Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 577
________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) द्वितीय चूलिका : श्लोक ४ टि० १०-१५ १०. प्रतिस्रोत उसका उतार है ( पडिसोयो तस्स उत्तारो घ ) : प्रतिस्रोत-गमन संसार-मुक्ति का कारण है । अभेद-दृष्टि से कारण को कार्य मान उसे संसार से उत्तरण या मुक्ति कहा है। चूणि में 'उत्तारो' के स्थान में 'निग्घाडो' पाठ है। इसका भावार्थ यही है'। श्लोक ४: ११. आचार में पराक्रम करने वाले ( आयारपरक्कमेण क ) : आचार में पराक्रम का अर्थ है- आचार को धारण करने का सामर्थ्य । आचार में जिनका पराक्रम होता है, उन्हें आचारपराक्रम कहा जाता है। यह साधु का विशेषण है । टीकाकार ने इसका अर्थ 'ज्ञानादि में प्रवर्तमान शक्ति वाला' किया है। १२. संवर में प्रभूत समाधि रखने वाले ( संवरसमाहिबहलेणं ख ) : संबर का अर्थ इन्द्रिय और मन का संवर है । समाधि का अर्थ समाधान, संवर-धर्म में अप्रकम्प या अनाकुल रहना है। बहुल अर्थात् प्रभूत । संवर में जिनकी समाधि बहुत होती है, वे संवर-समाधि-बहुल कहलाते हैं । १३. चर्या ( चरिया " ): चर्या का अर्थ मूल व उत्तरगुण रूप चरित्र है। १४. गुणों ( गुणा ): चरित्र की रक्षा के लिए जो भावनाएँ हैं, उन्हें गुण कहा जाता है। १५. नियमों की ( नियमा ग ): प्रतिमा आदि अभिग्रह नियम कहलाते हैं । आगमों में भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाओं का निरूपण मिलता है। १-(क) जि० ० ० ३६६ : तबिवरीयकारण य पृण पडिसोओ, तस्स निग्बाडो, जहा पडिलोमं गच्छतो ण पाडिज्जह पायाले णदीसोएण तहेव सद्दादिसु अमच्छिओ संसारपायाले ण पडइ । (ख) हा० टी० प० २७६ : 'उत्तारः' उत्तरणमुत्तारः, हेतौ फलोपचारात् यथाऽऽयुधूतं तन्दुलान्वति पर्जन्यः । २-(क) अ० चू० : आयारोमूलगुणा परक्कम बलं आयारधारणे सामत्थं आयारपरक्कमो जस्स अत्थि सो आयारपरक्कमवान नन लोवे कते आयारपरक्कमो साधुरेव । (ख) जि. चू० पृ० ३६९-७० : आयारपरक्कमेणं, आयारो-मूलगुणो परक्कमो-बलं, आयारधारणे समत्थं, आधारे परक्कमो जस्स अस्थि सो आयारपरक्कमवान्, ननु लोए कए आयारपरिक्कमो साधुरेव । ३- हा० टी०प० २७६ : 'आचारपराक्रमेणे' त्याचारे -ज्ञानादौ पराक्रमः--प्रवृत्ति बलं यस्य स तथाविध इति । ४-जि० चू० पृ. ३७० : संवरो इंदियसंवरो णोइंदियसंवरो य । ५-जि० चू०प० ३७० : संवरे समाहाणं तओ अवकप्पण बहु लाति-बहुं गिण्हइ, संवरे समाहि बहुं पडिवज्जइ, संवरसमाधिबहले, तेण संवरसमाधिबहुलेण । ६-हा० टी०प० २७६ : संवरे---इन्द्रियादिविषये समाधिः अनाकुलत्वं बहुलं—प्रभूतं यस्य सः । ७-जि० चू० पृ० ३७० : चरिया चरित्रामेव, मूलुत्तरगुणसमुदायो। -जि० चू० पृ० ३७० : गुणा तेसि सारक्खणनिमित्तं भावणाओ। &-जि० चू०१० ३७० : नियमा–पडिमादयो अभिग्गहविसेसा। १०-दशा० ७वी दशा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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