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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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११२. अण्डों एवं काण्ड-कोट से युक्त काण्ड आदि पर ( सचित्तकोलपडिनिस्सिए ) :
सूत्र 'के इस वाक्यांश का प्रतिनिश्रित' शब्द सचित्त और कोल- दोनों से सम्बन्धित है । सचित्त का अर्थ अण्डा और कोल का अर्थ युग-काष्टकीट होता है और काकीट हो वैसे काष्ठ आदि पर ।
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११३. सोये ( तुट्ट ज्जा ) :
(ख) सीना, करवट लेगा।
सूत्र २३ :
११४. सिर (सीसि ) :
अगस्त्य में 'सिया के पश्चात् उदसीसिवा है अपूरी और दोषिकाकार ने 'उदरसिया' के पश्चात् 'सोसिया' माना है किन्तु टीका में वह व्याख्यात नहीं है । 'वत्थंसि वा' के पश्चात् 'पडिग्गहंसि वा' 'कंबलंसि वा' 'पात्रपुंछसि वा' ये पाठ और हैं, उनकी टीकाकार और अवचुरीकार ने व्याख्या नहीं की है। दीपिकाकार ने उनकी व्याख्या की है। अगस्त्य रिंग में 'वत्यसि वा' नहीं है, 'कंपलसिवा' है। पाय' (पाद) रहर (एमोहरण) का पुनरूरत है पावनदेन जोहरणमेव गृह्यते' (ओषनियुक्ति गाथा ७०२ वृत्ति) | पादच्छन् रजोहरणम् (स्वाङ्ग ५.७४ टी० पृ० २२० ) । इसलिए वह अनावश्यक प्रतीत होता है। अगस्त्य और पाय' दोनों पावलावर है।
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११५. रजोहरण ( श्यहरणंति ) :
स्थानाङ्ग (५.१९१ ) और बृहत्कल्प (२.२९) में ऊन, ऊँट के बाल, सन, वच्चक नाम की एक प्रकार की घास और मूँज का रजोहरण करने का विवान है ओषनिति (७०६) में ऊन ऊँट के बाद और कम्बल के रजोहरण का विधान मिलता है उन आदि के धागों को तथा ऊंट आदि के बालों को बंट कर उनकी कोमल फलियाँ बनाई जाती हैं और वैसी दो सौ फलियों का एक रजोहरण होता है । रखी हुई वस्तु को लेना, किसी वस्तु को नीचे रखना, कायोत्सर्ग करना या खड़ा होना, बैठना, सोना और शरीर को सिकोड़ना सारे कार्य प्रमानपूर्वक स्थान और शरीर को किसी सामन से करा साफकर) करणीय होते हैं। है । वह मुनि का चिह्न भी है'
प्रमार्जनका साधन रजोहरण
अध्ययन ४ सूत्र २३ टि० ११२ ११५
इस गाथा में रात को चलते समय प्रमाण पूर्वक (भूमि को अँधेरे में दिन को भी उससे भूमि को साफ कर चला जाता है। यह भी भी कहा जाता है ।
आयाणे निरीये डागनिसकोए ।
पुवं पमज्जगट्टा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥ ओघ नियुक्ति ७१०
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हारते हुए) चलने का कोई संकेत नहीं है किन्तु रात को या उसका एक उपयोग है। इसे पादप्रोञ्छन धर्मध्वज और ओद्या
(क) ० ० ० ० पति-पडिणिस्ते या परिणिति सो दो वि सविपरित उगादिकता पुणा तेजसेति। (ख) जि०
० चू० पृ० १५७ : सचित्तकोल पडिणिस्सियसद्दो दोसु वट्टइ, सचित्तसद्दे य कोलस य, सचित्तपडिणिस्सियाणि दारुयाणि सचित्तको पनिस्सिताणि तत्य सचित्तगहणेण अंडगउद्देहिगादीहि अणुगताणि जाणि दारुगादीनिस चित्तसियाचि नाम कोलो युगो भन्यति सो कोलो जे दाने प्रगताथिको डिनिस्वाणि । (ग) हा० टी० प० १५५ सचितानि - अण्डकादीनि कोलः - पुणः ।
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२ (क) अ० चू० पृ० ६०: गमनं चंकमणं, चिटुणं ठाणं णिलीदणं उपविसणं, तुयट्टणं निवज्जणं ।
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(ख) जि० चू० पृ० १५७ गमणं आगमणं वा चंक्रमणं भण्इ, विदुणं नाम तेति उवर ठियस्त अच्छणं, निसीयण उवद्वियस्स
जं आवेसणं ।
(ब) हा० टी० प० १५५ स्थानम् एव नियोजन उपवेशनम्। ३- जि०
१० चू० पृ० १५७: तुयट्टणं निवज्जणं ।
४- हा० टी० प० १६६ : पादपुंछन' रजोहरणम् ।
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