Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 554
________________ आमुख इस चूलिका का नाम 'रतिवाक्या-अध्ययन' है। असंयम में सहज ही रति और संयम में प्रति होती है। भोग में जो सहज अाकर्षण होता है वह त्याग में नहीं होता । इन्द्रियों को परितृप्ति में जो सुखानुभूति होती है वह उनके विषय-निरोध में नहीं होती। सिद्ध योगी कहते हैं- 'भोग सहज नहीं है, सुख नहीं है।' साधना से दूर जो हैं वे कहते हैं -'यह सहज है, सुख है।' पर वस्तुतः सहज क्या है ? सुख क्या है ? यह चिन्तनीय रहता है । खुजली के कीटाणु शरीर में होते हैं तब खुजलाने में सहज आकर्षण होता है और वह सुख भी देता है । स्वस्थ प्रादमी खुजलाने को न सहज मानता है और न सुखकर भी । यहाँ स्थिति-भेद है और उसके आधार पर अनुभूति-भेद होता है । यही स्थिति साधक और असाधक की है। मोह के परमाणु सक्रिय होते हैं तब भोग सहज लगता है और वह सुख की अनुभूति भी देता है। किन्तु अल्ल-मोह या निर्मोह व्यक्ति को भोग न सहज लगता है और न सुखकर भी। इस प्रकार स्थिति-भेद से दोनों मान्यताओं का अपना-अपना प्राधार है। आत्मा की स्वस्थ दशा मोहशून्य स्थिति या वीतराग भाव है। इसे पाने का प्रयत्न ही संयम या साधना है। मोह अनादिकालीन रोग है । वह एक बार के प्रयत्न से ही मिट नहीं जाता। इसको चिकित्सा जो करने चलता है वह सावधानी से चलता है किन्तु कहीं-कहीं बीच में वह रोग उभर जाता है और साधक को फिर एक बार पूर्व स्थिति में जाने को विवश कर देता है। चिकित्सक कुशल होता है तो उसे सम्हाल लेता है और उभार का उपशमन कर रोगी को प्रारोग्य की ओर ले चलता है। चिकित्सक कुशल न हो तो रोगी की डावाँडोल मनोदशा उसे पीछे ढकेल देती है। साधक मोह के उभार मे न डगमगाए, पीछे न खिसके-इस दृष्टि से इस अध्ययन की रचना हुई है। यह वह चिकित्सक है जो संयम से डिगते चरण को फिर से स्थिर बना सकता है और भटकते मन पर अंकुश लगा सकता है । इसीलिए कहा है-हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूयाई इमाइं अट्ठारसठाणाई"---इस अध्ययन में वर्णित ये अठारह स्थान-घोड़े के लिए वल्गा, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका जैसे हैं। इसके वाक्य संयम में रति उत्पन्न करने वाले हैं, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'रतिवाक्या' रखा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में स्थिरीकरण के अठारह सूत्र हैं। उनमें गृहस्थ-जीवन की अनेक दृष्टियों से अनुपादेयता बतलाई है। जैन और वैदिक परम्परा में यह बहुत बड़ा अन्तर है। वैदिक व्यवस्था में चार आश्रम हैं। उनमें गृहस्थाश्रम सब का मूल है और सर्वाधिक महत्त्पूर्ण माना गया है। स्मृतिकारों ने उसे अति महत्व दिया है। गृहस्थाश्रम उत्तरवर्ती विकास का मूल है। यह जैन-सम्मत भी है। किन्तु वह मूल है, इसलिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यह अभिमत जैनों का नहीं है। समाज-व्यवस्था में इसका जो स्थान है, वह निर्विवाद है। आध्यात्मिक चिन्तन में इसकी उत्कर्षपूर्ण स्थिति नहीं है । इसलिए 'ग हवास बन्धन है और संयम मोक्ष, यह विचार स्थिर रूप पा सका। "पुण्य-पाप का कर्तृत्व और भोक्तृत्व अपना-अपना है।" "किए हुए पाप-कर्मों को भोगे बिना अथवा तपस्या के द्वारा उनको निर्वीर्य किए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती'_' ये दोनों विचार अध्यात्म व नैतिक परम्परा के मूल हैं। जर्मन-दार्शनिक काण्ट ने जैसे प्रात्मा, उसका अमरत्व और ईश्वर को नैतिकता का आधार माना है वैसे ही जैन-दर्शन सम्यक्-दर्शन को अध्यात्म का प्राधार मानता है। आत्मा है, वह ध्रुव है, कर्म (पुण्य-पाप) की कर्ता है, भोक्ता है, सुचीर्ण और दुश्चीर्ण कर्म का फल है, मोक्ष का उपाय है और मोक्ष है --ये सम्यक्-दर्शन के अंग हैं। इनमें से दो-एक अंगों को यहाँ वस्तु-स्थिति के सम्यक् निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किया गया है। संयम का बीज वैराग्य है। पौद्गलिक पदार्थों से राग हटता है तब प्रात्मा में लीनता होती है, वही विराग है । “काम-भोग १-हा० टी०प० २७० : 'धर्मे' चारित्ररूपे 'रतिकारकाणि' 'रतिजनकानि तानि च वाक्यानि येन कारणेन 'अस्यां' चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्या । २-चू० १, सूत्र १, स्था० १२ : बंधे गिहवासे मोक्खे परियाए। ३- चू० १, सूत्र १, स्था० १८ : पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुब्धि दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोखो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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