Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org peoporopeareroorea ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ( श्रीसुधर्मास्वामीए रचेलुं भने श्रीश्रुतकेवली भद्रबाहुरचित नियुक्तिसहित ) ॥ आचाराङ्गसूत्रम् ॥ भाग बीजो ' मूळ अने शीलाङ्काचार्ये रचेली टोकाना भाषांतरसहित ) 9000 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जामनगर निवासी स्व० पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मरणार्थे संवत १९८९ छपावी प्रसिद्ध करनार - पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु. २-८-० श्रीजैनभास्करोदय मिटिंग प्रेसमां छाप्युं जामनगर. crocepooclacecoco For Private and Personal Use Only प्रति २०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie आचा० 45- 15 सूत्रम् ॥२२॥ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ श्रीआचारांगसूत्रम् ॥ ( मुळ अने शीलांकाचायें रचेली टीकार्नु भाषान्तर ) (भाग बीजो) छपावी प्रसिद्ध करनार-पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगर) ॥२२१॥ HOREOGRACEUROCESCREEG नमः श्रीवर्कमानाय, वर्डमानाय पर्ययैः । उक्ताचार प्रपञ्चाय, निष्प्रपञ्चायतायिने ॥१॥ श्री वर्धमान स्वामीने नमस्कार थाओ जेओ पर्याय (आत्माना उत्तम गुणो) वडे निरंतर वघेला छे. तथा आचारनो विस्तार जेमणे कयो छे तथा संसारी प्रपंच (रागद्वेष) थी सर्वथा मुक्त छे अने सर्व जीवोना रक्षक छे. शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं प्रज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमिद्वेर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥२॥ 3 45696 For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२२२॥ PI शस्त्रपरिज्ञा नामर्नु पहेलुं अध्ययन जे घणुं गंभीर छे, तेनुं विवरण गंधहस्तिनामना श्रेष्ट आचार्ये कहेलुं छे तेमांथी हुं कंइकविशेष आचा०18 खुलासो करुं छु. ते पहेलं अध्ययन पूर्वे कही गया. हवे बीजं अध्ययन कहेवाय छे. तेनो आवीरीतनो संबंध छे. | आ संसारमा मिथ्याख-उपशम-क्षय क्षयउपशम ए त्रणमांथी कोइपण सम्यक्त्व प्राप्त थयेला ज्ञानी साधु पुरुषने अत्यन्त ए-18 ॥२२२॥ कान्त बाधा रहित परमानंदरूप स्वतखनुं सुख जे आवरण रहित ज्ञान दर्शन (केवळज्ञान केवळदर्शन) प्राप्त थयेलाने मोक्षनुंज कारण छे. अने आश्रवनो निरोध अने निर्जरानी माप्ति छे. तथा मूळ-उत्तर एवा वे भिन्न गुणो छे एवं चारित्र छे अने बीजा बधा व्रतोनी व वृत्ति (निर्वाह) नो कल्प उत्पन्न करेल छे, तथा निर्विघ्ने बधा पाणीने संघटन परिताप अपद्रावण विगेरेथी दुःख न देवारूप जे ससर्वोत्तम चारित्र छे. ते चारित्रनी सिद्धि माटे आ अध्ययन छे. | मरणना अभावना प्रसंगथी पांचभूत रहित (चेतनरुप) आत्मानो धर्म केवळज्ञाननी प्राप्ति छे, जेथी एवा चारित्रनी तथा आत्मानी 18] तथा आत्माना गुणज्ञाननी तथा मोक्षनी प्राप्ति माटे आ सूत्रनुं अध्ययन छे ते बताव्यु हेR “ उपरना वाक्यथी ज्ञान प्राप्ति" तेथो बृहस्पतिना नास्तिक मतनुं खंडन कयु, कारण के ते पांच भूत माने छे ते भूतो जड छे 4 है अने आत्मा चेतन छे. तेनो गुणज्ञान छे ते बताव्युं छे. आ प्रमाणे सामान्यथी जीवनुं अस्तित्व स्वीकारी विशेषपणाथी जीवनो मो-& क्ष बताववादी बौद्ध विगेरे मतनुं खंडन थयु. कारण के जीवत्रणे काळमां होय तो तेना मोक्षनो संभव थाय. एकेन्द्रिय पृथ्वी, पाणी, अग्नि, पवन, वनस्पति विगेरे भेदवाळा जीवोने बतावी अनुक्रमे समान जातीयवाला पत्थरनी शीला For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२२३॥ R विगेरेनी उत्पत्ति हरस मसा जे मांसना अंकुरा छे, तेनी माफक पृथ्वीकायनी उत्पत्ति छे. आचा० | अविकारवाळी ( पडतर ) जमीन खोदवाथी देडकानी माफक पाणीनी उत्पत्ति छ, तथा विशेष उत्तम आहारथी वधवू; अने ४. विपरीत आहारथी हानि यवी. तेज प्रमाणे अर्भक (बाळक ) ना शरीरनी माफक अमिनी तुलना छे. ॥२२३॥ बीजानो मेरेलो अटक्या विना अनियत (एक सरखी नहि ) एवी तिरछी गतिवाळो गाय घोडानी माफक पवन बताव्यो अळता (स्त्रोओना शणगारमा वपरातो लाल रंग ) थी, तथा झांझरथी शणगारेली जुवान स्वीनी लताथी विकार पामता कामीपुरुषनी है Pमाफक वनस्पति खीले छे. ए प्रमाणे अनेक प्रयोगो छे, तथा ऊंचा अभिप्रायथी माथु उघाडीने (खुलासाथी) सूक्ष्मवादर-एकेन्द्रिय ४/ त्रण चार इन्द्रियवाळा, तथा पांच इन्द्रियवाळा संज्ञी तथा असंज्ञी तथा पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता विगेरे जीवोना भेदो बतावी; तथा तेमना दशस्त्र ख अने परकायवाळां वतावी तेना वधमां बंध, अने कर्मथी छुटवा विरति वतावी, तेनेज चारित्र बताव्यु; एटले जीवनी रक्षा करवी; तेज चारित्र छे, अने जीवरक्षा करनारज चरित्रने अनुभवे छे, तेवू पहेला अध्ययनमा बताव्युं छे अने आ बीजा अध्ययनमा बताव्यु छे के: शस्त्रपरिज्ञा नामना अध्ययनने मूत्रअर्थथी भणेला साधुने अध्ययनमा बतावेला पृथ्वीकाय विगेरे जीवोना भेदने मानतो तेनी + रक्षाना परिणामवाळो सर्व उपाधियी शुद्ध, अने तेना उत्तम गुणथी रंजीत थइ; गुरुए वडोदीक्षारुप पंचमहाव्रत जेने अर्पण कर्या छे तेवा साधुने जेम जेम रागादिकपायवाला लोक, अथवा शब्दादि विषयलोक ( रागद्वेषमां, अथवा इन्द्रियोना विषयमां रंजीत थयेला ASACREAK For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२२४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवो) नो विजय थाय छे. अर्थात् जे साधु रागद्वेष, तथा इन्द्रियोनी रमणातामां रागी न थाय. तेणे लोक जीत्यो कहेवाय; ते आ अध्ययनमां बतान्युं छे. टीकाकार कहे छे केः जेतुं हुं कहुं हुं, तेज प्रमाणे नियुक्तिकारे पण अध्ययननो अर्थाधिकार शस्त्रपरिज्ञामां पूर्वे कहेलो छे, ते सूत्र आहे. "लोओ जह बज्झइ जह य तं विजाहियव्वं " आ पदवडे सूचव्युं छे के, “लोक ( संसारी-जीवो ) जेम बंधाय छे, तेम साधुए न बंधातां ते बधानां कारणने छोडवां जो इए" तेथी पूर्वे पहेला अध्ययनमां बंध बताव्यो; तेम आ वीजा अध्ययनमां बंधने छोडावानुं सूचन्युः एटले शस्त्रपरिज्ञामां बंध, अने लोकविजयमां बंधथी छुटवानुं बतान्युं छे ते संबंध छे. तेना चार अनुयोगद्वार छे. तेमां सूत्र अने अर्थनुं कहेनुं, ते अनुयोग छे, तेमां चार द्वार ( उपायो, व्याख्यांग ) कहेवां ते उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय छे. उपक्रम वे प्रकारे छे. शास्त्र संबंधी, शास्त्रीय अने लोक संबंधी ते लौकिक छे. निक्षेपण कारना छे. ओघ, नाम अने सूत्रालापक निष्पन्ननिक्षेप एम त्रण भेद छे, अनुगमसूत्र, अने निर्युक्ति एम वे प्रकारे छे, नयोनैगम विगेरे छे. शास्त्रीय उपक्रम, आ उपक्रममा अर्थ अधिकार वे प्रकारे छे. अध्ययन अने उद्देशानो अर्थ अधिकार छे, तेमां अध्ययननो अर्थ अधिकारशस्त्र For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२२४॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie सूत्रम् ॥२२५॥ - ती परिक्षामा में कह्यो छे, अने दरेक उद्देशानो अधिकार नियुक्तिकार पोते कहे छे. आचा० सयणे य अदढतं, बीयगंमि माणो अ अत्थसारोआभोगेस लोगनिस्साइ, लोगे अममिज्जया चेव ॥१६३॥ पहेला उद्देशाना अर्थ अधिकार (विषय ) मां मातापिता विगेरे संसारी-सगामां साधुए प्रेम न करवो. (न करवो, ए मूळ ॥२२५॥ 15 सूत्रमा नथी; ते उपरथी लीधुं हे,) ते प्रमाणे आगळ सूत्र आवशे के, मारी माता, मारा पिता इत्यादि साधुने न जोइए. बीजा उद्देशामा संयममां अदृढपणुं ( ढीलापणुं ) न करवू; पण विषय अने कषाय विगेरेमा साधुए अदृढपणुं करवू; अने तेज मूत्र कहे छे के, अरतिमां बुद्धिमान पुरुष आसक्ति न करे. त्रीजा उद्देशामां मान ए अर्थसार नथी; कारणके, जाति विगेरेथी उत्तम साधुए कर्मवशथी संसारनी विचित्रता जाणीने बधा मदनां ठेकाणामां पण मान न करवू. का छे केः-कोण गोत्रनो वाद करनारा? कोण माननो वाद करनारा छे ? चोथा उद्देशामां कहे छे के भोगमां प्रेम न धारको कारण के सूत्रमा कहेशे, स्वीओथी लोकमां दुःख पामशे. अने तेनो मोह छोडे तो तेथी तेमां भोगीओने भविष्यमा यतां दुःखो बतावशे. पांचा उद्देशामां साधुए पोतानां सगां धन मान अने भोग त्याग्या छतां संयमधारक साधुए शरीरनी प्रतिपालना माटे गृह-13 स्थोए पोताना माटे करेला आरंभथी बनेली वस्तु लेवानी निश्राए विचरचु. तेज मूत्र कहेशे के समुस्थित अणगार होय विगेरे ज्यां | सुधी निर्वाह करे विगेरे छे. छटा उद्देशामां लोकनिश्रामां विचरता साधुए ते लोको साथे पहेलां के पळीनो परिचय थयो होय - - For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | अथवा परीचय न थयो होय तो पण ममत्व न करवो एटले कमळ पाणीमां उत्पन्न थया छतां निर्लेप रहे छे, तेम साधुए ते गृहस्थोथी गोचरी विगेरेनो संबंध छतां पण तेनाथी लेपवाळा थवं नही. ते सूत्र कहेशे आ मारो छे ते मारापणुं मूके तेज साधु छे विगेरे तात्पर्यवालुं सूत्र आगळ कहेशे. आ अध्ययननुं नाम लोक विजय छे. हवे लोक अने विजय एवा वे पदना निक्षेपा करवा जोइए, तेमां सूत्रा आलापक निष्पन्न निक्षेपमां निक्षेपने योग्य जे सूत्रपदो छे तेमना निक्षेपा करवा, अने सूत्रपदमां बनावेल मूळशब्द ( लोक ) नो अर्थ कषाय नामनो कह्यो छे तेथी लोकने बदले कषायना निक्षेपा कहेवा जोइए ते प्रमाणे नामनिष्पन्न निक्षेपामां बतावेला सामर्थ्यथी आवेला निक्षेपामां जे बताववानुं छे ते निर्युक्तिकार गाथाने एकठी करीने कहे छे लोगस्स य विजयस्त य गुणस्स मूलस्स तह य ठाणस्स । निख्खेवो कायवो जंमूलागं च संसारो ॥ १६४ ॥ लोकोनो विजयनो, गुणनो, मूळनो, स्थाननो, ए प्रमाणे पांच शब्दनो निक्षेपो करवो जोइए. अने जे मूळ छे ते संसार छे तेथी तेनो निक्षेपो करवो जोइए. ते संसारनुं मूळ कषाय छे. कारण के नरकना जीवो तिर्यचना जीवो तथा मनुष्य अने देवता ए चार गतिरूप संसार वृक्षनुंज स्कंध (थड) छे, तथा गर्भ निषेक कलल अर्बुद ( वीर्य अने लोहीथी बंधातुं शरीर ) मांसनी पेशी विगेरे तथा जन्म जरा ( बुढापो ) अने मरण आ संसारझाडी शाखा ( डाळीओ ) छे, अने द्रारिद्र विगेरे अनेक दुःखोथी उत्पन्न थयेला For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२२६॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२२७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांदडांनो समूह छे. वळी वहालांनो वियोग, अप्रियनो संबंध, पैसानो नाश, अनेक व्याधि विगेरे रूप सेंकडो फुलोनो समुह छे, तथा शरीर अने मन संबंधी अत्यन्त पीडाजनक दुःखनो समूहरूप-फळ छे. आ वधुं संसाररूप- झाडनुं वर्णन कर्युः ते संसार - झाडनुं मूळ कषायो छे. कारण के, कप एटले संसार. अने आय एटले लाभ. जेनाथी संसारनो लाभ थाय छे, ते कषाय छे. आ प्रमाणे ज्यां ज्यां नामनिध्यन्न निक्षेपामां तथा सूत्र आलापक निक्षेपामां जे जे पदनो संभव थशे (जरुर पडशे ) त्यां त्यां ते ते पदो निर्युक्तिकार साचा मित्र बनीने विवेकथी कहे . लोगोति य विजअत्तिय अज्झयणे लक्खणं तु निष्फण्णं । गुणमूलं ठाणंतिय, सूत्तालावे य निष्फण्णं १६५ लोकविजय, अध्ययन, लक्षण, निष्पन्न, गुण, मूळ, स्थान, तथा सूत्रालापकमां निष्पन्न विगेरे टुकमां जे क; तेनुं विवेचन करे छे; उद्देश प्रमाणे निर्देशनो न्याय छे, ते प्रमाणे लोक, अने विजयनो निक्षेपो कहे छे. लोगस्स य निक्खेवो अट्टविहो छविहो उ विजयस्त । भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ॥ १६६ ॥ लोकनो निक्षेप आठ प्रकारे तथा विजयनो छ प्रकारे छे. भावमां कषाय लोकनो अधिकार छे, अने तेनो विजय करवानो छे ते कहे छे. जे देखाय ते लोक सूत्र प्रमाणे लुक धातुनो लोक शब्द थयो छे. लोकनुं वर्णन. धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायथी व्यत थयेलुं तमाम द्रव्यना आधारभूत, वैशाखस्थान एटले, कमरनी बे बाजुए बने हाथ दइने पग पोळा करी उभा रहेला पुरुषनी माफक जे आकाश, खंड रोकायो छे, ते लेवो; अथवा धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल ए For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२२७॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२२८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांच अस्तिकाय. ( प्रदेशनो समूह ) छे, ते लेवो. ते लोकनो आठ प्रकारे निक्षेपो छे. नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव, भाव, पर्यव. एम आठ भेद छे, अने विजय, अभिभव पराभव, पराजय एम पर्यायो छे, तेनो निक्षेपो छ प्रकारे छे. अहिंया लोकना आठ प्रकारना निक्षेपा छतां भाव निक्षेपामां भाव लोकनो अधिकार छे. ते छ प्रकारनो औदायिक भाव विगेरे छे. ते औदायिक भाववाळा कषाय लोकवडे अधिकारछे; अने ते संसारनुं मूळ छे. शिष्यनो प्रश्न - आ बधुं शा माटे कबुं ? उत्तर - तेनो एटले औदयिक भाव कषाय लोकनो पराजय करवो. (क्रोध विगेरे थाय तो तेने दावी देवा) लोकना निक्षेपा पछी विजयना छ प्रकारे निक्षेपा छे ते कहे छे लोगो भणिओ दवं खितं कालो अ भावविजओ अ । भव लोग भावविजओ पगयं जह वज्झई लोगो ॥ लोक द्रव्य क्षेत्र, काळ, अने भाव, विगेरेनुं वर्णन करे छे. चतुर्विंशति स्तत्र — (चोवीस भगवाननुं स्तवन जेनुं बीजुं नाम लोगस्स ) छे, ते बीजो आवश्यक छे. तेनुं आवश्यक सूत्रनी नियुक्तियां विस्तारथी वर्णन करेलुं छे. शिष्यनी शंका- आ वाचानी कइ जातनी युक्ति छे ? के लोकोनुं त्यां वर्णन करेलुं छे. अने अहीं तेनो शुं संबंध छे ? उत्तर - अही अपूर्वकरण ( आठमुं गुणस्थान ) थी अनुक्रमे चढी क्षपकश्रेणि (केवणज्ञान पामवानुं ध्यान जेमां मोहनो सर्वथा For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥२२८॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२२९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | नाश थाय छे.) ए चढनारा पुरुष जेम अनि लाकडांने बाळे तेम पोते कर्मरूपी लाकडांने ध्यानरूपी अग्निवडे बाळी मूक्याथी आवरणरूप कर्म नाश. थतां निर्मळ (केवळ ) ज्ञान प्राप्त यतां देवताओनुं आसन कंपतां तेओना आववाथी केवळ ज्ञानी पूज्य पुरुष तरीके पूजाय छे. अने तेज पुरुष ज्ञान बडे सर्व जीवोनुं हीत थवा उपदेश आपे ते तीर्थ छे. तेने करवाथी वीर्येकर नामकर्म उदयमां आवे अने तेमने सामान्य लोकथी विशेष एवा चोत्रीस अतिशयो माप्त थया एवा अंतिम तीर्थंकर वर्धमानस्वामीए (लगभग पचीस्सो वर्ष उपर) त्यागवा योग्य अने गृहण करवा योग्य पदार्थनो खुलासो करवा देव अने मनुष्यनी सभामां आचारांगसूत्रनो विषय | कह्यो. अने ते सांभळी तेमना महान् बुद्धिवाला गणधरो. जेओ अर्चित्य शक्तिना प्रभाववाळा हता. तेवा गौतम इंद्रभूति विगेरेए ते प्रवचन ( महान् उपदेशना वाक्यनो समूह ) ने सर्वे जीवोना उपकारमाटे तेनी सूत्र रचना करी तेनुं नाम आचारांग तरीके प्रसिद्ध थयुं. अने आवश्यकनी अंदर रहेलुं चतुर्विंशति स्तवनी निर्युक्ति तो त्यारपछी हमणांना काळमां थयेला भद्रबाहुस्वामीए कं छे तेथी ते अयुक्त छे कारण के पूर्व काळमां बनेलं आचारांगनुं व्याख्यान करतां पाछळथी थएल चतुर्विंशति स्तवनो अधिकार जोवानुं अथवा कहेवानुं क्यांथी आवे ! आवु कोइ कोमळ बुद्धिवाळा शिष्यने शंकालुं स्थान थाय तेनुं आचार्य समाधान करे छे के आमां कंइ दोष नथी कारण के आ निर्युक्तिनो विषय छे। अने भद्रबाहुस्वामीए प्रथम आवश्यकनी निर्युक्ति करी, त्यारपछी आचारांगनी निर्युक्ति करी तेथी तेम थाय. तेमज क छे सूत्र " आवस्सयस्स दसकालियस्य तह उत्तरज्झमायारे " For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२२९॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवश्यक-दश वैकालिक-उत्तराध्ययन तथा आचारांगनी नियुक्ति छे विगेरे जाणआचा० विजयना निक्षेपा नामस्थापना छोडीने द्रव्यमा ज्ञ शरीर विगेरे सिवाय व्यतिरिक्तमां द्रव्यवडे द्रव्यथी अथवा द्रव्यमा विजय ते सूत्रम् छे, के कडवो तीखो कसाएलो विगेरे औषधयो सळेखम विगेरे रोगनो विजय थाय, अथवा राजा के मल्लनो विजय थाय ते द्रव्य ५ ॥२३०॥ विजय छे. क्षेत्र विजय ते छ खंडने भरत विगेरे चक्रवर्तिओ जीते छे. अथवा जे क्षेत्रमा विजय थाय ते क्षेत्र विजय छे काळवडे जे P२३०॥ विजय थाय छे, ते जेमके भरते साठ हजार वर्षे आखो भरतखंड जीत्यो ते काळ विजय छे कारण के तेमां काळ प्रधानपणुं छे. अथवा भृतक (भरवाना ) काममा एणे मास जीत्यो अथवा जे काळमां विजय थयो ते पण काळ विजय छ भाव विजय ते औदयिक विगेरे एक भावनुं बीजा भावमां बदलाववा वढे एटले औपशमिक विगेरेथी थता विजयतुं स्वरूप बतावीने चालु वातमा जे उपयोगी छे ते कहे छे. ___अहीं भाव लोक मूळसूत्रमा लीधेल छे तेथी भाव लोकज कह्यो छे (छंदमा मात्रा वधवाथी भावने बदले भव लीयो छे) 8 (ते प्रमाणे कयु छे. नियुक्ति गाथा १६६ ना छेल्ला बे पदमां का छे के भावमां कषाय लोकनो अधिकार छे विगेरे जाणवू) ते औदयिकभाव कषाय लोकनो औपशमिक विगेरे भाव लोक बडे विजय करवो (कषायो मोहनीय कर्मना उदयथी छे, तेने शांत | २ करवा-क्षय करवा ते कहे छे.) चालु विषयमां तेज जाणवार्नु छे टीकाकार तेज कहे छे. "आठ प्रकारनो लोक अने छ प्रकारनो 8 विजय ए बन्नेनुं स्वरूप पूर्व का. ते बन्नेमां भाव लोक अने भाव विजयथीज अहीआं प्रयोजन छे." आठ प्रकारना कर्म वडे लोक ॐॐॐॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आचा० - सूत्रम् - ॥२३१॥ ॥२३१॥ AAAAAAAAAR (जीवोनो समूह) बंधाय छे. अने धर्म करवाथी मूकाय छे. ते पण आ अध्ययनमा बताव्यु छे. ते भाव लोक विजय वडेज | फळ छे ते बतावे छे. विजिओ कसायलोगो सेयं खु तओ नयत्तिउं होइ । कामनियत्तमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं ॥१६८॥ जेणे कषाय लोकनो विजय कों, ते संसारथी जल्दी मुकाय छे. तेथी कषायथी दूर रहे. तेज कल्याणकारी छे. (खु अव्यय "ज" ना अर्थमांज छे.) प्रश्न-कषाय लोकथीज दूर रखो. तेज संसारथी मूकाय छे के बीजा कोइ पापना हेतुओ छे. के जे दूर करवाथी मोक्ष मळे ? उत्तर-काम एटले संसारी विषयनी जे खोटी पुद्धि छे ते पण निवारण करवाथीज मोक्ष मळे छे? नाम निष्पन्न निक्षेपो पुरो थयो. हवे सूत्र आलापक निक्षेपाने कहे छे तेने माटे सूत्र जोइए ते मूत्र निर्दोष उच्चारचं जोइए ते | आ छे मूळ सूत्र “जे गुणे से मुलट्ठाणे जे मूलठ्ठाणे से गुणे" जे गुण छे ते मूळ स्थान छे अने जे मूळ स्थान छे ते गुण छे. एना निक्षेप नियुक्ति अनुगम बडे दरेक पदे निक्षेपो कराय छे. तेमां गुणनो पंदर भेदे निक्षेपो छे. ते कहे छे. दवे खित्ते काले फल पज्जव गणण करण अभासे । गुणअगुणे अगुणगुणेभव सील गुणे य भावगुणे ॥