Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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उद्देशक १.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पसी सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमाहिसीणं सपरिवाराणं, अण्णेसिं च बहणं पिसायाणं देवाणं, देवीणं य
आहेवणं, जाव-विहरइ; एवं महिड्डीए, एवइयं च णं पभू विउवित्तए जाव-केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं जाव-तिरियं संखेजे दीवसमुद्दे”. इत्यादि
एवं जाव-थणियकुमार'त्ति ] धरणना प्रकरणनी पेठे भूतानंदथी मांडी महाघोष सुधीना भवनपतिना इंद्रो संबंधी प्रकरणो कहेवा. तेमां धरण आदि जदोन नामो आ गाथाने अनुसारे कहेवानां छ:-"चमेर, धरण, वेणुदेव, हरिकांत, अग्निशिख, पूर्ण, जलकांत, अमित, विलंब-(विलेब) परिवार.
ने घोष." ए (दशे) बधा दक्षिणनिकायना इंद्रो छे. अने “ बैलि, भूतानंद, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमाणव, वशिष्ट, जलप्रम, अमितवाहन, प्रभंजन अने महाँघोष." ए (दशे) बधा उत्तरनिकायना इंद्रो छे. एओनी भवन संख्या 'चउत्तीसा चउचत्ता' इत्यादि आगळ
डेली बेगाथाओथी जाणवी. तथा एओना सामानिकोनी अने अंगरक्षकोनी संख्या आ प्रमाणे छ:-"चमरेंद्रनों चोसठ हजार सामानिको छे, बलि इंद्रना साठ हजार सामानिको छे अने असुर सिवाय बीजा बधाना छ हजार सामानिको छे. जेटला सामानिको छे एनाथी चार गणा दरेकने अंगरक्षको
धरण वगेरे दरेकने छ छ पट्टराणीओ छे. पट्टराणी विषेना सूत्रनो अमिलाप तो धरणसूत्रनी पेठे करवो. [ 'वाणवंतर-जोइसिआ वित्ति ] धरणेंद्रनी पटे व्यंतरेंद्रो पण परिवारसहित कहेवा. ए व्यंतरोमां प्रत्येक निकाये-एक दक्षिणनो अने एक उत्तरनो-एम बेबे इंद्रो होय छे. ते आ प्रमाणे:--"काल अने महाकाल, सुरूप अने प्रतिरूप, पूर्णभद्र अने अमरपति-(इंद्र) मणिभद्र, भीम अने महाभीम, किंनर अने किंपुरुष, सत्पुरुष अने महापुरुष, अतिकाय अने महाकाय, गीतरति अने गीतर्यश." ए व्यंतरोने अने ज्योतिपिकोने त्रायस्त्रिंशो तथा लोकपालो नथी होता, माटे ते अहीं न कहेवा. तेओने चार हजार ( ४०००) सामानिक देवो होय छे, अने एनाथी चारगणा (१६०००) आत्मरक्षक देवो होय छे. दरेकने चार चार पट्टराणीओ होय छे. ए बधाओमा दक्षिणना इंद्रो संबंधे अने सूर्य संबंधे अग्निभूति पूछे छे; तथा उत्तरना इंद्रो संबंधे अने चंद्र संबंधे वायुभूति पूछे छे. तेमां दक्षिणना देवो अने सूर्य संपूर्ण जंबूद्वीपने पोतानां रूपोथी भरी शके छे अने उत्तरना देवो तथा चंद्र आखा जंबूद्वीप करतां वधारे भागने पोतानां रूपोथी भरी शके छे, एम कहे. आ वाचनामां जे वातनी सूचना करवामां आवी नथी ते वातनी पण टीका-व्याख्या करवामां आवी छे तो ते भाग, बीजी वाचनानो बीजी वाचा आश्रय लईने कह्यो छे एम समजवं. तेमां कालेंद्रना सूत्रनो अभिलाप आ प्रमाणे छ:-"काले णं भंते ! पिसायइंदे, पिसायराया केमहिड्डीए, (इत्यादि अने) केवइअंच णं पभू विउवित्तए ? गोयमा ! काले णं महिड्डीए, (इत्यादि) से णं तत्थ असंखेज्जाणं नगरावाससयसहस्साणं, चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, अन्नसिं च बहूणं पिसायाणं देवाणं, देवीण य आहेवचं, जाव-विहरइ. एवं महिड्डीए. (इत्यादि) एवइयं च णं पभू विउवित्तए, जाव-केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं जाव-तिरियं संखेजे दीव-समुद्दे" इत्यादि.
देवराज शकेंद्र. १०. प्र०-भंते !'त्ति भगवं दोचे गोयमे अग्गिभई अणगारे १०. प्र०—'हे भगवन् ! एम कही भगवान् गौतम बीजा समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ,नमंसित्ता एवं वयासी:-जइ णं अग्निभूति अनगार श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे अने भंते ! जोइसिंदे, जोइसराया एमहिडीए, जाव-एवइयं च णं पभू नमीने तेओ आ प्रमाणे बोल्या केः-हे भगवन् ! जो ज्योतिषिविकन्वित्तए, सके णं भंते । देविंदे, देवराया केमहिडीए, जाव- केंद्र, ज्योतिषिक राजा एवी मोटी ऋद्धिवाळो छे अने यावत्केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ?
