Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 567
________________ दसवेलियं (दशवैकालिक ) २६. अधर्म ( अधम्मक ) श्रमण जीवन को छोड़ने वाला व्यक्ति छह काय के जीवों को हिंसा करता है, श्रमण- गुण की हानि करता है, इसलिए श्रमण- जीवन के परित्याग को अधर्म कहा है। ३०. अपक्ष (असो) : 'यह भूतपूर्व श्रमण है' – इस प्रकार दोष-कीर्तन अयश कहलाता है' । टीकाकार ने इसका अर्थ 'अपराक्रम से उत्पन्न न्यूनता' किया है। श्लोक १४ : ३१. आवेगपूर्ण चित्त से (पस वेवसा क प्रसका अर्थ हा 1 या प्रकट है विषयों के भोग के लिए हिंसा, असत्य आदि में मन का अभिनिवेश करना होता है । वस्तु एक होती है पर जब उसकी चाह अनेकों में होती है तब उसकी प्राप्ति और संरक्षण के लिए बलात्कार का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार भोगों में चित्त की हठधर्मिता होती है" । ३२. अनिष्ट अभियं" ) इसका अर्थ अनभिति अभिप्रेत वा अनिष्ट है। ३३. बोधि ( बोही प ) : ५१६ प्रथम चूलिका श्लोक १४-१८ टि० २६-३५ 1 अर्हत धर्म की उपलब्धि को बोधि कहा जाता है । लोक १६: ३४. जीवन की समाप्ति के समय ( जीवियपज्जवेण घ ) : पर्यय और पर्याय एकार्थक हैं । यहाँ पर्यय का अर्थ अन्त है । जीवित का पर्याय अर्थात् मरण" । इलोक १८: ३५. लाभ और उनके साधनों को ( आयं उवायं ख ) : आय अर्थात् विज्ञान, सम्यग् - ज्ञान आदि की प्राप्ति और उपाय अर्थात् आय के साधन । Jain Education International १ (क) अ० ० समणयम्मपरिया छकायारने अपुण्यमाचरति एस अचम्मो सामण्णागुणपरिहाणी | (ख) जि० चू० पृ० ३६३ : समणधम्मपरिच्चत्तो छक्कायारंभेण अपुन्नमायइ रयए, अधम्मो सामण्णपरिच्चागो । २ - (क) अ० चू० : अयसो एस समणगभूतपुव्व इति दोसकित्तणं । (ख) जि० पू० पृ० ३६३ अवसो व से जहा समणभूतपुग्यो इति दोसविणं । : ३ - हा० टी० प० २७६ : 'अयश:' अपराक्रमकृतं न्यूनत्वम् । ४ - ( क ) अ० ० : वरिदायादतक्करादीण एग दव्वाभिणिविद्वाण वलक्कारेण एवं पसज्झ विसयसंरक्खणेय हिंसामोसादि निविट्ठचेतसा । (ख) हा० टी० प० २७७ : 'प्रसह्यचेतसा' धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्त ेन । ५ - (क) अ० चू० : अभिलासो अभिज्जा, सा जत्थ समुप्पण्णा तं अभिज्झितं तव्विवरीयं अणभिज्झितमर्णाभिलसितमभिप्रेतं । (ख) हा० टी० प० २७७ 'अनमिध्याताम्' अभिध्याता इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः । ६- जि० ० चू० पृ० ३६४: अरहंतस्स धम्मस्स उवलद्धी बोधी । ७- अ० ० : परिगमणं पज्जायो अण्णगमणं तं पुण जीवितस्स पज्जायो मरणमेव । ८ – (क) जि० चू० पृ० ३६६ : आओ विन्नाणादीण आगमो, उवायो तस्स साहणं अणुब्वा । (ख) हा० टी० प० २७८ : आयः सम्यग्ज्ञानादेरुपायः -- तत्साधनप्रकारः काल विनयादिः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632