Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 564
________________ रइवक्का ( रतिवाक्या) ५१३ प्रथम चूलिका : श्लोक १-५ टि० १३-१८ १३. मुनि-पर्याय ( परियाए सू० स्था० ११ ) : पर्याय का अर्थ प्रव्रज्याकालीन-दशा या मुनि-व्रत है । प्रव्रज्या में चारों ओर से (परित:) पुण्य का आगमन होता है, इसलिए इसे पर्याय कहा जाता है। अगस्त्य चूणि के अनुसार यह प्रव्रज्या शब्द का अपभ्रश है। १४. भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है । वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता सू०१ स्था० १८ ) : किया हुआ कर्म भुगते बिना उससे मुक्ति नहीं होती यह कर्मवाद का ध्रुव सिद्धान्त है। बद्ध कर्म को मुक्ति के दो उपाय हैंस्थिति परिपाक होने पर उसे भोगकर अथवा तपस्या के द्वारा उसे क्षीण-बीर्य कर नष्ट कर देना । सामान्य स्थिति यह है कि कर्म अपनी स्थिति पकने पर फल देता है, किन्तु तपस्या के द्वारा स्थिति पकने से पहले ही कर्म को भागा जा सकता है। इससे फल-शक्ति मन्द हो जाती है और वह फलोदय के बिना ही नष्ट हो जाता है । १५. श्लोक ( सिलोगो सू० १ स्था० १८ ) : श्लोक शब्द जातिवाचक है, इसलिए इसमें अनेक श्लोक होने पर भी विरोध नहीं आता। श्लोक १: १६. अनार्य ( अणज्जो ख ): अनार्य का अर्थ म्लेच्छ है । जिसकी चेष्टाएँ म्लेच्छ की तरह होती हैं, वह अनार्य कहलाता है । १७. भविष्य को ( आयइंघ ) : आयति का अर्थ भविष्यकाल है । चूणि में इसका वैकल्पिक अर्थ 'गौरव' व 'आत्महित भी किया है । श्लोक ५: १८. कर्बट ( छोटे से गाँव ) में ( कब्बडे ग ) : कर्बट के अनेक अर्थ हैं : १. कुनगर जहाँ क्रय-विक्रय न होता हो । २. बहुत छोटा सन्निवेश। ३. वह नगर जहाँ बाजार हो। १-हा० टी० प० २७३ : प्रव्रज्या पर्यायः । २-अ०० : परियातो समंततो पुन्नागमणं, पब्वज्जासहस्सेव अवन्भंसो परियातो। ३-हा० टी०प० २७४ : श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततः श्लोकजातिरनेकभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः । ४-(क) जि० चू० पृ० ३५६ : अणज्जा मेच्छादयो, जो तहाठिओ अणज्ज इव अणज्जो। (ख) हा० टी०प० २७४, २७५ : 'अनार्य' इत्यनार्य इवाना> --म्लेच्छचेष्टितः। ५-हा० टी० प० २७५ : 'आयतिम्' आगामिकालम् । ६-अ० चू० : आतती आगामीकालं तं आततिहित आयति क्षममित्यर्थ... - व्येयी भण्णति-आयती गौरवं त। ७-जि० चू० पृ० ३५६ : 'आवती' आगामिको कालो त .... अथवा आयतीहित आत्मनो हितमित्यर्थः । ८-जि० चू० पृ० ३६० : कब्बडं कुनगरं, जत्थ जलत्थलसमुभवविचित्तभंडविणियोगो णत्थि । ६-हा० टी० ५० २७५ : 'कर्बटे' महाक्षुद्रसंनिवेशे । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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