Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ ऐसे क्या पाप किए ! निमित्तों में कर्त्तापने के भ्रम का मूल कारण यह है कि कार्योत्पत्ति के समय निमित्तों की अनिवार्यरूप से उपस्थिति-सन्नधि या सन्निकटता नियम से देखी जाती है। जब कोई कार्य होगा तो उसके निकट अनुकूल निमित्त अवश्य होंगे ही। अतः बार-बार ऐसा भ्रम हो जाता है कि ये संयोगी परपदार्थ भी सहायकरूप से कार्य के कर्त्ता अवश्य होने चाहिए, अन्यथा इनकी उपस्थिति का क्या औचित्य है ? ८० परन्तु वह उस समय इस बात को भूल जाता है कि कर्त्ता की परिभाषा तो आचार्यों ने यह कही है कि - "यः परिणमति सः कर्त्ता" अर्थात् जो स्वयं कार्यरूप परिणमन करता है, वह उस कार्य का कर्त्ता होता है। उपादान ही स्वयं कार्यरूप परिणमता है अतः वही वस्तुतः कार्य का कर्त्ता है। कार्य के अनुकूल संयोगी परपदार्थों की कार्योत्पत्ति के समय अनिवार्यरूप से उपस्थिति होने से एवं कार्य के अनुकूल होने से उन्हें कारण संज्ञा प्राप्त तो है, किन्तु वे कार्य के अनुरूप स्वयं परिणमन नहीं करते अतः वस्तुतः वे कर्त्ता नहीं हो सकते। जैसे- घटरूप कार्य में मिट्टी ने ही स्वयं घटरूप परिणमन किया है, अतः कर्त्ता की उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार घट की कर्त्ता मिट्टी ही है, कुम्हार घट का कर्त्ता नहीं। हाँ, अनुकूल होने से कुम्हार, चक्र चीवर आदि को निमित्त कारण कहा जाता है। एक ही समय में वही वस्तु जो पर के लिए निमित्त है, स्व के लिए उपादान भी है। निमित्त व उपादान कोई पृथक्-पृथक् सत्ताधारी पदार्थ नहीं है। वही कुम्हार का राग जो घट में निमित्त मात्र है, घट बनाने की इच्छारूप कार्य का उपादान भी है; क्योंकि वह राग परिणमन स्वयं इच्छारूप परिणमा है। इसीप्रकार जीव अपने अज्ञान से सुख या दुःखरूप कार्य में स्वयं को निरभार परिणमता है अतः जीव ही अपने सुख-दुःख का कर्त्ता है, कर्म (41) जिनागम के आलोक में विश्व की कारण-कार्य व्यवस्था का उदय नहीं । अन्य माता-पिता, गुरुजन, स्त्री-पुत्र, मित्र या शत्रु तथा इन्द्रिय के विषयभूत पदार्थों ने भी स्वयं किसी के सुख या दुःखरूप परिमणन नहीं किया है। अतः ये सब भी किसी के सुख-दुःख के कर्त्ता - हर्त्ता नहीं हो सकते। इनसे सुख-दुःख मानना अज्ञान है और यही अज्ञान राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल है। राग-द्वेष का अभाव कर सुखी होना हो तो निमित्त-उपादान या वस्तु की कारण कार्य व्यवस्था को समझना ही होगा । सुखी होने का अन्य कोई उपाय नहीं है। यहाँ कोई कह सकता है कि जीवों में परस्पर उपकार देखा जाता है। माता-पिता, गुरुजन तथा देव-शास्त्र-गुरु, दयालु पुरुष, इष्टमित्र निरन्तर भलाई चाहते हैं, उपकार करते हैं, उसे न मानना क्या यह कृतघ्नता नहीं होगी? यद्यपि आपका यह कहना सच है कि मित्र - शत्रु आदि निमित्तों को उपकारी अनुपकारी मानने से राग-द्वेष की उत्पत्ति ही होती है, तथापि करें क्या ऐसा न मानने से तो सारा लोक व्यवहार ही बिगड़ जायगा और कृतज्ञता का भाव भी नहीं रह पायगा, इसका क्या होगा? यह कोई समस्या नहीं है। यदि हमें निमित्त उपादान, वस्तु की कारण- कार्य व्यवस्था तथा कर्त्ता कर्म का सही स्वरूप समझ में आ जाय, इनकी यथार्थ प्रतीति हो जाय तो हम समताभाव को प्राप्त कर सच्ची शान्ति व सुख तो प्राप्त करेंगे ही। साथ ही जबतक जगत में है, तबतक जगत का व्यवहार और कृतज्ञता का भाव और भी अच्छे रूप में आयेगा-ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। देखो! जिस तरह इष्ट मित्र या परिजनों के चिर-वियोग हो जाने पर सभी को पूर्ण विश्वास है कि दिवंगत जीव हमारे रोने-बिलखने से जीवित नहीं होगा। और रोना आर्तध्यानरूप खोटा परिणाम है, असाता कर्म के बंध का कारण है; तथापि रोना आता ही है तथा जिस कन्या की शादी करने में विवाह आयोजन और दहेज आदि खर्च में सर्वस्व लुटा दिया हो, दिन-रात एक कर दिया हो, सगाई होते ही निर्भर हो गया हो, उस कन्या की विदा के समय भी रोना आये

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142