Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 6
________________ अपनी ओर से भाव, कल्पना, बुद्धि और शैली साहित्य के ये चार तत्त्व हैं। भाव साहित्य की आत्मा है। साहित्य का लक्ष्य केवल ज्ञानवृद्धि ही नहीं है अपितु पाठक के मन-मस्तिष्क को भावनाओं से सरोबार कर देना भी है। इसकी पूर्ति भावों के चित्रण से ही संभव है। भावों का चित्रण कल्पना शक्ति के अभाव में कठिन है। कवि-कल्पना के रंग से साधारण घटना भी अध्येता के हृदय को बलपूर्वक आकर्षित करती है, परोक्ष घटना भी प्रत्यक्ष में रूपायित हो जाती है। बुद्धि का सम्बन्ध तथ्य, विचार, सिद्धान्त से है। अतः बुद्धिशून्य कल्पना ज्यादा कारगर नहीं होती है। साहित्यकार जिस भाषा और ढंग से अपने विचारों की प्रस्तुति करता है, वही उसकी शैली है। शैली शब्दचयन, साहित्य के तत्त्वों आदि को अपने में समेटे हुए रहती है। इस दृष्टि से यदि भाव, कल्पना और बुद्धि साहित्य के प्राण हैं तो शैली उसका शरीर है। भाव, कल्पना, बुद्धि, और शैली-इन चारों का समाहार उत्तराध्ययन में देखने को मिलता है। ये उत्तरज्झयणाणि के पाठक को अध्यात्म की अनुभूतियों के प्रकाश से प्रकाशित तो करती ही है, पाठक में गंभीर अध्ययन की प्रेरणा का स्फुरण भी करती है। उत्तराध्ययन जीवनमूल्यों की आधारशिला है। धर्मकथानुयोग के अंतर्गत परिगणित उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों में धार्मिक, दार्शनिक तथ्यों के साथ काव्य-शास्त्रीय तत्त्वों का समायोजन भी सहजतया हुआ है। कहीं कथाओं के माध्यम से तो कहीं प्रश्नोत्तर के माध्यम से यथार्थ तक पहुंचने का रास्ता बताया गया है। जीवन रूपी अरण्य में भ्रमण करते हुए व्यक्ति के लिए उत्तराध्ययन की गाथाएं प्रकाश स्तम्भ स्वरूप हैं 'समयं गोयम ! मा पमायए' (१०/१) 'सव्वं विलवियं.....' (१३/१६) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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