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दसवेप्रालियं ( दशवकालिक )
अध्ययन १ : श्लोक ३ टि. १३-१४ १३. मुक्त ( मुत्ता क ) : पुरुष चार प्रकार के होते हैं
(१) बाह्य परिग्रह से मुक्त और आसक्ति से भी मुक्त । (२) बाह्य परिग्रह से मुक्त किन्तु आसक्ति से मुक्त नहीं । (३) बाह्य परिग्रह से मुक्त नहीं किन्तु आसक्ति से मुक्त ।
(४) बाह्य परिग्रह से मुक्त नहीं और आसक्ति से भी मुक्त नहीं । यहाँ 'मुक्त' का अर्थ है-ऐसे उत्तम श्रमण जो बाह्य-परिग्रह और आसक्ति दोनों से मुक्त होते हैं । १४. श्रमण ( समणा क ) :
'समण' के संस्कृत रूप-...समण, समनस्, श्रमण और शमन-ये चार हो सकते हैं। व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ_ 'समण' का अर्थ है सब जीवों को आत्म-तुला की दृष्टि से देखनेवाला समता-सेवी । 'समनस्' का अर्थ है राग-द्वेष रहित मनवालामध्यस्थवृत्ति वाला । ये दोनों आगम और नियुक्तिकालीन निरुक्त हैं। इनका सम्बन्ध 'सम' (सममणति और सममनस्) शब्द से ही रहा है। स्थानाङ्ग-वृत्ति में 'समन' का अर्थ पवित्र मनवाला भी किया गया है । टीका-साहित्य में 'समण' को 'श्रम' धातु से जोड़ा गया और उसका संस्कृत रूप बना 'श्रमण' । उसका अर्थ किया गया है.----तपस्या से श्रान्त या तपस्वी । 'शमन' की व्याख्या हमें अभी उपलब्ध नहीं है।
___'समण' को कैसा होना चाहिए या 'समण' कौन हो सकता है-यह नियुक्ति में उपमा द्वारा समझाया गया है। प्रवृत्तिलभ्य अर्थ
समण' की व्यापक परिभाषा 'सूत्रकृताङ्ग' में मिलती है। “जो अनिश्रित, अनिदान ----फलाशंसा से रहित, आदानरहित, प्राणातिपात, मृषावाद, बहिस्तात् अदत्त, मैथुन और परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष और सभी आस्रवों से विरत, दान्त, द्रव्य - मुक्त होने के योग्य और व्युत्सृष्ट-काय-- शरीर के प्रति अनासक्त है, वह समण कहलाता है । पर्यायवाची नाम
'समण' भिक्षु का पर्याय शब्द है । भिक्षु चौदह नामों से वचनीय है। उनमें पहला नाम 'समण' है। सब नाम इस प्रकार हैं -- समण, माहन (ब्रह्मचारी या ब्राह्मण), क्षान्त, दान्त, गुप्त, मुक्त, ऋषि, मुनि, कृती (परमार्थ पंडित), विद्वान्, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी और चरण-करण पारविद् ।
- नियुक्ति के अनुसार प्रवजित, अन गार, पाखण्डी, चरक, तापस, परिव्राजक, समण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्राता, द्रव्य, मुनि,
१-ठा० ४.६१२:चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं० मुत्ते णाममेगे मुत्ते, मुत्ते णाममेगे अमुत्ते, अमुत्ते णाममेगे मुत्ते, अमुत्ते णाममेगे अमुत्ते। २ हा० टी० प०६८ : 'मुक्ता' बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन। ३-नि० गा० १५४ : जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो॥ ४-नि० गा० १५५-१५६ : नत्थि य सि कोई वेसो पिओ व सब्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ।
तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु॥ ५- स्था० टीका पृ० २६८ : सह मनसा शोभनेन निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसः । ६- सू० १.१६.१ टी०प० २६३ । श्राम्यति --तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः ॥ ७-हा० टी०प०६८ : श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः । ८-नि० गा० १५७ : उरग-गिरि-जलण-सागर-नहयल-तरुगण समो य जो होइ । भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो जओ समणो॥ ६-सू० १.१६.२ : एत्थवि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च, अतिवायं च, मुसावायं च, बहिद्धच, कोहं च, माणं च, मायं
च, लोहं च, पिज्जं च, दोसं च, इच्चेव जओ जओ आदाणं अप्पणो पद्दोसहेऊ तओ तओ आदाणातो पुव्वं पडिविरते
पाणाइवाया सिआदते दविए वोसट्टकाए समणेत्ति वच्चे। १०–सू० २.१.१५ : उपसंहारात्मक अंश : से भिक्खू परिण्णायकम्मे परिण्णायसंगे परिण्णायगेहवासे उवसते समिए सहिए सया जए,
सेवं वयणिज्जे, तजहा-समणेति वा, माहणेति वा, खंतेति वा, दंतेति वा, गुत्तेति वा, मुत्तेति वा, इसीति वा, मुणीति वा, कतीति वा, विऊति वा, भिक्खूति वा, लूहेति वा, तोरट्ठीति वा, चरण-करण-पारविउति बेमि ।
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