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दुमपुफिया ( द्रुमपुष्पिका)
अध्ययन १: श्लोक ५ टि०२१-२३ उपमा की भाषा में -जैसे द्रुम स्वभावतः पुष्प और फल उत्पन्न करते हैं वैसे ही नागरिकों के गृहों में स्वभावत: आहार आदि निष्पन्न होते रहते हैं। जैसे भ्रमर अदत्त नहीं लेते वैसे मुनि भी अदत्त नहीं लेते । जैसे भ्रमर स्वभाव-प्रफुल्ल, प्रकृति-विकसित कुसुम से रस लेते हैं, वैसे ही श्रमण यथाकृत आहार लेते हैं ।
तृण के लिए वर्षा नहीं होती, हरिण के लिए तृण नहीं बढ़ते, मधुकर के लिए पेड़-पौधे पुष्पित नहीं होते। बहुत से ऐसे भी उद्यान हैं जहाँ मधुकर नहीं हैं, वहाँ भी पेड़-पौधे पुष्पित होते हैं। पुष्पित होना उनकी प्रकृति है।
गृहस्थ श्रमणों के लिए भोजन नहीं पकाता । बहुत सारे गाँव और नगर ऐसे हैं जहाँ श्रमण नहीं जाते । भोजन वहाँ भी पकता है। भोजन पकाना गृहस्थ की प्रकृति है। थमण ऐसे यथाकृत- सहज-सिद्ध भोजन की गवेषणा करते हैं, इसलिए वे हिंसा से लिप्त नहीं होते।
श्लोक ५: २१. अनिश्रित हैं ( अपिस्सिया ख ) :
मधुकर किसी एक फूल पर आश्रित नहीं होता । वह भिन्न-भिन्न फूलों से रस पीता है, कभी किसी पर जाता है और कभी किसी पर । उसकी वृत्ति अनियत होती है । श्रमण भी इसी तरह अनिश्रित हो । वह किसी एक पर निर्भर न हो । वह अप्रतिबद्ध हो । २२. नाना पिंड में रत हैं ( नाणापिण्डरयाग ) :
इसका अर्थ है, साधु-- (१) अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे ।
(२) कहाँ, किमसे, किस प्रकार से अथवा कैसा भोजन मिले तो ले, इस तरह के अनेक अभिग्रहपूर्वक अथवा भिक्षाटन की नाना विधियों से भ्रमण करता हुआ ले ।
(३) विविध प्रकार का नीरस आहार ले।
जो भिक्षु इस तरह किसी एक मनुष्य या घर पर आश्रित नहीं होता तथा आहार की गवेषणा में नाना प्रकार के वृत्तिसंक्षेप से काम लेता है वह हिंसा से सम्पूर्णतः बच जाता है और सच्चे अर्थ में साधुत्व को सिद्ध करता है। २३. दान्त हैं (दंता" ):
साधु के गुणों का उल्लेख करते हुए 'दान्त' शब्द का प्रयोग सूत्रों में अनेक स्थलों पर हुआ है । 'उत्तराध्ययन' में आठ 'सूत्रकृतांग' में नौ और प्रस्तुत सूत्र में यह शब्द सात बार व्यवहृत हुआ है । साधु दान्त हो, यह भगवान् को अत्यन्त अभीष्ट था। शीलांकाचार्य ने 'दान्त' शब्द का अर्थ किया है-इन्द्रियों को दमन करनेवाला । पूणिकार भी यही अर्थ करते हैं। सूत्र के अनुसार 'दान्त' शब्द का अर्थ है-संयम और तप से आत्मा को दमन करनेवाला। जो दूसरों के द्वारा वध और बन्धन से दमित किया जाता है, वह द्रव्य-दान्त होता है, भाव-दान्त नहीं । भाव-दान्त वह साधु है जो आत्मा से आत्मा का दमन करता है।
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१--नि० गा० १२७ : जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा। जह भमरा तह मुणिणो नवरि अदत्तं न भुति । २-नि० गा० १२८ : कुसुमे सहावफुल्ले आहारन्ति भमरा जह तहा उ.। भत्तं सहावसिद्ध समणसुविहिया गवेसंति ॥ ३ - नि० गा० ६६ : वासइ न तणस्स कए न तण वडढइ कए मयकुलाण । न य रूक्खा सयसाला फुल्लति कए महुयराण ॥ ४--नि० गा० १०६ : अस्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ न उति न वसति। तत्थावि पुष्फंति दुमा पगई एसा दुमगणाण ॥ ५-नि० गा० ११३ : अत्थि बहुगामनगरा समणा जत्थ न उति न वसंति। तत्थवि रंधति गिही पगई एसा गिहत्थाणं ॥ ६-नि० गा० १२६ : उवसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजीवित्ति । ७-जि०चू० पृ०६८: अणिस्सिया नाम अपडिबद्धा। --सू० २.२.२४ । —(क) जि० चू० पृ०६६ : णाणापिण्डरया णाम उक्खित्तचरगादी पिंडस्स अभिग्गहविसेसेण णाणाविधेसु रता, अहवा अंतपंता
ईसु नाणाविहेसु भोयणेसु रता, ण तेस् अरइ करति । भणितं च -
जं व तं च आसिय जत्थ व तत्थ व सुहोवगतनिद्दा । जेण व तेण संतुट्ठ धीर ! मुणिओ तुमे अप्पा॥ (ख) नि० गा० १२६; हा० टी०प० ७३: नाना - अनेकप्रकारोऽभिग्रह विशेषात्प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच्च पिंड --आहारपिण्डः,
नाना चासो पिडश्व नानापिण्ड :, अन्तप्रान्तादिर्वा, तस्मिन् रता-अनुढेगवन्तः । १०-सू०१६.१ टी० पृ० ५५५ : दान्त इन्द्रियदमनेन । ११-उत्त०१:१६ : वरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य । माहं परेहि दम्मतो बंधणेहि वहेहि य॥
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