Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ४०२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओने जुदा जुदा दुःखोनी अवस्था जेमां थाय; ते “निकरण" अथवा "निकार” छे, अने तेज अशुभकर्म शरीर मननुं दुःख उत्पादक छे, ते कर्मने साधु न करे; एटले जेथी प्राणीओने पीडा थाय; तेनुं कृत्य साधु न करे; (साधुए कोइ पण जातनो पापारंभ न करवो) तेथी भुं थाय ते कहे छे. आजे सावय वेपारनी निवृत्तिरूपपरिज्ञा छे, तेज तत्वयी प्रकर्षथी 'परिज्ञान' कद्देवाय छे, पण शैलुन ( ठगनी ) माफक मोक्ष फळ रहित ज्ञान नथी. आ प्रमाणे ज्ञ परिज्ञा, तथा प्रत्याख्यान परिज्ञावडे प्राणीनो निकार (हिंसा) छोडवावडे साधुने मोक्ष पळे छे, एटले कर्मो शान्त पामे छे, संपूर्ण जोडला राग द्वेष विगेरेनां छे, ते वधां संसार झाडनां बीजरूप कर्म छे, तेनो क्षय थाय छे, ते जीवहिंसांनी क्रिया दूर करनारने थाय छे. अने आ कर्मक्षयम विरूप जीव हिंसानुं मूळ आत्मामां विषयवासनानुं ममत्व छे, ते दूर करवा कहे छे. जे ममामई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावो विइत्ता लोगं घंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कमिज्जासि तिबेमि ॥ नारई सहई " वीरे, वीरे न सहई रतिं । जम्मा अविमेण वोरे. तम्हा वीरे न रज्जइ ॥१॥ (सू० ९८) संसारी जड वस्तुमां मारापणानी मति तेने जे साधु परिग्रहना कडवां फळ जाणे छे, ते छोडे छे, ते परिग्रह द्रव्यथी अने For Private and Personal Use Only सूत्रम् 1180211

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204