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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
२०४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८ टि० ३२-३८ ३२. कोयले ( इंगालं रासि क ) :
अङ्गार-राशि –अङ्गार के ढेर । अङ्गार -पूरी तरह न जली हुई लकड़ी का बुझा हुआ अवशेष' । इसका अर्थ दहकता हुआ कोयला भी होता है। ३३. ढेर के (रासिख ): मूल में 'राशि' शब्द 'छारिय', 'तुस'-इन के साथ ही है, पर उसे 'इंगाल' और 'गोमयं' के साथ भी जोड़ लेना चाहिए।
श्लोक: ३४. श्लोक ८:
इस श्लोक में जल, वायु और तिर्यग् जीवों की विराधना से बचने की दृष्टि से चलने की विधि बतलाई है। ३५. वर्षा बरस रही हो ( वासे वासंते क ):
भिक्षा का काल होने पर यदि वर्षा हो रही हो तो भिक्षु बाहर न निकले । भिक्षा के लिए निकलने के बाद यदि वर्षा होने लगे तो वह ढंके स्थान में खड़ा हो जाये, आगे न जाये। ३६. कुहरा गिर रहा हो ( महियाए पडंतिए ख ) :
कुहरा प्रायः शिशिर ऋतु में-गर्भ-मास में पड़ा करता है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा-चर्या के लिए गमन न करे। ३७. महावात चल रहा हो ( महावाये व वायंते " ) :
महावात से रजें उड़ती हैं । शरीर के साथ उनका आघात होता है, इससे सचित्त रजों की विराधना होती है । अचित्त रजें आँखों में गिरती हैं। इन दोषों को देख भिक्षु ऐसे समय में गमन न करें। ३८. मार्ग में तिर्यक् संपातिम जीव छा रहे हों ( तिरिच्छसंपाइमेसु वा ५):
जो जीव तिरछे उड़ते हैं उन्हें तिर्यक् सम्पातिम जीव कहते हैं। वे भ्रमर, कीट, पतंग आदि जन्तु हैं।
१-(क) अ० चू० १० १०१ : 'इंगालो' खदिराईण दड्ढणेव्वाणं तं इंगालं ।
(ख) हा० टी० ५० १६४ : आङ्गारमिति - अङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गारं राशिम् । २-(क) अ० चू० पृ० १०१ रासि सद्दो पुण इंगालछारियाए वट्टति । 'तुसरासि' च 'गोमयं..... एत्थवि रासि त्ति उभये वर्तते।
(ख) हा० टी० ५० १६४ : राशिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते।। ३-(क) अ० चू० पृ० १०१ : ण इति पडिसेहसद्दो, चरणं गोचरस्स तं पडिसेहेति, 'वासं' मेघो, तम्मि पाणियं मयन्ते । (ख) जि० चू० पृ० १७० : नकारो पडिसेहे वट्टइ, चरेज्ज नाम भिक्खस्स अट्ठा गच्छेज्जत्ति, वासं पसिद्धमेव, तंमि वासे वरिस
माणेण उ चरियव्वं, उत्तिण्णण य पवु? अहाछन्नाणि सगडगिहाईणि पविसित्ता ताव अच्छइ जावदिओ ताहे हिंडइ । (ग) हा० टी० ५० १६४ : न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थं प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत् । ४-- (क) जि० चू० १० १७० : महिया पायसो सिसिरे गब्भमासे भवइ, ताएवि पडन्तीए नो चरेज्जा।
(ख) हा० टी० ५० १६४ : महिकायां वा पतन्त्यां, सा च प्रायो गर्भमासेषु पतति । ५-(क) अ० चू० पृ० १०१ : वाउक्काय जयणा पुण 'महाबाते' अतिसमुद्घतो मारुतो महावातो, तेण समुद्घतो रतो वाउक्कातो
य विराहिज्जति। (ख) जि० चू० पृ० १७० : महावातो रयं समुधुणइ, तत्थ सचित्तरयस्स विराहणा, अचित्तोवि अच्छीणि भरेज्जा एवमाई
दोसत्तिकाऊण ण चरेज्जा। (ग) हा० टी० ५० १६४ : महाबाते वा वाति सति, तदुत्खातरजोविराधनादोषात् । ६-(क) अ० चू० पृ० १०१ : तिरिच्छसंपातिमा पतंगादतो तसा, तेसु पभूतेसु संपर्यतेसु ण चरेज्जा इति वट्टति ।
(ख) जि० चू० पृ० १७० : तिरिच्छं संपयंतीति तिरिच्छसंपाइमा, ते य पयंगादी। (ग) हा० टी०१० १६४ : तिर्यक्संपतन्तीति तिर्यक्सम्पाता:- पतङ्गादयः ।
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