Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 566
________________ रइवक्का (रतिवाक्या) ५१५ प्रथम चूलिका : श्लोक १२-१३ टि० २१-२८ २२. बहुश्रुत (बहुस्सुओ ख): बहुश्रुत का अर्थ है--द्वादशाङ्गी (गणिपिटक) का जानकार' या बहुआगमवेत्ता । २३. होता ( हुँतों क ): _ 'अभविष्यत्' और 'भवन' इन दोनों के स्थान में 'हुंतो' रूप बनता है। अनुवाद में 'अभविष्यत्' का अर्थ ग्रहण किया है । 'भवन' के अनुसार इसका अनुवाद इस प्रकार होगा-आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी होऊँ, यदि जिनोपदिष्ट श्रमण पर्याय –चरित्र में रमण करूँ। श्लोक १२: २४. चारित्र-रूपी श्री से ( सिरिओ क ): जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ श्रामण्यरूपी लक्ष्मी या शोभा और हरिभद्रसूरि ने तप रूपी लक्ष्मी किया है। २५. निस्तेज ( अप्पतेयं ख ): इसमें अल्प शब्द अभाववाची है । अल्पतेज अर्थात् निस्तेज । समिधा, चर्बी, रुधिर, मधु, घृत आदि से हुत अग्नि जैसे दीप्त होती है और हवन के अन्त में बुझकर वह निस्तेज हो जाती है, वैसे ही श्रमण-धर्म की श्री को त्यागने वाला मुनि निस्तेज हो जाता है । २६. दुविहित साधु की (दुविहियंग ): जिसका आचरण या विधि-विधान दुष्ट होता है, उसे दुविहित कहा जाता है। सामाचारी का विधिवत् पालन करने वाले भिक्षुओं के लिए सुविहित और उसका विधिवत् पालन न करने वालों के लिए दुविहित शब्द का प्रयोग होता है । २७. निन्दा करते हैं (हीलंति"): चूर्णिद्वय के अनुसार 'होल्' धातु का अर्थ लज्जित करना है और यह नामधातु है । टीका में इसका अर्थ कदर्थना करना किया है। श्लोक १३: २८. चरित्र को खण्डित करने वाला साधु ( संभिन्नवित्तस्स घ ) : वत्त का अर्थ शील या चारित्र है । जिसका शील संभिन्न-खण्डित हो जाता है, उसे संभिन्न-वृत्त कहा जाता है। १-जि० चू०प०३६१ : 'बहुस्सुओ'त्ति जइ ण ओहावंतो तो दुवालसंगगणिपिडगाहिज्जणेण अज्ज बहस्सुओ। २-हा० टी० प० २७६ : 'बहुश्रुत' उभयलोकहितबह्वागमयुक्तः । ३-हैम० ८.३.१८०,१८१ । ४-(क) जि० चू०प० ३६३ : सिरी लच्छी सोभा वा, सा पुण जा समणभावाणुरूवा सामण्णसिरी। (ख) हा. टी. प० २७६ : 'श्रियोऽपेतं' तपोलक्ष्म्या अपगतम् । ५-हा० टी० ५० २७६ : अल्पशब्दोभावे, तेजःशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः । -अ०० : जधामघमहेसुसमिधासमुदायवसारुहिरमहुघतादीहि हूयमाणो अग्गी सभावदित्तीओ अधिगं दिप्पति हवणावसाणे परि विज्झाण मुम्मुरंगारावत्थो भवति । ७.-(क) अ० चू० : विहितो उप्पादितो, दुठ्ठ विधितो-दुविहितो। (ख) हा० टी० प० २७६ : 'दुविहितम' उन्निष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनम् । -(क) अ० चू० : ह्री इति लज्जा, मुपणयंति होलेति, यदुक्तम्-हपयंति । (ख) जि० चू० पृ० ३६३ : ही इति लज्जा, लज्ज वयंति हीलंति-ह पयंति । -हा०टी०प०२७६ : 'हीलयन्ति' कवर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पङ्क्त्यपसारणादिना । १०-(क) अ० चू० : वृत्तं शीलं । (ख) हा० टी० प० २७७ : 'संभिन्नवृत्तस्य च' अखण्डनीयखण्डितचारित्रस्य च । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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