Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 624
________________ परिशिष्ट-३ : सूक्त और सुभाषित ५७३ जान या अजान में कोई अधर्म-कार्य कर बैठो तो अपनी चित, बाचालता-रहित और भय रहित भाषा बोले । आत्मा को उससे तुरन्त हटा लो, फिर दूसरी बार वह कार्य मत आयारपन्नत्तिधरं दिट्ठिवायमहिज्जगं। करो। वइविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी ।। (८।४६) अणायारं परक्कम्म । ____ आचारांग और प्रज्ञप्ति को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद नेव गूहे न निण्हवे । (८।३२) को पढ़ने वाला मुनि बोलने में स्खलित हुआ है (उसने वचन, अपने पाप को मत छिपाओ। लिंग और वर्ण का विपर्यास किया है) यह जानकर भी मुनि जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्डई। उसका उपहास न करे। जाविदिया न हायंति ताद धम्मं समायरे ॥ (८।३५) गिहिसंथवं न कुज्जा । (८१५२) जब तक जरा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ गृहस्थ से परिचय मत करो। क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करे । कुज्जा साहू हि संथवं । (८।५२) कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववडणं । भलों की संगत करो। वमे सारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो । (८।३६) हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णनास विगप्पियं । क्रोध, मान, माया और लोभ --ये पाप को बढ़ाने वाले हैं। अवि वाससई नारि बंभयारी विवज्जए।। (८।५५) आत्मा का हित चाहने वाला इन चारों दोषों को छोड़े। जिसके ह.थ-पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो कोहो पीई पणासेइ माणो विणयनासणो । वैसी सौ वर्ष की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। माया मित्ताणि नासेइ लोहो सध्वविणासणो॥ (८।३७) न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए। (६।१६) क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने बड़ों की अवज्ञा करने वाला मुक्ति नहीं पाता। वाला है, माया मित्रों का विनाश करती है और लोभ सब जस्संतए धम्मपयाइ सिक्खे (प्रीति, बिनय और मंत्री) का नाश करने वाला है। तस्संतिए वेण इयं पउंजे । उबसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे ॥ (३८) कायग्गिरा भो मणसा य निच्च ॥ (३।१।१२) ___ उपशम से क्रोध का हनन करो, मृदुता से मान को जीतो, जिसके समीप धर्मपदों की शिक्षा लेता है उसके समीप ऋजुभाव से माया को जीतो और सन्तोष से लोभ को जीतो। विनय का प्रयोग करे। शिर को झुकाकर, हाथों को जोड़कर, राइणिएसु विणयं पउंजे। (८१४०) (पंचांग वन्दन कर) काया, वाणी और मन से सदा सत्कार बड़ों का सम्मान करो। करे। निदं च न बहुमन्नेज्जा । (८।४१) लज्जा दया संयम बंभचेरं । नींद को बहुमान मत दो। कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं ।। (३।१।१३) बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा । (८१४३) विशोधी के चार स्थान हैं-लज्जा, दया, संयम और बहुश्रुत की उपासना करो। ब्रह्मचर्य । अपुच्छिओ न भासेज्जा सुस्सूसए आयरियप्पमत्तो। (६।१।१७) भासमाणस्स अंतरा ।। (८।४६) आचार्य की सुश्रूषा करो। बिना पूछे मत बोलो, बीच में मत बोलो। धम्मस्स विणओ मूलं । (६।२।२) पिट्ठिमंसं न खाएज्जा । (८।४६) धर्म का मूल विनय है। चुगली मत करो। विवत्ती अविणीयस्त संपत्ती विणियस्स य । अप्पत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज्ज वा परो। जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ।।(९।२।२१) सव्वसो तं न भासेज्जा भास अहियगामिणि ॥ (८।४७) अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है-ये ___ जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा शीघ्र कुपित हो ऐसी दोनों जिसे ज्ञात हैं, वही शिक्षा को प्राप्त होता है । अहितकर भाषा सर्वथा न बोलो। असंविभागी नहुतस्स मोक्खो। (६।२।२२) विटु मियं असंदिद्ध पडिपुन्नं वियं जियं । संविभाग के बिना मुक्ति नहीं। अयंपिरमणुविग्गं भासं निसिर अत्तवं ॥ (१४८) आयारमट्ठा विणयं पउंजे । (९।३।२) आत्मवान् दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, व्यक्त, परि- चरित्र-विकास के लिये अनुशासित बनो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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