१६९॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२३२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाम गुण, स्थापना गुण, द्रव्य. गुण, क्षेत्र. गुण, काळ. गुण. फळ गुण, प्रर्यब गुण, गणना गुण, करण गुण, अभ्यास गुण, गुण-अगुण, अगुण गुण, भव गुण, शील गुण, भात्र गुण एम पंदर भेद थया ते कांणमां कं. हवे सूत्र अनुगम वढे सूत्र उच्चारतां निक्षेप निर्बुक्तिना अनुगम वडे तेना अवयवनो निक्षेपो करतां उपोद्घात निर्युक्तिनो अवसर छे-ते उद्देशा विगेरेना द्वारनी वे गाथा वडे जाणवा. हवे सूत्रने स्पर्श करनारा निर्मुक्तिनो अवसर छे, ते नाम स्थापना सुगमने छोडीने द्रव्यादिकने कहे छे. दवगुणो दव्वं चिय गुणाण जं तंमि संभवो होइ । सञ्चित्ते अच्चित्ते, मोसंमि य होइ दव्वंमि ॥ १७० ॥ द्रव्यगुण ते द्रव्य पोतेज छे. प्रश्न =शा माटे ? उत्तर—गुणोनो गुणपदार्थमां तेजरूपे संभव थाय छे. शंका- द्रव्य अने गुणमां लक्षण अने विधानना भेदथी भेद छे. तेज कहे छे. द्रव्य लक्षण गुणपर्यायवाळं द्रव्य छे. विधान पण धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल विगेरे छे. द्रव्यनी व्याख्या कही; अने गुणनी व्याख्या कहे छे. द्रव्यने आश्रयी साथ रहेनारा: गुणो छे, अने तेनुं विधान ज्ञान, इच्छा, द्वेष, रूप, रस, गंध, अने स्पर्श विगेरे छे, ते पोतानामां रहेला भेदे करीने जुदा छे. आचार्यनुं समाधान - ए दोष नथी; कारणके, द्रव्यो सचित्त, अचित्त अने मिश्र भेदथी जुदां छे, तेमां गुण छे ते, तेजस्वरुपे रह्यो छे, तेमां अचित्त द्रव्य वे प्रकारे छे, अरुपी अने रुपी तेमां अरुपी द्रव्यमां धर्म, अधर्म, अने आकाश. एम त्रण भेदे करीने जुदा छे. लक्षणो अनुक्रमे गति स्थिति अने अवगाह आपवानुं छे अने एनो गुण पण अमूर्त छे अने अगुरुलघु पर्याय -लक्षणवालुं छे तेमां त्रणेनुं अमूर्तपथुंचे ते पोताना रुपभेद वडे व्यवस्थावालं नथी. ( अमूर्तपणामां भेद नथी ) तेम अगुरुलघु पर्याय पण छे ते तेना पर्याय For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२३२॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पणाथीज छे जेमके माटीनो पींड ( गोळो स्थास कोश कुशूल पर्यायो ( माटीनो घडो बनावतां चाक उपर जुदा जुदा आकारो बने छे ते) रुपवाली माटी छे. एटले माटीथी आकारो जुदा नथी, तेज प्रमाणे रुपी द्रव्यपण स्कंध देश प्रदेश परमाणु भेदोवालुं छे तेना गुणो रुप विगेरे छे ते अभेदपणे रहेलाछे अर्थात् एमां भेदवडे प्राप्ति थती नथी जेमरूप पदार्थथी जुदुं पढे तेवो संभव नथी. जेम पोतानो आत्मा पोताना ज्ञानगुणथी जुदो पडे ते अशक्य छे तेम बीजाओमां पण समज. तेज प्रमाणे सचित्त एवं जीवद्रव्य उपयोग लक्षणवाळु छे एटले उपयोग राखे. तोज जीवने वस्तुनुं के पोतानुं मान रहे छे ते आपणा आत्माथी जुदा ज्ञान विगेरे गुण नथी. कोइ जुदा माने तो जीवने अचेतनापणानो प्रसंग आवे. वादीनी शंका ते प्रमाणे मानतां तो तेना संबंधथी जीवने अजीव पणुं थशे. ? आचार्यनो उत्तर—तमारुं वचन गुरुनी सेवा कर्या विनानुं छे, कारण के जेने पोतानामां शक्ति नथी तेने बीजानी करेली केवी | रीते थाय ? दाखला तरीके सेंकडो दीवानो संबंध थाय तो पण आंधळो रुप जोवाने शक्तिवान न थाय. एज प्रमाणे मिश्र द्रव्यमां पण गुण साथै एकपणानी योजना पोतानी बुद्धिए करी लेवी. आ प्रमाणे द्रव्य अने गुण तेने एकान्तथी एक पणे स्वीकारे छते शिष्य कहे छे. शुं बन्ने ने बीलकुल भेद नथी ? उत्तर - तेवो एकांत अभेद नथी, कारणके जो सर्वथा अभेद मानीए तो एकज इंद्रिय वडे बीजा गुणोनुं पण उपलब्धि ( प्राप्ति ) थइ जाय अने बीजी इंद्रिओ नकामी थाय. जेमके केरीनुं रूप जोवामां चक्षु काम लागे' अने तेना साथे एकपणुं मानीए तो गुण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२३३॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाळं द्रव्य एकपणे होवाथी आंखथीज रस पण खाटो-मीठो परखावो जोइए, कारणके रुप देखाय तेम रस पण जणावो जोइए, एटले रूप अने रस साथै देखाय. तो सर्वथा अभेदपणं छे, पण तेम तथी. रस पारखत्रामां जीभतुंज काम छे माटे कई अंशे घट अने वस्त्र जेम जुदा छे तेम कंइ अंशे गुण आत्माथी जुदा छे. आ प्रमाणे भेद अने अभेद एम वे बताववाथी शिष्य गराइने आचार्यने पूछे छे के बने रीते मानवामां दोष आवे छे. तो केम मानीए ? आचार्य कहे छे— एटला माडेज दरेकमां कंइ अंशे भेद अने कंइ अंशे अभेद मानतुं सारं छे एटले अभेद पक्षमां द्रव्य पोतेज गुण छे. अने भेद पक्षमां भाव गुण जुदो छे. तेज प्रमाणे गुण अने गुणी पर्याय अने पर्यायी सामान्यने विशेष अवयव अने अवयवनो भेद अने अभेदनी व्यवस्था बताववा वडेज आत्मभावन सद्भाव थाय छे. कां छे के— दव्वं पज्जवविजुयं, दव विउत्ता य पजवा णत्थि । उप्पायइिभंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १ ॥ द्रव्य ते पर्यायथी जुदुं छे. अने द्रव्यथी जुदा पर्यायो छे एवं क्यांय नथी. पण उत्पाद, स्थिति अने नाश एवा पर्यायोवाळं द्रव्यलक्षण जाणवु नयास्तव स्यात्पदलांछिता इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ २ ॥ हे भगवंत ! तमारा कहेला नयो स्यात् पदे करीने शोभे छे. जेम लोह धातु रसे करीने व्याप्त थयेली ( सोनुं बनेली ) इच्छित फळने आपनारी छे. तेथी उत्तम पुरुषो जे हितना वांच्छको छे तेओ नमस्कार करीने आपने आशरे रहेला छे. स्पादनाद मतने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२३४॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । स्वीकारे छे. आई द्रव्य गुणस्यावाद स्वरुपने बतावनार आपणां आचार्योए घगुं लख्युं छे माटे वधारे कहेता नथी. तेज नियुक्तिकार चिकिहे छे के बधा द्रव्यमा प्रधान एवा जीव द्रव्यमा गुण भेद वडे रहेल छे ते कहे छे. सूत्रम् संकुचियवियसियत्तं, एसो जीवस्स होइ जीवगुणी । पूरेइ हंदि लोग, बहुप्पएसेत्तणगुणेणं ॥१७१॥ ॥२३५॥ ॥२३५॥ जीव ते संयोगि वीर्यवाळो छतां, द्रव्य पणे प्रदेश संहार विसर्ग वडे आधारना वश पणायी दीवानी माफक संकोच अने विकाश पामे छे. जीवनो आज गुण आत्मानी साथे आत्मभूत थइ रहेल छे, आम भेद विना पण छट्ठी विभक्तिनो संबंध थाय छे. जेम के राहुनुं माथु. शिला पुत्रक (दस्तो. या वाटा) नुं शरीर विगेरे छे. तेज भवमा सात समुद्घात (आत्मानुं वधq घटवू ते) ना परवशपणाथी आत्मा संकोच विकोच :पामे छे, तेज कहे छे. बरोबर रीते चारे बाजु जोरथो हणQ. अने आत्म प्रदेशोने 8 आमतेम फेंकQ. ए समुद्घात छे, ए सात समुद्घातनां नाम बतावे छे. कषाय, वेदना; मारण अंतिक, वैक्रिय, । तेजस, आहारक, अने केवलि समुद्घात छे. तेमां प्रथमनो कषाय. समुद्घात. अनतानुबंधो क्रोध विगेरेथी, जेनुं चित्त (ज्ञान) P नाश पाम्युं छे, तेओ पोताना आत्माना प्रदेशने आम तेम फेंके छे. तथा अतिशय वेदना थतां नाडीओ तूटतां वेदना समुद्घात थाय 15 अने मरवानी अणीमा जीव आम तेम उत्पन्न थवाना प्रदेशमा लोकना अंत सुधी आत्म प्रदेशोने पोते वारंवार फेंके छे. अने संकोची ले छे. वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय लब्धिवाळो, नवु वैक्रिय शरीर बनाववा माटे , आत्म प्रदेशोने बहार काढे छे, तेज प्रमाणे तेजस || । शरीर बनावया तथा तेजोलेश्यानी लब्धिवालो तपस्वी तेजोलेश्या फेंका वखते तेजस समुद्यात करे छे तथा आहारक शरीर है बकल. For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Pबनाववा चौद पूर्व धारी आहारक लब्धिवाला साधु कोइपण वखत संदेह दूर करवा तीर्थकर पासे पोतानुं शरीर मोकलबा आहारकर आचा० 3 शरीर बनाववा बहारना प्रदेशोने लेवा आत्माना-प्रदेशाने बहार फेंके छे, अने केवलि समुद्घात समस्त लोकव्यापी छे एटले तेनी सूत्रम् अंदर बधा समुद्घात छे, ए, नियुक्तिकार पोतेज कहे छे. चौद राज लोक प्रमाण आकाश खंड छे तेमा व्यापे छे कारणके बहु पदेशनुं गुण पणुं छे. आ केवलि समुद्घात केवळ ज्ञान थया पछी केवळ ज्ञानी प्रभु जुए छे के मारं आयुष्य थोडुं छे, अने कर्म है ॥२३६॥ | वधारे भोगववानां छे तेथो दंड कपाट मंथन आंतरा पूरवा, ते प्रमाणे संकोचमां पण जाणवु एटले पहेले समये उपर नीचे दंड स|मान बीजे समये बन्ने छेडे कपाट समान श्रीजे समये मथनी ( रवैया) ना आकारे तथा चोथे समये आंतरा पूरे छे ते प्रमाणे पाछ चार समयमा मूल शरीर करी नाखे छे. आ द्रव्य गुण छे हवे क्षेत्र गुण विगेरे कहे छे.. देवकुरु सुसमसुसमा, सिद्धी निब्भय दुगादिया चेव । कल भोअणूज्जु वंके जीवमजीवे य भावंमि ॥१७२॥ क्षेत्र ते देव कुरु विगेरे जुगलीआना क्षेत्र छे. त्यां सदाए कल्प वृक्ष रहे छे, काळ गुणमा सुखम सुखम विगेरे नामना आरा जाणवा, जेमां काळे करीने वस्तुमां फेरफार थाय छे. फळ गुणमां सिद्धि गति छे. पर्यव गुणमा निर्भजना (निश्चित भेद ) छे. गणना गुणमां बेत्रण चार विगेरे नुं गणवू छे. करण गुणमां कळार्कोशल्य छ, अभ्यास गुणमां भोजन विगेरे छे. गुण अगुणमां सरळता है छे, अगुण गुणमां वक्रता छे, भवगुण अने शीलगुणनो भावगुणनो विषय लेवाथी जीवनुं ग्रहण लेवाथी तेमा समावेश थइ गयो छे. तेथी गाथामां जुदुं बताव्यु नथी. भावगुण ते जीवनो नारक विगेरे भव जाणवो, शीलगुणमां जीवनो क्षमा विगेरे गुण युक्त आत्मां *--CR-S 55-%A5955 E RESTEGS -565 For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२३७॥ www.kobatirth.org लेवो, अने भावगुण ते जीव अने अजीवनो जाणवो, आ प्रमाणे थोडामां बतावी तेनी विशेष व्याख्या करे छे. क्षेत्र गुण. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवकुरु, उत्तरकुरु, हरी वर्ष, रम्यक, हेमवत, हैरण्यवत आ छ युगलिकनां क्षेत्र छे. ते सीवाय छपन्न अंतर द्वीप छे. तेमां प युगलिक छे, तेओने खेती विगेरे कृत्य करवा वीना जे जोइए ते कल्प वृक्षमांथी मली शके छे, तेथी ते अकर्म भूमि कहेवाय छे. आ क्षेत्रने आश्रयी गुण जाणवो, वली त्यां जन्मेला मनुष्यो देव कुमार जेत्रा सुंदर रूपवाला सदा जुवानी भोगवनारा पुरे आयुष्ये | मरनारा अनुकूल सुंदर पांचे इन्द्रिय विषय सुख भोगवनारा स्वभावथीज सरळ कोमळ स्वभाववाळा अने भद्रक भावना गुणथी देव | लोकमां जनारा होय छे ( साथै स्त्री पुरुषनुं जोडुं जन्मे अने ते नरमादा तरीके रहे तेथी ते युगलिक कद्देवाय ) काळ गुण. भरत भैरवत आ वे क्षेत्रमां प्रथमना त्रण आरामां एकान्त सुखवाला बखतमां युगलिकोनी स्थिति सदा सुंदर रूपवाली अने यौवनवाली रहे ले. फळ गुण. फळ तेज गुण, ते फळ गुण कहेवाय; अने ते फळक्रियाने आश्रयी छे, ते क्रिया सम्यक्दर्शन ज्ञानचारित्र विना आ लोक अथवा परलोकने आश्रयी जे करवामां आवे; ते एकांत अनंत सुखने आपनारी नहोवाथी तेनो फळगुण मळ्या छतां अगुण जेवो छे, पण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२३७॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२३८॥ 365% www.kobatirth.org सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र साथै मळी तेने अनुसार जे क्रिया थाय; ते एकांत अनंत बाधारहित संपूर्ण सुख आपनार सिद्धि (मोक्ष) फळ आपनार छे, तेज फळगुण मेळवाय छे, तेथी एम कह्युं केः - सम्यक्दर्शन ज्ञानचारित्रवाळी क्रिया मोक्षफळ आपनारी छे, अने ते शिवायनो क्रिया संसारीक सुखफळना आभास मात्र (बनावटी ) छे. माटे ते निष्फळ छे. एटला माटे मोक्षार्थिए फळगुण तेनेज कहेवो के जेमां सम्यक्दर्शन ज्ञानचारित्र विगेरेनी प्राप्ति थाय. पर्यायगुण पर्याय तेज गुण, ते पर्यायण छे, एटले गुण अने पर्याय, ए बनेनो नयवादना अंतरपणाथी अभेद स्वीकार्यो छे, अने ते निर्भजनारूप छे. निश्चितभजना एटले, निश्चितभाग जाणवो. जेमके, स्कंधद्रव्य छे, तेने देशप्रदेश वडे भेद पाडतां परमाणु सुधी भेदो पडे छे. (पुद्गल द्रव्य ज्यारे आलुं होय; त्यारे स्कंध कहेवाय; अने तेनो एक भाग लइए तो देश, अने सौथी बारीक भाग लइए; तो प्रदेश कहेवाय अने ते प्रदेश छुटा पढे तो परमाणुं छे.) परमाणु पण एक गुणो काळो वे गुणा काळा साथे मेळवतां अनंता भेदवाळो थाय छे. आ वधा पर्यायगुण छे. गणना गुण बेण चार विगेरे, घणी मोटी राशि होय; ते गणना गण वडे निश्चय कराय छे के, आटलं एनुं प्रमाण छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करण गुण. कलाकौशल्य ते, पाणी विगेरेमां इन्द्रियोने कुशळता माटे, ( कसरत माटे) नहावा, तरवा विगेरेनी क्रिया कराय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२३८ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie R अभ्यास गुण.-भोजन विगेरे संबंधी छे. जेमके, ते दिवसे जन्मेलो वाळक पण ते पूर्वभवना अभ्यासथी मातानुं स्तन विगेरे ४ आचा० पोताना मोढामा ले छे, अने रोतो बंधथाय छे, अथवा अभ्यासना वशथी अंधारु होय; तोपण कोळीओ मोढामांज मुके छे, तथा सूत्रम् आकुळ चित्तवाळो पण दुःख्वाळी जग्यायेज शरीरने पंपाळे छे विगेरे हे॥२३९॥ 5. गुणगुण-गुणज कोइने अगुणपणे परिणमे छे. जेमके, कोइ माणसनो सरळगुण. कपटीने अवगुण करनारो थाय छे. ६ ॥२३९॥ " शाठ्यं हीपनि गण्यते व्रतरूची, दम्भःशुचौ के तवं। शूरेनिघृणता ऋजो विमतिता देन्यं प्रियाभाषिणि॥ & तेजस्विन्यवलित्पता मुखरता वक्त शक्तिः स्थिरे। तत्को नाम गुणो भवेत सविदुषां, योदुर्जने तितः?॥१॥ 5 लज्जावाळी बुद्धि होय; ते शठपणामां माने. व्रतनी रुची दंभपणे माने पवित्रताने कैतव ( मश्करीपणे ) माने शूरने निर्दयता, शरळताने घेलापणु, मीठु बोलतां दीनता माने; तेजस्वीने, अंहकारी, सारं बोलनारने, मुखरता (वाचाळपणुं ) माने; स्थिरमां बो लवाने अशक्त माने. आथी कोइ सारी कवि कहे छे के:-पंडितोर्मा एवो क्यो गुण होय के, दुर्जनो तेने कलंकित न बनाये ? आनो | 8 अर्थ ए छे केः-हितने माटे कहेलं वचन पण निर्भाग्यने अगुणपणे परिणमे छे. है अगुण गुण.-कोइने अगुण-वचन पणे गुणकारीपण थाय छे. जेमके, वक्र विषय संबंधी छे. ते जेम, गोधो गळीयो होय; अने & तेने किण स्कंध ( कांध ) थयो न होय; तो गो गणमां मुखेथी से छे. EARSHA For Private and Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२४०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणानामेव दौर्जन्याधुरि घुर्यो नियुज्यते । असंजातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौलिः ॥ १ ॥ जेमके:— दौर्जन्य ( कुटीलताथी ) गुणोनुंज धुरिमां धुर्यपणुं योजाय छे. जेमके, असंजात एटले, जेने किणस्कंध नथयो होय; वो गलीयो बळद सुखेथी जीवे छे. भवगुण-भवगुण एटले, नारकादि भवाळ जीव ते ते स्थानमां उत्पन्न थाय; त्यां तेने तेत्रो गुण मळे; ते जीवने आश्रयी छे. जेमके नारकियां जीव उत्पन्न थाय; तेने अतिशय वेदना, तथा दुःखेथी पीडा सहन थाय; तेवी ते भोगवे; तथा तेना शरीरने तल तल जेवडा टुकडा करीनांखे; तोपण जोडाइ जाय; तथा अवधिज्ञानवाळा होय छे. आ नारकभवनो गुण कहेवाय ए प्रमाणे तिर्यचमां उत्पन्न थयेला तेना भवगुण प्रमाणे सत् असत्ना विवेकरहित छतां आकाशगमननी लब्धिवाळा होय छे, तथा गाय विगेरेने घास विगेरे खाणुं शुभ अनुभव वडे मळे छे, तथा मनुष्यभवमां मोक्षप्राप्ति वधां कर्मोनो क्षयरुप छे, ते मळे छे, तथा देवोने सर्व शुभ अनुभव छे. आ भवनो गुण छे. शीलगुण. - बीजाए आक्रोशथी कहेवा छतां पोते स्वभावथी शांत रहीक्रोध न करे; अथवा शब्दादिक विषय सारा-माठा प्राप्त थतां पोते तत्वनो जाण होवाथी मध्यस्थपणुं राखे ते शीलगुण छे. भावगुण - भावगुण ते ऐदायिक विगेरे छे, तेनो गुण ते, भावगुण छे. ते जीव अने अजीव आश्रयी छे, ते जीव विषय औदयिक विगेरे छ प्रकारे छे. तेना वे भेद छे, एटले तीर्थंकर, तथा आहारक शरीर विगेरे संबंधी प्रशस्त छे, अने शब्द विगेरेमां विषयनी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२४०॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie सुत्रम् ॥२४॥ वांच्छना, तथा हास्य रति अरति, विगेरे निंदवा योग्य छे, तथा औपशमिक ते, उपशम श्रेणीए चढेला आयुष्यना क्षयथी तेज समये आचा० | अनुत्तर विमानने प्राप्त करे छे, तथा सारुं कर्म उदयमां न आववारूप छे, ते औपशमिक छे. क्षायिकभाव गुण चार प्रकारे छे. (१) सात मोहनीयकर्मनी प्रकृति क्षय थया पछी फरीथी मिथ्यात्वमा जाय (२) क्षीण मोहनीय कर्मवाला जीवने अवश्य बाकीनां त्रण ॥२४१ घातीकर्म दूर थशे (३) क्षीण घातीकर्मने आवरण रहीत ज्ञानदर्शन प्रगट थशे (४) बधां घातिअघाती कर्म दूर थतां फरीथी जन्म लेवो न पडे; तथा अत्यंत एकान्त बाधा रहीत परमानंदवाला मुखनी प्राप्ति छे, ते छे, क्षय उपशमथी ययेल क्षायोपशमिक दर्शन विगेरेनी प्राप्ति छे अने परिणामिक ते भव्य अभव्य, विगेरे छे, तथा संनिपातिक ते औदयिक विगेरे पांच भावनुं एक काळे साये हमळवू ते आ प्रमाणे छे. जेमके मनुष्य गतिना उदयथी औदयिक भाव छे त्यां पांच इंद्रियोनी प्राप्ति थवाथी ते समये ज्ञान संबंधी क्षय उपशमथी क्षायोपशमिक छे अने दर्शन मोहनियकर्मनी सात प्रकृतिना क्षयथी क्षायिक छे अने चारित्रमोहनीयना उपशम भावमा 5 औपशमिक छे अने भव्यपणाथी परिणामिकभाव छे एम जीवनो भावगुण बताव्यो (आनुं वधारे वर्णन चोथा कर्मग्रंथमा छे त्यांथी जोवू.) ६ हवे अजीव भावगुण कहे छे ते औदयिक अने पारिणामिकनो संभव छे. पण बीजानो नथी. औदयिक एटले उदयमां थयेल अने अजीवना आश्रयी छे ते विवक्षाथी अजीव लीधो जेमके केटलीक प्रकृतिओ पुद्गल विपाकीज होय छे. प्रश्न-तेकइ छे ? उत्तर-औदारिक विगेरे पांच शरीर, छ संस्थान त्रण अंगोपांग छ संहनन, पांच वर्ण, बे गंध, पांचरस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु नाम, उपघातनाम, परा६ घातनाम, उद्योत आतपनाम, निर्माण, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर,शुभ, अशुभ आ वधी प्रकृतिओ पुद्गल विपाकिनी छे, कारणके, जीवर्नु संबंधपणुं छतां पुद्गल विपाकिपणे तेओ छे. परिणामिकभाव, अजीवगुण वे प्रकारे छे. अनादि परिणामिक ते धर्म-अधर्म KESARKET ॐॐ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२४२॥ आकाशनो अनुक्रमे गति, स्थिति, अने अवगाह लक्षणरूप छे, सादि, (आदीवाळो) परिणामिक देखावभाव ते, आकाशमां वादळानुं आचा08/इंद्रधनुष्य विगेरेनो देखाव छ, तथा परमाणुओर्नुरूप विगेरेमा बोजु गुणपणुं बदलाय छे. हवे आ प्रमाणे गुण कहीने मूळनो निक्षेपो कहे छे. ॥२४॥ 1 मूले छक्कं दवे ओदइ उवएल जाइमूलं च । खित्ते काले मूलं भाव मूलं भवे तिविहं ॥ १७३ ॥ मूळ शब्दनो छ प्रकारे नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव एम निक्षेपा छे. नाम स्थापना जाणीता छे. द्रव्यमूळ. द्रव्यमूळमां ज्ञ शरीर, भव्यशरीर, अने ते शिवाय (१) औदयिकमूळ, (२) उपदेशमूल, (३) आदिमूळ. एम त्रण प्रकारे छे. 