Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ ६० ऐसे क्या पाप किए ! तीनों कालों की पर्यायों का ग्रहण हो जाता है तथा ज्ञान का स्वभाव जानना है, इसलिए वह विवक्षित द्रव्य को जानता हुआ उसकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को जान सकता है। जैसे दीपक स्वक्षेत्र में स्थित होकर भी क्षेत्रान्तर में स्थित पदार्थों को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी भिन्न क्षेत्र में स्थित पदार्थों को जानता है। अमृतचन्द्र आचार्य देव ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में मंगलाचरण हुए लिखा है कि - "वह परम ज्योति (केवलज्ञान) जयवन्त होओ, जिसमें दर्पणतल के समान समस्त पदार्थमालिका प्रतिभासित होती है। जैसे क्षेत्रान्तर में स्थित घटादि पदार्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं वैसे ही क्षेत्रान्तर में स्थित घटादि पदार्थ ज्ञान के विषय होते हैं। अतएव जो ज्ञान क्रम और आवरण से रहित हो वह तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत जानता है। ज्ञान के दो प्रकार हैं- ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार। प्रत्येक ज्ञान जो ज्ञेयाकार परिणमित होता है उसकी अपेक्षा को गौण कर ज्ञान को मात्र सामान्यरूप से देखने पर वह ज्ञानाकार प्रतीत होता है । ज्ञेयाकाररूप परिणमन की दृष्टि से देखने पर वह ज्ञेयाकार प्रतीत होता है। इससे सिद्ध होता है कि केवलज्ञान का जो प्रत्येक समय में परिणमन है वह तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयाकाररूप ही होता है। केवलज्ञान तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत जानता है। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि जिसने पूरी तरह से अपने आत्मा को जान लिया उसने सबको जान लिया। उसी को दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है जिसने सबको पूरी तरह से जान लिया उसने अपने आत्मा को पूरी तरह से जान लिया। जानना ज्ञान की परिणति है और वह परिणति ज्ञेयाकाररूप होती है, इसलिए अपने आत्मा के जानने में सबका जानना या सबके जानने में (31) सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ ६१ अपने आत्मा का जानना आ ही जाता है। इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि सर्वज्ञ जानता तो सबको है पर वह तन्मय होकर नहीं जानता । उदाहरणार्थ एक ऐसे दर्पण को लीजिए जिसमें अग्नि की ज्वाला प्रतिबिम्बित हो रही है। आप देखेंगे कि ज्वाला उष्ण है, परन्तु दर्पणगत प्रतिबिम्ब उष्ण नहीं होता । ठीक यही स्वभाव ज्ञान का है। ज्ञान में ज्ञेय प्रतिभासित तो होते हैं, पर ज्ञेयों से तन्मय न होने के कारण ज्ञान मात्र उन्हें जानता है, उनसे तन्मय नहीं होता। स्वामी समन्तभद्र ने केवलज्ञान की इस महिमा को जानकर सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए आप्तमीमांसा लिखा है - सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ ५ ॥ सूक्ष्म (परमाणु आदि) अन्तरित (राम, रावणादि) और दूरवर्ती (सुमेरु आदि) पदार्थ किसी पुरुष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि वे अनुमान के विषय हैं। जो अनुमेय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं। जैसे पर्वत में अग्नि को हम अनुमान से जानते हैं, किन्तु वह अग्नि अनुमान के विषय अर्थात् किसी के प्रत्यक्ष भी है। इससे सिद्ध होता है कि जो पदार्थ किसी के अनुमान के विषय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं। चूँकि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ अनुमेय हैं। अतः वे किसी के प्रत्यक्ष भी है और जिसके वे प्रत्यक्ष हैं वही सर्वज्ञ है। इस प्रकार उक्त अनुमान प्रमाण के बल से सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाने पर भी यह विचारणीय हो जाता है कि सर्वज्ञ कौन हो सकता है? इसका समाधान करते हुए स्वामी समन्तभद्र ने बतलाया है कि जिसके ज्ञानावरणादि कर्म दूर हो गये हैं वह निर्दोष और निरावरण होने से सर्वज्ञ है, क्योंकि प्रत्येक जीव केवलज्ञानस्वभाव है, फिर भी संसारी जीव के अनादि काल से अज्ञानादि दोष और ज्ञानावरणादि कर्मों का सद्भाव पाया जाता है; किन्तु जब अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के मलों का क्षय हो जाता है

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