Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 543
________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४६२ अध्ययन १० : श्लोक १२ टि० ४०-४३ दुख:दायी होते हैं अत: कर्कश शब्द आदि ग्राम-कण्टक (इन्द्रिय-कण्टक) कहलाते है । जो व्यक्ति ग्राम में काँटे के समान चुभने वाले हों, उन्हें ग्राम-कण्टक कहा जा सकता है । संभव है ग्राम-कण्टक की भांति चुमन उत्पन्न करने वाली स्थितियों को ग्राम-कण्टक' कहा हो । यह शब्द उत्तराध्ययन (२.२५) में भी प्रयुक्त हुआ है : सोच्चाणं फरसा भासा, दारुणा गामकंटगा। तुसिणीउ उवेहेज्जा ण ताओ मणसीकरे ॥ ४०. आक्रोश वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं ( अक्कोसपहारतज्जणाओ ख ) : ___ आक्रोश का अर्थ गाली है । चाबुक आदि से पीटना, प्रहार' और 'कर्मों से डर साधु बना है'- इस प्रकार भर्त्सना करना तर्जना' कहलाता है । जिनदास चूणि और टीका में आक्रोश, प्रहार, तर्जना को ग्राम-कण्टक कहा है। ४१. वेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को ( भयभेरवस संपहासे ग ): भय-भैरव का अर्थ अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाला है। 'अत्यन्त भयोत्पादक शब्द से युक्त संप्रहास उत्पन्न होने पर'- इस अर्थ में 'भयभेरवसद्दसंपहासे' का प्रयोग हुआ है। टीका में 'संप्रहास' को शब्द का विशेषण मान कर व्याख्या की है-जिस स्थान में अत्यन्त रौद्र भयजनक प्रहास सहित शब्द हो, उस स्थान में । मिलाएँ सुत्तनिपात की निम्नलिखित गाथाओं से-- भिक्खुनो विजिगुच्छतो भजतो रित्तमातनं । रुक्खमूलं सुसानं वा पब्बतानं गुहासु वा ॥ उच्चावचेसु सयनेसु कोवन्तो तत्थ भेरवा । येहि भिक्खु न वेधेय्य निग्धोसे सयनासने । (५४.४-५) ४२. सहन करता है ( सहइ क ): आक्रोश, प्रहार, वध आदि परीषहों को साधु किस तरह सहन करे, इसके लिए देखिए. -- उत्तराध्ययन २.२४-२७ । श्लोक १२ : ४३. जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहणकर ( पडिमं पडिवज्जिया मसाणे क ) : __यहाँ प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग और आभग्रह (प्रतिज्ञा) दोनों संभव हैं। कुछ विशेष प्रतिज्ञाओं को स्वीकार कर कायोत्सर्ग की १--जि० चू० १० ३४३ : जहा कंटगा सरोरानुगता सरीरं पडियंति तथा अणिट्टा विषयकंटका सोताई दियगामे अणुप्पविठ्ठा तमेव ईदियं पीडयंति। २--हा० टी०प० २६७ : प्रहाराः कशादिभिः । ३-जि० चू० पृ० ३४३ : तज्जणाए जहा एते समणा किवणा कम्मभीता पन्वतिया एवमादि । ४-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : ते य कंटगा इमे 'अक्कोसपहारतज्जणाओ। (ख) हा० टी०प० २६७ : 'ग्रामकण्टकान्' ग्रामा-इन्द्रियाणि तदुःखहेतवः कण्टकास्तान्, स्वरूपत एवाह-आक्रोशान् __ प्रहारान् तर्जनाश्चेति । ५-(क) अ० चू० : पच्चवायो भयं । रोइं भैरवं वेतालकालिवादीण सद्दो। भयभेरवसद्देहि समेच्च पहसणं भयभेरवसहसंपहासो । तम्मि समुवस्थिते। (ख) जि० चू० पृ० ३४३-३४४ : भयं पसिद्ध, भयं च भेरवं, न सव्वमेव भयं भेरबं, किन्तु ?, तत्थवि जं अतीवदारुणं भयं तं भेरवं भण्णइ, वेतालगणादयो भयभेरवकायेण महता सद्देण जत्थ ठाणे पहसति सप्पहासे, तं ठाणं भयभेरवसप्पहास भण्णइ । ६-हा० टी०प० २६७ : 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तत्तथा तस्मिन्, वैतालादिकृतार्तनादाट्टहास इत्यर्थः । ७-हा० टी०५० २६७ : 'प्रतिमां' मासादिरूपाम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632