Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 13
________________ हेतु ज्ञान - पुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त ग्रथन करते है । " 'अर्हन्त अर्थरूप से उपदेश देते हैं और गणधर निपुणतापूर्वक उसको सूत्र के रूप में गूंथते हैं। इस प्रकार धर्मशासन के हितार्थ सूत्र प्रवर्तित होते हैं। ' २ अर्थात्मक ग्रन्थ के प्रणेता तीर्थंकर हैं। आचार्य देववाचक ने इसीलिए आगमों को तीर्थंकरप्रणीत कहा है। प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से ही नहीं किन्तु अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। आचार्य मलयगिरि आदि का अभिमत है कि गणधर तीर्थंकर के सन्मुख यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्त्व क्या है ? उत्तर में तीर्थंकर 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इस त्रिपदी का उच्चारण करते हैं। इस त्रिपदी को मातृका - पद कहा जाता है, क्योंकि इसके आधार पर ही गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। यह द्वादशांगी रूप आगम- साहित्य अंगप्रविष्ट के रूप में विश्रुत होता है। अवशेष जितनी भी रचनाएँ हैं वे सब अंगबाह्य हैं। द्वादशांगी त्रिपदी से उद्भूत है, इसलिए वह गणधरकृत है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि गणधरकृत होने से सभी रचनाएं अंग नहीं होतीं, त्रिपदी के अभाव में मुक्त व्याकरण से जो रचनाएं की जाती हैं, भले ही उन रचनाओं के निर्माता गणधर हों अथवा स्थविर हों, वे अंगबाह्य ही कहलाएंगी। स्थविर के दो भेद हैं- चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी । वे सूत्र और अर्थ की दृष्टि से अंग साहित्य के पूर्ण ज्ञाता होते हैं। वे जो भी रचना करते हैं या कहते हैं, उसमें किंचित् मात्र भी विरोध नहीं होता । आचार्य संघदास गणी का अभिमत है कि जो बात तीर्थंकर कह सकते हैं, उसको श्रुतकेवली भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं तो श्रुतकेवली श्रुतज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं। उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं कि वे नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं। वे सदा निर्ग्रन्थ-प्रवचन को आगे करके ही चलते हैं। उनका उद्घोष होता है कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, नि:शंक है, यही अर्थ है, परमार्थ है, शेष अनर्थ है। अतएव उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में द्वादशांगी से विरुद्ध की सम्भावना नहीं होती। उनका कथन द्वादशांगी से अविरुद्ध होता है। अतः उनके द्वारा रचित ग्रन्थों को भी आगम के समान प्रामाणिक माना गया है। १. २. ३. ४. तो तवणियमणाणरुवखं आरूढो केवली अमियनाणी । मुयइ नाणवुद्धिं भवियजणविवोहणट्ठाए ॥ तं बुद्धिमण पडेण गणहरा गिहिउं णिरवसेसं । तित्त्थयरभासियाई गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥ अत्यंभास अरहा सुतं गंथंति गणहरा णिउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ बृहत्कल्पभाष्य गाथा ९५३ से ९६६ बृहत्कल्पभाष्य गाथा १३२ [१२] - आवश्यक निर्युक्ति गा. ८९-९० - विशेषावश्यक भाष्य गा. १११९

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