8 वृक्षना मूळपणे जे द्रव्य परिणमे ते औदायिकमूळ जाणवू तथा वैद्य रोगाने तेनो रोग दुर करवा जे मूळनो उपदेश करे; ते उपदेद शमूळ-पिपरोमूळ विगेरे जाणवां; आदिमूळ वृक्षोनां मूळनी उत्पत्तिमा जे पहेलं कारण छे ते जेमके, स्थावरनाम गोत्र प्रकृतिना P| संबंधथी तथा मूळ निर्वर्तन उत्तर प्रकृतिना प्रत्यययी जे मूळ उत्पन्न थाय; तेनो भावार्थ कहे छे, ते मूळनो निर्वाह करनार पुद्ग लोना उदय आवतां कर्मण शरीर छे, ते औदारिक शरीरपणे परिण मतां पहेलं कारण छे. । क्षेत्रमुळ-जे क्षेत्रमा मुळ उत्पन्न थाय छे, अथवा जे क्षेत्रमा मुछ्नु वर्णन थाय ते जाणवू. काळमुळ-क्षेत्रमुल प्रमाणे एटले जे काळमां उत्पन्न थाय; अथवा वर्णन कराय; ते काळ मुळ छे. भावमुळ त्रण प्रकारे छे. भावमूळ. ॐॐॐ7-% MARG ES 964 For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् है ओदइयं उवदिट्टा आइ तिगं मूलभाव ओदइ अं। आयरिओ उवदिहा विणयकसायादिओ आई ॥१७॥ आचा० + उपदेशक मुळ-भावमुळ औदायिक-भावमुळ, अने आदिमुळ प्रथमर्नु कहे छे. नाम गोत्रना कर्मना उदयथी वनस्पतिकायर्नु मुळ पणुं अनुभव करतो " मुळ जीवज" औदयिकभाव मुळ छे, अने उपदेशकमुळमां जैन आगम जाणनारा आचार्य जे उपदेशक छे, ॥२४३। 4 ते जाणवा आदिमुळमां पाणीओ जे कर्म वडे उत्पन्न थाय छे, ते प्राणीओर्नु मोक्ष अथवा संसार जे प्रथम भावमुळ छे, तेने उपदेश करे ते जाणवू. जेमके, आ गाथाना चोथा पदमा का के:-"विनय कषाय विगेरे आदि छे." मोक्षनु आदि कारण ज्ञानदर्शनचारित्र, तप अने औपचारिक एम पांच प्रकारको विनय छे, तेनाथी मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. विणया णागं णाणाउ देसणं दंसणाहि चरणं तु । चरणाहिंतो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥१॥ विनयथी ज्ञान, अने ज्ञानथी दर्शन. (श्रद्धा), श्रद्धाथी चारित्र, चारित्रथी मोक्ष अने मोक्षमां बाधारहित सुख छे. विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥२॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥३॥ विनयन फळ गुरुनी सेवा. तेनाथी श्रुतज्ञान, तेनाथी चारित्र, तेनाथी आश्रय, (पाप) नो अटकाव, तेनाथी संवर, संवरनं फळ, तप.18 तेनाथी निर्जरा, तेनाथी क्रियानो अंत तेनाथी योगीपणुं छे. P योगनिरोधाद्भव सन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ४ ॥ HिARASHISHAL ॥२४३॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२४४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयोगिपणाथी भवसंततिनो क्षय तेनाथी मोक्ष छे, माटे ते वधां कल्याणोनुं मुळ विनय छे.. ( माटे विनय संपादन करवो. ) जेम विनय मोक्षनुं कारण छे, तेज प्रमाणे विषय (इन्द्रियोनो स्वाद ) तथा क्रोध, मान विगेरे कषायो संसारनुं मुळ छे. मुळ वर्णन कर्यु. हवे स्थानना पंदर प्रकारे निक्षेपा बतावे छे. णामंठवणादवि खित्तद्धा उढ उबरई बसही । संजम पग्गह जोहे अयल गणण संघणाभावे ॥ १७५ ॥ नामस्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, विगेरे छे, ते कहे छे नामस्थापना सुगम छे. द्रव्यमां ज्ञ शरीर विगेरे छोडीने द्रव्यस्थानमां सचित अचित्त अने मिश्रद्रव्यनुं जे स्थान, (आश्रय ) छे ते लेबुं. क्षेत्रस्थानमां भरत विगेरे छे, अथवा ऊंचे नीचे अथवा तिरछा (त्रांसा) लोकमां जे क्षेत्र छे ते क्षेत्रस्थान छे अथवा जे, क्षेत्रमां स्थाननुं व्याख्यान थाय ते लेवुं. अद्धा (काळ) तेनुं स्थान वे प्रकारे. (१) काय स्थिति, (२) भवस्थिति छे, कार्यस्थिति, ते पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायुमां असंख्यात, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणीनो काळ छे, तथा वनस्पतिकायनो अनंतकाळ छे. इन्द्रिय विगेरे विकलेन्द्रियनीकाय स्थितिसंख्याता हजार वर्षनी छे. पंचेन्द्रिय, तिर्यच, तथा मनुष्यनी कार्यस्थिति सात आठ भव छे. पण ते बधानी भवस्थिति नीचे मुजब छे:-- पृथ्वीनी बावीस हजार, पाणीनी सात हजार, वायुनी त्रण हजार, वनस्पतिनी दश हजारवर्षनी उत्कृष्टि स्थिति छे. अग्निकायनी त्रण रात्रीदिवस छे. वे इन्द्रिय शंख विगेरेनी, बार वर्षनी छे, त्रण इन्द्रिय कीडी विगेरेनी स्थिति ओगणपचास दिवसनी छे, चार इन्द्रिय भ्रमरा विगेरेनी छ मासनी छे पांच इन्द्रिय तिर्यच, तथा मनुष्यनी त्रण पल्योपमनी छे, देव, तथा नारकीनी स्थिति भवसंबंधी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२४४॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२४५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेत्रीस सागरोपमनी छे. अने एकवार त्यां उत्पन्न थया पछी लागलागट उत्पत्ति नथी; माटे कायस्थिति एकज भवनी गणाय. आ उपर जे स्थिति बतावी छे, ते कायसंबंधी तथा भवसंबंधी बन्ने प्रकारे उत्कृष्ट जाणवी जघन्यथी तो वधाओनी स्थिति अंतमुहुर्त्तनी छे, पण नारकी, देवतानी भवस्थिति दश हजार वर्षनी छे. आ वधुं काळने आश्रयी कं; अथवा अद्धास्थान ते समय आवलिकामुहूर्त्त अहोरात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन संवत्सर, युग, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसरर्पिणी, पुद्गलपरावर्त्तन, अतीत, अनागत, एम बधा काळरूपे जाणवुं. उर्द्धस्थान ते, कायोत्सर्ग विगेरे छे, अने एना उपलक्षणथी निषण्णा (बेस) विगेरे पण जाणवुं. उपरतिस्थान ते, विरति छे. तेनुं स्थान एटले, साधुपणुं, अथवा श्रावकपणुं जाणवुं; पण साधुनी सर्व विरति अने श्रावकनी देश विरति छे. वसतिस्थान एटले, जे स्थानमां गाम अथवा घर विगेरेमां अमुक काल रहेवानुं थाय; ते वसति छे. संयमस्थान सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहार विशुद्धि तथा सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात, एम पांच प्रकारे संयम छे. ते दरेकनां स्थान असंख्यात छे. प्रश्न - असंख्यातनी संख्या केटली छे ? उत्तर—अति इन्द्रियपणानो विषय होवाथी साक्षात् देखाडवाने शक्तिवान् नथी, तेथी सिद्धांतमां आपेली उपमा प्रमाणे कहीए छीए. एक समयमां सूक्ष्म अग्रिकायना जीवो असंख्येय लेोकाकाश प्रदेश प्रमाण उत्पन्न थाय छे तेनाथी असंख्यात गुण अनिकाय पणे परिणमेला छे तेनाथी पण ते कायस्थिति असंख्येय गुणी छे. तेनाथी पण अनुभाग बंध अध्यवसाय स्थान असंख्येय गुणाछे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२४५॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ ॥२४६॥ आटलां संयमनां स्थान सामान्यथी कह्यां. हवे विशेषथी कहे छेआचा०४ सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहार विशुद्धि-ए त्रणनी दरेकनां असंख्येय प्रदेश लोकाकाश तुल्य संयम स्थान छे अने सूक्ष्म संप-४ द्र रायनी अंतरमुहूर्तपणानी स्थिति होवाथी अंतमुहर्तना समय बरोबर असंख्येय संयम स्थान छे. यथाख्यात चारित्रहुँ जघन्य उत्कृष्ट ॥२४६॥ सीवाय एकज संयम स्थान छ, अथवा संयम श्रेणिनो अंदर रहेला संयम स्थानोने लेवां, ते आ क्रमे छे __ अनंत चारित्र पर्यायथी बनेलं एक संयम स्थान छे. असंख्येय संयम स्थानतुं बनेटु कंडक छे. ते असंख्यात कंडकथी उत्पन्न थयेल छ स्थान- जोडकुं छे, तेथी असंख्येय स्थानरूप श्रेणि छे... पग्रह स्थान-पकर्षपी जे वचन ले गाय (माननीय थाय) ते प्रग्रह वाक्यवालो नायक (नेता) जाणवो. ते लोकिक अने लोकोतर एम बे प्रकारे छे तेनु स्थान ते प्रग्रहस्थान छे. लौकिकमां माननीय वचनवाला राजा युवराज महत्तर (राजानो हित शिक्षक) & अमात्य (प्रधान) राजकुमार छे. लोकोत्तरमां पण आचार्य उपाध्याय प्रवृति (प्रवर्तक) स्थविर गणावच्छेदक हे. M योध स्थान-आ पण पांच प्रकारे आलढ-प्रत्यालीढ-वैशाख मंडल समपाद ए रीते छे ___ अचळ स्थान-आ स्थान चार प्रकारे छे, तेना सादि पर्यव सान विगेरे छे ते बतावे छे. परमाणु विगेरे द्रव्यनो एक प्रदेश विगे-18 दिरेमा जघन्यथी एक समय सादि सपर्यवसान अवस्थान छे. अने उत्कृष्टथी असंख्येय काळ छे. अने सादि अपर्यवसान स्थान सिदोन भविष्यना काळरूप छे. सिद्धोर्नु मोक्षमा जर्बु ते आदि अने त्यांथी कोइपण वखते खसवानुं नथी. माटे अनंत छे. 27 अनादि सपर्यवसान स्थान अतीत अद्धा रूपर्नु शैलेशी अवस्थाना अंत समयमां कार्मण अने तैजस शरीर धारनारा जे भव्य जीव COUNSAHAK SHRSHA-KA- For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie -C+ सूत्रम् ॥२४७॥ CK पूछे तेने आश्रयी जाणई (तैजस अने कार्मण शरीर भव्य जीव साथे अनादि काळयी जोडाएलां छे. अने जीव मोक्षमा जतां ते बने 5 आचा० जीवथी जुदां पडे छे ते अनादिसांत कहेवाय छे.) ४. अनादि अपर्यवसान ते धर्म अधर्म आकाशना संबंधी छे. (तेमनी स्थिति पूर्वनी जेपीछे, चीज हमेशां रहे छे.) ॥२४७ गणना स्थान-एक वेथी मांडीने शीर्ष पहेलीका मुधी जे गणत्री छे. ते लेवी. (जैनमा परार्ध उपरांत संख्या छे ते अनुयोगद्वार ४ सूत्रमा बतावेलो छे, त्यांथी जोवी.) संधान स्थान-तेचे प्रकारे छे. द्रव्यथी अने भावथी छे. द्रव्यमी छिन अने अछिन्न एम बे भेदे छे. ते स्त्रीनी कांचळी विगेरेना ४ टुकडा करीने सांधवानुं छे. अने अछिन्न संथानमा पक्ष्म उत्पद्यमान तंतु विगेरेनुं जोडाण छे. (ताणो वाणो कपडामा जोडाय ते.) म भाव संधान प्रशस्त अने अप्रशस्त एम वे भेदे छे तेमा प्रशस्त अछिन्न भाव संधान उपशम क्षपक श्रेणिए चढता मनुष्यने अपूर्व संयमस्थान एक सरखांज होय छे. पण वचमा तुटक पडती नथो अथवा श्रेणि सिवाय, प्रवर्धमान कंडकनां लेबां. छिन्न प्रशस्त | भावसंधान भावथी औदयिक विगेरे बीजा भावमा जइने पाछा शुद्ध परिणामवाला थइने त्यां आवतां थाय छे. 7 अप्रशस्त अछिन्न भाव संघान उपशम श्रेणिएथी पडतां अविशुद्रमान परिणामवाला मनुष्यने अनंतानुबंधि मिथ्यात्वना उदय सुधी जाणवू-अथवा उपशम श्रेणि सीवाय कपायना वशथी बंध अध्यवसाय स्थानोने चढतां चढतां अवगाह मान करनाराने होयछे. 5 अप्रशस्त छिन्नभाव संधान ते औदयिक भावथी औपशमिक विगेरे बीजा भावमा जइने पाछा त्यांज औदयिक भावमां आवे ते छे. है आ द्वारनुं जोडकुं साथेज कयुं एटले संधानस्थान द्रव्य विषयतुं पहेलुं छे, अने पछीनुं भाव विषयतुं छे अथवा भावस्थान जे कषा 25२-ॐॐॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यो स्थान छे, ते अहीं लेबु कारणके तेओनेज जीतवापणानो अधिकार छे. आचा०18/ पश्नः-ओर्नु कयुं स्थान छे के जेने आश्रयीने ते थाय छे. सूत्रम् उत्तर-शब्दादि विषयोने आश्रयीने ते थाय छे ते बतावे छे. ॥२४८.। पंचसु कामगुणेसु य सदप्फरिसरसरूवगंधेसुं । जस्स कासाया वहृति मूलहाणं तु संसारे ।। १७६ ॥ ॥२४८॥ अहीं इच्छा अनंगरूप जे काम छे. तेना गुणोने-आश्रयी चित्तनो विकार छे; ते बतावे छे. ते विकारो शब्द, स्पर्श, रस, रूप, हू गंध एम पांच छे. ते पांचे व्यस्त अथवा समस्त-विषय संबंधी जे जीवनुं विषय सुखनी इच्छाथी अपरमार्थने देखनार संसार प्रेमी 3 है जीवने राग द्वेषरूप अंधकारथी आंखनुं तेज हठी जवाथी साग़-माठा पदार्थ प्राप्त थतां कषायो थाय छे ते मूलनु संसार झाड थाय छे तेथी शब्दादि विषयथी उत्पन्न थए कमायो संसार संबंधी मूळ स्थानज छे-एनो भावार्थ आ छे के राग विगेरेथी डामाडोळ थएल चित्तवालो जीव परमार्थने न जाणवाथी आत्माने तेनी साथे कई संबंध नथी छतां विषयने आत्मारूपे मानीने आंधळाथी पण वधारे & आंधळो बनी कामी जीव रमणीय विषयो जोइने आनंद पामे छे तेथी कडा खे दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थित, रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति ॥ 1 कुन्देन्दीवरपूर्णचंद्रकलशश्रीमल्लतापल्लवा, नारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमा गात्रेषु यन्मोदते ॥ द आंधळो छे ते जगतमां जोवा जेवी वस्तु जोइ शक्तो नथी पण रागथी आंधळो थएलो पोते आत्मा छे ते आत्म भावने छोडीने अनात्म भावने जुए छे जेमके छती वस्तु कुंद (फुल) इन्दीवर (कमळ) पूर्णचंद्र कळस श्रीमत् लतापल्लवो जेवानी गंदकीना ढगला | RESE For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप प्रिय स्त्रीना शरीरने उपमाओ आपीने तेमां कामी आनंद माने छे. ( साक्षात् उत्तम वस्तुओ छोडीने दुर्गंधथी भरेला स्त्रीना गंदा रीरमां आनंद माने छे) अथवा कर्कश शब्दो सांभळीने तेमां द्वेष करे छे तेथी मनोहर अथवा अणगमता शब्द विगेरे विषयो कषायोनुं मूळस्थान छे. अने ते कषायो संसारनुं मूळ छे. प्रश्न – जो शब्दादि विषयो कषाय छे तो तेनाथी संसार केवी रीते छे ? उत्तर - कारण के कर्म स्थितिनुं मूळ कषाय छे अने कर्म स्थिति संसारनुं मूळ छे. संसारीने अवश्य कषायो होय छे, ते कहे छे जह सव्वपात्राणं भूमीए पइडियाई मूलाई । इय कम्मपायवाणं संसारपट्टिया मूला || १७७ ॥ जेम सर्व झाडोनां मूळो पृथ्वीमां रहेलां छे तेज प्रमाणे कर्मरूप वृक्षना कषायरूपे मूळो संसारमां रहेलां छे. शंका- आ अमे केवी रीते मानीए के कर्मनुं मूळ कषाय छे ? उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, ए बंधना हेतु छे. आगममां पण कहाँ छे के " जीवे णं भंते! कतिहिं ठाणेहिं णाणावरणिज्जं कम्मं बंधइ ? गोयमा, दोहिं ठाणेहिं तं जहा - रागेण व दोसेण व । रागेदुविहे - माया लोभे य, दोसे दुविहे । कोहे य माणे य, एएहिं चउहिं ठाणेहिं वोरिओ वगूहिएहिं णाणावरणिजं कम्मं बंधइ ॥ हे भगवंत, जीव केलां स्थान बडे ज्ञानआवरणीय कर्म बांधे छे. उत्तर - हे गौतम! राग अने द्वेष ए वे स्थान वडे बांधे छे अने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२४९॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचा० ॥२५॥ ANGRESSESSAGGIF ए राग माया ने लोभ एम वे भेदे छे, तथा द्वेष पण क्रोध अने मान, एम वे भेदे छे. ए चार स्थान वडे वीर्य, उपगूढ, (जोडावा) थी ज्ञानावरणीय कर्म बांधे छे. ए प्रमाणे आठे कर्मने आश्रयी जाणवू अने ते कषायो मोहनीय कर्मनी अंदर रहेला छे. अने आठे 31 सूत्रम् | पकारना कर्मनु मूळ कारण छे. काम गुणर्नु मोहनीयपणुं बतावे छेअट्ठविहकम्मरुक्खा सवे ते मोहणिजमूलागा । कामगुणमूलगं वा तम्मूलागं च संसारो ॥ १७८ ॥ ॥२५॥ पूर्वे कयु के कर्म पादप विगेरे तेनी व्याख्या करे छे. तेमां कर्मपादप क्या कारणवाला छे. तेनो उत्तर-आठ प्रकारना कर्मरूप वृक्षो छे. तेमनुं मूळ मोहनीय कर्म छे. एटले एकला कषायो न लेवा. पण काम गुणो मोहनीय मूळवाला छे. जे वेदना (संसार भोगववानी इच्छा) उदयथी काम थाय छे. ते लेवा. अने वेद छे ते मोहनीय कर्ममा समावेश थाय छे. तेथी मोहनीय कर्म जे संसारर्नु मूळ कारण छे. ते संसार लेवो. तेज प्रमाणे संसार कषाय, कामोर्नु परंपराए मोहनीय कर्म कारणपणाथी प्रधान भावने अनुभवे छे. (तेज कर्म बंधनमा अग्रेसर छे.) ते मोहनीय कर्मनो क्षय थवाथी बोजा कर्मनो अवश्य क्षय थशे तेज प्रमाणे. का छे. "जह मत्थयसूईऐ हयाए हम्मए तलो। तहा कम्माणि हम्मति मोहणिजे स्वयं गए ॥ १॥ जेम ताडना झाडनी जे मूइ मथाळे रहेली छे. ते नाश करतां ताडनं झाड नाश पामे छे, तेज प्रमाणे मोहनीय कर्म नाश पामतां | बोजां कर्मो नाश पामे छे. "आ मोहनीय कर्म दर्शन मोहनीय अने चारित्र मोहनीय एम बे भेदे छे, ते बतावे छे, PROHIBHANGA For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie सूत्रम् ॥२५१॥ दुविहो अ होइ मोहो दंसणमोहो चरित्तमोहो अ । कामा चरित्तमोहो तेणऽहिगारो इहं सुत्ते ॥ १७९ ॥ आचा० दर्शन मोहनीय अने चारित्र मोहनीय एम के भेदे का. अने बंधना हेतुन पण बे प्रकार पणुं छे ते बतावे छे. २ अर्हत् (जिनेश्वर) सिद्ध, चैत्य, तप. श्रुतगुरु, साधु, संघना प्रत्यनीक (जिनेश्वरी संघ सुधी जे पदो छे, जेमां गुण अने गुणी ॥२५१॥ ए बने आवे छे तेमना शत्र) पणे जे वर्ने ते दर्शनमोहनीय कर्म बांधे छे. अने जेना बडे जीव अनंत संसाररूप समुद्रना मध्यमां है पडे छे तथा तीव्र कषाय बहुराग द्वेषरूप मोहथी घेराएलो बनी देश विरति अने सर्व विरतिने हणनारो चारित्रमोहनीयकर्म बांधे छे. तेमां मिथ्यात्व, सम्यग् मिथ्यात्त्व (मिश्र) अने सम्यक्त्व एम त्रण भेदे दर्शन मोहनीय-कर्म छे, तथा सोळ प्रकारना कषाय छे. 8 नव नोकपाय छे. एम पञ्चीस भेदे चारित्रमोहनीय छे. (पहेला कर्मग्रंथमा मोहनीय कर्म जुओ.) तेमां काम ए शब्द विगेरे पांच है विषयो चारित्रमोह जाणवा; तेना बडे अहीं मूत्रमा अधिकार छे, कारण के, चालु विषयमां कषायोगे स्थान छे; अने ते शब्दादि पांच गुणरूप छे. अने चारित्रभोहनीय पूर्वे कहेली उत्तर प्रकृति जे स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद तथा हास्य रतिलोभी आश्रीत 8 काम आश्रयवाला कषायो संसारनुं मूळ छे अने कर्ममा प्रधान कारण ए छे ते बतावे हे. संसारस्स उ मूलं, कम्मं तस्सवि हंति य कसाया ॥ संसार ते नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव एम चार प्रकारे गतिरूप संसारनुं भ्रमण छे. तेनुं मूळ कारण आठ प्रकार- कर्म छे. ते 8 कर्मनुं पण मूळ कारण कषायो छे. ते क्रोध विगेरे संसारनै निमित्त छे, अने ते प्रतिपादित शब्द विगेरे स्थानोनुं प्रचुरस्थानपणुं ४ बताववा फरीथी स्थान विशेष अडधी गाथा वडे कहे छे. ॐRRECASISAGA For Private and Personal use only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते सयणपेसअत्थाइएसु अज्झत्थओ अ ठिआ॥ १८०॥ आचा पहेला अने पछी परिचयवाळां माता, पिता, सासु, ससरा विगेरे जे स्वजन (सगां) छे. तथा नोकर विगेरे प्रेष्य छे अने धन सूत्रम् 18 धान्य कुष्य (तांबु-पीत्तळ विगेरे) वास्तु (घर) रत्न ए अर्थ कहेवाय छे (ते स्वजन विगेरेनो द्वंद्व समास करवो.) आ बधाने ॥२५२॥ अंगे कषायो विषयपणे रह्या छे, अने आत्मामां प्रसन्नचंद्र राजर्षिनी माफक विषयीपणे छे; तेम एकेन्द्रिय विगेरेने पण कषायो छे. | आ प्रमाणे कषायन स्थान बताववा वडे सूत्रपदमां लीधेलुं छे. स्थान समाप्त करीने जीतवा योग्य विषयोवाळा कषायोना निक्षेपा कहे छे. 12 णामंठवणादविए उपत्ती पच्चए य आएसो । रसभावकसाए या तेण य कोहाइया चउरो ॥ १८१॥ कपायना निक्षेपा-जेवो छे तेवो अर्थ न बतावे; ते निरपेक्ष अभिधान मात्र ते नाम कषाय छे अने सद्भाव (तदाकार चित्र विगेरे) असदभाव (तदाकार नही.) जेम इंट विगेरेना देव बनावे; ते बे प्रकारे स्थापना निक्षेप छे. जेमके, भयंकर भूकुटि (आंखनील भ्रमर) क्रोधथी चढावी कपाळमां त्रण सळ पाडी त्रीशूळ साथे मोडं तथा आंख लाल करी होठ दांत पीसतो परसेवाना पाणी विगे| रथी संपूर्ण क्रोधनं चित्र पुस्तक अथवा अक्ष वराटक विगेरेमा रहेल ते स्थापना कषाय छे. (क्रोध जीवने आश्रयी छे, अने क्रोधनां 81 चिन्ह जेने प्रगट थयां होय; तेवा क्रोधीतुं चित्र पुस्तक अथवा बीजामां चित्र पाडे; ते कषायतुं चित्र होवाथी; स्थापना कषाय छे.) द्रव्यकषायोमां ज्ञ शरीर तथा भव्य शरीरथी व्यतिरिक्त कर्मद्रव्य कषायो तथा नोकर्मद्रव्य कषायो छे, तेमां प्रथम जे उदीर्णामां न है। आवेला; अथवा उदीर्णामां जे पुद्गलो आवेला होय; ते पुद्गलो द्रव्यना प्रधानपणाथी कर्मद्रव्य कषायो जाणवा. बिभितक विगेरे SECRECRUCRECASSALA ASASHARA For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२५३॥ नो कर्मद्रव्य कषायो छे तथा उत्पत्ति कषायो शरीर उपधि क्षेत्र वास्तु स्थाणुं विगेरे उत्पत्ति कषायो छे, एटले जेने आश्रयीने कषा | योनी उत्पत्ति थाय; ते उत्पत्ति कषाय जणवा; तेवुज शास्त्रमा कयुं छे:आचा० 18'कि एत्तो कट्टयरं, जं मूढो थाणुअम्मि आवडिओ। थाणुस्स तस्सरूइ, न अप्पणो दुप्पओगस्स ॥१॥ ॥२५३॥ द्र कोइने स्थाणुं ( झाडनूं ) विगेरे वागतां मूढ माणस पोतना प्रमादनो दोष न काढतां तेज स्थाणा उपर क्रोध करे छे, है एनाथी वधारे दुःखदायक बीजुं शुं छे ? Pा प्रत्ययकपाय.-कषायोना जे प्रत्ययो एटले बंधनां कारणो छे ते अहींयां सुंदर अने खराव, एवा भेदवाळा शब्द विगेरे लेवा; कारणके एनाथीज उत्पत्ति तथा प्रत्ययन कार्य तथा कारणरूपे-भेद रहेलाछे. आदेश कषाय.-बनावटी भ्रमर विगेरे चढाववी ते छे. रसकषाय-रसथी एटले कडवा तीखा एम पांच प्रकारना रसनी अंदर रहेला छे ते लेवाभावकषाय-शरीर, उपधि, क्षेत्र, वास्तु, स्वजन, प्रेष्य, अर्चा विगेरे निमित्तथी प्रगट थएला जे शब्द विगेरे काम गुण कारण कायभूत कषाय कर्मना उदयरूप आत्माना परिणाम विशेष ते क्रोध मान माया लोभ एवा चार कपाय छे. ते दरेकना अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान आवरण तथा संज्वलन, एवा चार भेद बडे गणतां सोळ भेद वाला भाव कपाय छे. तेओनुं स्वरूप तथा अनुबंधनुं फल गाथाओ वडे कहे छे. SCARICARICARICHIGIANA** SAHASRECASॐॐॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२५४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलरेणुपुढविपचय राईसरिसो चउविहो कोहो ॥ तिणिसलयाकडट्टियसेलत्थंभोवमो माणो ॥ १ ॥ पाणीमां रेतीमां जमीन उपर अने पर्वत उपर जे फाट पडवा जेवो देखाव थाय छे तेवो चार प्रकारनो क्रोध छे. ( रेतीमां काढेली लीटी. पवनथी तुरत मली जाय. तेवो संज्वलन क्रोध जाणवो. एम अनुक्रमे दरेक वधारे वधारे प्रमाणमां जाणवो ) तथा तिनिश लता लाकडे हाडकुं पत्थरनो थांभलो ए चारनी उपमात्रालुं मान छे. (तिनिश लता झट वळे तेम संज्वलन मानवाळो मान मुकी झट नमे बाकीना मानवाला कठणाइथी नमे पण पत्थरनो थांभलो नमे नही तेम अनंतानुबंधी मानवालो नमे नही ) मायावलेहिगोमुत्ति मेंढसिंगघणवंस मूलसमा । लोभो हलिद्दकद्दमखंजणकिमिरायसामाणो ॥ २ ॥ अवलेखी (नेतर विगेरेनी छाल) गोमुत्रीका घेटानुं शीगडुं अने वांसनुं थडीडं, आ चारनी उपमां वाली माया छे. (संज्वलन माया वालो जेम नेतरनी छोल वाळेली होय तोपण सीधी थइ जाय छे, तेम आ माया वाळो मायाने दूर करे छे पण छेवटनी मायावाळो वांसनाथडीया माफक कट्टीपण कपट छोडतो नथी.) तथा लोभ हलदर कादव खंजन अने कृमिना रंग जेवो छे. (संज्यलनना लोभवाळो जेम हलदरनो रंग झट जतो रहे तेम आ लोभीने झट संतोष याय. पण कृमि रागथी रंगेला कपडा जेवा लोभीने मरतां सुधी संतोष न थाय. पचमासवच्छर जावज्जीवाणुगामिणो कमसो। देवगर तिरियणारयगइसाहणहे यवो भणिया ॥३॥ ते कपायो संज्वलन विगेरेनी स्थिति एक पखवाडीउं तथा चार मास, एकवर्ष अने छेवटना अनंतानुबंधीनी आखी जींदगी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२५४॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie सुत्रम् ॥२५५॥ सुधीनी छे. अने तेओनी संज्वलनवालानी देव गति तथा बाकीना त्रणनी अनुक्रमे. मनुष्य तिर्थच अने नरक गति छे. अर्थात् ए क- आचा० पायो बाला जीवो ए गतिने पामे छे. एम कषायो ते गतिना साधनना हेतुओ कह्या, आ कषायना नाम विगेरे आठ प्रकारे निक्षेपा 5 कह्या. तेने क्या नयवालो शुं इच्छे छे. ते कहे छे. ॥२५५॥ 8 नैगम नयवालो सामान्य विशेष रुपपणाथी तथा तेनुं एकगमपणुं नहोवथी तेना अभिप्राय प्रमाणे बधाए निक्षेपा नाम विगेरे आठे माने छे. अने संग्रहव्यहवार नयवाला कषाय संबंधना अभावयी आदेश अने समुत्पत्ति ए वे निक्षेपाने इच्छता नथी. रुजु है सूत्रवालो वर्तमान अर्थने इच्छतो होवाथी आदेश, समुत्पत्ति अने स्थापना निक्षेपाने इच्छतो, नथी शब्द नयवालो नामनो पण कथं-10 चितभावनी अंदर रहेला भावथी नाम अने भाव, एवा वे निक्षेपानेज इच्छे छे आ प्रमाणे कषायो कर्मना कारणपणे कह्या. अने ते कर्म संसारखें कारण छे. हवे संसार केटला प्रकारनो छे ते बतावे छे. दव्वे खित्ते काले, भवसंसारे अ भवसंसारे । पंचविहो संसारो, जत्थे ते संसरंति जिआ॥ १८२ ॥ द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव, अने भाव, एभ पांच प्रकारनो संसार छे, जेमा संसारी जीवो भ्रमण करे छे (नाम स्थापना सुगम | होवाथी नियुक्तिकारे लीधा नथी एम जणाय छे.) द्रव्य संसारमा ज्ञ शरीर भव्य शरीर छोडीने द्रव्य संसाररूप आ संसारज छे. अने क्षेत्र संसार जे क्षेत्रोमां द्रव्यो आम तेम संसरे (खसे) ते छे. काळ संसार ते जेमा संसारनुं वर्णन थाय अने नरक विगेरे चार * गतिमां अनुपूर्वीना उदयथी एक भवथी बीजा भवमा जवू, ते भव संसार छे. अने भाव संसार एटले संमृतिनो स्वभाव ते औदयिक - ACEBCAMERA For Private and Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Nadhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२५६॥ विगेरे भावनी परिणतिरूप छे, तेमां प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, अने प्रदेश एम चार प्रकारना कर्मना बंधना प्रदेश विपाकनु भोगवई 2 आचा० 18 छे. आ प्रमाणे द्रव्यथी लइ भाव सुधी पांच प्रकारनो संसार छे अथवा द्रव्यादिक चार प्रकारनो संसार छे ते आ प्रमाणे अश्वथी हाथी. गामथी नगर. अने वसंतथी ग्रीष्म. तथा औदयिकथी औपशमिक एम चार प्रकारे थाय छे, एम बने प्रकारे संसार बताव्यो ॥२५६॥ छे, आसंसारमा कर्मने वश थएला जीवो आम तेम भमे छे. तेथी कर्मनु स्वरूप बतावे छे. णामंठवणाकम्म, दव्वकम्मं पओगकम्मं च । समुदाणिरियावहियं आहाकम्मं तवोकम्मं ॥ १३ ॥ ४/किइकम्म भावकम्म, दलविह कम्भ समासओ होइ । दू नाम कर्म-ते कर्म विषयथी शून्य. एबुं नाम मात्र छे. स्थापना कर्म पुस्तक अथवा पात्र विगेरेमां कर्म वर्गणानुं सद्भाव. अ-18 सद्भाव एम चे रुपे जे लखेल के चितरेलुं होय कर्म छे ते स्थापना कर्म छे. द्रव्य कर्ममां-ज्ञशरीर. भव्यशरीर सीवाय व्यतिरिक्त वे प्रकारे छे-द्रव्य कर्म अने नो द्रव्य कर्म, तेमां द्रव्यकर्म ते कर्म वर्गणाना अंदर रहेला पुद्गलो जे बंधने योग्य, अने बंधाता अने बांधेला जे उदीर्णामां न आवेला होय ते लेवानो द्रव्यकर्ममां कृषीबळ (खे-13 डुत.) विगेरेनां कर्म जाणवां (जेनाथी बीजा जीवोने दुःख थाय तेवां संसारी कृत्य अहीं लेवां) प्रश्न-कर्मवर्गणानी अंदर रहेला पुद्गळो द्रव्यकर्म छे एवं कडं ते वर्गणा कइ छे ? .. उत्तर-सामान्य रीते वर्गणा चार प्रकारनी छे, द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव, एम चारभेदे छे. तेमां द्रव्यथी एक वे विगेरेथी। 2 RRBHA२-०१-२ SECSAALS For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | संसपेय, असंख्येय, अनंत, प्रदेशवाली छे. तथा क्षेत्रथी जे क्षेत्र प्रदेशमां अवगाढ करी रहेल द्रव्यना एक बेथी संख्येय, असंख्येय, आचा | प्रदेशरूप क्षेत्र प्रदेशो जेनाथी रोकाय, ते क्षेत्र वर्गणा छे. अने काळ्थी एक बेथी मांडीने संख्येय, असंख्येय, समय स्थितिमा र-IP हेल वगणा लेवी अने भावथी रुप, रस, गंध, स्पर्श, तथा तेनी अंदर रहेला भेदोरूरुप सामान्यथी भाव वर्गणा जाणवी, अने विशे-131 ॥२५७॥ पथी हवे कहे छे. ॥२५७॥ (१) परमाणुओनी एक वर्गणा छे. एज प्रमाणे एक एक परमाणुना उपचय ( वधारा) थी संख्येय प्रदेशवाला स्कंधोनी संख्येय वर्गणाओ छे. तेज प्रमाणे असंख्येय प्रदेशवाला स्कंधोनी असंख्येय वर्गणा जाणवी आ वर्गणाओ औदारिक विगेरे परिणाम 18/ ने योग्य थइ शकती नयी तथा अनंत प्रदेशनी बनेली अनंती वर्गणाओ पण ग्रहण योग्य नथी. तेवी वर्गणाओने उलंघीने औदारिक द्र ग्रहण योग्य थाय छे. ते अनंती अनंत प्रदेशरूप अनंती वर्गणाओज छे एटले पूर्वे कहेली अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणानी अंदर 'एक' | M एक मेळववाथी औदारिकशरीर ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणाओ थाय छे एम एक एक प्रदेश वधारतां वधेली औदायिक योग्य उत्कृष्ट वर्गणा ज्यांसुधी अनंती थाय त्यांसुधी लेवी. प्रश्न-जघन्य उत्कृष्टानो शुं भेद छे ? उत्तर-जघन्यथी उत्कृष्ट विशेष अधिक छे, तेमां विशेष आ छे के औदारिक जघन्य वर्गणानो अनंतमो भाग जे छे तेना है अनंता परमाणुपणाथी एक एक मदेशना उपचय थएथी औदारिक योग्य वर्गणानो जघन्य उत्कृष्ट मध्यवर्तीनी वर्गणाओगें अनं AAAAAA RERASHRERAB/ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२५॥ तपणुं छे, तेमां औदारिक योग्य उत्कृष्ट वर्गणामां एकरूप (संख्या) उमेरवाथी अयोग्य वर्गणा जयन्य थाय छे. ए प्रमाणे एक एक आचा० 8. प्रदेश वधतां उत्कृष्ट अंतवाळी अनंती थाय छे. प्रश्न-एमां जघन्य उत्कृष्ट वर्गणानो शुं विशेष छे ? २५८॥ उत्तर-जघन्यथी असख्येय गुणी उत्कृष्टो छे, अने ते बहु प्रदेशपणाथी अने अति सूक्ष्म परिणामपणाथी औदारिकन अनंति वर्गणा पण ते अग्रहण योग्य छे, तेम अल्प प्रदेशपणाथी अने बादर परिणामपणाथी वैक्रिय (शरीर) ने पण अयोग्य छे, |ए प्रमाणे जेम जेम प्रदेशनो उपचय थाय; तेम तेम विश्रसा परिणामना वशथी वर्गणाओर्नु अतिशय सूक्ष्मपणुं जाणवू तेज उत्कृष्ट | उपर एकरूप नाखवाथी योग्य अयोग्य विगेरे वैक्रिय शरीर वर्गणाओर्नु जघन्य उत्कृष्टर्नु विशेष लक्षण जाणवू; तथा वैक्रिय-आहारक ए बन्नेना वचमा रहेली अयोग्य वर्गणाओर्नु जघन्य उत्कृष्ट विशेष असंख्येय गुणपणुं छे वळी पूर्वे कह्या प्रमाणे अयोग्य वर्गणा उपर एकरूपना प्रक्षेपथी जघन्य आहारक शरीर योग्य वर्गणाओ थाय छे. ते प्रदेश वृद्धिथी वधतां उत्कृष्ट अनंत सुधी थाय छे. प्रश्नः-जघन्य उत्कृष्टर्नु केटलुं अंतर छे ? उत्तरः-जघन्यथी उत्कृष्ट विशेष अधिक छे. प्रश्नः-विशेष केटलो छे ? उत्तरः-जघन्य वर्गणानोज अनंत भाग छे, तेनुं पण अनंत परमाणुपणुं होवाथी आहारक शरीर योग्य वर्गणाओनुं प्रदेश उ-& त्तरथी वधती वर्गणाओ, पण अनंतपणुं छे, ते उत्कृष्ट वर्गणामांज एकरूप उमेरवाथी जघन्य आहारक शरीरने अयोग्य वर्गणाओ थाय 2 PARGANSAUGAR For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२५९॥ छे त्यारपछी प्रदेश वृद्धिए वधती ज्यांसुधी उत्कृष्ट अनंत थाय; त्यांसुधीज आहारकशरीरना सूक्ष्मपणाथी अने बहु प्रदेशपणाथी आचा० तेने अयोग्य वर्गणाओ छे, तेम बादरपणाथी अने अल्प प्रदेशपणाथी तैजस शरीरने पण अयोग्य छे. प्रश्न:-जयन्यउत्कृष्टने अहीं केटलुं अंतर छे? ॥२५९॥ उत्तर-जघन्यथी उत्कृष्ट अनंतगुणा छे. प्रश्न-क्या गुणाकार बढे? उत्तर-अभव्यथी अनंतगुणा अने सिद्धथी अनंतमे भागे छे. तेना उपर एकरूप नाखवाथी तैजस शरीरने योग्य वर्गणा जघन्य छे, ते प्रदेशद्धिए वधती उत्कृष्टसुधी अनंती थाय छे. प्रश्न-जघन्य उत्कृष्टतुं अंतर केटलुं छे! उत्तर-जघन्यथी उत्कृष्ट विशेष अधिक छे, अने विशेष ते जघन्य वर्गणानो अनंत भाग छे, तेने पण अनंत प्रदेशपणुं होवाथी द जघन्य उत्कृष्टनी वचमा रहेली वर्गणाओगें अनंतपणुं छे, तैजसनी उत्कृष्ट वर्गणाना उपर एकरूप नाखवाथी वघेली जे वर्गणा ते तैजस शरीरने अग्रहण योग्य थाय छे एम एक एक प्रदेश वधतां उत्कृष्ट अंतवाली अनंती वर्गणाओ छे, ते तैजस शरीरने तेना 8. अति सूक्ष्मपणाथी तथा बहु प्रदेशपणाथी अयोग्य छे, तेम बादरपणाथी अने अल्प प्रदेषपणाथी भाषा द्रव्यने पण अयोग्य छे. जघन्य उत्कृष्टर्नु अनंत गुणपणाथी विशेष छे अने ते गुणाकार अभव्यथी अनंतगुणा अने सिद्धोथी अनंतमे भागे छे ते ८ अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणामां एकरूप नाखवाथी जघन्य भाषा द्रव्यवर्गणा थाय छे, तेनी पण प्रदेश वृद्धिए उत्कृष्ट वर्गणा सुधी अनंत CASCUSSISRO HASHRECANSAR For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A स्थान छे. जघन्य उत्कृष्टनु विशेष आ छे, जघन्य वर्गणाना अनंतमेभागे अधिक उत्कृष्ट वर्गणा छे. अहीआं पण अनंत भागर्नु अ-12 आचा०४ नंत परमाणुपणुं जाणवू तेथी आ एक विगेरे प्रदेश वृदिना प्रक्रमथी अयोग्य वर्गणाओनुं जघन्य उत्कृष्टपणुं विगेरे जाणवू. अहीआंसूत्रम् विशेष आटलुं छे के जघन्य उत्कृष्टनो भेद अहीआं अभव्यथी अनंतगुणो अने सिद्धोथी अनंतमे भागे छे, ते वर्गणाओनुं पण पूर्व ॥२६०॥ है| हेतु कदंबक (समूह) थी भाषा द्रव्य अने आनापान (श्वासोच्छवास) द्रव्यर्नु अयोग्य पणुं जाणवू. अने अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणामां है २६०॥ Pएक रूप नांखेथी आनापान वर्गणा जघन्य थाय छे. तेनाथी एक एक रूपे वधतां उत्कृष्ट वर्गणाओना अंतवाली अनंती थाय छे. 12 जघन्यथी उत्कृष्टा जघन्यथी अनंत भाग अधिक जाणवा तेना उपर एक रुप वधतां जघन्य उत्कृष्ट भेद वडे अग्रहण योग्य वर्गणा | छे. पण विशेषमा अभब्योथी अनंत गुण अने सिद्धोथी अनंतमे भागे छे. फरीथी अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा उपर प्रदेशथी मांडीने वृद्धि करतां जघन्य उत्कृष्ट भेदवाली मनोद्रव्य वर्गणा छे. जघन्य वर्गणानो अनंतमो भाग विशेष छे. फरीथी प्रदेशना वधता क्रमथी अग्रहण वर्गणा छे. विशेषमा अभव्यनो अनंत गुण विगेरे छे. अने ते वर्गणाओ प्रदेशना बहु पणाथी अने अति सूक्ष्म पणाथी मनो | द्रव्यने अयोग्य वर्गणाओ छे, तथा अल्प प्रदेशपणाथी अने बादरपणाथी कार्मण शरीरने पण अयोग्य छे, तेना उपर एक रुप नाखबाथी जघन्य कार्मण शरीरनी वर्गणा छे, वळी एक एक प्रदेशनी वृद्धि करता उत्कृष्ट अनंत सुधी छे. प्रश्न-जघन्य उत्कृष्टनो शुं विशेष छे.? उत्तर-जघन्य वर्गणानो अनंतमो भाग अधिक ते उत्कृष्ट वर्गणा छे, अने ते अंनत भाग अनंता अनंत परमाणुरूप होवाथी +सब-AISA CREASE For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org सूत्रम् ॥२६॥ अनंत भेदथी भिन्न कर्म द्रव्यनी वर्गणाओ छे, अने अहीं तेमनुं प्रयोजन छे. कारण के द्रव्य कर्मना व्याख्याननी अहीं वात चाले | आँचा। छे, अने हवे पछीनी वर्गणाओ क्रमे आवेली छे, ते शिष्यना उपर उपकारनी बुद्धिथी कहेवाय छे. . वली उत्कृष्ट कर्मवर्गणा उपर एक रुप नाखवाथी जघन्य उत्कृष्ट भेदथी भिन्न धृव वर्गणा छे, ते जघन्यथी उत्कृष्टी सर्व जी-1 ॥२६१॥18 वोथी अनंत गुणी छे, तेना उपर एक रुप नाखवाथी क्रमवडे अनंतीज जघन्य उत्कृष्ट भेदवाली अध्रुव वर्गणा छे. अध्रुव पणाथी | | अध्रुव छे, कारण के तेना विरुद्ध पक्षवाली धृवना सद्भावथी तेनुं अधृवपणुं छे. अहीं जघन्य उत्कृष्टनो भेद हमणा P] उपर कहेलो तेज छे-तै उत्कृष्टना उपर एक एकनी वृद्धि करतां जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी अनंतीज शून्य वर्गणाओ थाय छे, 8. अने जघन्य उत्कृष्टनो विशेष पूर्व माफक छे. तेओनो संसारमा पण अभाव छे, तेथी तेनुं नाम शून्यवर्गणा राख्यु छे. तेमा एम का छे केः-अधूववर्गणाना उपर प्रदेशनी वृद्धिए अनंतीनो पण संभव थतो नथी. एवी प्रथम शून्यवर्गणा छे. तेना उपर एकरुप विगेरेनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी प्रत्येक शरीरनी वर्गणा थायछे. जघन्यथी क्षेत्रपल्योपमना असंख्येय भागना प्रदेश जेटला | गुणी उत्कृष्ट छे, तेना उपर एक एकरुपनी वृदिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी अनंतीज शून्य वर्गणाओ थाय छे. | जघन्य वर्गणाथी उत्कृष्टी असंख्य भाग प्रदेशगुणी छे, तेनो असंख्येय भाग पण असंख्येय लोकाकाशरूप छे. आ प्रमाणे बीजी शून्यवर्गणा छे, तेना उपर एकरूपादि वृद्धिए बादर निगोद शरीरनी वर्गणा जघन्यथी छे, अने क्षेत्र पल्योपमना असंख्येय भाग प्रदेशगुणी उत्कृष्टी छे, तेना उपर एकरूप विगेरेनी वृद्धिथी जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी त्रीजी शृन्यवर्गणा छे. जघन्यथी असंख्येय गुणी उत्कृष्टीछे, For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रश्नः-गुणाकार क्यो छे ? उत्तरः-आंगळना असंख्येय भाग प्रदेशनी राशिना आवलिका काळना असंख्येय भाग समय आचा० 15/ प्रमाणे वारंवार वर्गमूळना करवाथी असंख्येय भाग प्रदेश प्रमाणे छे, तेना उपर एक एकरूपनी दृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी सूत्रम् है सूक्ष्म निगोद शरीरनी वर्गणा छे, जघन्यथी उत्कृष्ठि आवलिकाना काळना असंख्येय भाग समयना गुणाकार जेटली छे. ॥२६॥ ॥२६॥ तेना उपर एक एक रूपनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी चोथी शून्यवर्गणा छे. जघन्यथी उत्कृष्टी चोखुणो करेलो लोकनी है असंख्येय श्रेणिओ जेटली छे, अने ते प्रतरना असंख्येय भाग बराबर छे, तेना उपर एक एकरूपनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी महास्कंध वर्गणा छे, जघन्यथी उत्कृष्ट क्षेत्र पल्योपमना असंख्येय अथवा संख्येयगुणा छे. आ प्रमाणे संक्षेपथी वर्गणाओ कही छे, विशेष जाणवा इच्छनारे कर्मप्रकृति नामनो ग्रंथ जोवो जोइए. हवे प्रयोग कर्म कहे ठे- बीतरायना क्षय उपशमथी प्रगट थएल वीर्यवाला आत्माथी प्रकर्षे करीने योनाय ते प्रयोग छे. ते मन वचन अने कायाना लक्षणवालो पंदर प्रकारे छे तेनी विगत. मन योगमां-सत्य, असत्य, मिश्र, तथा न सत्य न असत्य एम चार प्रकारे छे, तेमज वचन योग पण चार प्रकारे छे अने 81 काया योग सात प्रकारे छे, ते बतावे छे. (१) औदारिक (२) औदारिक मिश्र (३) वैक्रिय (४) वैक्रिय मिथ (५) आहारक (६) | आहारक मिश्र (७) कार्मण योग एम पंदर भेद थया तेमां मनयोग मनपर्याप्तिथी पर्याप्त थएला मनुष्य विगेरेने छे. वचन योग-थे | मा इन्द्रिय विगेरे जीवोने छे. औदारिक योग तिथंच तथा मनुष्यने शरीर पर्याप्तिनी पछीथी छे. त्यार पहेलां मिश्र जाणवो अथवा 9CCESCRESSIRCRACCOCI मन For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवळी भगवंतने समुद्घातनी अवस्थामां बीजा छहा अने सातमा समयमां छे. वैक्रियकाय योग देव नारक अने बादर वायुकायने , आचा० छे, अथवा बीजा कोइ वैक्रिय लब्धिवालाने होय छे. तेनो मिश्र योग देवता नारकिने उत्पत्ति समये छे अथवा नवं वैक्रिय शरीर सूत्रम् बनावनार वीजाने पण होय छे, आहारक योग चौद पूर्वी साधु ज्यारे आहारक शरीरमां स्थित होय छे त्यारे छे अने तेनो मिश्र-21 ॥