Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 469
________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४१८ अध्ययन ८ : श्लोक ५७-५८ टि० १६०-१६४ १६०. तालपुट-विष ( विसं तालउडं घ )। तालपुट अर्थात् ताल (हथेली) संपुटित हो उतने समय में भक्षण करने वाले को मार डालने वाला विष-तत्काल प्राणनाशक विष । जिस प्रकार जीविताकाङ्क्षी के लिए तालपुट विष का भक्षण हितकर नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मचारी के लिए विभूषा आदि हितकर नहीं होते। श्लोक ५७: १६१. अङ्ग, प्रत्यङ्ग, संस्थान ( अंगपच्चंगसंठाणं क): हाथ-पैर आदि शरीर के मुख्य अवयव 'अङ्ग' और आँख, दांत आदि शरीर के गौण अवयव 'प्रत्यङ्ग' कहलाते हैं । चूर्णिद्वय में संस्थान स्वतंत्र रूप में और अङ्ग-प्रत्यङ्गों से सम्बन्धित रूप में भी व्याख्यात हैं, जैसे-(१) अङ्ग, प्रत्यङ्ग और संस्थान, (२) अङ्ग और प्रत्यङ्गों के संस्थान । संस्थान अर्थात् शरीर की आकृति, शरीर का रूप । १६२ कटाक्ष (पेहियं ख): प्रेक्षित अर्थात् अपाङ्ग-दर्शन-कटाक्ष । श्लोक ५८: १६३ परिणमन को ( परिणाम घ): परिणाम का अर्थ है वर्तमान पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय में जाना, अवस्थान्तरित होना । शब्द आदि इन्द्रियों के विषय मनोज्ञ और अमनोज्ञ होते रहते हैं । जो मनोज्ञ होते हैं वे विशेष मनोज्ञ या अमनोज्ञ हो जाते हैं और जो अमनोज्ञ होते हैं वे विशेष अमनोज्ञ या मनोज्ञ हो जाते हैं। इसीलिए उनके अनित्य-स्वरूप के चिन्तन का उपदेश दिया गया है। १६४. राग-भाव न करे ( पेमं नाभिनिवेसएख): प्रेम और राग एकार्थक हैं। जिस प्रकार मुनि मनोज्ञ विषयों में राग न करे, उसी प्रकार अमनोज्ञ विषयों से द्वेष भी न करे। १-(क) जि० चू०प० २९२ : तालपुडं नाम जेणंतरेण ताला संपुडिज्जति तेणंतरेण मारयतीति तालपडं, जहा जीवियकंखिणो नो तालपुडविसभक्खणं सुहावहं भवति तहा धम्मकामिणो नो विभूसाईणि सुहावहाणि भवंतित्ति। (ख) हा० टी० प० २३७ : तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितम् । २-(क) अ० चू०१०१६६ : अंगाणि हत्थापीणं, पच्चंगाणि णयणदंसणादीणि, संठाणं समचतुरंसादिसरीररुवं । अहवा अंगपच्चंगाणि संठाणं अंगपच्चंगसंठाणं । (ख) जि० चू०प० २९२ : अंगाणि हत्थपायादीणि, पच्चंगाणि णयणदसणाईणि, संठाणं समचउरसाई. अहवा तेसि चेव अंगाणं पच्चंगाण य संठाणगहणं कयंति । (ग) हा० टी०प० २३७ : अङ्गानि-शिरः प्रभृतीनि प्रत्यङ्गानि-नयनादीनि एतेषां संस्थानं-विन्यासविशेषम् । ३–अ० चू० पृ० १९६ : पेहितं सावंग णिरिक्खणं । ४-(क) जि. चू०प० २६२-२६३ : ते चेव सुबिभसद्दा पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा पोग्गला सुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, ण पुण जे मणुन्ना ते मणुन्ना चेव भवंति, अमणुन्ना वा अच्चतमणुन्ना एव भवंति, एवं रूवादिसुवि भाणियन्वं । (ख) हा० टी०प० २३७ : 'परिणाम' पर्यायान्तरापत्तिलक्षणं, ते हि मनोज्ञा अपि सन्तो विषयाः क्षणादमनोज्ञतया परिणमन्ति अमनोज्ञा अपि मनोज्ञतया। ५-(क) जि० चू० पृ० २६२ : पेमं नाम पेमंति वा रागोत्ति वा एगठ्ठा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं अमणुन्नेसुवि दोसं न गच्छेज्जा। (ख) हा० टी०प०२३७ : 'प्रेम' रागम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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