Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 549
________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) ४६८ अध्ययन १० : श्लोक १८-१६ टि० ६५-६६ ६५. स्थितात्मा ( ठियप्पा घ): जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित होती है, उसे स्थितात्मा कहते हैं। श्लोक १८: ६६. प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक् होते हैं ( पत्तेयं पुण्णपावं "): सबके पुण्य-पाप अपने-अपने हैं और सब अपने-अपने कृत्यों का फल भोग रहे हैं...यह जानकर न दूसरे की अवहेलना करनी चाहिए और न अपनी बड़ाई। हाथ उसीका जलता है जो अग्नि हाथ में लेता है। उसी तरह कृत्य उसी को फल देते हैं जो उन्हें करता है । जब ऐसा नियम है तब यह समझना चाहिए कि मैं क्यों दूसरे की निन्दा करूं और क्यों अपनी बड़ाई। पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा --ये दोनों महान् दोष हैं। मुनि को मध्यस्थ होना चाहिए, इन दोनों से वचक र रहना चाहिए । इस श्लोक में इसी मर्म का उपदेश है और उस मर्म का आलम्बन सूत्र 'पनेयं पुण्णपाव' है। जो इस मर्म को समझ लेता है, वह पर निन्दा और आत्म-इलाघा नहीं करता। ६७. दूसरे को ( परं क): प्रव्रजित के लिए अप्रवजित 'पर' होता है। जिनदास महत्तर पर' का प्रयोग गृहस्थ और वेषधारी के अर्थ में बतलाते हैं। टीकाकार ने इसका अर्थ- अपनी परम्परा से अतिरिक्त दूसरी परम्परा का शिष्य - ऐसा किया है। ६८. कुशील ( दुराचारी ) ( कुसीले २): गृहस्थ या वेषधारी साध अव्यवस्थित आचार वाला हो फिर भी यह कुसील है'-ऐसा नहीं कहना चाहिए। दूसरे के चोट लगे. अप्रीति उत्पन्न हो, वैसा व्यक्तिगत आरोप करना अहिंसक मुनि के लिए उचित नहीं होता। श्लोक १६: ६६. सब मदों को ( मयाणि सव्वाणि क): मद के आठ प्रकार बतलाए हैं : १. जाति-मद, २. कुल-मद, ३. रूप-मद, ४. तप-मद, ५. श्रुत-मद, ६. लाभ-मद, ७. ऐश्वर्य मद, ८. प्रज्ञा-मद । इस श्लोक में जाति, रूप, लाभ और श्रुत के मद का उल्लेख किया है और मद के शेष प्रकारों का 'मयाणि सब्याणि' के द्वारा निर्देश किया है। १-जि० चू० पृ० ३४७ : णाणदसणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा । २--(क) जि० चु० १० ३४७ : आह --किं कारणं परो न वत्तव्यो ?, जहा जो चेव अगणि गिण्हई सो चेव उज्झइ, एवं नाऊण पत्तेयं पत्तेयं पुण्णपावं अत्ताणं ण समुक्कसइ, जहाऽहं सोभणो एस अप्सोभणोत्ति एवमादि । (ख) हा० टी० प० २६८ : प्रत्येक पुण्यपापं, नान्यसंबन्ध्यन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत् । ३–० चू० : परो पव्वतियस्स अपवतियो । ४-जि० चू० पृ० ३४७ : परो णाम गिहत्थो लिंगी वा। ५-हा० टी०प० २६८ : 'पर' स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तम् । ६-(क) जि० चू० पृ० ३४७ : जइवि सो अप्पणो कम्मेसु अव्ववत्थिओ तहावि न बत्तव्बो जहाऽयं कुत्थियसीलोत्ति, कि कारणं?, __ तत्थ अपत्तियमादि बहवे दोसा भवंति ।। (ख) हा० टी० प० २६८ : न वदति --अयं कुशीलः, तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् । ७–हा. टी०प० २६६ : न जातिमत्तो यथाऽहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा, न च रूपमत्तो यथाऽहं रूपवानादेयः, न लाभमत्तो यथाऽहं लाभान्, न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, अनेन कुलमदादिपरिग्रहः, अत एवाह-मदान् सर्वान् कुलादिविषयानपि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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