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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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वास्तविक स्वरूप को भी जान लेता है और इस तरह मोहाभाव को प्राप्त हो सम्यक् विचार से इन सुखों के समूह को दुःख स्वरूप समझ उनसे विरक्त हो जाता है ।
अध्ययन ४ श्लोक १७-१८ टि० १५२-१५३
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मूल में 'निव्विदए' शब्द है । इसकी उत्पत्ति दो धातुओं से हो सकती है- निव्विद ( निर् + विन्द् ) = निश्चयपूर्वक जानना, भलीभाँति विचार करना । निर् + विघृणा करना, विरक्त होना, असारता का अनुभव करना । सूत्र में दिव्य और मानुषिक दो तरह के भोगों का ही नाम है। पूर्णिकार कहते हैं समावेश होता है । 'चकार' से तिर्यञ्चयोनिक भोगों का बोध होता है । 'मानुषिक' - मनुष्यों के वास्तव में भोग दो ही तरह के हैं दिव्य और मानुषिक शेष भोग वस्तुतः भोग नहीं होते ।
श्लोक १७:
१५२. श्लोक १७:
संयोग दो तरह के होते हैं बाह्य और आभ्यंतर । संयोग का अर्थ है-ग्रन्थि अथवा सम्बन्ध । स्वर्ण आदि का संयोग बाह्य संयोग है । क्रोध, मान, माया और लोभ का संयोग आभ्यन्तर संयोग है। पहला द्रव्य-संयोग है दूसरा भाव-संयोग । जब मनुष्य दिव्य और मानुषिक भोगों से निश्त होता है तब वह वाह्य और आभ्यन्तर पदार्थों व भावों की मूर्च्छा, ग्रंथि और संयोगों को भी छोड़ता है ।
श्लोक १८ :
दिन में दैविक और संरकि मोगों का भोग का द्योतक है । हरिभद्र कहते हैं
१५३. लोक १८:
जो केश-लुञ्चन करता है और जो इन्द्रियों के विषय का अपनयन करता है, उन्हें जीत लेता है, उसे मुण्ड कहा जाता है । मुण्ड होने का पहला प्रकार शारीरिक है और दूसरा मानसिक । स्थानाङ्ग (१०.१९) में दस प्रकार के मुण्ड बतलाए हैं :
१- क्रोध-मुण्ड क्रोध का २- मान-मुण्डमान का ३- माया मुण्ड माया का
अपनयन करने वाला । अपनयन करने वाला । अपनयन करने वाला ।
४ - लोभ- मुण्ड -- लोभ का अपनयन करने वाला ।
५- शिर मुण्ड - शिर के केशों का लुञ्चन करने वाला ।
६- श्रोत्रेन्द्रिय-मुण्ड - कर्णेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला ।
७ - चक्षु इन्द्रिय-मुण्ड - चक्षु इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला ।
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१ – (क) अ० चू० पृ० ४, ६५ : भुज्जंतीति भोगा ते णिविंदति णिच्छितं विदति-विजानाति, जहा एते बहुकिले से हि उप्पादिया विकिपगफलमा जे दिव्या दिवि भया दिष्या मसेतु भवा माणुसा ओरालियसारिस्त्रेण मासाभियातिरिया विभणिया भवंति | अहवा जो दिव्व- माणुसे परिजानाति तस्स तिरिए कि गहणं ? जे य माणुसा इति चकारेण वा भणितमिदं ।
(ख) जि० ० ० १६२ जतीति भोगा शिच्यं वदतीति निम्बिदति विधिह्मणेयव्यगारं वा विद निब्बिदद, जहा एते fitपागफल माणा दुरंता भोगत्ति, ते य निव्विदमाणो दिव्वा वा निव्विदइ माणुस्सवा, सीसो आह – कि तेरिच्छा भोगा न निदिइ ? आपरिओ आह- दिव्यगण बेबनेरइया गहिया, मागुत्सवणेण मागुता, चकारेण तिरिखजोगिया गहिया ।
(ग) हा० टी० प० १५१ निविन्ते मोहाभावात् सम्यविचारवत्यसारदुःखरूपतया 'भोगान्' शब्दादीन् यान् दिव्यान् यांच मानुषान् वास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति ।
२ (क) अ० चू० पृ० ६५ : परिच्चयति 'सभितर बाहिरं' अभितरो कोहादि बाहिरो सुवण्णादि ।
(ख) जि० पू० पृ० १६२ बाहरं अनंत च तत्थ बाहिरं सुबन्नादी अनंतरं कोहमागमायालो भाई ।
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(ग) हा० टी० प० १५६ : 'संयोगं' संबन्धं द्रव्यतो भावतः 'साभ्यन्तरबाह्य" क्रोधादि हिरण्या दिसंबन्धमित्यर्थः । ३-२००० २५मुंडे' इन्दिय-विसय-केस वणवण मुंडो
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