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पिंडेसणा ( पिण्डैषणा)
२३५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ४६ टि० १५१-१५२ पानक गृहस्थों के घरों में मिलते थे। इन्हे विधिवत् निष्पन्न किया जाता था। भावप्रकाश आदि आयुर्वेद ग्रन्थों में इनके निष्पन्न करने की विधि निर्दिष्ट है । अस्वस्थ और स्वस्थ दोनों प्रकार के व्यक्ति परिमित मात्रा में इन्हें पीते थे।
सुश्रुत के अनुसार गुड़ से बना खट्टा या बिना अम्ल का पानक गुरु और मूत्रल है ।
मृवीका (किसमिस) से बना पानक श्रम, मूर्छा, दाह और तृषानाशक है। फालसे से और बेरों का बना पानक हृदय को प्रिय तथा विष्टम्भि होता है।
साधारण जल दान आदि के लिए निष्पन्न नहीं किया जाता । दानार्थ-प्रकृत से यह स्पष्ट है कि यहाँ 'पानक' का अर्थ द्राक्षा, खजूर आदि से निष्पन्न जल है। १५१. दानार्थ तैयार किया हआ (दाणट्ठा पगडं घ):
विदेश-यात्रा से लौटकर या वैसे ही किसी के आगमन के अवसर पर प्रसाद-भाव से जो दिया जाए वह दानार्थ कहलाता है।
प्रवास करके कोई सेठ चिरकाल के बाद अपने घर आये और साधुवाद पाने के लिए सर्व पाखण्डियों को दान देने के निमित्त भोजन बनाए वह दानार्थ-प्रकृत कहलाता है । महाराष्ट्र के राजा दान-काल में समान रूप से दान देते हैं। उसके लिए बनाया गया भोजन आदि भी 'दानार्थ-प्रकृत' कहलाता है।
श्लोक ४६ :
१५२. पुण्यार्थ तैयार किया हुआ (पुण्णट्ठा पगडं घ):
जो पर्व-तिथि के दिन साधुवाद या श्लाघा की भावना रखे बिना केवल 'पुण्य होगा' इस धारणा से अशन, पानक आदि निष्पन्न किया जाता है - उसे 'पुण्यार्थ-प्रकृत' कहा जाता है । वैदिक परम्परा में 'पुण्यार्थ-प्रकृत' दान का बहुत प्रचलन रहा है ।
प्रश्न हुआ कि शिष्ट कुलों में भोजन पुण्यार्थ ही बनता है। वे क्षुद्र कुलों की भांति केवल अपने लिए भोजन नहीं बनाते, किन्तु पितरों को बलि देकर स्वयं शेष भाग खाते हैं। अत: 'पुण्यार्थ-प्रकृत' भोजन के निषेध का अर्थ शिष्ट-कुलों से भिक्षा लेने का निषेध होगा? आचार्य ने उत्तर में कहा—नहीं, आगमकार का 'पुण्यार्थ-प्रकृत' के निषेध का अभिप्राय: वह नहीं है जो प्रश्न की भाषा में रखा गया है । उनका अभिप्राय यह है कि गृहस्थ जो अशन, पानक पुण्यार्थ बनाए वह मुनि न ले५ ।
१-सु० सू० ४६.४३० :
गौडसम्लमनम्लं वा पानकं गुरु मूत्रलम् । २-सु० सू० ४६.४३२-३३ :
माकं तु श्रमहरं, मूर्छादाहतृषापहम् ।
परूषकाणां कोलानां, हृद्य विष्टम्भि पानकम् ॥ ३ -- (क) अ० चू० पृ० ११३ : 'दाणटप्पगडं' कोति ईसरो पवासागतो साधुसद्देण सव्वस्स आगतस्स सक्कारणनिमित्तं दाणं देति,
रायाणो वा मरहट्ठगा दाणकाले अविसेसेण देति । (ख) जि० चू० पृ० १८१ : दाणापगडं नाम कोति वाणियगमादी दिसासु चिरेण आगम्म घरे दाणं देतित्ति सव्वपासंडाणं
तं दाणठ्ठ पगडं भण्णइ । (ग) हा०टी०प०१७३ : दानार्थं प्रकृतं नाम-साधुवादनिमित्त यो ददात्यव्यापारपाखण्डिभ्यो देशान्तरादेरागतो वणिक
प्रभृतिरिति । ४ (क) अ० चू० पृ० ११३ : जं तिहि-पव्वणीसु पुण्णमुद्दिस्स कीरति तं पुण्णट्ठप्पगडं ।
(ख) जि० चू० पृ० १८१ : पुन्नत्थापगडं नाम जं पुण्णनिमित्त कीरइ तं पुण्णट्ठ पगडं भण्णइ । ५-हा० टी० ५० १७३ : पुण्यार्थ प्रकृतं नाम – साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति । अत्राह -पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो भिक्षाया अग्रहणमेव, शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तः, तथाहि-न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थमेव क्षुद्रसत्त्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति, नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात, स्वभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेवात, स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति, एतेनाऽदेयदानाभावः प्रत्युक्तः, देयस्यैव यवच्छादानानुपपत्त:, कदाचिदपि वा दाने यदृच्छादानोपपत्तेः, तथा व्यवहारदर्शनात, अनीदृशस्यैव प्रतिषेधात् तदारम्भदोषेण योगात्, यदृच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तः नासौ तदर्थ इत्यारम्भदोषायोगात, दृश्यते च कदाचित् सूतकादाविव सर्वेभ्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रहणान्न दोष इति ।
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