Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 623
________________ ५७२ दसवेआलियं (दशवकालिक) अहो जिणेहि असावज्जा वित्ती साहूण देसिया । अवि अप्पणो वि देहम्मि मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥ (३१०९२) नायरंति ममाइयं । (६।२१) कितना आश्चर्य है-जिनेश्वर भगवान ने साधुओं को मोक्ष- अपने शरीर के प्रति भी ममत्व मत रखो। साधना के हेतु-भूत संयमी शरीर की धारणा के लिये निरवद्य- सच्चा वि सा न वत्तवा वृत्ति का उपदेश किया है। जओ पावस्स आगमो (७.११) दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजीवी वि दुल्लहा । वैसा सत्य भी मत बोलो, जिससे पाप लगे, दूसरों का दिल दुःखे। मुहादाई मुहाजीबी दो वि गच्छंति सोग्गई। (५३१११००) बहवे इमे असाहू लोए वुच्चन्ति साहुणो। मुधादायी दुर्लभ है और मुधाजीवी भी दुर्लभ है । मुधादायी न लबे असाहु साहु त्ति साहं साहु त्ति आलवे ॥ (७.४८) और मुधाजीवी दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं । ये बहुत सारे असाधु लोक में साधु कहलाते हैं। असाधु को काले कालं समायरे। (५।२।४) साधु न कहे, जो साधु हो उसी को साधु कहे। हर काम ठीक समय पर करो। नाणदसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं । अलाभो त्ति न सोएज्जा एवंगुणसमाउत्तं संजयं साहुमालवे । (७१४६) तवो त्ति अहियासए । (५।२।६) ज्ञान और दर्शन से संम्पन्न-संयम और तप में रत-इस न मिलने पर चिन्ता मत करो, उसे सहज तप मानो। प्रकार गुण-समायुक्त संयमी को ही साधु कहे। अदीणो वित्तिमेसेज्जा। (५।२।२६) भासाए दोसे य गुणे य जाणिया। मुहताज मत बनो। तीसे य दुर्दु परिवज्जए सया। (७१५६) जे न बंदे न से कुप्पे वाणी के दोष और गुण को जानो। जो दोपपूर्ण हो, उसका वंदिओ न समुपकसे । (५।२।३०) प्रयोग मत करो। सम्मान न मिलने पर क्रोध और मिलने पर गर्व मत करो। वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं । (७१५६) पृयणट्टी जसोकामी माणसम्माणकामए । हित और अनुकुल वचन बोलो। बह पसई पावं मायासल्लं च कुवई ।। (श२०३५) धुवं च पडिलेहेज्जा । (८।१७) पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना शाश्वत की ओर देखो। ण य रूबेशु मणं करे। (८।१६) करने वाला गुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया-शल्य रूप में भंगा मत लो। का आचरण करता है। मियं भासे । (८.१६) पणीयं वजए रख । (५।२।४२) कम बोलो। विकार बढ़ाने वाली वस्तु मत खाओ। बहुं सुणेइ कण्णेहिं बहुं अच्छोहिं पेच्छइ। मायामोसं दिवज्जए। (५१२१४६) न य दिटुसुयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ (८।२०) भूट-कपट से दूर रहो। वह कानों से बहुत सुनता है, आँखों से बहुत देखता है। अहिंसा निउणं दिट्ठा किन्तु सब देखे और सुने को कहना भिक्षु के लिये उचित नहीं। सव्वभूएसु संजमो । (६८) न य भोयणम्मि गिद्धो । (८१२३) सब जीवों के प्रति जो संयम है, वही अहिंसा है। --- जिह्वा-लोलुप मत बनो । सत्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं । आसुरत्तं न गच्छेज्जा। (८।२५) तम्हा पाणवई घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं॥ (६।१०) क्रोध मत करो। ___सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिये प्राण-वध देहे दुक्खं महाफलं । (८।२७) को भयानक जान कर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं। जो कष्ट आ पड़े, उसे सहन करो। न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्तवओरया। (६।१७) मियासणे। (८।२६) भगवान महावीर को माननेवाले संचय करना नहीं चाहते। कम खाओ। जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से । (६।१८) सुयलाभे न मज्जेज्ना । (८।३०) जो संग्रह करता है वह गृही है, साधक नहीं। ज्ञान का गर्व मत करो। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। (६।२०) से जाणमजाणं वा कट्ट, आहम्मियं पयं । मूर्छा ही परिग्रह है। संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे। (८।३१) Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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