२६३॥ 18 योग निर्वर्तना (बनाववा ) ना काळमां होय छे. ४॥२६३॥ कार्मण योग-विग्रह गतिमां अथवा केवलि समुद्घातमां त्रीजा चोथा पांचमा समयमां छे. आ प्रमाणे पंदर प्रकारना योगवडे आत्मा आठ प्रदेशने छोडीने तपेला वासगमां उछळता पाणीनी माफक उद्वर्तमान सर्व ४ आत्भाना प्रदेशोवडे आत्मा प्रदेशनी अवष्टब्ध आकाश भागमा रहेल कार्मणशरीरने योग्य कर्मदळने जे बांधे छे तेने प्रयोगकर्म + कहे छे. का छे के “जाव णं एस जीवे एयइ, वेयइ, चलइ, फंदईत्यादि ताव णं अट्टविहबंधण वा सत्तविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा नो णं अबंधए”। ज्यां सुधी आ जीव हाले छे. वधारे हाले छे. चाले छे. फरके छे. त्यां सुधी आठ प्रकारना कर्मनो बंधक सात प्रकारना छ | प्रकारना अथवा एक प्रकारना पण कर्मनो बंधक छे, पण ते अबंधक होतोज नथी. समुदान कर्म-(समुदान शब्दनी उत्पत्ति सं. तथा आ उपसर्ग साथे दा. धातु जे देवाना अर्थमां छे, तेनुं ल्युट अंतथी पृषोदर विगेरे 5555 For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aadhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रम् ॥२६४० PI पाठ वडे आकारनो उकार आदेश थवाथी समादानने बदले समुदान शब्द थयो छे.) तेमा प्रयोग कर्मवडे एक रूप पणे ग्रहण क-12 आचा०/5/रेली कर्म वर्गणाओनी सम्यक् मूळ उत्तर प्रकृति स्थिति अनुभाव अने प्रदेश बंधवाळा भेदवडे आ उपसर्ग (जेनो अर्थ मर्यादा छे ते.) वडे देश (थोडो) सर्व उपघाती रुप वडे तेज प्रमाणे स्पृष्ट निधत्त निकाचित एवी त्रण अवस्था वडे जे स्वीकार करवो तेज समुदान १२६४॥ छे, अने ते कर्मर्नु नाम समुदान कर्म छे. तेमां मूळ प्रकृतिनो बंध ज्ञानावरणीय विगेरे आठ प्रकारे छे, अने उत्तर प्रकृतिनो बंध जुदो जुदो छे, ते बतावे छे. ज्ञान आवरणीयना पांच भेद छे. मति श्रुत अवधि मनपर्याय तथा केवळ एम पांच भेदे ज्ञान छे. तेनु आवरण करनार सर्व घाती फक्त केवळज्ञान- छे. अने बाकीना चारनां आवरण देशघाति अथवा सर्वघाति छे. दर्शनावरणीय कर्म नव प्रकारे छे. तेमां पांच प्रकारनी निद्रा तथा चार प्रकारचं दर्शन. तेने आवरण करनार जाणवं. निद्रा | पंचक छे. ते मेळवेला दर्शननी लब्धि तेना उपयोगने उपघात करनार छे, अने दर्शन चतुष्टय ते दर्शनलम्धिनी प्राप्तिनेज आवरण | करनार छे. अहींयां पण केवळ दर्शनआवरण सर्वघाति छे. बाकीना देशथी छे. | वेदनीयकर्म, साता अने असाता एम वे भेदे छे. मोहनीयकर्म, दर्शनचरित्र भेदथी के प्रकारे छे. तेमां दर्श नमोहनीय मिथ्यात्वादि उदयमा आवतुं त्रण भेदे छे, अने बंधमां तो एक प्रकारे छे. ACCORRECAUSESEX ॐॐॐॐECRECTOR For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चारित्रमोहनीय सोळ कपाय, नव नोकपाय एम पच्चीस प्रकारे छे. आचा० अहींयां पण मिथ्यात्व, मोहनीय, तथा संज्वलन कषाय छोडीने वार कषायो सर्वघाति छे, अने बाकीना देशघाति छे. 18 सूत्रम् आयुष्यकर्म चार प्रकारे छे. ते नारकादि भेदवाळां छे. नामकर्म बेताळीस भेदे छे, तेमां गति विगेरे भेद छे. वाळी उत्तर ॥२६५॥ 5 प्रकृतिथी ताणुं (९३) भेद छे, तेनो खुलासो कहे छे. गति नारक; विगेरे चार भेदे छे. जाति एकेन्द्रिय विगेरे पांच छे. शरीरो 8 ॥२६५॥ औदारिक विगेरे पांच छे. औदारिक वैक्रिय, अने आहारक. एम त्रण शरीरनां अंगोपांग त्रण छे. निर्माणनाम सर्व जीव शरीरना अवयार्नु निष्पादक ( बनावनार ) होवाथी एक प्रकारे छे. 3 बंधननाम औदारिक विगेरे कर्मवर्गणार्नु एकपणुं करनार पांच प्रकारे छे, तथ संघातनाम औदारिक विगेरे कर्म वर्गणानी र-2 चना विशेषकरीने स्थापनार ते पांच प्रकारे छे. संस्थाननाम समचतुरस्र (बधी बाजु सरखं ) विगेरे छ प्रकारे छे. * संहनननाम वज्ररुषभनाराच विगेरे छ प्रकारे छे.स्पर्श आठ प्रकारे छे.रस पांच प्रकारे छे. गंध वे प्रकारे छे अने वर्ण पांच प्रकारे छेअनुपूर्वी नारक विगेरे चार प्रकारे छे. विहायोगति प्रशस्त तथा अप्रशस्त एम वे भेदे छे. अगुरुलधु उपधात पराघात आतप उद्योत उच्छवास प्रत्येक साधारण प्रस टू स्थावर शुभ अशुभ मुभग दुर्भग सुस्वर दुःस्वर मूक्ष्म वादर पर्याप्तक अपर्याप्तक स्थिर अस्थिर आदेय अनादेय यश कीर्ति अयश कीर्ति तीर्थकरनाम आ वधी प्रकृतिओ दरेक एकज प्रकारनी छे (आनु वधारे वर्णन पहेला कर्म ग्रंथमां नाम कर्म नी प्रकृतिमांजुओ) 8 RRRRRRRRRRROR For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रम् ॥२६६॥ गोत्र कर्म-ते उंच अने नीच एम वे भेदे छे.. आचा०18 अंतराय कर्म-दान,लाभ, भोग उपभोग,वीर्य एम पांचने अंतराय करनार पांच भेदे छे.आप्रमाणे मूळ तथा उत्तर प्रकृति बंधनो भेद बतान्योछे. हवे प्रकृतिबंधना कारणो बतावे छे. ॥२६६॥ "पडिणीयमंतराइय उवघाए तप्पओस णिण्हवणे ॥ आवरणदुगं बन्धइ भृओ अच्चासणाए य॥१॥ झानावरणर्नु तथा दर्शनावरणर्नु कर्म केम बांधे ते बतावे छे. ज्ञान भणनारनुं शत्रुपणुं करे, अंतराय करे उपघात करे, द्वेष करे भणावनारनो गुण भूले अथवा ज्ञानी अथवा ज्ञाननी आशातना (निंदा) करे ज्ञान दर्शन ए बन्ने प्रकारर्नु आवरण बंधाय छे. भूयाणुकंपवयजोगउज्जुओ खंतिदाणगुरुभत्तो । बंधइ भूओ सायं विवरीए बंधई इयरं ॥२॥ ___जीवोनी दया व्रतयोगमा उद्यम करे क्षमा राखे दान आपे सद्गुरुनो भक्त होय आवो जीव सातावेदनीय कर्म बांधे, अने - तेनाथी उलटो एटले जीव हिंसा करनार विगेरे दुर्गुणवाळो जीव असातावेदनीयकर्म बांधे. अरहंतसिद्धचेइयतव सुअगुरुसाधुसंघपडिणीओ । बन्धइ देसणमोहं अणंतसंसारिओ जेणं ॥३॥ तीर्थकर सिद्ध चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, साधु, संग आजे धर्मना पोषको छे तेमनो प्रत्यनीक ( शत्रु ) थाय तो ते पापवडे दर्शन मोहनीयकर्म अने अनंत संसार भ्रमण- कर्म बांधे. तित्वकसाओ बहुमोह परिणतो रागदोससंजुत्तो । बंधइ चरित्तमोहं दुविहंपि चरित्तगुणघाई ॥ ४ ॥ SSESSESieoAAOOR For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie ___ तीव्र कषायवालो ( घणो क्रोधी विगेरे ) बहु मोहवालो रागद्वेषथी भरेलो ते जीव बने प्रकारनो चारित्र मोह जे चारित्र गुआचाणनो घातक छेतेने बांधे छे. सूत्रम् मिच्छद्दिट्टी महारंभपरिग्गहो तिब्बलोभ णिस्तीलो । निरआउयं निबंधइ पावमतो रोडपरिणामो॥५॥ ॥२६७॥ मिथ्यादृष्टि महान आरंभ परिग्रहवाळो, घणो लोभीनिःशील, (दुराचारी.) जीव पापनी बुद्धिवाळो होवाथी तथा मनमां रौद्र /॥२६७॥ (दुष्ट ) परिणामवाळो होवाथी नरकनुं आयुष्य बांधे छे६ उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गूढहियय माइल्लो । सढसीलो, अ ससल्लो, तिरिआउं बंधई जीवो ॥ ६॥ उन्मार्ग (कुमार्ग) मांदोरनार सुमार्गनो नाशक गूढ हृदयवालो, कपटी शठता करनारो, शल्यवाळो ते जीव तिर्यचर्नु आयुष्य बांधे छे. पगतीए तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविहूणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो, मणुयाउं बन्धई जीवो ॥७॥ स्वभावथीज क्रोधादि ओछा होय, दानमां रक्त होय, शील संयममा ओछाशवाळो होय, मध्यम गुणे करीने युक्त होय, ते ५ जीव मनुष्यनुं आयुष्य बांधे छे. अणुवयमहत्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए य । देवाउयं णिबंधइ, सम्मदिट्टी उ जो जीवो ॥८॥ अणुव्रत, महाव्रत, पाळे. तथा बाळ तप करे-अकामनिर्जरा करे अने सम्यक् दृष्टि होय. ते जीव देवनुं आयुष्य बांधे छे 9-04-SCRECACCIALCRESCARCINGCONCAD ॐॐ For Private and Personal use only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir सुत्रम् ॥२६॥ मणवयणकायको माइल्लो गारवेहिं पडिबद्धो । असुभं बंधइ नामं तप्पडिपक्खेहि सुभनामं ॥९॥ आचा० मन वचन कायाथी वक्र होय, अहंकारमा चढेलो होय. आ दुर्गुणोथी अशुभनामकर्म बांधे छे, अने तेनाथी उलटो एटले मन वचन ६ कायाथी सरळ होय, निष्कपट होय; एवा सद्गुणवाळो शुभनाभ कर्म बांधे छे. ॥२६८॥ अरिहंतादिसु भत्तो सुतरुई पयणुमाण गुणपेही । बन्धइ उच्चागोयं विवरीए बन्धई इयरं ॥१०॥ जिनेश्वर विगेरे पंच परमेष्ठिनो भक्त होय; सूत्र भणवानी रुचीवाळो होय; अहंकारी न होय; गुणोनो रागी होय; ते उंच गोत्र बांधे र छे. अने तेनाथी उलटा गुण ( दुर्गुणवाळो ) नीच गोत्र बांधे छे. पाणवहादीसु रतो, जिणपूयामोक्खमग्गविग्घयरो। अजेइ अंतरायं, ण लहइ जेणिच्छयं लाभं ॥११॥ प्राणवध (जीवहिंसा ) विगेरे पापमां रक्त जिनेश्वरनी पूजा तथा मोक्षमार्गनां जे कृत्य तेमां विघ्न करनारो होय; ते अंतराय & कर्म बांधे छे, अने ते कर्मना प्रतापथी इच्छित वस्तु मेळवतो नथी. स्थितिबन्ध-मूळ अने उत्तर प्रकृतिओनो उत्कृष्ट अने जघन्य (सौथी थोडो) एवा चे भेद छे, तेमा उत्कृष्टथी मूळ प्रकृति | ४ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय अंतराय ए चार कर्मनी ३३ कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. अने जेटली कोडाकोडी स्थिति ४ होय; तेटला सेंकडा वर्षो सुधी अबाधा होय; त्यारपछी प्रदेशथी अथवा विपाकथी कर्मनो अनुभव (भोगववू ) थाय ए प्रमाणे दरेक कर्मनी स्थितिमां जाणवू. CRESCESSEN ACCORA For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहनीयकर्मनी ७० कोडाकोडी सागरोपम छे. नाम अने गोत्रनी २० कोडाकोडी सागरोपम छे. आयुष्यकर्मनी फक्त ३३ साआचा० गरोपमनी छे, तेमां पूर्वकोडीनो त्रीजो भाग अबाधा काळ छे. सुत्रम हवे जघन्यथी कहे छे-ज्ञानदर्शननां, आवरण, मोहनीय, अंतराय, ए चार कर्मना जघन्यबन्धनी स्थिति अंतर्मुहूर्त्तनी छे. नाम॥२६९॥ ॥२६९॥ 15 गोश्नी आठ मुहूर्त्तनी छे वेदनीयकर्मनी १२, अने आयुष्यनी जे सौथी क्षुल्लक (नानो) भव छे-ते निरोगी मनुष्यना श्वासोश्वासना काळना लगभग १७मे भागे छे. (युवान माणसना एक श्वासोश्वासमां निगोदना जीवना १७ भव लगभग थाय छे.) हवे बन्ने उस्कृष्ट जघन्य बन्धने उत्तर प्रकृति आश्रयी कहे छे. मति श्रुत अवधि मनःपर्याय केवळ आवरण निद्रा पंचक चक्षु दर्शन विगेरे चतुष्क असाता वेदनीय तथा दान अंतराय विगेरे पांच आ बधीनी एटले २० उत्तर प्रकृतिनी ३० कोडाकोडी सगरोपम छे. स्त्रीवेद साता वेदनीय मनुष्य गति तथा अनुपुर्वी ए चार प्रकृतिनी १५ कोटाकोडी सागरोपम छे. मिथ्यात्व मोहनीयनी ७०नी छे. अने १६ कषायनी ४० कोडाकोडी सागरोपम छे. (१) नपुंशक वेद (२) अरति (३) शोक (४) भय (५) जुगुप्सा (६) नरक (७) तिर्यंच ए वे गति तथा (८) एकेन्द्रिय (९) पंचेन्द्रिय जाति (१०) औदारिक (११) वैक्रिय शरीर तथा ते (१२-१३) बन्नेनां अंगोपांग तथा (१४) तैजस (१५) कार्मण (१६)|४| हुंडक संस्थान (१७) छेलु संहनन (१८) वर्ण, (१९) गंध (२०) रस. (२१) स्पर्श. (२२) नरक. (२३) तिर्यच अनुपुर्वी (२४) SACARAऊ43 For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S अगुरुलघु(२५) उपघात [२६] पराघात [२७] उच्छवास [२८] आतप [२९] उद्योत. [३०] अप्रशस्त विहायोगति [३१] त्रस [३२] आचा०ा स्थावर [३३] बादर [३४] पर्याप्तक [३५] प्रत्येक [३६] अस्थिर [३५] अशुभ. [३८] दुर्भग. [३९] दुःस्वर. [४०] अनादेय || सूत्रम् (४१) अयश कोति,(४२) निर्माण. (४३) नीच गोत्र. ए प्रमाणे ४३ प्रकृतिनी २० कोडाकोडी सागरोपम छे. ॥२७०॥ ॥२७०॥ (१) पुवेद. (२) हास्य (३) रति (४) देवगति तथा (५) अनुपूर्वी ए बे तथा. ६, पहेलं संस्थान ७, संहनन ८, प्रशस्त वि-II | हायोगति ९, स्थिर १०, शुभ. ११, सुभग १२, सुस्वर १३, आदेय १४, यश कीर्ति १५, उंच गोत्र ए १५ उत्तर प्रकृतिनी १०। ४ कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. न्यग्रोध संस्थान बीजु संहनन ए वेनी १२ कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. त्रीजु संस्थान नाराच संहनन ए बन्नेनी १४ तथा कुब्ज संस्थान अर्धनाराच संहनननी १६ तथा १, वामन संस्थान २, की|लिका संहनन तथा ३, ४, त्रण ५, चार इन्द्रि जाति तथा ६, मूक्ष्म ७, अपर्याप्तक ८, साधारण ए८ प्रकृतिनी १८, तथा आ3 हारक शरीर तथा अंगोपांग तथा तीर्थकर नाम ए त्रणनी एक कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. अने ते दरेकनी अबाधा भिन्न अंतर्मुहुर्त काळनी छे. देव नारकि तुं आयुष्य ३३ सागरोपम छे अने तिर्यच मनुष्यनुं आयुष्य त्रण पल्योपम छे. अने पूर्व कोडीनो त्रीजो भाग अबाधा छे. आ प्रमाणे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कयो. हवे जघन्य स्थितिबन्ध कहे छे–मति विगेरे ५ तथा चक्षु दर्शन आवरण विगेरे ४, संज्वलन लोभ दानादिक अंतराय पंचक ए १५ प्रकृतिनो अंतर्मुहुर्त स्थिति बन्ध छे. अने अबाधा पण अंतर्मुहुर्त छे. CONTACRORE ARASNA For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie सुत्रम् 18/॥२७॥ निदा पंचक तथा असाता वेदनिय ए छर्नु एक सागरोपमना सातमा भागना त्रण लेवा १४:) ते सागरोपमथी पल्योपमनो ट्र आचा० असंख्येय भाग ओछो लेवो. ___ साता वेदनीयनो काळ १२ मुहुर्त छे, अने अंतर्मुहर्तनी अबाधा छे. तथा मिथ्यात्वनी सागरोपममा पल्योपमथी असंख्येय 2 ॥२७॥ 3/ भाग ओछो लेवो. पहेला १२ कषाय ते सागरोपमना : लेवा अने पल्योपमथी असंख्येय भाग ओछो लेवो. संज्वलन क्रोधनी बे मास छे. माननी एक मास, मायानी अडधोमास; पुंवेदनी आठ वर्ष स्थिति छे. आबधामां अंतर्मुहूर्त्तनी अबाधाछे. बाकीना कवाय मनुष्य तिर्यंच गति पन्चेन्द्रिय जाति औदारिक तथा तेनां अंगोपांग तथा तैजस कार्मण छ संस्थान तथा संह| नन वर्ण, गंध, रस. स्पर्श, तिर्यच, मनुष्य, अनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास आतप उद्योत, प्रशस्त, अप्रशस्त + विहायोगति, यशः कीर्ति. छोडीने त्रस आदि २० प्रकृति निर्माण नीचगोत्र देवगति अनुपूर्वी. मळीने २ तथा नरकगति अनुपूर्वी.२ वैक्रिय शरीर तथा अंगोपांग एम ६८ उत्तर प्रकृतिनी स्थिति : सागरोपम अने पल्योपमनो असंख्येय भाग ओछो छे. तेमां अंतर्मुह8/नी अबाधा छे. वैक्रिय षट्कनी हजार सागरोपमना: भाग लेवा. तेमां पल्योपमनो असंख्येय भाग ओछो छे. तेमां अंतर्मुहूर्त्तनी द अबाधा छे. आहारक शरीर तेनुं अंगोपांग तथा तीर्थकर नामनी सागरोपम कोटीकोटी स्थिति छे. भिन्न अन्तर्मुहूर्त अबाधा छे. प्रश्न-उत्कृष्ट पण एटलीज स्थिति कही त्यारे जघन्य साथे तो शुं भेद छे ? CSCAUCROCOCCACAAAAA% SAGAॐॐॐॐ For Private and Personal use only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२७२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तर—–उत्कृष्टथी संख्येय, गुणहीन जघन्य छे. यश, कीर्ति तथा उंच गोत्र ए बनेनी स्थिति आठ मुहूर्त्त छे अने अन्तर्मुहु|र्त्तनी अबाधा छे. देव अने नारकिनुं आयुष्य. दशहजार वर्षनुं छे. अने अंतमुहुर्त्तनी अबाधा छे. तिर्येच मनुष्यना आयुष्यनी स्थिति, क्षुल्लक भव अने अंतर्मुहुर्त्तनी अबाधा छे. बन्धन, संघात, ए बनेनी औदारिक विगेरे शरीरनी साथ रहेवाथी तेनी अंदरज उत्कृष्ट जघन्य भेद जाणवो स्थितिबन्ध कयो हवे अनुभव बन्ध कहे छे- तेमां शुभ, अशुभ, प्रयोग कर्मथी उत्पन्न थएल प्रकृति, स्थिति, अने प्रदेशरूप, कर्म प्रकृतिनुं तीत्र मंद अनुभवपणे जे अनुभवाय (भोगवाय) ते अनुभव (रस) छे, ते रस एक वे त्रण चार स्थान भेद वडे जाणवो. मां अशुभ प्रकृतिनुं कोषातकी ना उकाळेला रस जेवो तेमां अडधो रहे बीजो भाग रहे. चोथो भाग रहे ते अनुक्रमे तीव्र अनुभव जाणवो. [ कडवा पदार्थना रसने उकाळतां पाणी जेम ओछु रहे तेम कडवास वधारे थाय छे, तेम अशुभ कर्मनुं दळ जेम वधारे चीकणुं याय तेम वधारे दुःख भोगववुं पड़े छे. ] हवे मंद अनुभव कहे छेमंद रसनो अनुभव ते जाइ [ फुल ] रसमां एक वे ऋण चारगणुं पाणी वधारे नाखवाथी रसनी मुगंधी ओछी थड़ जाय छे, ते प्रमाणे कर्मनी पण चीकणास ओछी होय तो ओलुं दुःख भोगववुं पडे छे. शुभ प्रकृतिनो रस दुध तथा शेरडीना रस जेवो मीठो जाणवो. तेमां पण पूर्व माफक योजना करवी, एटले कोपातकी तथा शेरडीना रसमां पाणी एक बिंदु विगेरे नाखवाथी अथवा रस वधारे नाखवायी तेना भेदोनुं अनंतपणुं जाणं. अहीं आयुष्यमा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२७२ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie सूत्रम् *** ॥२७३॥ चार प्रकृतिओ भवविपाकिनी छे. ( ते भवर्मा गया पछी भोगवाय छे. तथा चार अनुपूर्वीओ क्षेत्रविपाकीनी छे.) ते क्षेत्रोमां हूँ आचा० जतां उदयमां आवे छे. शरीर, संस्थान, अंगोपांग, संघात, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उद्योत, आतप, निर्माण, प्र१२७३॥ ४त्येक, साधारग, स्थिर, अस्थिर, शुभ तथा अशुभ रुपवाळी छे, ते वधीए पुद्गलविपाकीनी छे, अने चाकीनी ज्ञान आवरण विगेरे है जीवविपाकीनी छे, एम अनुभाव बंध करो... A हवे प्रदेशबंध कहे छे-ते एक प्रकार विगेरे बंधकनी अक्षेपाए थाय छे, तेमां कोइ एक प्रकारे कर्म बांधे, ते वखते प्रयोग | कर्म बडे एक समयमा ग्रहण करेला पुद्गलो सातावेदनीयना भाववडे विशेषे करीने परिणमे छे, पण छ मकारनुं कर्म बांधनारने 5 आयुष्य तथा मोहनीयकर्म छोडीने छ कर्मनो बंध जाणवो; तथा सात प्रकारे बांधनारने आयुष्य छोडीने सात प्रकारे जाणवो; तथा ४ आठ प्रकारनां कर्म बांधनारो ते आठ प्रकारे जाणवो तेमां पहेला समयमा ग्रहण करेलां पुद्गलो समुदानवडे, बीजा विगेरे समयमां अल्प बहुपदेशपणे आ कर्मवडे स्थापे छे. तेमां आयुष्यनां थोडां पुदगलो छे, तेथी विशेष अधिकनाम गोत्रना प्रत्येकना छे, ते बने ( बराबर ) तुल्य के, तेथी विशेष & अधिक ज्ञानदर्शन-आवरणना तथा अंतरायना देरेकना छे, तेथी विशेष अधिक मोहनीयकर्मना छे. प्रश्न:-तेथी विशेष अधिक एम निर्धारणमां पांचमी विभक्ति छे, ते पा. २-३ ४२ सूत्र प्रमाणे कराय छे, एटले एनो अर्थ * ** SAKSAGE **** For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२७४ ॥ www.kobatirth.org वो छेके, विभाग ते विभक्त तेमां पांचमी विभक्ति लेतां; जेमां अत्यंत विभाग होय; तेमांज थाय छे. जेमके मथुरा नगरीना रदेवासीथी पाटलीपुत्रना रहेवासी वधारे रुपवाळा छे, पण अहीं कर्म पुद्गळोनुं सदा एकपणुं छे, ते प्रमाणे अवस्थाओ कुंज बुद्धि प्रमाणे बहुप्रदेश विगेरेना गुणवडे प्रथक् करवानुं वतान्युं; तेमां छट्टी अथवा सातमी विभक्ति वापरवी ठीक छे. जेमके गायांना अथवा गायोमां आ काळी गाय वधारे दुधवाळी छे. उत्तरः- तमे बतावेलो दोष बरावर नथी. जेमां अवधि ( मर्यादा) अने अवधिवाळो सामान्यवाचक शब्द योजीए, त्यां छडी सातमी विभक्ति होय छे, अने ज्यां निर्द्धारण पा. २-३-४१ आ सूत्रवडे कराय छे. जेम गायोमां काळी गाय सौथी वधारे दुधवाळी छे. मनुष्यमां पटनाना रहेवाशी वधारे पैसादार छे. तेम कर्म वर्गणाना पुद्गलो वेदनीयकर्ममां बहु वधारे छे, पण जेमां विशेष वाची शब्द अवधिपणे लए त्यां पांचमी विभक्तिज वपराय जेमके-खंड, मुंड, शबल, शाबलेय, धवल धावलेय आ व्यक्तिओथी काळी गाय वधारे दुधवाळी छे. अहींआं तेवो विभाग पोते कारण नथी अथवा विभाग बिना छे. जेथी मथुरा पाटलीपुत्रकादि वि भाग वढे विभक्तनुं सामान्य मनुष्य विगेरे शब्द उच्चारणमां छट्ठी सातमी विभक्ति थाय छे. पण ज्यां मथुरांना रहेवासी विगेरेमां कांइ पण विशेष अवधिपणे लेवाय तेमां कार्यवशथी एक स्थानमां पण पांचमी विभक्तिज लेवाय, तेज प्रमाणे अहीं कर्म वर्गणाना एकपणामां तेना विशेषना अवधिपणे उपादान करवाथी पांचमीज विभक्त योग्य छे. तेथी विशेष अधिक वेदनीयमां छे. आ प्रमाणे प्रदेशबंध को तथा समुदान कर्म पण क. