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दसवेआलियं (दशवैकालिक)
२५२ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८७ टि २०६ का संक्षेप भी किया जा सकता है । आलोचना आचार्य के पास की जानी चाहिए अथवा आचार्य-सम्मत किसी दूसरे मुनि के पास भी वह की जा सकती है। आलोचना सरल और अनुद्विग्न भाव से करनी चाहिए। स्मृतिगत अतिचारों को आलोचना करने के बाद भी अज्ञात या विस्मृत पुर: कर्म, पश्चात् कर्म आदि अतिचारों की विशुद्धि के लिए फिर प्रतिक्रमण करे – 'पडिक्कमामि गोयरचरियाए' सूत्र पढ़े। फिर व्युत्सृष्ट-देह (प्रलम्बित बाहु और स्थिर देह खड़ा) होकर निरवद्यवृत्ति और शरीर धारण के प्रयोजन का चितन करे । नमस्कार मंत्र पढ़कर. कायोत्सर्ग को पूरा करे और जिन-संस्तव —'लोगस्स' सूत्र पड़े । उसके बाद स्वाध्याय करे एक मण्डली में भोजन करनेवाले सभी मुनि एकत्रित न हो जाएं तब तक स्वाध्याय करे । ओधनियुक्ति के अनुसार आठ उच्छ्वास तक नमस्कार-मंत्र का ध्यान करे अथवा 'जइ मे अणुग्गहं कुज्जा' इत्यादि दो श्लोकों का ध्यान करे । फिर मुहूर्त तक स्वाध्याय करे (कम से कम तीन गाथा पढ़े) जिससे परिश्रम के बाद तत्काल आहार करने से होने वाले धातु-क्षोभ, मरण आदि दोष टल जाएँ ।
मुनि दो प्रकार के होते हैं१. मण्डल्युपजीवी-मण्डली के साथ भोजन करने वाले । २. अमण्डल्युपजीवी-अकेले भोजन करने वाले ।
मण्डल्युपजीवी मुनि मण्डली के सब साधु एकत्रित न हो जाएं तब तक आहार नहीं करता। उनकी प्रतीक्षा करता रहता है। अमण्डल्युपजीवी मुनि भिक्षा लाकर कुछ क्षण विश्राम करता है। विश्राम के क्षणों में वह अपनी भिक्षा के अर्पण का चिन्तन करता है। उसके बाद आचार्य से प्रार्थना करता है --- "भंते ! यह मेरा आहार आप लें।" आचार्य यदि न लें तो वह फिर प्रार्थना करता है-"भते ! आप पाहुने, तपस्वी, रुग्ण, बाल, वृद्ध या शिक्षक-इनमें से जिस किसी मुनि को देना चाहें उन्हें दें।" यो प्रार्थना करने पर आचार्य पाहुने आदि में से किसी मुनि को कुछ दें तो शेष रहा हुआ आचार्य की अनुमति से स्वयं खा ले और यदि आचार्य कहें कि साधुओं को तुम ही निमन्त्रण दो तो वह स्वयं साधुओं को निमंत्रित करे। दूसरे साधु निमन्त्रण स्वीकार करें तो उनके साथ खा ले और यदि कोई निमंत्रण स्वीकार न करे तो अकेला खा ले।
निमंत्रण क्यों देना चाहिए-इसके समाधान में ओघनियुक्तिकार कहते हैं--जो भिक्षु अपनी लाई हुई भिक्षा के लिए सामिक साधुओं को निमंत्रण देता है उससे उसकी चित्त-शुद्धि होती है । चित्त-शुद्धि से कर्म का विलय होता है, आत्मा उज्ज्वल होती है । निमंत्रण आदरपूर्वक देना चाहिए । जो अवज्ञा से निमन्त्रण देता है, वह साधु-संघ का अपमान करता है । जो एक साधु का
१-ओ० नि० गा० ५१८, ५१६ । २-ओ० नि० गा० ५१७ ॥ ३-आव० ४.८ । ४–ओ० नि० गा०५१० वृ० : व्युत्सृष्टदेहः-प्रलम्बितबाहुस्त्यक्तदेहः साधु पद्रवेऽपि नोत्सारयति कायोत्सर्गम्, अथवा व्युसृष्टदेहो
दिभ्योपसर्गेऽष्वपि न कायोत्सर्गभङ्ग करोति, त्यक्तदेहोऽक्षिमलदूषिकामपि नापनयति, स एवं विधः कायोत्सर्ग कुर्यात् ।
विशेष जानकारी के लिए देखिए १०.१३ के 'वोसट्ठ-चत्त-देहे' की टिप्पणी । ५-अ० चू० पृ० १२२ : वोसट्ठो इमं चितए जं अतरं भणीहामि । ६-ओ० नि० भाष्य २७४ । ७- ओ० नि० गा० ५२१ :
विणएण पट्टवित्ता सज्झायं कुणइ तो महुत्तागं ।
पुरुवभणिया य दोसा, परिस्समाई जढा एवं ॥ 4-(क) जि० चू० पृ० १८६ : जई पुव्वं ण पट्ठवियं ताहे पट्ठविऊण सज्झायं करेइ, जाव साधुणो अन्ने आगच्छंति, जो पुण खमणो
अत्तलाभिओ वा सो मुहत्तमेत्तं व सज्झो (बीसत्थो) इमं चितेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १८० : स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति, यः पुनस्तदन्यः क्षपकादि:
सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षण' स्तोककालं मुनिः । 8-ओ० नि० गा०:५२१-२४ । १०-ओ० नि० गा० ५२५ ।
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