Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ ४६ ऐसे क्या पाप किए ! है। ज्ञानी के तो एकमात्र कषायरहित, शुभाशुभभावरहित अपने त्रिकाली ज्ञायकस्वभाव की व वीतरागभावरूप धर्म की भावना होती है। पुण्य और धर्म - ये दोनों भिन्न-भिन्न वस्तुयें हैं। इन दोनों के अन्तर को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं - (१) धर्म तो आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होता है, और शुभभाव रूप पुण्य परिणाम ‘पर' के आश्रय से होता है, देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति से, तथा दया, दान और अहिंसक सदाचारी जीवन जीने से होता है। (२) धर्म आत्मा का शुद्धभाव है, और पुण्य अशुद्धभाव है। (३) धर्म का फल मोक्ष है और पुण्य का फल संसार है । (४) धर्म आत्मा की निर्दोष, निर्विकारी एवं निर्मल पर्याय हैं और पुण्य सदोष, विकारी पर्याय है। (५) धर्म से आत्मा को सच्चे सुख की प्राप्ति होती है, और पुण्य से आकुलताजनक, नाशवान, क्षणिक, अनुकूल संयोग मिलते हैं, जो वियोग होने पर महादुःख के कारण बनते हैं । (६) धर्म वीतरागभाव और पुण्य रागभाव है। (७) पुण्य तो यह जीव अनादिकाल से करता आ रहा है, किन्तु धर्म अनादिकाल से आजतक एकसमय मात्र को भी नहीं किया। (८) पुण्य से बाह्य जड़ लक्ष्मी (धूल) मिलती है, जबकि धर्म से अन्तरंग केवल ज्ञान लक्ष्मी प्रकट होती है। (९) पुण्य तो विभाव है, उससे संसार परिभ्रमण नहीं मिटता धर्म आत्मानुभूति स्वरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप है, उसे मोक्षमार्ग कहो, संवर कहो, धर्म कहो, रत्नत्रय कहो अथवा आत्मशान्ति का उपाय कहो - सब एक ही बात है। धर्म कहीं बाहर से नहीं आता, आत्मा का धर्म आत्मा में से ही प्रगट होता है। आगम में नवतत्त्व कहे हैं। उनमें संवर और निर्जरा तत्त्वों में धर्म का समावेश होता है, किन्तु अज्ञानी जन पुण्य (आस्रव-बंध) से धर्म मानते हैं। वे पुण्य तत्त्व व संवरनिर्जरा तत्त्वों को एकमेक करते हैं, मिलाते हैं । (24) पुण्य और धर्म में मौलिक अन्तर ऐसे लोग वास्तव में नवतत्त्वों को ही नहीं समझे हैं; अतः जो धर्म करना चाहते हैं, सुखी होना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम इन नवतत्त्वों को यथार्थ समझकर पुण्य और धर्म का रहस्य एवं अन्तर समझना ही होगा। इस पुण्य व धर्म के रहस्य को जानकर पहिचान कर आस्रव को आस्रव एवं संवर को संवर के रूप में श्रद्धान करने से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । सप्त तत्वों के यथार्थ श्रद्धान बिना व्यवहार सम्यग्दर्शन भी नहीं होता है, अतः पुण्य-पाप का यथार्थ ज्ञान होना अति आवश्यक है। इस संदर्भ में बनारसीदास के समयसार नाटक का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है, वे कहते हैं - मोक्षमार्ग में शुद्धोपयोगरूप धर्म ही उपादेय हैं। सील तप संजम विरति दान पूजादिक, अथवा असंजम कषाय विषैभोग है। कोऊ सुभरूप कोऊ अशुभ स्वरूप मूल, वस्तु के विचारत दुविध कर्मरोग है ।। ऐसी बंधपद्धति बखानी वीतराग देव, आतम धरम मैं करम त्याग-जोग है। भौ - जल- तरैया राग-द्वेषकौ हरैया, ४७ महा मोखको करैया एक सुद्ध उपयोग है ।। ७ ।। ब्रह्मचर्य, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय, विषय-भोग आदि में कोई शुभ और कोई अशुभ हैं, यदि आत्मस्वभावरूप धर्म की दृष्टि से देखें तो दोनों ही कर्मरूपी रोग हैं। भगवान वीतरागदेव ने दोनों को बंध की परिपाटी बतलाया है, आत्मस्वभाव की प्राप्ति में दोनों त्याज्य हैं। एक शुद्धोपयोग रूप धर्म ही संसार - समुद्र से तारनेवाला, राग-द्वेष नष्ट करनेवाला और परमपद का देने वाला है। यहाँ ज्ञातव्य है कि राग-द्वेष-रहित वीतरागता ही धर्म है। शिष्य प्रश्न करता है, गुरु उसके प्रश्नों का समाधान करते हैं - शिष्य कहै स्वामी तुम करनी असुभ-सुभ कीनी है निषेध मेरे संसै मन मांही है।

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