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दसवेआलियं ( दशवैकालिक)
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अध्ययन ४: सुत्र १५-१६ टि० ५८-५९ साथ -जैसे प्रतिमा या मृत शरीर के साथ । रूप सहित मैथुन तीन प्रकार का होता है--दिव्य, मानुषिक और तिर्यञ्च सम्बन्धी। देवी - अप्सरा सम्बन्धी मथुन को दिव्य कहते हैं । नारी से सम्बन्धित मैथुन को मानुषिक और पशु-पक्षी आदि के साथ के मैथुन को तिर्यञ्च विषयक मथुन कहते हैं । इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार है--रूप अर्थात् आभरण रहित, रूपसहित अर्थात् आभरण सहित ।
सूत्र १५: ५८. परिग्रह को ( परिग्गहाओ ) : चेतन-अचेतन पदार्थों में मुभिाव को परिग्रह कहते हैं ।
सूत्र १६ : ५६. रात्रि-भोजन की ( राईभोयणाओ) :
रात में भोजन करना इसी सूत्र के तृतीय अध्ययन में अनाचीर्ण कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में रात्रि-भोजन-विरमण को साधु का छट्ठा व्रत कहा है। सर्व प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच विरमणों का स्वरूप बताते हुए उन्हें महाव्रत कहा है, जबकि सर्व रात्रिभं जन-विरमण को केवल 'व्रत' कहा है। उत्तराध्ययन २३, १२, २३ में केशी-गौतम के संबाद में श्रमण भगवान महावीर के मार्ग को पांच शिक्षा वाला' और पाश्व के मार्ग को 'चार याम-वाला' कहा है। आचार घुला (१५) में तथा प्रश्नव्याकरण सूत्र में संवरों के रूप में केवल पाँच महाव्रत और उनकी भावनाओं का ही उल्लेख है। वहाँ रात्रि भोजन-विरमण का अलग उल्लेख नहीं है । जहाँ-जहाँ प्रव्रज्याग्रहण के प्रसंग हैं, वहाँ-वहाँ प्रायः सर्वत्र पाँच महाव्रत ग्रहण करने का ही उल्लेख मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि सर्व हिंसा आदि के त्याग की तरह रावि-भोजन-विरमण व्रत को याम, शिक्षा या महाव्रत के रूप में मानने की परंपरा नहीं थी।
दूसरी ओर इसी सूत्र के छ? अध्ययन में श्रमण के लिए जिन अठारह गुणों की अखण्ड साधना करने का विधान किया है, उनमें सर्व प्रथम छ: व्रतों (वयछक्क) का उल्लेख है और सर्व प्राणातिपात यावत् रात्रि-भोजन-विरमण पर समान रूप से बल दिया है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० १६) में साधु के अनेक कठोर गुणों-आचार का--उल्लेख करते हुए प्राणातिपात-विरति आदि पाँच सर्व विरतियों के साथ ही रात्रि-भोजन त्याग (सर्व प्रकार के आहार का रात्रि में वर्जन) का भी उल्लेख आया है और उसे महाव्रतों की तरह ही दुष्कर कहा है । रात्रि-भोजन का अपवाद भी कहीं नहीं मिलता। वैसी हालत में प्रथम पाँच बिरमणों को महाव्रत कहने और रात्रि-भोजन विरमण को व्रत कहने में आचरण की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं, यह स्पष्ट है। रात्रि-भोजन-विरमण सर्व हिंसा-त्याग आदि महाव्रतों की रक्षा के लिए ही है इसलिए साधु के प्रथम पाँच व्रतों को प्रधान गुणों के रूप में लेकर उन्हें महाव्रत और सर्व रात्रि-भोजन-विरमण व्रत को उत्तर (सहकारी) गुणरूप मान उसे मूलगुणों से पृथक् समझाने के लिए केवल 'व्रत' की संज्ञा दी है। हालाँकि उसका पालन एक साधु के लिए उतना ही अनिवार्य माना है जितना कि अन्य महाव्रतों का। मैथुन-सेवन करने वाले की तरह ही रात्रि-भोजन करने वाला भी अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
सर्व रात्रि-भोजन-विरमण व्रत के विषय में इसी सूत्र (६.२३.२५) में बड़ी ही सुन्दर गाथाएँ मिलती हैं। रात्रि-भोजन-विरमण व्रत में सन्निहित अहिंसा-दृष्टि स्वयं स्पष्ट है।
रात को आलोकित पान-भोजन और ईर्यासमिति (देख-देख कर चलने) का पालन नहीं हो सकता तथा रात में आहार का संग्रह करना अपरिग्रह की मर्यादा का बाधक है। इन सभी कारणों से रात्रि-भोजन का निषेध किया गया हैं। आलोकित पान-भोजन और ईसिमिति अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ हैं ।
१- (क) अ० चू० पृ०८४: दव्वतो रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दम्वेसु, रूवं-पडिमामयसरीरादि, रूवसहगतं सजीवं । (ख) जि० चू० पृ० १५० : दव्वओ मेहुणं रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु. तत्थ रूवेत्ति णिज्जीवे भवइ, पडिमाए वा मय.
सरीरे वा, रूवसहगयं तिविहं भवति, तं० - दिव्वं माणुसं तिरिक्खजोणियंति । हा० टी०प० १४८ : देवीनामिदं देवम्, अप्सरोऽमरसंबन्धीतिभावः, एतच्च रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, तत्र
रूपाणि -निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीवानि । २-(क) अ० चू० पृ० ८४ : अहवा रूवं आभरणविरहितं, रूबसहगतं आभरणसहितं।
(ख) जि० चू० पृ १५० : अहवा रूवं भूसणवज्जियं, सहगयं भूसणेण सह ।
(ग) हा० टी० ५० १४८ : भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि । ३- जि० चू० पृ० १५१ : सो य परिग्गहो चेयणायणेसु दव्वेसु मुच्छानिमित्तो भवइ । ४-(क) आ००१५.४४ ।
(ख) प्रश्न० सं०१।
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