकिंचित्कर ही हैं। ____ यहाँ कोई कह सकता है कि जब कोई भी निमित्त परद्रव्य या उसके परिणमन का किंचित् भी कर्ता नहीं है - सर्वथा अकिंचित्कर हैं तो फिर लोक इन्हें कर्ता क्यों कहता है ? कहता ही नहीं, मानता भी है। लोक को इनमें कर्त्तापने का भ्रम कहाँ से, क्यों और कैसे उत्पन्न होता है ? १. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन : भक्तामर रहस्य की प्रभावना, पृष्ठ-३६ २. अगरचन्द नाहटा (श्रमण, सितम्बर १९७०)

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