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सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ
ऐसे क्या पाप किए ! तब त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या किसी आत्मा में सम्पूर्ण दोषों और आवरणों की सर्वथा हानि सम्भव है? इसके उत्तर में आचार्य समन्तभद्र आत्म मीमांसा के चतुर्थ श्लोक में कहते हैं कि किसी आत्मा में दोष (अज्ञान, राग, द्वेष और मोह) तथा आवरण (ज्ञानावरणादि कर्म) की पूर्ण हानि सम्भव है, क्योंकि दोष और आवरण की हानि में 'हीनाधिकयन्द्री' (अतिशय) देखी जाती है । अत: कोई ऐसा पुरुष भी होना चाहिए जिसमें दोष और आवरण की सम्पूर्ण हानि हो। जिसप्रकार सोने को अग्नि में तपाने पर उसमें विद्यमान अशुद्धता आदि दोष और मल की हानि होकर वह पूर्ण शुद्ध हो जाता है उसीप्रकार आत्मध्यानरूपी अग्नि के द्वारा द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी मल के नष्ट हो जाने पर आत्मा शुद्ध होकर उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य आदि स्वाभाविक गुण पूर्णरूप से प्रगट हो जाते हैं।
आत्मा में दोष और आवरण की पूर्ण हानि और सर्वज्ञता की सिद्धि होने पर यह प्रश्न होता है कि अमुक आत्मा में दोष आवरण की पूर्ण हानि हो गई यह कैसे समझा जाय? इसके उत्तर में आचार्य समन्तभद्र उसी आत्ममीमांसा के छठवें श्लोक में लिखते हैं कि “जिसके उपदिष्ट वचनों में युक्ति और शास्त्र से बाधा न आवे, समझो वह निर्दोष है। तथा अमुक का वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी है - यह प्रमाण की कसौटी पर कसने से जाना जा सकता है। स्पष्ट है कि भगवान् अरिहन्त परमेष्ठी के वचनों में युक्ति और शास्त्र से बाधा नहीं आती। इससे ज्ञात होता है कि वे निर्दोष हैं और जो पूर्ण निर्दोष होता है वह सर्वज्ञ होता ही है।
सर्वज्ञता जैनधर्म का प्राण है। आगम और अनुभव से तो उसकी सिद्धि होती ही है। आचार्य समन्तभद्र ने युक्ति से भी सर्वज्ञता को सिद्ध कर दिया है। साथ ही उनके परवर्ती अकलंक, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र और
अनन्तवीर्य आदि जितने भी दार्शनिक आचार्य हुए हैं उन्होंने भी दृढ़ता के साथ उसका समर्थन किया है।
सर्वज्ञ हैं और वह तीन लोक और त्रिकालीवर्ती समस्त ज्ञेयों को युगपत् जानता है यह उक्त कथन का सार है। वह वर्तमान और अतीत को पूरी तरह से जानता है और भविष्य को अनिश्चितरूप से जानता है ऐसा कथन करनेवालों ने वास्तव में सर्वज्ञ को ही स्वीकार नहीं किया। और जो सर्वज्ञ को स्वीकार नहीं करता वह अपने आत्मा के अस्तित्व को कैसे स्वीकार कर सकता है? नहीं कर सकता । अतः यदि हमें धर्म करना है तो सर्वज्ञ के स्वरूप और सत्ता को जानकर स्वीकार करना हमारी नियति है अन्यथा धर्म का प्रारंभ ही नहीं होगा।
सर्वज्ञता से क्रमबद्ध पर्याय का अत्यन्त घना सम्बन्ध है अतः क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप भी जानना ही होगा। । यद्यपि 'क्रमबद्धपर्याय' स्वतः संचालित अनादि-निधन सुव्यवस्थित विश्व-व्यवस्था का एक ऐसा सैद्धान्तिक नाम है; जो अनन्तानन्त सर्वज्ञ भगवन्तों के ज्ञान में तो अनादि से है ही, उनकी दिव्यध्वनि से उद्भूत द्वादशांग वाणी में भी सर्वत्र विद्यमान है। इसे चारों अनुयोगों में सर्वत्र देखा, खोजा जा सकता है। बस, देखने के लिए निष्पक्ष शोधपरक दृष्टि चाहिए।
गुरुदेवश्री कानजी स्वामी के शब्दों में यदि कहा जाए तो बापू! वादविवाद से पार पड़े, यह ऐसी वस्तु नहीं है। इसे समझने के लिए तो निष्पक्ष शोध-खोज परक दृष्टि की जरूरत है।
जैनदर्शन के इस मूलभूत सिद्धान्त पर हम मूल दिगम्बरों का सदियों से ध्यान ही नहीं था, जबकि यह जैनदर्शन का प्राण है; इसके बिना जैनदर्शन के अस्तित्व की कल्पना भी सम्भव नहीं है और सर्वज्ञता इसका ठोस आधार है। जनसाधारण की तो बात ही क्या कहें? न्यायशास्त्रों के विशेषज्ञों और उनमें भी सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण के अध्ययन/अध्यापन में
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