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पिडेसणा ( पिण्डैषणा)
२११ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १५ टि० ६४-६६
श्लोक १५: ६४. श्लोक १५:
मुनि चलते-चलते उच्चावच कुलों की वसती में आ पहुँचता है। वहाँ पहुँचने के बाद वह अपने प्रति किसी प्रकार की शंका को उत्पन्न न होने दे, इस दृष्टि से इस श्लोक में यह उपदेश है कि वह झरोखे आदि को ताकता हुआ न चले । ६५. आलोक ( आलोयं क ):
घर के उस स्थान को आलोक कहा जाता है जहाँ से बाहरी प्रदेश को देखा जा सके । गवाक्ष, झरोखा, खिड़की आदि आलोक कहलाते हैं। ६६. थिग्गल ( थिग्गलं क ) :
घर का वह द्वार जो किसी कारणवश फिर से चिना हुआ हो । ६७. संधि (संधि ख ) :
___ अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार दो घरों के अंतर (बीच की गली) को संधि कहा जाता है । जिनदास घूणि और टीकाकार ने इसका अर्थ सेंध किया है । सेंध अर्थात् दीवार की ढकी हुई सुराख । ६८. पानी-घर को (दगभवणाणि ख)
अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसका अर्थ जल-मंचिका, पानीय कर्मान्त (कारखाना) अथवा स्नान-मण्डप आदि किया है । जिनदास ने इसका अर्थ जल-घर अथवा स्नान-घर किया है। हरिभद्र ने इसका अर्थ केवल जल-गृह किया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय पथ के आस-पास सर्व साधारण की सुविधा के लिए राजकीय जल-मंचिका. स्नानमण्डप आदि रहते थे । जल-मंचिकाओं से औरतें जल भर कर ले जाया करती थीं और स्नान-मण्डपों में साधारण स्त्री-पुरुष स्नान किया करते थे । साधु को ऐसे स्थानों को ध्यानपूर्वक देखने का निषेध किया गया है।
गृहस्थों के घरां के अन्दर रहे हुए परेण्डा, जल-गृह अथवा स्नान-घर से यहाँ अभिप्राय नहीं है क्योंकि मार्ग में चलता हुआ साधु क्या नहीं देखे इसी का वर्णन है । ६६. शंका उत्पन्न करने वाले स्थानों से ( संकटाणं घ ) :
टीकाकार ने शंका-स्थान को पालोकादि का द्योतक माना है। शंका-स्थान अर्थात् उक्त आलोक, थिग्गल-द्वार, सन्धि, उदकभवन । इस शब्द में ऐसे अन्य स्थानों का भी समावेश समझना चाहिए।
१- (क) अ० चू० पृ० १०३ : आलोगो-गवक्खगो ।
(ख) जि० चू० पृ० १७४ : आलोगं नाम चोपलपादी।
(ग) हा० टी० ५० १६६ : 'अवलोक' नि!हकादिरूपम् । २--(क) जि० चू० पृ० १७४ : थिग्गलं नाम जं घरस्स दारं पवमासी तं पडिपूरियं ।
(ख) हा० टी० ५० १६६ : 'थिग्गलं' चितं द्वारादि । ३–अ० चू० पृ० १०३ : संधी जमलघराणं अंतरं । ४-(क) जि० चू० पृ० १७४ : संधी खत्तं पडिढक्किययं ।
(ख) हा० टी० ५० १६६ : संधिः-चितं क्षेत्रम् । ५– (क) अ० चू० पृ० १०३ : पाणिय-कम्मतं, पाणिय-मंचिका, ण्हाण-मण्डपादि दगभवनानि ।
(ख) जि० चू० पृ० १७४ : दगभवणाणि-पाणियघराणि ण्हाणगिहाणि वा।
(ग) हा० टी० ५० १६६ : 'उदकभवनानि' पानीयगृहाणि । ६-हा० टी० ५० १६६ : शङ्कास्थानमेतदवलोकादि।
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