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आचा०
॥३०४॥
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sai समुट्ठिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं सपेहाए धीरे मुहुत्तमवि, णोपमायए वओ अच्चेति जोव्वणं व. (सूत्र. ६५)
अथवा जे कारणथी ते वहालांओ संसार समुद्री तारवा के बीजाना भयथी रक्षण आपका समर्थ नथी एवं शास्त्रना उपदेशथी उत्तम पुरुषने समजाय तो तेणे शुं करवुं ते कहे छे ( इति शब्दनो उपर कहेलो अर्थ छे ) अमशस्त मूळ गुणस्थान ( संसारी विषय मुख) मां राचेला जीवने बुट्टापानी अशक्तिथी घेरातां हर्पना माटे के क्रीडाना माटे के भोगविलास माटे अथवा शरीरनी शोभामाटे योग्यता नथी (परंतु ते तेणे पहेलेथी समज जोइए) के संसारमां जे कंद सुख अथवा दुःख पढे छे, ते दरेक पोताना शुभ अशुभ कर्मनुं फळ वधा प्राणीओने भोगववानुं छे. एवं जाणीने ते समजेला प्राणीए पूर्वे कहेला पहेला अध्ययन शस्त्र परिज्ञामां बतावेल महाव्रतोमा स्थिर चित्तवाला बनीने साधुए विचारखुं के अहो (मारा पुन्य उदयथी आबुं निर्मळ चारित्र मल्युं छे. एम जाणीने) सुंदर विहार करवा योग्य छे." जेमां शास्त्रमां कहेल संयम अनुष्ठान छे. तेना माटे योग्य विहारमां तत्पर बनी जरा पण प्रमाद न करे. वली तेणे विचार जोइए के आर्य क्षेत्र उत्तम कुळमां जन्म वीतरागनो धर्म तेना उपर श्रद्धा अने आवां सुंदर महाव्रतो विगेरेनो सारो अवसर मने मल्यो छे. तो केवीरीते प्रमाद थाय तेथी विनेय (शिष्ये) तप संयममां जरापण खेद न पामतां उपर कट्टेल उत्तम वस्तु आर्य क्षेत्र प्राप्तिथी आनंद पामीने गुरु शुं कहे छे ते समजे. गुरु कहे छे के आ तारो योग्य अवसर छे, अनादि संसारमां घणा भव भ्रमतां तने धर्म प्राप्ति थवी घणी दुर्लभ छे. माटे हे धीर ! आ सारा अवसरने विचारीने तुं एक मुहूर्त्त (४८ मीनीटनी अंदरनो
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सूत्रम्
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