Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 622
________________ सूक्त और सुभाषित धम्मो मंगलमुक्किट्ठ । (११) धर्म सबसे बड़ा मंगल है। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो। (१११) उसे देवता भी वन्दना करते हैं, जिसका मन धर्म में रमता है। कहं न कुज्जा सामण्ण जो कामे न निवारए । (२११) वह क्या श्रमण होगा जो कामनाओं को नहीं छोड़ता ? वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजन्ति न से चाइ त्ति वुच्चइ ।। (२।२) जो वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियों और पलंगों का परवश होने से (या उनके अभाव में) सेवन नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता । जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिढिकुव्वई । साहीणे चयइ भोए से हु चाइ ति वुच्चइ ।। (२१३) त्यागी वह कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है। न सा महं नोवि अहं पि तीसे । इच्चेव ताओ विणएज्ज राग ।।२।४) __'वह मेरी नहीं है, मैं उसका नहीं हूं'-- इसका आलम्बन ले राग का निवारण करे। आयावयाही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं । एवं सुही होहिसि संपराए ।। (२१५) अपने को तपा । सुकुमारता का त्याग कर। काम-विषयवासना का अतिकम कर। इससे दुःख अपने-आप कान्त होगा। (संयम के प्रति) द्वेग-भाव को छिन्न कर। (विषयों के प्रति) राग-भाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में सुखी होगा। वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे । (२७) वमन पीने की अपेक्षा मरना अच्छा है। कहं चरे कहं चिट्ठे कहमासे कहं सए। कई भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ ॥ (४७) कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए ? कैसे बोले ? जिससे पाप-कर्म का बन्ध न हो। जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्म न बंधई ॥ (४८) यतनापूर्वक चलने, यतनापूर्वक खड़ा होने, यतनापूर्वक बैठने, यतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक खाने और यतनापूर्वक बोलने वाला पाप-कर्म का बन्धन नहीं करता। सव्व भूय पभूयस्स सम्म भूयाइ पासओ। विहिपासबस्स दंतस्स पावं कम्मं न बधई (॥४६) जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक्-दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है, उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। पढमं नाणं तओ दया। (४।१०) आचरण से पहले जानो। पहले ज्ञान है फिर दया। अन्नाणी कि काही किं वा नाहिइ छेय पावगं । (४।१०) अज्ञानी क्या करेगा जो श्रेय और पाप को भी नहीं जानता? सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणई सोच्चा जं छेयं तं समायरे ।। (४।११) जीव सुन कर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं। वह उनमें जो श्रेय है, उसी का आचरण करे। जो जीवे विन याणाइ अजीवे बिन याणई। जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहिद संजमं ।। (४।१२) जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, वह जीव और अजीब को न जानने वाला, संयम को कैसे जानेगा? जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई । जीवाजीवे बियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥ (४।१३) ___जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है, वही जीव और अजीव दोनों को जानने वाला, संयम को जान सकेगा। वच्चमुत्तं न धारए । (५।१।१६) मल-मूत्र का वेग मत रोको। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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