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दसवेआलियं (दशवकालिक)
२६० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १०० टि० २३३ चलने के लिए, (४) संयमार्थ-संयम पालने के लिए, (५) प्राण-धारणार्थ-संयम-जीवन की रक्षा के लिए और (६) धर्म-चिन्तनार्थ--- शुभ ध्यान करने के लिए।
गौतम ने एक दूसरे प्रश्न में पूछा--"भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणत, एषणा-युक्त, विशेष एषणा-युक्त और सामुदानिक पानभोजन का क्या अर्थ है ?"
भगवान् ने कहा- “गौतम ! शस्त्र और शरीर परिकर्म-रहित निर्ग्रन्थ प्रासुक, अपने लिए अकृत, अकारित और असंकल्पित, अनाहूत, अक्रीतकृत, अनुद्दिष्ट, नवकोटि परिशुद्ध, दश दोष-रहित, विप्रयुक्त, उद्गम और उत्पादन की एषणायुक्त अंगार, धूम और संयोजनादोष-रहित तथा सुर-सुर और चव-चव ( यह भोजन के समय होने वाले शब्द का अनुकरण है ) शब्द-रहित, न अति शीघ्र और न अत्यन्त धीमे, नीचे न डालता हुआ, गाड़ी की धुरी में अंजन लगाने और व्रण पर लेप करने के तुल्य केवल संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु, संयम भार का वहन करने के लिए, अस्वाद वृत्तिपूर्वक, जैसे बिल में सांप पैठता है वैसे ही स्वाद के निमित्त ग्रास को इधर-उधर ले जाए बिना आहार करता है--यह शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणत, एषणा-युक्त, विशेष एषणा-युक्त और सामुदानिक पान-भोजन का अर्थ है'।
श्लोक १००
२३३. मुधादायो ( महादाई ):
प्रतिफल की कामना किए बिना निःस्वार्थ भाव से देने वाले को 'मुधादायी' कहा है।
इन चार श्लोकों ( ६७-१०० ) में अस्वादवृत्ति और निष्कामवृत्ति का बहुत ही मार्मिक प्रतिपादन किया गया है। जब तक देहासक्ति या देह-लक्षी भाव प्रबल होता है, तब तक स्वाद जीता नहीं जा सकता । नीरस भोजन मधु और घी की भाँति खाया नहीं जा सकता । जिसका लक्ष्य बदल जाता है, देह का रस चला जाता है, मोक्ष-लक्षी भाव का उदय हो जाता है, वही व्यक्ति स्वाद पर विजय पा सकता है, सरस और नीरस को किसी भेदभाव के बिना खा सकता है।
दो रस एक साथ नहीं टिक सकते, या तो देह का रस टिकेगा या मोक्ष का । भोजन में सरस और नीरस का भेद उसे सताता है जिसके देह में रस है । जिसे मोक्ष में रस मिल गया उसे भोजन में रस जैसा कुछ लगता ही नहीं, इसलिए वह भोजन को भी अन्यार्थप्रयुक्त ( मोक्ष के हेतु-भूत शरीर का साधन ) मानकर खाता है । इस वृत्ति से खाने वाला न किसी भोजन को अच्छा बताता है और न किसी को बुरा।
मुधादायी, मुधालब्ध और मुधाजीवी-ये तीन शब्द निष्कामवृत्ति के प्रतीक हैं। निष्कामवृत्ति के द्वारा ही राग-द्वेष पर विजय पाई जा सकती है । कहीं से विरस आहार मिले तो मुनि इस भावना का आलम्बन ले कि 'मैंने इसका कोई उपकार नहीं किया, फिर भी इसने मुझे कुछ दिया है । क्या यह कम बात है ?' यों चिन्तन करने वाला द्वेष से बच सकता है।
'मुझे मोक्ष की साधना के लिए जीना है और उसी के लिए खाना है'–यों चिन्तन करने वाला राग या आसक्ति से बच सकता है।
साधू हमारा भला नहीं करते, फिर हम उन्हें क्यों दें? यह प्रतिफल का विचार है, फल के प्रति फल और उपकार के प्रति उपकारयह विनिमय है। उसका कोई स्वतंत्र परिणाम नहीं होता। इस भावना का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग बहुधा कहा करते हैं- साधु, समाज पर भार हैं क्योंकि वे समाज से बहुत लेते हैं, देते कुछ भी नहीं । यह सकाम मानस का चिन्तन है।
१–भग० ७.१-२५ : अह भंते ! सत्थातीतस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स, वेसियस्स, सामुदाणियस्स, पाणभोयणस्स के अट्टे
पन्नते ?, गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा निक्खित्त-सत्थ-मुसले बवगय-माला-बन्नगविलेवणे ववगयचुयचइयचत्तदेह, जीवविप्पजलं, अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूयमकोयकड-मणुद्दिजें, नवकोडीपरिसुद्ध', वस दोसविप्पमुक्क, उग्गम-उप्पायणेसणासुपरिसुद्ध, वीतिगालं, वीतधूम, संजोयणादोसविप्पमुक्कं, सुरसुरं, अचवचवं, अदुयमविलंबियं अपरिसाडि, अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं संजम-जाया-माया-वत्तियं, संजम-भार वहणठ्ठयाए बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणणं आहारमाहारेति । एस णं गोयमा! सत्थातीतस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स वेसियस्स सामुदाणियस्स पाणभोयणस्स अयमढे पन्नत्त ।
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