एटलं विकुर्वण करी शके छे, तो देवेंद्र, देवराज शक्र केवी मोटी ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-केटलुं विकुर्वण करी शके छ ?
६, ५, ५). 4.०० १०८ मां ) छ. प्रभंजन, महाघोष, अलारण, हरि, वेणुदेव, अमिशित
१. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रमा चोथा अध्यायना छट्ठा सूत्रमा आ नामो आवी रीते छे:-चमर, धरण, हरि, वेणुदेव, अग्निशिख, वेलंब, सुघोष, जलकांत, पूर्ण, अने अमित. २. तथा बलि, भूतानंद, हरिसह, वेणुदारी, अग्निमाणव, प्रभंजन, महाघोष, जलप्रभ, वशिष्ट अने अमितवाहन. ३. आ बन्ने गाथाओ अंसुरादिना इंद्रोनी गणनामां (प्र. सू. क. आ० पृ. १०८ मां) छे. ४. आ गाथा पण प्रज्ञापना सूचना ए ज स्थळे छे, अने आ त्रणे गाथाओनो अनुक्रम त्यां आ. रीतिए छे. (६,७,५). ५. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रमा चोथा अध्यायना छटा सूत्रमा आ नामो आवी रीते छे:-किंनर-किंपुरुष, सत्पुरुष-महापुरुष, अतिकाय-महाकाय, गीतरति-गीतयश, पूर्णभद्र-मणिभद्र, भीम-महाभीम, प्रतिरूप-अतिरूप अने काल-महाकाल. ६. आ बे संग्रह गाथाओ व्यतरोनी वर्णनाना अधिकारमा (प्र. सू० मू. क. आ० पृ. ९१ मां) समनताए जोवामां आवे छे. ७. आने समान पाठ-प्र. क. आ. पृ० ११२ मां) ए स्थळे पिशाचंद्रना चालु अधिकारमा छः-अनु. .
१. मूलच्छायाः-भगवन् ! इति, भगवान् द्वितीयो गौतमोऽग्निभूतिरनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, नमस्यित्वा एवम् अवादीत:अदि. भगवन् । ज्योतिषेन्द्रः, ज्योतिषराजः, एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम्, शक्रो भगवन् । देवेन्द्रः, देवराजः किंमहर्द्धिकः, यावत्-कियच प्रभुर्विनुर्वितुम् ?–अनु०
१. शकेंद्रः-ए सौधर्म देवलोकनो इंद्र छे. सौधर्म देवलोक जैन गणनाए एटले उंचे छे:-जंबूद्वीपना मेरु पर्वतनी पासेनी समतला भूमिथी ८०० 'योजनो उपर सूर्यदेवनी राजधानी, एथी ८० योजनो उपर चंद्र देवनी राजधानी, एथी २० योजनना अंतरमा ग्रहो, नक्षत्रो, अने ताराओनां विमानों; अने तेथी असंख्य योजनो उपर सौधर्म देवलोक छ तेनी स्थिति घनोदधिने आधारे छे, त्यांना विमानोनी संख्या बत्रीस लाखनी छे. (जी० सू० क. भा० पृ. ९२६ थी तेनो वर्णक आवो छे.)"तेओमांना आवलिकामा रहेलां' विमानो-गोळ, त्रिकोण ने समचोरस छे; त्यारे बीजांओ नानां आकरना, वर्ण, काळा, नीलां, लोहितो, हालिदो अने धोळा; गंधे-सुगंधो, अने स्पर्शे-अत्यंत कोमळो छे. त्यांना वतनीओने वैमानिक देवो कहे छे. तेओने भवधारणाय न उत्तरवकिय वे शरीरो होय छे, तेमांनुं भवधारणीयः-आंमळना असंख्याता भागथी यावत्-सात हाथर्नु, कांतिपूर्ण अने छए संघयणी, साते "तुला, तथा वन-आभूषणो विनानुं प्राकृत, दिव्य शोभाए शोभतुं होय छे. अने' उत्तरवैक्रियः-आंगळना असंख्यातमा भागथी यावत्-लाख योजनो
मनारस, क.नाना संस्थानोवाळू, कनकवर्णी, सुगंधी ने कोमळ होय छे. तेओनां श्वासोच्छ्वासमा अने आहारमा इट, कांत अने प्रिय अणुओ हाय. तआन-केवळ तेजोलेश्याः सम्यक, मिथ्या ने सम्यग्मिथ्या भावोः बे. केत्रण ज्ञानोः त्रण अज्ञानो; साकार अने निराकार उपयोगी; वेदना,
• पृ०
बानो उपर सौधर्मपाजनो उपर चंद्र देवनाए एटले उंचे को
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