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दुमपुष्किया ( मपुष्पिका )
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क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरार्थी ( तीरस्थ) ये 'समण' के पर्यायवाची नाम हैं प्रकार -'समण' के पांच प्रकार हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवक' ।
१५. संति साहो ( ख ) :
'संति' के संस्कृत रूप 'संति' और 'शान्ति' दो बनते हैं । 'सन्ति' अस् धातु का बहुवचन है । 'सन्ति साहुणो' अर्थात् साधु हैं । 'शान्ति' के कई अर्थ उपलब्ध होते हैं- सिद्धि, उपशम, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, अकुतोभय और निर्वाण इस व्याख्या के अनुसार 'सन्ति साहो' का अर्थ होता है --सिद्धि आदि की साधना करनेवाला ।
चूर्णि और टीका में इसकी उक्त दोनों व्याख्याएँ मिलती हैं।
आगम में 'सन्ति' हिंसा विरति अथवा शान्ति के अर्थ में भी व्यवहृत हुआ है । उसके अनुसार इसका अर्थ होता है-अहिंसा की साधना करनेवाला अथवा शान्ति की साधना करनेवाला । प्रस्तुत प्रकरण में 'समण' शब्द निर्ग्रन्थ श्रमण का द्योतक है ।
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अध्ययन १ श्लोक ३ टि० १५-१७
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१६. साधु हैं (सायो
'साधु' शब्द का अर्थ है- सम्यक् ज्ञान-दर्शन- चारित्र के योग से अपवर्ग-मोक्ष की साधना करने वाला। जो छह जीवनिकाय का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर उनकी हिसा करने कराने और अनुमोदन करने से सर्वथा विरत होते हैं तथा अहिंसा, सत्य, अनीयं ब्रह्म और अपरिग्रह इन पाँचों में सकल दुःख क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं, वे साधु कहलाते हैं ।
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१७. दान भक्त ( दाणभत्त ):
श्रमण साधु सर्वथा अपरिग्रही होता है । उसके पास रुपये पैसे नहीं होते । शिष्य पूछता है- 'तब तो जैसे भ्रमर फूलों से रस पीता है। वैसे ही साधु क्या वृक्षों के फल और कन्द-मूल आदि तोड़कर ग्रहण करें ?' ज्ञानी कहते हैं- 'श्रमण फल-फूल, कन्द-मूल कैसे ग्रहण करेगा ? ये जीव हैं और वह सम्पूर्ण अहिंसा का व्रत ले चुका है। वृक्षों के फल आदि को ग्रहण करना वृक्ष सन्तान की चोरी है ।' शिष्य पूछता है- 'तब क्या श्रमण आटा-दाल आदि माँग कर आहार पकाएं ?' ज्ञानी कहते हैं- 'अग्नि जीव है। पचन-पाचन आदि क्रियाओं-आरम्भों में अग्नि, जल आदि जीवों का हनन होगा । अहिंसक श्रमण ऐसा नहीं कर सकता। शिष्य पूछता है 'तब श्रमण उदरपूर्ति कैसे करें ?" ज्ञानी कहते हैं वह दानभवत - दत्तभक्त की गवेषणा करे। चोरी से बचने के लिये वह दाता द्वारा दिया हुआ ले। बिना दी हुई कोई चीज कहीं से न ले और दत्त ले- अर्थात् दाता के घर स्व प्रयोजन के लिए बना प्रासुक- निर्जीव ग्रहण योग्य जो आहार पानी हो वह ले" । ऐसा करने से वह अहिंसा-व्रत की अक्षुण्ण रक्षा कर सकेगा ।' शिष्य ने पूछा- 'भ्रमर बिना दिया हुआ कुसुम-रस पीते हैं और श्रमण दत्त ही ले सकता है, तब श्रमरण को भ्रमर की उपमा क्यों दी गई है ?' आचार्य कहते हैं- 'उपमा एकदेशीय होती है। इस उपमा में अनियतवत्तिता
१ - नि० गा० १५८, १५६ : पन्वइए अणगारे पासंडे चरग तावसे भिक्खू । परिवाइये य समणे निग्गंथे संजए मुते ॥ तिने ताई दविए मुणीय खंते य दंत विरए य । लूहे तोरट्ठेऽविय हवंति समणस्स नामाइ ॥ २- हा० टी० प० ६८ : निग्गंथसक्कताव सगेरुयआजीव पंचहा समणा । ३- (क) हा० टी० प० ६८ : सन्ति-विद्यन्ते शान्ति :- सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्तिसाधवः ।
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(ख) अ० चू० पृ० ३२, ३३: सन्ति विज्जंति खेत्तंतरेसुवि एवं धम्मताकहणत्थं । अहह्वा सन्ति - सिद्धि साधेंति संतिसाधवः । उवसमो वासन्ती तं सार्हेति सन्तिसाहवो । नेव्वाण - साहणेण साधवः ।
(ग) जि० ० पृ० ६६ शान्तिनाम ज्ञानदर्शनचारित्राणि अभिधीयन्ते तामेव गुणविशिष्ट शान्ति साधयन्तीति सामयः, अहवा संति अकुतोभयं भण्णइ ।
४ – (क) सू० १.११.११ उड्ढ अहे य तिरियं जे केइ तस्थावरा । सम्वत्थ विरति विज्जा, सन्ति निव्वाणमाहियं ।
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(ख) उत्त० १२.४४ : कम्मेहा संजमजोगसंती । उत्त० १८.३८ : संती संतिकरे लोए ।
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नि० ० गा० १४६, हा० टी० प० ७६: साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगं रपवर्गमिति साधवः ।
६- ( क ) नि० गा० ६३, हा० टी० प० ६३ : प्रव्रजिताः षड्जीव निकायपरिज्ञानेन कृतकारितादिपरिवर्जनेन च ।
(ख) भा०गा० १, हा० टी० प० ६३ : एस पइन्नासुद्धी, हेऊ अहिंसाइएस पंचसुवि। सब्भावेण जयंती, हेउविसुद्धी इमा तत्थ ॥ ७--- (क) लि० गा० १२३ सि दत्तगिष्ण भले भज सेव फागेणया एसगतिगंमि निरया उपसंहारस्स सुद्धि हमा।। दन्तिनादसम्भवत तदपि भक्तं प्रामुकं न पुनराधकर्मादि । दानभक्तैषणे - दात्रा दानाय आनीतस्य भक्तस्य एषणे ।
(ख) हा० टी० प० ६ (ग) तिलकाचार्य वृत्ति
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