Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू पच्छाणुतावे य तवप्पभावं । एवं वियारे अमियप्पयारे आवजई इंदियचोरवस्से ॥(३२/१०४) ज्ञानावरण और दर्शनावरण का क्षायोपशमिक भाव-इन्द्रियां जब रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति में लिप्त होती हैं तब मनुष्य के धर्मरूपी सर्वस्व को छीन लेती हैं, इस दृष्टि से चोर के प्रतीक के रूप में इन्द्रियों का साभिप्राय प्रयोग हुआ है। व्याकरण की दृष्टि से भी उत्तराध्ययन में अर्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट प्रयोग प्रयुक्त हुये है। यथा- आहंसु (२/४५), विगिंच (३/१३), एलिक्खं (७/२२), ताई (८/४), अहोत्था (२०/ १९), मन्नसी (२३/८०)। उत्तराध्ययन की काव्यभाषागत संरचना प्रकिया में शब्दचयन कवि के विशाल अनुभव सागर से निःसृत है। 'उत्तराध्ययनः शैलीवैज्ञानिक अध्ययन' के आधार पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत करना असंगत न होगा कि उत्तराध्ययन की काव्यभाषा एक ओर अपनी शब्दसम्पदा में पर्याप्त समृद्ध है तो दूसरी ओर रचनाकार के काव्यगत कथ्य को पाठक वर्ग तक संप्रेषित करने में हर तरह से समर्थ भी है। सहजता के साथ प्राञ्जलता कवि का काव्यगुण है। उत्तराध्ययन का प्रतिपाद्य विशद है। दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि में उत्तराध्ययन को भगवान महावीर की विचारधारा का प्रतिनिधि कहा जा सकता है इसकी महत्ता का प्रतिपादन इस पर लिखित विस्तृत व्याख्यासाहित्य से होता है। जितने व्याख्या-ग्रन्थ उत्तराध्ययन के हैं, उतने अन्य किसी आगम के नहीं हैं। उत्तराध्ययन के प्राप्त व्याख्या-ग्रन्थों में सर्वाधिक प्राचीन आचार्य भद्रबाहु कृत 'उत्तराध्ययननियुक्ति' है। जिनदास महत्तर कृत 'उत्तराध्ययन चूर्णि' भी प्राप्त है। उत्तराध्ययन पर वादिवैताल शांतिसूरी की संस्कृत भाषा में लिखी 'बृहवृत्ति' महत्त्वपूर्ण है। बृहद्वत्ति के आधार पर १२ वीं शताब्दी में नेमीचन्द्र सूरी ने 'सुखबोधा' टीका लिखी। विक्रम संवत् १६७९ में भावविजयजी ने उत्तराध्ययन पर सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी । इनके अतिरिक्त और भी व्याख्या ग्रन्थ प्राप्त हैं, जो प्रायः मुख्य व्याख्याग्रन्थों के उपजीवी हैं। उनका नाम, कर्ता और रचनाकाल नीचे दिया Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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