Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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विवित्तचरिया ( विविक्तचर्या )
५२६
द्वितीय चूलिका : श्लोक ७ टि० २५-२७
श्लोक ७:
२५. मद्य और मांस का अभोजी (प्रमज्जमंसासि ) *:
धूणिकारों ने यहाँ एक प्रश्न उपस्थित किया है -"पिण्डै षणा–अध्ययन (५.१.७३) में केवल बहु-अस्थि वाले मांस लेने का निषेध किया है और यहाँ मांस-भोजन का सर्वथा वर्जन किया है यह विरोध है ?" और इसका समाधान ऐसा किया है-"यह उत्सर्ग सूत्र है तथा वह कारणिक --- अपवाद सूत्र है। तात्पर्य यह है कि मुनि मांस न ले सामान्य विधि यही है किन्तु विशेष कारण की दशा में लेने को बाध्य हो तो परिशाटन-दोषयुक्त (देखें ५.१.७४) न ले'।"
यह चूर्णिकारों का अभिमत है । टीकाकार ने यहाँ उसकी चर्चा नहीं की है । चूणिगत उल्लेखों से भी इतना स्पष्ट है कि बौद्धभिक्षुओं की भांति जैन-भिक्षुओं के लिए मांस भोजन सामान्यत: विहित नहीं किन्तु अत्यन्त निषिद्ध है । अपवाद विधि कब से हुई–यह अन्वेषणीय विषय है । आज क जैन-समाज का बहुमत इस अपवाद को मान्य करने के लिए प्रस्तुत नहीं है।
२६. बार-बार विकृतियों को न खाने वाला ( अभिक्खणं निविगइं गया ख ):
मद्य और मांस भी विकृति हैं। कुछ विकृति-पदार्थ भक्ष्य हैं और कुछ अभक्ष्य । पूर्णियों के अनुसार भिक्षु के लिए मद्य-मांस का जैसे अत्यन्त निषेध है वैसे दूध-दही आदि विकृतियों का अत्यन्त निषेध नहीं है। फिर भी प्रतिदिन विकृति खाना उचित नहीं होता, इसलिए भिक्षु बार-बार निर्विकृतिक (विकृति रहित रूखा) भोजन करने वाले होते हैं।
घुणियों में पाठान्तर का उल्लेख हैं – 'केयिपढंति'-अभिक्खणिब्वितिय जोगया य (अ० पू०) इसका अर्थ यही है कि भिक्षु को बार-बार निर्विकृतिक-योग स्वीकार करना चाहिए। २७. बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला ( अभिक्खणं काउस्सग्गकारी ग ) :
गमनागमन के पश्चात् मुनि ईर्यापथिक ( प्रतिक्रमण-कायोत्सर्ग)५ किए बिना कुछ भी न करे—यह टीका का आशय है ।
पणियों के अनुसार कायोत्सर्ग में स्थित मुनि के कर्म-क्षय होता है, इसलिए उसे गमनागमन, विहार आदि के पश्चात् बार-बार कायोत्सर्ग करना चाहिए।
मिलाएं-१०.१३ ।
१-(क) अ० चू० : ननुपिडेसणाए भणितं-वहुअट्ठितं पोग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटगं (५.१) इति तत्थ बहुअद्वितं निसिद्धमिह
सव्वहा । विरुद्धमिह परिहरणं, सेइमं उस्सग्ग सुत्तं । तं कारणीयं जताकारणे गहणं तदा परिसाडी परिहरणत्थं सुद्ध
घेतव्वं - ण बहुट्टितमिति । (ख) जि० चू० पृ० ३७२ : अमज्जमंसासी भवेज्जा एवमादि, आह-णणु पिडेसणाए भणियं 'बहुअठ्ठियं पोग्गल अणिमिसं वा
बहकंटक', आयरिओ आह-तत्थ बहुअट्ठियं णिसिद्धमितिऽत्थ सव्वं णिसिद्ध, इमं उस्सगं सुत्त, तं तु कारणोयं, जदा
कारणे गहणं तदा पडिसाडिपरिहरणत्थं सुत्त घेत्तव्वं न बहुपडि (अट्ठि) यमिति । २- प्रश्न संवरद्वार ४ भावना ५ । ३---(क) अ०० : अभिक्खण मिति पुणो पुणो निम्विइयं करणीयं । ण जधामज्जमंसाणं अच्चंत पडिसेधो तथा विगतीणं । (ख) जि० चू०प्र० ३७२ : 'अभिक्खणं निविगतं गया ये' ति अप्पो कालविसेसो अभिक्खणमिति, अभिक्खणणिब्विययं
करणीयं-जहा मज्जमंसाणं अच्चंतपडिसेधो (न) तहा बीयाणं । ४.. जि. ० ५० ३७२ : केई पढंति -- 'अभिक्खणं णिवितीया जोगो पडिवज्जियम्वो' इति । ५-देखिए ५.१.८८ में 'इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे' का टिप्पण । ६ हा० टी०प० २८१ : 'कायोत्सर्गकारी भवेत्' ईर्यापथप्रतिक्रमणकृत्वा न किञ्चिदन्यत् कुर्याद, तदशुद्धतापत्तेः । ७-(क) अ० चू० : काउसग्गेसुतिस्स कम्मनिज्जराभवतीति गमणागमणविहारादिसु अभिक्खणं काउसग्गकारिणा भवितव्वं । (ख) जि. चु०प० ३७२ : काउसग्गे ठियस्स कम्मनिज्जरा भवइ, गमणागमणविहाराईसु अभिक्खणं काउसग्गे 'सऊसियं
नीससियं' पढियव्वा वाया।
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