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥२७४ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हवे इर्यापथिक कहे छे-इर, धातुनो अर्थ गति अने प्रेरणा छे. अने भावमां य प्रत्यय लागवाथी स्त्रीलिंगे इर्या शब्द थाय छे, आनाकारतेनोपंथ ते इर्या पंथ छे तेनो आश्रय थाय ते इपिथिक जाणवी. प्रश्न-इर्यानो पंथ क्यो छे ! के जेने आश्रयी पथिकी थाय छे ? सूत्रम् उत्तर-आ व्युत्पत्ति ( उत्पन्न थवाने ) निमित्त छे कारण के ते उभा रहेनारने पण थाय छे. पण प्रवृत्ति निमित्त तो स्थि-13ा ॥२७५॥ दि तिनो अभाव छे, अने ते उपशांत क्षीणमोह तथा सयोगीकेवळीने होय छे कारण के संयोगीकेवळीओ बेठेला होय तोपण निश्चयथी | ॥२७५॥ मुक्ष्म गोत्रना संचारवाला होय छे. ___ "केवली णं भंते ! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ता णं पडिसाहरेजा, पभृ णं भंते ! केवलो तेसु चेवागासपदेसेसु पडिसाहरित्तए ? णो इणढे समढे, कहं ?, केवलिस्सणं चलाई सरीरोवगरणाई भवंति, चलोवगरणत्ताए केवली णो सञ्चाएति तेसु चेवागा सपदेसेसु हत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए प्रश्न-हे भगवंत ? जे समयमां केवळज्ञानीए जे आकाश प्रदेशोमां हाथ अथवा पग पहेलां मुकीने पाछो ते जग्याए लइ शके ? उत्तर-हे गौतम. ते समर्थ नथी. प्रश्न-शा माटे. ? उत्तर-केवळज्ञानीना पोतानाशरीरना भागो चलायमान होय छे, तेथी [४ करीने जे भागमा प्रथम हाथ पग मुक्या होय त्यांथी पाछा लेतां सहेजसाज वांकुं थइ जाय. एटले थोडो फेर पडी जाय. आप्रमाणे वधारे सूक्ष्म शरीरना संचाररूप योगवडे जे कर्म बंधाय ते इर्यामां थएल होवाथी इर्यापथिक छे.कारणके तेमां से For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुत्रम् ॥२७॥ CRSS गतिनोज हेतु छे, अने ते वे समयनो छे एटले पहेला समयमां बांधे अने बीजा समयमा भोगवे अने ते कर्मनी अपेक्षाए त्रीजा स-12 आचा० मयमां अकर्मता थाय छे. ___ प्रश्न-कबी रीते ? उत्तर-जे प्रकृतिथी सातावेदनीय छे, ते कषाय विनानुं छे, अने तेथी स्थितिनो अभाब छे, तेथी बंधा-13 बवानी साथे खरी पडे छे, अनुभावथी अनुत्तर विमानमा उत्पन्न थएल देवता अतिशय मुखने भोगवे, ते प्रदेशथी स्थल लख्खा धोळा विगेरे बहु प्रदेशवाला छे. कधू छे के अप्पं बायरमउयं बहुं च लुक्खं च सूक्किलं चेव । मंदं महत्वतंतिय साताबहुलं च तं कम्मं ॥१॥ & स्थितिथी अल्प छे, कारण के त्यां स्थितिनो अभाव छे, परिणामथी बादर छे, अने अनुभावथी मृदु ( कोमळ ) अनुभाव छे, प्रदेशथी बहु छे, अने स्पर्शथी लुख्खं छे, वर्णथी शुक्ल (धोळु) छे लेपथी मंद छे जेमके करकरी भूकीनी मुठी भरीने पालीस 18 करेली भीत उपर नाखतां जेम अल्प (नही जेवो) लेप थाय, तेम महाव्यये करेलं ते एक समयमांज बधुं दूर थइ जाय छे, साता वेदनीना घणापणाथी अनुत्तर विमानना देवतार्नु मुखर्नु घणापणुं छे ( मुख भोगववा छतां तेमने अल्पमोहथी नवां अशुभ कर्म -4 धातां नयी) इर्यापथिक कवू. हवे आधा कर्म कहे छे-जे निमित्तने आश्रयी पूर्वे कहेला आठे प्रकारना कर्म बन्धाय; ते आधाकर्म छे, अने ते शब्द, स्पर्श, रस, रुप, अने गंध विगेरे छे, जेमके शब्द विगेरे काम गुणना विषयनो रसीयो सुखनी इच्छाथी मोहमा जेनी बुद्धि इणाइ गइ छे, ACA - ॐ For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२७७॥ www.kobatirth.org एवो जीव खरीरीते ते विषयोमां सुख नथी, छतां तेमां सुखनो खोटो आरोप करीने तेने भोगवे छे, तेथी कहाँ छे:“दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःख बुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदपकि रिबान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगति प्रयोगात् ॥ १ ॥” ( वसंत तिलका ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुःखरुप-विषयमां सुखनुं अभिमान करीने खरा सुखरूप नियम विगेरेमां जे मूर्ख माणस दुःखरुप माने छे, ते माणस को - रेला अक्षरपदनी श्रेणी माफक अन्यरुपे छतां ते रुपवाळी विपरित गतिना प्रयोगथी तेने खरापणे माने छे. एनो भावार्थ आ छे के, कर्म निमित्त थयला मनोहर अथवा कठोर शब्द विगेरेज आधाकर्म छे ( एटले रागद्वेष करवायी चीकणा कर्म बंधाय छे.) हवे तपकर्म कहे छे ते आठ प्रकारना कर्मने वांधेला स्पर्श थयेला निधत्त (मळीगयेला) निकाचित (पक्का जोडायेला) एवा एकरुपे थयला कर्मने पण निर्जरा करनार ए तप छे, ते बाह्य अने अभ्यंतर एम वे भेदे बार प्रकारे छे ते तपकर्म छे. हवे कृतिकर्म कहे छे तेज आठ कर्म ने दुर करनार अर्हत् सिद्ध आचार्य उपाध्याय संबंधी नमस्कार विगेरे छे.. वे भावकर्म कहे छे अवाधाने उल्लंघी पोताना उदयमां आवेलां; अथवा उदीरणा करवा वडे उदयमां लावेला जे पुद्गलो छे, ते प्रदेश तथा विपाकवडे भव, क्षेत्र, पुद्गल, जीवोमां अनुभाव करावे; ते भावकर्म शब्दना नामे ओळखाय छे. आ प्रमाणे नाम विगेरे दश प्रकारना निक्षेपावडे कर्मनी व्याख्या कही; पण अहींयां समुदान कर्म थी ग्रहण करेला आठ प्रकारना कर्म वडे अधिकार छे, ते नीचली अडधी गाथावडे बतावे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥२७७॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२७८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अट्ठविहेण उ कम्मेण एत्थ होई अहीगारो ॥ १८४ ॥ आठ प्रकारा कर्म वडे अहीं अधिकार छे अने एज प्रमाणे सूत्र अनुगमवडे सूत्र बरोबर उच्चारतां निक्षेप निर्युक्ति अनुगमवडे दरेक पदमां नामादि निक्षेपा करीने व्याख्यान कर्यु. हवे ते उत्तरकाळना सूत्रतुं विवरण करे छे. जे गुणे से मूलहाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । इति से गुणही महया परियावेणं पुणो पुणो रसे पत्ते पिया मे माया मे भज्जा मे पुत्ता मे धुआ मे पहुसा मे सहिसयण संगंथ संथुआ मे, बिवित्वगरणपरिवहणभोयणच्छायणं मे । इच्चत्थं गढिए लोए अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्टाई, संजोगी अलोभ आलुंपेसहसाकारे, वेणिविद्या चित्ते, एत्थ सत्थे पुणो, पुणो अप्पं च खलु आउयं इह मेगेसिंमाणवाणं तंजहा ॥ ६२ ॥ पूर्वना सूत्र साथै तथा ते अगाउना सूत्रो साथै ६२ मा सूत्रनो संबंध बताववो ते आ प्रमाणे छे, गया सूत्रमां कां हतुं केः – “सेमुणि" इत्यादि. ते मुनि परिज्ञातकर्मा छे, जेने आ मूळ गुण विगेरे मळेला छे. परंपर सूत्र संबंध आ प्रमाणे छे. 'सेजं पुण' विगेरे एटले जे पोतानी बुद्धिवडे अथवा तीर्थकरना उपदेशथी, अथवा तीर्थकर शिवाय बीजा आचार्य पासेथी सांभळीने जे नाणे; अने तेनो विचार करे; ते जे गुणु छे, ते मूळ स्थान छे, एम बीजां सूत्रो साथै For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२७८॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie संबंध छे, तथा पहेला सूत्र साथे आ संबंध छे. "सुर्यमेआउसंतेणं" इत्यादि में भगवान पासे आ प्रमाणे सांभळ्यु विगेरे छे. आचा प्रश्न-में शुं सांभळ्यु ? उत्तर-जे गुणो सेमूल ठाणे इत्यादि जे गुजरातीमां सर्वनाम छे, ते एक वचनमां छे. ते एम सूचवे ? 15 छै के जेना वडे गुणाय भेदाय अथवा विशेष बतावे ते गुण छे अने अहीं ते शब्द, रुप, रस, गंध, अने स्पर्श, विगेरे छे, अनेक ॥२७९॥ | मूळ एटले ते निमित्त कारण छे, अने प्रत्यय ते पर्यायो छे, ते जेमां रहे ते स्थान छे. मूळमां स्थान ते मूळस्थान छे, अने ते वा-14॥२७९॥ क्योनुं विवेचन करनार छे, तेथी ते न्याये जे शब्दादिक काम गुण छे, तेज संसाररुप चार गति नारक तियेच, मनुष्य, देव मूळ छे, ते मूळ कारण कषायो छे, तेओर्नु स्थान एटले आश्रय छे, ते आश्रय ज्यारे सुंदर अथवा कठोर शब्द विगेरे प्राप्त थाय त्यारे कषायनो उदय थाय छे अने तेथी संसार छे. अथवा मूळ ते कारण अने तेज आठ प्रकारनां कर्म छे तेनुं स्थान आश्रय ते काम गुण छे. अथवा मूळ ते मोहनीय कर्म अथवा तेनो भेद काम (संसारी इच्छा) छे, तेनुं स्थान शब्द विगेरे विषय गुण छे अथवा मूळ ते शब्दादिक विषय गुण छे, तेनुं स्थान इष्टअनिष्ट विषय गुणना भेदवडे व्यवस्थामा रहेलो गुणरुप संसारज छे. ___ अथवा आत्मा पोते शब्दादि उपयोगथी एक पणे होवाथी ते गुण छे अथवा मूळ ते संसारमा तेना स्थान रुपे शब्द विगेरे छे, अथवा कषायो छे, तथा गुण पण शब्दादिक अथवा कषायथी परिणत थएलो आत्मा संसारर्नु मूळ छे, तेनुं स्थान शब्दादिक छे, अने गुण पण तेज छे, तेथी बधी रीते सिद्ध थयु के जे गुण तेज मूळ स्थान छे. COM A %25640 For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AC प्रश्न-सूत्रमा वर्तन क्रियाने नथी लीधु छनां शा माटे प्रक्षेप करो छो ? आचा०४ उत्तर-ज्यां कोई विशेष क्रिया लीधी न होय त्यां पण सामान्य क्रिया होय छे, तेथी पहेलांनी क्रियाने लइने वाकय समाप्त सूत्रम् कराय छे, ए प्रमाणे बीजे पण ज्यां साक्षात् क्रिया न लीधी होय त्यां पण पूर्वनी सामान्य लेवी अथवा मूळ ते आघ (प्रथम) ॥२८॥ IP॥२८॥ अथवा प्रधान छे, अने स्थान ते कारण छे, तेमां मूळ अने कारण ए बेनो कर्मधारय समास करीए; तो एवो अर्थ थाय के जे| शब्दादि गुण छे, तेज मूळ स्थान संसार- प्रधान कारण छे बाकी वर्षा पूर्व माफक ले. ते गुण अने मूळ स्थानन नियम्य (दोर | ववा योग्य) तथा नियामकभाव बतावतां तेना तेना स्वीकारेला विषय कषाय विगेरेनां बीज अने अंकुरना न्यायवडे परस्पर कार्यकारणभाव मूत्रवडेज बतावे छे, एटले संसारन मूळ अथवा कर्मचें मूळ अथवा कदायोनुं स्थान आश्रय ते, शब्दादि गुण पण आज छे, अथवा कषाय मूळ शब्ददिकनुं जे स्थान छे, ते कर्म संसार छे, अने ते ते स्वभावनी प्राप्तिथी गुण पण तेज छे, अथवा शब्दादिक कषाय परिणाम मूळ जे संसार अथवा कर्मनुं जे स्थान मोहनीयकर्म छे, ते शब्दादि कपायथी परिणामवाळो आत्मा छे, तेना ४ गुणनी प्राप्तिथी गुण पण तेज छे, अथवा संसारकषाय मूळ जे आत्मा, तेनुं स्थान विषयोनो अभिलाष ते पण शब्दादि विषयपणाथी गुणरुपज छे, अने अहींया विषयना लेवाथी विषयीना पण आक्षेपथी, अने सुचन मात्र करवाथी सूत्रनुपण एम जाणवू के, जे जीव - गुणमां, अथवा गुणोमां वर्ते छे, ते मूळ स्थानमा अथवा मूळ स्थानोमां वर्ते छे, अने जे मूळस्थान विगेरेमा वर्ते छे, तेज गुणोमां SEOCESCARROSTEACHECIRC 564%95-90-94545 For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२८१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे जीव पूर्वे वर्णवेला शब्दादिक गुणोमां वर्ते; तेज संसार मूळ कपाय आदि स्थान विगेरेमां वर्ते छे, अने तेज बीजा सूत्रनी अपेक्षावडे व्यत्यय करवाथी पूर्व माफक योज; कारण के सूत्रं अनंतगम अने पर्यायपणुं छे. आपण जो. जे गुण तेज मूळ स्थान छे, अने जे मूळ तेज गुण. स्थान पण तेज छे अने जे स्थान तेज गुण अने मूळ पण तेज छे. आ प्रमाणे बीजा विकल्पांमां पण योजयुं अने विषयना निर्देश (बताववा) मां विषयी पण बतावी दीधो छे, जे गुणमां ब छे. तेज मूळस्थानमां वर्त्ते छे. ते प्रमाणे वधे जाणं. अहीआं सर्वज्ञनुं कहेलुं होवाथी सूत्रनुं अनंत अर्थपणुं जाणं ते आ प्रमाणे छे. अहीआं कषाय विगेरे मूळ बताव्युं. अने क्रोध विगेरे चार कषायो छे. वली अनंतानुबंधी विगेरे चार भेदे क्रोध छे. अने अने अनंतानुबंधीनां असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण बंधना अध्यवसायनां स्थान जाणवां तथा तेओना पर्यायो पण अनंता छे. | तेथी प्रत्येकने स्थान गुणना निरुपणवडे सूत्र अनंत अर्थपणुं थाय छे. छद्मस्थ (केवळ ज्ञानविनाना ) जीवोने वधा आयुष्यम पण ते मेळवी न शकाय तेथी अनंत पणाने लीये समजाववाने पण अशक्य छे. पण एम अहीं आ दिशावडे थोडामां दिगदर्शनरूपे बताव्युं छे. अने कुशाग्र (तिक्षण) बुद्धिवालाए गुण स्थानोनुं परस्पर कार्य कारण भाव विगेरेंनी संयोजना करवी. थी प्रमाणे जे गुण तेज मूळस्थान, अने जे मूळस्थान तेज गुण एम कनुं, तेथी शुं समजनुं ते कहे छे “इतिसे गुणठी” विगेरे अहीआं इति शब्द हेतुना अर्थमां छे. एटले जे शब्दादि गुणथी परीत. (व्याप्त) आत्मा छे ते कषायना मूळ स्थानमा व छे. अने बधाए प्राणीओ गुणना प्रयोजनवाला छे. तथा गुणना रागी छे. तेथी गुणोनी प्राप्तिमां अथवा प्राप्त थइने नाश थतां For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥२८१॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥२८२॥ A% A इच्छा अने शोक वढे ते घणा परिताप वडे शरीर तथा मनना संबंधी दुःखवडे हारी जइने वारंवार ते ते स्थानमा उद्यम करे छे. आचा०ला अन त्या ममत अने त्यां प्रमत्त बने छे. अने प्रमाद छे ते रागपर्नु स्वरुप छे. अने राग विना पायः द्वेष यतो नथी तथा राग पण उत्पत्तिथी मांडीने अनादि भवना अभ्यासयी माता पिता विगेरे संबंधी थाय छे. ते बतावे छे. कोइने "मायामे" एटले मासंबंधी राग संसा॥२८२॥ रना स्वभावथी माताए उपकार करवाथी तेना उपर राग थाय छे. अने तेवो राग थतां मारी मा भूख तरसथी न पीडाओ तेटला माटे तेनो दिकरो खेती, वेपार, नोकरी विगेरे वीजा जीवोने दुःख आपनारी क्रिया आरंभे छे, अथवा तेनो उपधात करवा वाळी ते क्रियामां वर्त्ततां अथवा माता विगेरे अकार्यमा प्रवर्त्ततां द्वेष थाय छे. ते आ प्रमाणे छे. जेमके. जमदग्नि' रुपिनी स्त्री रेणुकामां अनंत वीर्य राजानो दुराचार जोइ परशुरामने द्वेष थयो (अने परस्पर महान अनर्थ कों) है एज प्रमाणे कोइने मनमां थायके आ मारो पिता छे. तेथी तेने ते संबंधी रागद्वेष थयो छे. जेमके तेज परशुरामने बाप उ-2 | पर प्रेम होवाथी तेने हणनार उपर द्वेष लावीने सातवार क्षत्रिओने मारी नारख्या. ___ अने तेथी क्षत्रीय पुत्र सभूम चक्रवर्तिए. एकवीस वार ब्राह्मणोने मार्या कोइ पाणी बेनना माटे कलेश पामे छे. कोइ स्त्री माटे रागद्वेष करे छे, जेमके चाणाक्य नामना ब्राह्मणे वेन तथा वनेवी विगेरेए पोतानी स्त्रीनुं करेलुं अपमान सांभली तेनी प्रेरणाथी " नंदराजा" पासे द्रव्य माटे जतां नंदराजाए तेनुं अपमान कर्यु तेथी 18 चाणाक्ये क्रोधमां आवी नंदन कुळ क्षय करी नाख्यु, (चाणाक्यनी स्त्रो तेना बनेवीने त्यां गयेलो त्यां गरीबीथी तेनुं अपमान थयुं, RA AGAR A----ॐॐ For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२८३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीए पोताना पति चाणाक्यने बात करी. तेथी धन लेवा नंदराजा पासे गयो त्यां धनने बदले अपमान मळ्युं तेथी चाणाक्ये नंदराजाना कुलनो नाश कर्यो . ) कोइ विचारे छे के मारे पुत्रो जीवता नथी. ते जीवाडवा बीजा आरंभो करे छे, कोइ प्राणी मारी दीकरी दुःखी छे, एवा राग अथवा द्वेषथी वेला जेवो बनी परमार्थने न जाणतो एवां एवां कृत्यों करे छे के जेनावडे आलोक परलोकमां नवां दुःखोने भोगवे छे. जेमके " जरासंध” नामनो प्रतिवासुदेव. पोताना जमाइ कंसना मरणथी पोताना लश्करना अहंकारथी कंसने मारनार " वासुदेव" (कृष्ण) ना उपर कोप करीने तेना पाछळ जइने लडाइ करतां सेना साथे नाश पाम्यो. कोइ तो मारी पुत्रवधु जीवती नथी, तेथी आरंभ विगेरेमां वर्ते छे. कोइ मित्र माटे, कोइ स्वजन. (काका, दिकरा के साळा) माटे क्लेश करे छे. के ए मारा वारंवार परिचयमां आवेला छे. अथवा पूर्वे मारा माता पिता उपकारी हता अने पाछळथी साळा विगेरे उपकारी हता ते अत्यारे दुःखी छे. एम प्राणीओ कोइना कंपण निमित्ते शोक करे छे. अथवा जुदां जुदां शोभायमान अथवा घणा हाथी घोडा रथ, आसन, पलंग विगेरे जे उपकरणो छे तेनाथी बमणा, तमणा विगेरे वधारे राखीने बदले छे. तथा भोजन (लाडु विगेरे) आच्छादन (पट्ट युगम विगेरे वख मने मळशे, अथवा मारां नाश थयां एम रागद्वेष करे छे आ प्रमाणे प्राणीओ चेतन वस्तुमां गृध्ध बनीने पूर्वे कला माता पिताविगेरेना रागथी आखी जींदगी सूधी प्रमादि रहे छे एटले ए मारां छे. अथवा हुं आ परिवारनो रक्षक छु, पोषण करनारो छं एम ममता करीने मोहीत मनवालो थाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ २८३ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥२८४॥ ॥२८४॥ CRICASSET PI“ पुत्रा मे, भ्राता मे, स्वजना मे, गृहकलत्रवों मे । इति कृतमेमेशब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥१॥ मारा पुत्रो मारा भाइओ, मारां सगां मारांघर, तथा स्त्री समुदाय छे. आq पशुनी माफक मे मे 'बोलता माणसने मृत्यु हरी जाय छे. पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषनरो ब्रजति नाशम् । कृमिक इव कोशकारः परिग्रहादुःखमाप्नोति ॥२॥ पुत्र, स्त्रीनु परणवू तेथी तथा उपर ममता राखवी ए दोषोथी माणस नाश पामे छे जेमके कोशेटानो बनावनार कृमि (रेशमनो) कीडो कोशेटाना दुःखथी मरण पामे छे तेम संसारी मनुष्य स्त्रीपुत्रनी चिंतामा रीबी रीबीने मरे छे. आज मूत्र अर्थने मळतुं नियुक्तिकार बे गाथा वडे कहे छे. संसारं छेत्तुमणो कम्म, उम्मूलए तदहाए । उम्मूलिज कसाया, तम्हा उ चइज्ज सयणाई ॥१८५॥ नरक विगेरे चार गतिरुप संसार, अथवा माता, पिता, स्त्री विगेरे उपर प्रेम छे. ते संसार छे तेने जडमूळथी छेदवानी इच्छा वालो कर्मने मूळथी उखेडी नाखे तेटला माटे कर्मोनुं मूळ कषायो छे, तेने दूर करे. माया मेत्ति पिया मे, भगिणी भाया य पुत्तदारा मे । अत्थंमि चेव गिद्धा, जम्मणमरणाणि पावंति॥१८६॥3 अने ते दूर करवा माटे पूर्व बताव्या प्रमाणे माता पिता विगेरेनो स्नेह छोडी दे. जो न छोडेतो माता पिता विगेरेनो संयोगना अभिलाषीओ तेमना सुख माटे रत्नकुपी (रसकुपी जेना वडे सोनुं बने छे ते) ना माटे गृध्ध बनीने तेमां अनेक पाप करतां जन्म जरा अने मरण विगेरेना दुःखोने भोगवे छे ए प्रमाणे कषाय अने इन्द्रियोमा प्रमादि थएलो माता पिता विगेरे माटे धन तिरुप संसार, अथवा मानकषायो छे, तेने दूर करना जम्ममरणी TES For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२८५॥ मेळववा तथा मेळवेलानुं रक्षण करवा फक्त दुःखनेन भोगवे छे, तेज मूळ सूत्रोमां बताव्युं छे के अहो (दिवस) राओ (रात) आचा० मां, अने सूत्रमा “च" शब्द छे तेथी पक्षमासमां सारा धर्मना विचारो छोडीने वधी रीते चिंतामां बळतो रहे छे जेमके " कइया वच्चइ सत्थो?र्कि भण्डं कत्थ कितिया भूमी। को कयविक्कयकालो, निविसइ किं कहिं केण?॥१॥R ॥२८५॥ 1 क्यारे आ सार्थ (वेपारीओनो समूह) उपडशे? शु माल छे ? केटले दूर जq छे तथा लेवा वेचवाने कयो काळ ले अथवा कयु कयां कोना वडे आ चोकहुँ बेसशे ? (कार्य सिद्धि थशे) विगेरे चिन्तामा वळतो रहे छे अने ते चिन्ताग्रस्त केवो थाय छे. ते कहे छे. काळ (योग्य समय) अकाळ (अयोग्य समय) मां उठीने एटले दिवसमां जे करवान होय ते काम रातना करे अथवा प्रभाP तनुं काम सांजना करे विगेरे अथवा काळ अकाळ ए बनेमां करे अथवा अवसरमा न करे, तेम बीजा वखतमा ए न करे, जेम कोइ ४ धन विगेरेनी हानी थतां गांडो बनी गमे तेम करे पण तेने काळ अकाळनो विवेक नथी एम जाणवू. जेमके "चंडयद्योत" नामना राजाए मृगावती नामनी राणी, जेनो पति “शतानिक" राजा मरण पामेलो छे. तेना कहेवाथी। मोहीत थइने जे काळे किल्लो लेवानो छे ते काळे न लेतां किल्ला विगेरे नवा सुधरावीने लेवानी इच्छ करी (पण लइ शक्यो नहि.) पण जे योग्य काळे क्रिया करे छे. ते बाधा रहीत वधी क्रिया करे छे. कर्तुं छे के___ "मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत् कर्त्तव्यं मनुष्येण, येनान्ते सुखमेधते ॥ १ ॥” आठ मास तथा दिवसे तथा जुवानीमा पहेला आयुष्यमां माणसे कृत्य करी लेवु एटले बार मासमा चोमासाना चारमासमां CRECRUCAAA RRER A For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir www.kobatirth.org सुत्रम ॥२८६॥ पाणी कादव विगेरेनां दुःख न भोगवां पडे माटे कमावू के संग्रह करवो, ते आठ मासमां करवो, तथा रातना अंधारामां खराब आचा०४/माल न आवे स्वपरनी हिंसा न थाय माटे दरेक कार्य दिवसना कर तथा पहेली अवस्थामा विद्या भणी धनउपार्जन करवू तथा युवानीमां धर्म साधवो के जेथी पाउली वृद्धावस्थामां दुःख भोगवबुं न पडे अने मुख मेळवे. ॥२८६॥ IP जेम मृत्युने आवतां अकाळ नडतो नथी तेम धर्मन अनुष्ठान करतां पण अकाळ नडतो नथी, त्यारे शा माटे काळ अकाळनो ४ समुत्थायी थाय छे. ए माटे कहे छे. संजोगने माटे अर्थात् जेने प्रयोजन छे, ते तेने माटे करे छे. धन धान्य. सोनं वे पगवाला दास दासी अने चार पगवालां घोडा विगेरे तथा राज्य स्त्री विगेरेनो संसारमा अमुक अमुक कारणे संयोग थाय छे. तेने माटे अ थवा तो शब्दादि विषय तेनो संयोग अथवा माता पिता विगेरेना संयोगवडे तेने माटे संसारी जीवो काळमां अथवा अकाळमां 8/ काम करनारा थाय छे. कोई अर्थ एटले रत्नकुपि विगेरे अथवा कोइ अत्यंत लोभने लीधे स्वार्थी बनी काळ अकाळ जोया विना ममण शेठ माफक करवा मंडे छे. ते ममण शेठन द्रष्टांत कहे छे आ शेठे अतिशय धन छतां युवावस्थामां (सुख भोगवq छोडीने) जळ स्थळने मार्गे जुदा जुदा देशोमां माल भरीने वहाण गाडां उंटनी मंडली विगेरेना भारथी भरेलां मोकलीने (नफो मेळच्या छतां संतोष न पकद यो) पछी भर चोमासामा सात रात्री सुधी मूशळ प्रमाण जळ धारा पडते वरसादथी बधा प्राणी एक जग्याए स्थिर थया पण आ शेठ संतोष न पकडतां पोताना शहेरनी नजदीकमा रहेली महा नदीना पुरमा तणाइ आवेला लाकडां लेवानी इच्छावालो धननो उ13/पभोग धर्म नकरतां बधा शुभ परिणामने छोडीने फक्त धन मेळवबामांज तैयार थयो तेज का छे. AARA For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "उपखणइ खणइ निहणइ रतिं,ण सुअति दियावि य ससंको। लिंपइ, ठएइ.सययं, लंछियपडिलंछिय कुणइ आचा० धन लोभी उंचेथी खोदे छे तथा खाण खोदे छे तथा जीवोनी हिंसा करे छे, रात्रिमा सुतो नथी दिवसे पण चिन्तावालो ४ सूत्रम ॥२८७॥ - होय छे. कर्मथी लेपाय छे विचार करतो पडी रहे छे तथा हमेशां लांच्छित तथा प्रति लांच्छित (लज्जास्पद कृत्य पण करे छे.) ,18 ॥२८॥ है भुंजसु न ताव रिक्को, जेमेउं नविय अज्ज मज्जोहं । नवि य वसीहामि घरे, कायव्वमिणं बहं अजं ।२।” | कोइ कहे खा तो पण पोतानो वेपार पूरो न थाय त्यां सुधी तेने खावानुं सुझतुं नथी तेथी कहे के हुं स्नान नही करुं तेम घरमां रहीश नहीं अत्यारे मारे बहु काम छे. (अर्थात् लोभीओ कंइ पण मुख छते धने भोगवतो नथी तेम दान पण आपतो नथी). 18 वली लोभीना अशुभ वेपारो बतावे छे. मूळ सूत्रमा आलुप शब्द छे. तेनो अर्थ आहे. ते लोभथी हणायला अंतःकरणवालो बधा कर्त्तव्य अकर्तव्यनो विवेक छोडीने अर्थ लोभमां एक दृष्टि राखीने आलोक अने परलोकमां दुःख आपनारी कलंकरूप गळां कापवां तथा चोरी विगेरे कृत्य करे ५ | छे, एटले तेनी मति सर्वथा लोपाइ गएली छे. सहसककारे-आगळ पाछळनुं विचार्या विना दोष भूलीने एकदम. (सहसा) कार्य करी नांखे ते काम करनारो (पा. र. टू १२७ मूत्र प्रमाणे) सहसककार जाणवो जेमके लोभ अंधकारथी छवाइ गएली दृष्टिवालो " हाय पैसो" माननारो शकुंत पक्षी मा& फक तीरना घाने भूलीने मांसना अभिलाषथी सांधाना छेदनथी नाश पामे छे. (पक्षीने फसाववा धनुष्यमा मांसनो टुकडो बांधे छे. +SCROLOC AL For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ASAH सूत्रम् ॥२८८॥ अने ते पक्षी खावा जतां तीर छुटे छे. अने पक्षी मरी जाय छे.) तेज प्रमाणे लोभी धनमां लुब्ध मनवालो थइ वीजा दुःखोने जोतो नथी. आचा०18 “विणि विठ चिठे"-(विविध) अनेक प्रकारे (निविष्ट) रहेलं. पैसा मेळववा माटे चित्त जेनु छे, ते माणस अथवा जे माणसने मातापिता विगेरेमा प्रेम रह्यो छे, अथवा जेने उत्तम गायन विगेरेनो रस लेवामां चित्त लाग्यु छे, अथवा मूत्रपाठमां चित्तने ॥२८॥| बदले चिट्ठ लइए तो, कहे छे केः-ते माणस विशेषे करीने काय, वचन, अने मनना चंचळपणाथी पैसो पेदा करवामां रातदिवस | चित्त राखे छे, तेज प्रमाणे मातापिता विगेरेनो प्रेम धारण करी संसारवाळो छे, अथवा अर्थनो लोभी थइने पापथी लेपातो वगर | विचारे संसार-विषयमा एक चित्तवाळो बनीने हवे पछीथी शुं शुं करे ते कहे छे. आलोकमां मातापिता विगेरेमां, अथवा इंद्रिय-विषयमां लोलुपी बनी पृथ्वीकाय विगेरे जंतुने दुःख आपनारो ते पुरुष शस्त्र 18 वापरवामां वारेवारे तैयार थाय छे, ए प्रमाणे वारंवार पृथ्वीकाय विगेरेनी हिंसा करी नवां कर्म बांधे छे. जीवोने दुःख आपनार शस्त्र बे प्रकारचं छे, एटले खारा कुवान पाणी मीठा कुवामां नांखे; तो स्वकायथी हिंसा छे, अने अग्नि उपर पाणी नांखे तो, पर-16 कायथी हिंसा छे, (ते पहेलां अध्ययनमा बताव्युं छे.) आ प्रमाणे उपर कह्या मुजब हिंसा करे छे. बळी मूळ मूत्रमा एत्य सत्थे ने 8 बदले बीजी जग्याए एत्य सत्ते पाठ छे, तेनो आ प्रमाणेनो अर्थ छे. के मातापितामां अथवा पोते गायननो रसिक लोभी लोभमां त पडीने सक्त (गृद्ध) बनीने वारंवार तेमां एक चित्तवाळो थइने धर्मकर्म लोपीने विना विचारे काळ-अकाळ न जोतां पापमा प्रवर्ते छे. PI आ हालना जीवोने जो, अजरामरपद होय; अथवा लांचं आयुष्य होय; तो ते कर, घटे; पण टुंका आयुष्यमां, तथा मरण 8 माथे भमतुं होवाथी भोगनी इच्छाए व्यर्थ पाप करे छे. कारणके, हालना काळमां मोटामां मोटुं आयुष्य निश्चयथी सो वरसनी ASABHASKASIL For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ २८९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसपास छे, अने नानुं आयुष्य क्षुल्लक (नाना ) भव आश्रयी अंतर्मुहुर्त मात्र छे, अने वधारेमां वधारे त्रण पल्योपमनुं छे तेमां पण; संयजीवित ( साधुपणं) अल्पकाळ छे, तथा अंतमूहुर्त थी लइने थोडं ओहुं एवं करोड पूर्वनुं आयुष्य छे. जेमां साधुपणं उदय आवे ते अपेक्षा ते पण थोडं छे, एटले गमेतेटलं मनुष्यनुं आयुष्य होय; तोपण ते एक अंतर्मुहूर्त छोडीने बाकीनुं अपवर्तन ( अकाळ मोत) थाय छे. तेथी कां छे केः “अद्धा जो कोसे, वंधत्ता भोगभूमिएस लहुं । सब्बप्पजीवियं, वज्जइतु उच्चट्ठिया दोपहं ॥ १ ॥” उत्कृष्ट योगमां बंधना अध्यवसाय स्थानमां आयुष्यनो जे बंधकाळ छे. ते उत्कृष्टो काळ बांधीने जे जीव देव गुरु विगेरे भोग भूमीमां युगलिक तरीके जन्मे छे. तेनुं जल्दीथी वधु आयुष्य छोडीने तिथेच अने मनुष्यनुं अपवर्त्तन थाय छे। अने ते अपर्याप्त अंतर्मुहूर्त्तनुं अंतर जाणवुं, त्यारपछी अपवर्त्तन थाय छे, (जे आयुष्य त्रण पल्योपमनुं छे, ते पण कारण विशेषथी ओढुं धवा संभव छे.) सामान्यथी आयुष्य सोपक्रम जीवोने सोपक्रम छे, अने निरुपक्रमआयुष्यवालाने निरुपक्रम छे ते बतावे छे. ज्यारे जीवने पोतानुं आयुष्य त्रीजे भागे बाकी रहेछे. अथवा त्रीजानो त्रीजो (-) नवमो भाग बाकी रहे अथवा जघन्यथी एक वे अथवा उत्कृ| पृथी सात आठ वर्षे अथवा अंतकाळे काळे अंतर्मुहूर्त्त काळना प्रमाणथी जीव पोते पोताना आत्मप्रदेशोने नाडिकाना अंतरमां रहेला | आयुष्य कर्म वर्गणाना पुद्गळोने प्रयत्न विशेषथी रचना करे छे. ते वखते निरुपक्रम आयुष्यवालो थाय छे, अने बीजीवखते आयुष्य वांधे तो उपक्रम आयुष्य थाय छे. उपक्रम ते उपक्रमणना कारणथी थाय छे. ते कारणो नीचे बताव्यां छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२८९ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥२९ ॥ ॥२९ ॥ SAHARANASALASALA | " दंडकससत्थरज्जू, अग्गो उदगपडणं विसं वाला। सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिशसा य वाही य॥१॥ | दंड, चाबखो, शस्त्र, दोरी, अग्नि, पाणी, पडी जवु, झेर, साप, अती ठंड, अती गरमी, अरति, भय, भूख, तरस, अने रोग (आ घणा प्रमाणमां थाय. एटले दंड विगेरेथी मार पडे तो लांबु आयुष्य पण टुंका वखतमां समाप्त थाय, जेने लोकमां अकाळ मोत कहे छे, जेनाथी मोत थाय ते उपक्रम अने जेनुं मोत ययुं ते सोपक्रम मृत्यु कहेवाय छे. अने तेनुं जीवित पण पूरुं न थवाथी सोपक्रम आयुष्य कहेवाय. मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे भोयणे बहुसो । घंसणघोलणपोलण आउस्स उवकमा एते ॥२॥ ___झाडो पीशाब रोकवाथी, भोजन जीर्ण थयां पहेलां वधारे खाय अथवा जीर्ण थया पछीथी पण वधारे खाय अथवा घर्षण.. (घसारो) अथवा घोलन. अथवा पोडन-(शरीरने गजा उपरांत बोजो अथवा श्रम पडे ते)थी आयुष्यनो अंत आवे छे. तेथी ते | उपक्रमो छे. वळी कयु छे के. स्वतोऽन्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदामहो निपुणता नृणां क्षणमपीह यज्जीव्यते । मुखे फलमतिक्षुधा सरसमल्पमायोजितं, कियच्चिरमवर्बितं दशनसटे स्थास्यति? ॥१॥ पोतानाथी के बीजाथी आम तेम सामे दोडती आवती आपदाओवाला मनुष्यो छे. तेमां तेमनी निपुणता जुओ के. क्षण पण | | अहींआं जे जीवे छे. मोढामा फळ छे. घणी भूख लागी छे. रसवालु अने थोड़ें भोजन मल्युं छे. ते केटलो काळ चवाशे अने ते 8 न For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie दांतना संकटमां पडेलु रहेशे. (माणसो विषय तृष्णाना लोभी बनी तेने माटे आम तेम दोडे छे. पण ते भोग प्राप्त करवा पहेलां आचा० ट कयारे काळ झडपशे तेनी खबर पण नथी राखता ते आश्चर्यनी बात छे.) उच्छवासनी मर्यादावाला प्राण छे. अने ते उच्छ्वास पोते & सत्रम पवन छे अने पवनथी बीजं कंइ वधारे चंचळ नथी तो पण क्षणभरनु आयुष्य लोकोने मोह करावे छे. ते पण एक आश्चर्य छे. ॥२९१॥ उच्छ्वासावधयः प्राणाः, स चोच्छासः समीरणः। समोरणाचलं नान्यत् क्षणमप्यायुरभूतम् ॥२॥ ॥२९॥ आ प्रमाणे मनुष्यने मोह उतारवा का. वली जेओ लांबा आयुष्य वाला छे. तेओने पण उपक्रमण (आफत) ना अभावे आ- युष्य भोगवे छे. तेओ पण मरणथी पण बधारे पीडा करनार बुट्टापाथी पीडाएला शरीरवाला सुखनी जींदगी अल्पमां अल्प भो-| गवे छे, ते हवे मूत्रकार बतावे छे. तंजहा-सोयपरिणाणेहिं, परिहायमाणेहि, चक्सुपरिणाणेहि, परिहायमाणेहिं घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं रसणापरिणाणेहि परिहायमाणेहिं फासपरिणाणेहिं परिहायमाणेहि, अभिकंतं च खलु वयं स पेहाए तओ से एगदा मूढभावं जणयंति ॥ ६३ ॥ भाषारुपे परिणमेला पुद्गलोने जे सांभळे ते श्रोत (कान) छे, अने तेनो आकार कदंवना झाडना फुल जेवो द्रव्यथी छे, अने 15 भावथी तो जे भाषा द्रव्यने ग्रहण करवानी लब्धि, तथा तेनो उपयोगनो जे स्वभाव छे, ते जाणवू. पूर्वे कहेलां श्रोत्र (कानवडे) ४ चारे बाजुथी घटपट शब्द विगेरे विषयोनुं जे ज्ञान थाय; ते परिज्ञान छे, ते कानना परिज्ञानमा बुट्टापाना प्रभावथी जे सांभळवानीठ ak For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir सूत्रम् ॥२९२॥ शक्ति कमी (बहेराश) थाय तेथी ते पाणी बुट्टापामां, अथवा तेबाज रोगना उदयना वखतमां मृढभावपणाने पामे छे, जेथी करवा आचा०ा ४ योग्य न करवा योग्य, विवेक जतां अज्ञानपणुं इंद्रियोनी शक्ति कम थतां आवे छे. अने तेथी हित पाप्त करवू; अने अहित छोडg; तेनो विवेक नाश पामे छे. जेम कान संबंधी कयु; तेज प्रमाणे आंखनु पण बुट्टापामां के रोगमां विज्ञान नाश पामे छे. ॥२९२॥ प्रश्नः-आत्मा साथे जेम काननो संबंध छे, तेम आंख साथे पण संबंध छे, त्यारे आंखनी माफक कानथी केम देखातुं नथी? ___ उत्तरः-तेम थर्बु अशक्य छे, कारणके. तेना विनाशमां तेनो उपलब्ध (पाप्त) अर्थनी स्मृतिनो भाव थाय छे, अने एवं दे-12 | खाय पण छे के, इंद्रियना उपघात (नाशमां) पण तेनो उपलब्ध अर्थन स्मरण थाय छे. जेमके, धोद्धं घर. तेमां बेठेलो पुरुष पांच & बारीओथी देखायलो जे कंद पदार्थ होय; ते वारीमाथी कोइपण बारी ढांकता पूर्वे जोयलु; ते याद आवे छे, तेबीज रीते में कान-12 | वडे, सांभळ्यो अथवा आंखवडे धीमो (धीमाशथी) पदार्थ जोयो; अने में आ कान, जाण्यो अथवा आंखथी स्फुट (खुल्लो) अने स्पष्ट पदार्थ जोयो, ते इंद्रियोनी करणपणानी अवगति (बोध) छे, तेथी आत्मा साथे दरेक इंद्रियोनो संबंध छे. IP वादीनी शंका-जो, एम छे तो; बीजी पण इंद्रियो छे, ते केम न लीधी? (बीजी कइ इंद्रियो छे ? एवं पूछो तो नीचे बता8 वीए छीए) जेवी के जीम हाथ पग टटी अने पेशावनी इंद्रियो तथा मन ए केम न लीधी? जेमके वचन बोलवाथी ते पण जीभ इंद्रिय छे. तथा लेवा मुकवामां हाथ इंद्रिय छे. चालवामां पग इंद्रिय छे तथा मळ काढवामा टटीनी इंद्रिय छे. अने संसारी आनंद भोगविवामां गुह्य इंद्रिय छे. तथा विचार करवामां मन शेंद्रेय छे. आ छ इंद्रियो पण आत्माने उपकार करे छे. तेथी तेमां पण करणपणुं घटे छे. अने करणपणाथी इंद्रियपणुं छे. तेथी बधी मलीने अगीआर इंद्रियो थाय छतां तमो पांच इंद्रियो केम बतावो छो? ॐARA For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनाचार्थनो उत्तर—एमां कं दोष नथी कारणके अहीं आत्माना विज्ञाननी उत्पत्तिमां जे विशेष उपकारक होय छे. तेज करण (जेना वडे कार्य थाय ते) पणे लेवाथी पांचज इन्द्रियो छे. अने जीभ हाथ पग विगेरे आत्मा साये साधारण रीते एक पणे होवाथी करण पणे वपराती नथी अने कंड पण क्रियांना उपकारपणाथी जो करण पशुं मानीए तो ते प्रमाणे “भ्रू" (पांपण) अथवा उदर (पेट) विगेरे पण उंचेनिचे थवानो संभव होवाथी तेनामां पण करण पणुं थाय, वली इन्द्रियोना पोताना विषयमां नियत (चोकसपशुं) होवाथी एकनुं काम बीजी करी शकवाने शक्तिवान नथी. तेज कहे छे केः — रुप जोवाना काममां आंख काम लागे पण आंखने बदले आंखना अभावमां कान विगेरे काम न लागे पण जे रस विगेरे प्राप्त थतां थंडा विगेरे स्पर्शनो लाभ थाय छे ते स्पर्शनु सर्व व्यापिपणुं होवाथी त्यां शंका न करवी के जीभथी चाखतां खारा खाटा साथे ठंडो उनो पदार्थ लागेछे तेथी जीभ जीभनुं पण काम करे छे तेम बीजी इन्द्रियनुं काम करे छे. तेम न मानवं पण जीभमा स्पर्श इन्द्रियनं पण सर्व व्यापिपणुं छे एम जाणवुं. अहीं हाथ कापत्रा छतां तेनुं कार्य जे लेवापणुं छे. ते दांतथी पण लेवाय छे. तेथी हाथमां लेवाना कारणथीज ते इन्द्रियपणुं मानवुं ते नकामुं छे. अने मननुं सर्व इन्द्रियो उपर उपकारपणुं होवाथी. तेने अंतःकरणपणे अमे इच्छिए छीएज, अने बाह्य इन्द्रियोना विज्ञानना उपघात वडे ते छे. अने ते तेमां समाइ जवाथी मनने तेमां जुदुं लीधुं नथी. अने प्रत्येकनुं ग्रहण करवुं ते क्रमनी उत्पत्तिना विज्ञानना उपलक्षण माटे छे, तेज बतावे छे. जे इद्रियनी साथे मन योजाय छे तेज पोताना विषयनो गुण ग्रहण करवा माटे वर्त्ते छे. पण बीजो ग्रहण करवाने माटे नही. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥२९३॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kilassagarsur Gyarmande Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रम् ॥२९४॥ प्रश्न-दिर्घ शष्कुली. (तलपापडी) खावा विगेरेमां पांच इन्द्रियोन विज्ञान थाय छे. अने ते साथे अनुभव थाय छे, ते केवी रीले छे? आचा०॥ उत्तर-तेम नथी. कारणके. केवळीने पण वे उपयोग साथे नथी. त्यारे बीजानेतो आरातीय (अल्पमात्र) भाग जोनारने पांचेने उपयोग साथे कयांथी होय आ बाबतमा अमे बीजी जग्याए विस्तारथी कबु छे. तेथी अहीं कहेता नथी अने जे सार्थना ॥२९४॥ 15 अनुभवनो आभास थाय छे. ते मन- जल्दी दोडवानी वृत्तिपणानुं छे. का छे के "आत्मा सहेति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः। योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति?, यस्मिन्मनो व्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥१॥ | आत्मा मननी साथे जाय छे. अने मन छे ते इन्द्रिय साथे जाय छे. अने इन्द्रिय पोताना इच्छित पदार्थ मां जाय छे. अने ते क्रम शीघ्र बने छे. आ मननो योग शुं अजाण्यो छे के जेमां मन जाय छे त्यां आत्मा गएलोज छे. P अने अहीआं आ आत्मा, इन्द्रियोनी लब्धिवाळो शरुआतथीज जन्मना उत्पत्ति स्थानमा एक समयमा आहार पर्याप्तिने निप जावे छे. त्यार पछी अंतर्मुहूर्त्तमां शरीर पर्याप्तिने निपजावे छे. त्यार पछी इन्द्रिय पर्याप्तिने तेटलाज काळमां निपजावे छे. अने ते पांच इन्द्रियो स्पर्श रस घ्राण चक्षु अने श्रोत्र एम छे. ते पण द्रव्य अने भाव एम दरेक बे भेदे छे. तेमां द्रव्य इन्द्रिय निर्वृत्ति अने उपकरण एम वे भेदे छे. निवृत्ति पण अंतर अने बाह्य एम वे भेदे छे.. ___ जेनाथी निर्वाह थाय ते निवृत्ति छे. अने ते कोनाथी निर्वाह थाय छे.? तेनो उत्तर-कर्मवडे निर्वाह थाय छे. SAHARASOOG HEAR For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie AGR सूत्रम् ॥२९५॥ २ तेमां उत्सेध (लोकमां वपरातुं माप आंगळी,) अंगुलना असंख्येय भाग जेटला शुद्ध आत्म प्रदेशना प्रतिनियत चक्षु विगेरे ४ आचा०ाट इंद्रियोना संस्थान बडे जे वृत्ति अंदर रहेली छे ते निवृत्ति जाणवी. ते आत्मा प्रदेशोमान (द्रियना व्यपदेशने भजनार जे प्रतिनियत संस्थानवालो निर्माण नामना पुद्गल विपाकवाली (कर्म॥२९५॥ प्रकृतिवडे) वर्द्धकि (सुतार माफक) विगेरे विशेष रुपवालो (इंद्रिय विभाग) अने अंगोपांग नामना कर्मवडे बनावेल जे छे ते बहारनी द निवृत्ति जाणवी. (आ उपर जे वर्णन कर्यु ते शरीरनी अंदर अने वहार ज्यां जे इंद्रिय रहेली छे तेनुं बने प्रकारचें वर्णन बताव्यु छे, बहारनी 8| इंद्रियो दरेकनी देखाय छे पण अंदरनी तो आत्मज्ञानी जाणी शके छे) उपरनी बतावेली निवृत्ति के प्रकारनी कही तेने जेना वडे उपकार कराय छे ते उपकरण छे अने ते इंद्रियोना कार्यमां समर्थ छे. वली निर्वृत्ति होय अने हणाइ नहोय तो पण मथुर (जेनीट Hदाळ थाय छे) तेना आकार वाली निर्वृत्तिमां तेने जो उपघात थाय तो आंख जोइ शकती नथी (आंखनो बहारनो आकार मशुरनी दाळ जेवो छे, जोते नाश पामे तो अंदर आत्मानी शक्ति छे छतां ते जोइ शकतो नथी माटे बहारना आकारने उपकरण कयु छे. ते पण निवृत्ति माफक वे प्रकारे छे तेमां आंखनी अंदरनुं काळं धोळु मंडळ छे अने बहारनुं पण पांदडांना आकारे चे पांपण विगेरे छे, (ते सोने जाणीतुं छे.) आ प्रमाणे बीजी इंद्रियोमां पण जाणी लेवु. भावइंद्रिय पण लब्धि अने उपयोग एम वे भेदे छे. तेमां लब्धि छे, ते ज्ञानदर्शन आवरणीय कर्मना क्षय उपशमरुप जेना सं ०२२ OCEREMOCOOL For Private and Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का सूत्रम् ॥२९६॥ निधानथी आत्मा द्रव्य इंद्रिय निर्वृत्ति तरफ जाय छे, अने तेना निमित्तथी आत्मानो मनना जोडाणथी पदार्थ- ग्रहण करवानो व्यापार थाय ते उपयोग छे, ते आ छती लब्धिए निर्वृत्ति उपकरण, अने उपयोग छे, अने छती निवृत्तिमां उपकरण अने उपयोग छे, अने उपकरण होय; त्यारे उपयोग थाय छे. आ कान विगेरे वधी इंद्रियोना आकार अनुक्रमे नीचे मुजब जाणवा. ॥२९६॥15 काननो आकार कदंबना फुल जेबो छे. आंखनो मशुर जेबो, अने नाकनो कलंबुका ना फुल जेवो छे, जीभनो चरम (खरपो, तावेता)ना आकार जेवो, तथा शरीरनो स्पर्श, इंद्रियोनो आकार जुदी जुदी जातनो छे एम जाणवू. काननो विषय. बार योजनथी आवेला शब्दने ग्रहण करे छे, अने आंखनो विषय. एकवीस लाख योजनथी कंइक अधिक दर है होय; अने ते प्रकाश करनार होय; ते देखाय छे. पण प्रकाश करवा योग्य होय; ते एकलाख योजनथी कंइक थधिक होय; तेबा रुपने ग्रहण करे छे, पण बाकीनी इंद्रियोनो । विषय नव योजनथी आवेलो होय; तेने ग्रहण करे छे, अने जघन्यथी तो, बधी इंद्रियोनो विषय आंगळना असंख्येय भाग मात्र छे. (नीचेनाटीपणमां खुलासो को छे के बधोइंद्रियोथी आंखनुं जुडुं छे,कारण के,आंखनो विषय जयन्यथी आंगळनासंख्येय भागमाथी जाणवो 18 अहीं मूळमूत्रमा श्रोत्रना परिज्ञानथी हणातां, अथवा ओर्छ थतां इंद्रियोनी केवी दशा थाय छे ते बताव्यु. तेनो परमार्थ आ छे. अहींयां संज्ञो पचेंद्रिय जीवने उपदेश आपवानो अधिकार होवाथी उपदेश छे ते काननो विषय छे. (काननी शक्ति सारी होय; ताज || उपदेश संभळाय.) एटला माटे तेनी पर्याप्तिमां बधी इंद्रियोनी पर्याप्ति पण साथे सुचवी. (काने सांभळीने जीवरक्षा माटे आंखथी जोइने चाले; विचारीने बोले विगेरे छे, तेथी बीजी इंद्रियोर्नु पण स्वरूप बताव्युं छे.) OMARCHOICENGLISeas ARCHCA544 For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२९७॥ आ कान विगेरेनो आत्मानीसाथे संबंधथतां; जे ज्ञान थाय छे, ते ज्ञान उमर वृद्ध थतां ओछु थाय छे, ते हवे बतावे छे. मूळसूत्रमा कयुं छेकेःआचा "अभिकतं घ" विगेरे एटले उपर बताव्या प्रमाणे बुढापामां शक्ति ओछी थइ जाय छे. अथवा आखा मूत्रनो आ प्रमाणे अर्थ लेवो के:॥२९७॥ कान विगेरे विज्ञानथी कमी थयेल कर्णभूत इन्द्रियो छतांपण अभिकतं. विगेरेनो अर्थ आ थाय छे केः-जेम जेम ऊमर वीते; ४ तेम तेम बुद्धि-शक्ति ओछी थाय; तेमां प्राणीओने काळेकरेली शरीरनी अवस्था जेमां यौवन विगेरे वय (उमर) छे. तेने जरा अRथवा मृत्युना सामे जवान छे. कारण के अहीआं शरीरनी चार अवस्थाओ छे, (१) कुमार (२) योवन (३) मध्यम (४) वृद्धत्व छे, एम जाणवू. ते शास्त्रमा कयुं छे. के8 "प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीए नार्जितं धनम्। तृतीए न तपस्तप्त, चतुर्थे किं करिष्यति? ॥१॥ पहेली वयमा विद्या न भण्यो, बीजी वयमा धन न मेळव्यु. त्रीजीमां तप न को. (एवो आळसु माणस इन्द्रियो थाकता. चोथी | अवस्थामां शुं करवानो के !) तेथी पहेली बे अवस्था जतां वृद्धावस्थाना सामे वय जाय छे, अथवा बीजीरीते त्रण अवस्थाओ छे. (१) कुकार (२) योवन ६ (३) वृद्धावस्था छे का छे के “पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने। पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति ॥१॥" MARACANCIENCCCCCCC-% For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ।।२९८॥ बाळक पणामां पिता रक्षा करे छे. यौवन अवस्थामां धणी बचावे छे. अने वृद्धावस्थामां दिकरा पाळे छे, पण स्त्रीने कोइपण : आचा०४/ अवस्थामां स्वतंत्रता आपची योग्य नथी. अथवा बीजी रीते त्रण अवस्थाओ छे. (१) वाळ (२) मध्य अने (३) वृद्धत्व एम छे. का छे के॥२९८॥ आषोडशाद्भवेद्दालो, यावत्क्षीरान्नवर्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत्परतो वृद्ध उच्यते ॥१॥ दुध अने अन्न खानार (जन्मथी लइने) सोळ वर्ष सुधी बाळक कहेवो, अने सोचेर वर्ष सुधी मध्यम अने त्यारपछी वृद्ध क& हेवो, आ बधो अवस्थामां पण जे उपचयबाली (बळ वधे त्यां सुधी) अवस्था छोडीने आगळ गएलो अतिक्रांत वयवालो जाणवो. ("च" समुच्चयना अर्थमां छे.) IP अहींआं कान, चक्षु, नाक, जीभ, अने स्पर्श इंद्रियोना अस्त (नाश) पामेला समस्त ज्ञाननी वात फक्त न लेवी पण तेनी साथे शरीरनी बीजी शक्तिओ पण नाश थतां मृट्टपणुं आवे छे. (आ करवू आ न करवू. एवो विवेक नष्ठ थाय छे.) व तेथी वय उलंघतां (शरीरनी शक्ति ओठी थतां) विचारीने ते प्राणी (संसारमा मोह राखनारो पुरुष) निश्चयथी वधारे मुट्ठपणुं पामे छे. (पण धर्म आराधतो नथी) तेथीज मूळ मूत्रमा का छे के-"तोस" विगेरे 4 अटेले धोळा वाळ जोइने अथवा शरीरपर करोचलीपडेली जोइने पोते हुँबुट्टो थयो एम जाणी वधारे खेद करे छे; अने तेथी मृढता प्राप्त करेछे अथवा ते संसारी जीवने कान विगेरेनी शक्ति ओछी थतां तेने मूढता आवे छे; ए प्रमाणे वृद्धावस्थामां ते मूढ भावने पामीने SHAHARASHROCA4 - A- A For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२९९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राय - लोकमां अवगीत ( तीरस्कार करवा योग्य. ) थाय छे. ते बतावे छे. जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते विणं एगदा णियगा पुव्विं परिवयंति, सोऽवि ते नियए पच्छा परिवएजा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमपि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा, सेण हासाय ण किड्डाए ण रतीए विभूसाए सू० ॥ ६४ ॥” बीजा लोको तो दूर रहो पण जेनी साथे घरमां रहे छे. ते पोताना पुत्र स्त्री विगेरे छे ते स्त्री पुत्र विगेरे पण एकदा एटले वृद्धावस्थामां तेना पोताना सगा छतां तथा पोते समर्थ अवस्थामां कमाइने तेमने पोष्या हता ते स्त्री पुत्र विगेरे पण तेनो तीरस्कार करे | छे. अने बोले छे के. आ मरतो नथी अने खाटलो पण मुकतो नथी. अथवा “परिवदंति" एटले पराभव करे. ( छोकराओ तेमनुं | अपमान करतां बोले छे के. "बेस बेस डोकरा ? तुं भुं समजे छे.” विगेरे अथवा परस्पर वातो करे छे के. इवे आ बुढानुं भुं काम छे. ए सगाओनोज तीरस्कार खमतो नथी पण पोतानो आत्मा पण पोताने निंदवा योग्य थाय छे. ते बतावे छे. 'वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिल स्नायुघृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता कमनीयविग्रहा?" सर्वत्र करोलीओ पडी गएल अने हाडकां बाकी रहेल तथा ढोलां पडीगएल स्नायु (नाडीओ) ने धारण करनार. आहाहा आ मारुं आवुं शरीर रधुं ! आयुं पोतानुं शरीर जोइने पुरुष पोतेज पोतानी निंदा करे छे. तो सुंदर शरीरवाळी स्त्री निंदा करे तो तेमां शुं नवाइ छे ! For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ २९९ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1130011 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोवालीओ बाळक तथा स्त्री विगेरे मंद बुद्धिवालाना ताटे द्रष्टांत द्वाराए कहेलो विषय वधारे बुद्धिमां उसे छे. तेटला माटे उपर बतावेल विषयने समजवा माटे कथा कहे छे. धना शेठनी कथा, कौसंबी नगरीमां घणुं धन अने घणा पुत्रवालो धनो नामनो सार्थवाह (मोटो वेपारी) डतो. तेणे एक वखत पोते एकलाए घणा उपायों बडे स्वापतेय (पोतानुं कमाए धन ) मेळव्यु अने बधां दुःखी जे भाइ समां मित्र स्त्री पुत्र विगेरे हतां तेमने माटे उपभोगभां लीधुं. त्यार पछी आ शेठ उमरना परिपाकथी बुढो थयो, त्यारे तेणे साचत्रवामां होंशीयार एवा पुत्रोने वधा कार्यनी चिन्तानो भार सोंपी दीधो, ते पुत्रो पण विचारखा लाग्या के आ बुढाए अमने आवी अवस्थामां मूक्या के जेथी वधा माणसोमां हमो अग्रेसर थया, तेनो उपकार मानता छता उत्तम कुळनी सज्जनता धारण करता रह्या. पण कोइ वखते कार्यना प्रसंगे तेओ दूर थया, तेथी पोतानी खोओने पोतानो अशक्त वाप सोप्यो ते स्त्रीओ पण घरनी श्रीमंताइथी ते बुट्टाने तेल मर्दन तथा स्नान तथा भोजन विगेरेथी यथायोग्य कार्य संतोष पाडवा करती हती. त्यार पछी केटलोक काळ गयो त्यारे घरमा पुत्र परिवार तथा माल मीलकत बघतां ए स्त्रीओ पोताना पतिनो संपदाथी अहंकारमां आवी. अने ते बुढो परवश थलो अने तेनुं आखें अंग कंपनुं हतुं शरीरनां बधां द्वार अंदरना मळ विगेरे नीकळवाथी गंधाता हतां. तेथी ते बुट्टा तरफ घरनो खोओ धीमे धीमे योग्य उपचार करवामां प्रमाद करवा लागी. आडोशो पण पोतानी ओछी सेवा थतो जोइ चित्तना अभिमानवडे तथा कुदरती लागणीथी दुःखना सागरमा डुबेलो बनी | छोकरानी बहुओनी फरीआद छोकराओ पाले करवा लाग्यो, ते स्त्रीओने पोताना पतिए उपको आपवाथी वधारे खेदवाली बनी ( ससरानी उपर क्रोध लावी.) ने थोडी पण चाकरो करवो छोडी दीधी, अने ते दरेक बहुओ एक विचारवाळी बनीने पोताना पतिने कहेवा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ३००॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३०१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लागी के अमो आवी सारी रीते रात दिवस जागीने डोशानी चाकरी करीए छीए, छतां आ डोशो बुढापाथी विपरीत बुद्धिवालो बनीने गुणोनो चोर थाय छे, अने जो अमारा उपर पण तमोने विश्वास न होय तो जे कोइ विश्वासवाला होय तेने काम सोंपो. तेथी छोकराओए पण तेज प्रमाणे कर्यु, अने बीजी बहुओने काम सोप्युं, पण बीजी बहुओए बधां कार्योंने बराबर योग्य अवसरे कर्यो, पछी पुत्रोए डोशाने पूछयुं. त्यारे पहेलांथी रीसाएलो डोशो तेज प्रमाणे निंदा करवा लाग्यो. अने कहेवा लाग्यो के मारा कहेवा प्रमाणे आ बहुओ पण काम करती नथी. एटले छोकराओए खातरीवाळा माणसोना वचनथी खरी वात जाणीने विचार्यु के, आ डोशानी बराबर चाकरी करवा छतां वृद्धावस्थाथी व्यर्थ रोदणां रुवे छे, तेथी छोकराओए पण तेनी उपेक्षा करी तेथी बीजाओ आगळ पण अवसर आवतां छोकराओ डोशानी निंदा करवा लाग्या. आ प्रमाणे छोकराओए तथा बहुओए पराभव करेलो तथा सां वहालांए तथा नोकरोए अपमान करेलो अने तेनुं वचन पण कोइ न मानतुं जोइने घरनां बधां सुखीओमां ते एकलो दुःखी बुड्ढो पाली अवस्थामा वधारे वधारे दुःख जोवा लाग्यो. ए प्रमाणे बुट्टपाथी अशक्त थएल शरीरवाळो बीजो बुढो माणस पण तरखलाने वांकुं वाळवामां असमर्थ जेवो थतां कार्यनेज | चाहता लोकोमां पराभव पाये छे. कधुं छे के— " गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाश गता, दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभृतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३०१। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie 17 मराफरपानामम ॥३०२॥ शरीर संकोचाइ गयु. टांटीआ लथडवा लाग्या. दांत पडी गया. आंखोनुं तेज गयु. मोढांमांथी लाळ पडवा लागी. सगां वहालां आचा० कहेलुं करतां नथी. अने पोतानी स्त्री पण जोइती मागणी स्वीकारती नथी. आ हाहाहा! बुट्टा थएल पुरुषने अशक्त थतां पुत्र पण अपमान करे छे. ते कष्टदाइ बुट्टापाने धिक्कार हो-(विगेरे जाणवू.) ॥३०२॥ आप्रमाणे बुट्टापाथी हारेलाने सगां वहालां निदे छे.अने ते पण गभराएलो वे बाकळो बनीने बीजा लोको आगळ पोताना घरनी निंदाकरे छे. मूळ मूत्रमा “सो वा” इत्यादि शब्दो छे. ते पहेलांनी अपेक्षाए बीजो पक्ष मूचवे छे. एटले एम जाणवू के सगां वहालां अपमान करे & छे. अथवा पोते बुट्टो थतां दुःखने लीधे सगां वहालांनी निंदा पारका आगळ पोते करे छे. अथवा पोते गभरामणथी सगांनुं अपमान करे छे. ___ कदाच कोइए पूर्वे धर्म आराध्यो होय तेवानुं धर्मात्मा जीवो बुड्ढापामां अपमान न करे तो पण तेनुं दुःख दूर करवाने तेओ । 8/ समर्थ थता नथी तेवू मूत्रकार कहे छे. “के तारा छोकरा तथा बहुओ तने तारवा माटे शक्तिमान नथी अथवा तने शरण आपवा | योग्य नथी तेमज तुं पण तेओने तारवाने समर्थ नथी नेम शरण आपवा योग्य नथी (आपदामाथी बचावे ते त्राण छे) जेम महा श्रोतवडे (पाणीना पूरमां सारा नाविकने आश्रयी जे नावमां बेसाय तो पार उतराय) जेनो आश्रय लइने बेसीए अने भय न आवे ते शरण छे किल्लो अथवा पर्वतने आश्रये बचे; अथवा शूर पुरुष गामने बचावे ते शरण छे. "जन्मजरामरणभय, रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र, नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ १॥" जन्म जरा अने मरणना भयथी पीडाएला अने रोगनी वेदनाथी घेराएला पुरुषने जिनेश्वरना वचनथी चीजें कंइ शरण आ AAAAAAG 32-3-%AASARAN For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie लोकमां क्यांय नथी. उलटुं ते पीडाएली अवस्थामा पोते कोइनी हांसी करवा योग्य रह्यो नथी. किंतु जगत् तेनी हांसी करे छे. आचा० जेनी पारकाथी हांसी थाय ते केवीरीते हर्ष पामे (पोते पोताना समक्ष के पाछळथी हसी खुसीनी वात करवा योग्य नथी किंतु हांसी सूत्रम् करवाने योग्य छे. तेम तेनी साथे ओळंगवा, कुदवाने, ताळी पाडवा के तेवो बीजो कोइ जातनो वात करवा विगेरेनो आनंद पण, ६ करवा योग्य नथी तथा तेनुं रुप विगेरे स्त्रीओने गमतुं नथी उलटुं स्वीओ तेनी निंदा करे छे. अने कहे छे के. “तुं तारा आत्माने ४ ॥३०३॥ जोतो नथी ! माथु जोतो नथी ! के जे धोळा वाळ रुप राखथी लेपाएल छे ! हुं तारी दिकरी जेबी जुबान छु अने तुं मारी साथे आनंद (लग्न) करवा इच्छे छे. आ दुनीयामां जाणीतुं छे के ते बुड्डो संसार सुखने योग्य नथी तेम शरीरनी शोभा करवाने पण ४/ योग्य नथी अने कदाच शोभा करे तो पण बगडी गएली अने करोचली पडेली चामडीवालो बुट्ठो शोभतो नथी. का छे के. न विभूषणमस्य युज्यते न च हास्यं कुत एव विभ्रमः? । अथ तेषु च वर्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बना। तेने शोभा करवी योग्य नथी. तेने हर्ष नथी अने. स्त्रीने खुश करवानो विभ्रम (चेष्टा) क्याथी होय अने ते छतां जुवान स्त्रीओमां खेलवा जाय तो निश्चये मोटा अपमानने पामे छे. जं जं करेइ तं तं न सोहए जोव्वणे अतिकते॥ पुरिसस्स महिलियाइ, व एक्कं धम्म पमुतणं ॥२॥ जुवानी जतां चुटो माणस जे कंइ करे ते शोभतुं नथी. एटले एक धर्मने छोडीने स्त्रीने खुशी करवा जे कंइ बुट्टो करे ते बधु निरर्थक छे. अप्रशस्त मूळ स्थान का हवे प्रशस्त मूळ स्थान कहे छे. For Private and Personal use only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३०४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir sai समुट्ठिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं सपेहाए धीरे मुहुत्तमवि, णोपमायए वओ अच्चेति जोव्वणं व. (सूत्र. ६५) अथवा जे कारणथी ते वहालांओ संसार समुद्री तारवा के बीजाना भयथी रक्षण आपका समर्थ नथी एवं शास्त्रना उपदेशथी उत्तम पुरुषने समजाय तो तेणे शुं करवुं ते कहे छे ( इति शब्दनो उपर कहेलो अर्थ छे ) अमशस्त मूळ गुणस्थान ( संसारी विषय मुख) मां राचेला जीवने बुट्टापानी अशक्तिथी घेरातां हर्पना माटे के क्रीडाना माटे के भोगविलास माटे अथवा शरीरनी शोभामाटे योग्यता नथी (परंतु ते तेणे पहेलेथी समज जोइए) के संसारमां जे कंद सुख अथवा दुःख पढे छे, ते दरेक पोताना शुभ अशुभ कर्मनुं फळ वधा प्राणीओने भोगववानुं छे. एवं जाणीने ते समजेला प्राणीए पूर्वे कहेला पहेला अध्ययन शस्त्र परिज्ञामां बतावेल महाव्रतोमा स्थिर चित्तवाला बनीने साधुए विचारखुं के अहो (मारा पुन्य उदयथी आबुं निर्मळ चारित्र मल्युं छे. एम जाणीने) सुंदर विहार करवा योग्य छे." जेमां शास्त्रमां कहेल संयम अनुष्ठान छे. तेना माटे योग्य विहारमां तत्पर बनी जरा पण प्रमाद न करे. वली तेणे विचार जोइए के आर्य क्षेत्र उत्तम कुळमां जन्म वीतरागनो धर्म तेना उपर श्रद्धा अने आवां सुंदर महाव्रतो विगेरेनो सारो अवसर मने मल्यो छे. तो केवीरीते प्रमाद थाय तेथी विनेय (शिष्ये) तप संयममां जरापण खेद न पामतां उपर कट्टेल उत्तम वस्तु आर्य क्षेत्र प्राप्तिथी आनंद पामीने गुरु शुं कहे छे ते समजे. गुरु कहे छे के आ तारो योग्य अवसर छे, अनादि संसारमां घणा भव भ्रमतां तने धर्म प्राप्ति थवी घणी दुर्लभ छे. माटे हे धीर ! आ सारा अवसरने विचारीने तुं एक मुहूर्त्त (४८ मीनीटनी अंदरनो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३०४॥' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३०५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वखत.) पण प्रमाद वश न थजे (मूळसूत्रमां अनुस्वारनो लोप थयो छे. अने ते प्रमाणे बीजुं. पण व्याकरण विरुद्ध आवे तो समज लेबुं के. मागधीमां तथा संस्कृतमां कंइक भेद छे.) अंतर्मुहूर्त्तनो वखत बताववानुं कारण ए छे के. केवळज्ञान विनाना जीवोने समय विगेरेनुं बारीक ज्ञान नथी तेथी तेटलो वखत बताव्यो. खरी रीते तो एक समय मात्र पण प्रमाद न करवो एवो मुगुरुनो उपदेश जाणवो. कां छे के. " सम्प्राप्य मनुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय । हे जीव? किं प्रमादान्न चेष्टसे शान्तये सततम् ? ॥ १ ॥ मनुष्य पशुं पामीने संसारनी असारता समजीने. प्रमादथी केम बचतो नथी तथा हे जीव शांतिना माटे महेनत केम करतो नथी ? ननु पुनरिदमतिदुर्लभ मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकत डिल्लताविलसितप्रतिभम् ॥ तुं जोतो नथी के आ अतिदुर्लभ संसार समुद्रमां भ्रष्ट थएला मनुष्यने आगीआना कीडाना प्रकाशवा जेवुं अथवा विजळीना झबकारा जेवुं सारी सुख छे. वळी शास्त्राकार कहे छे के शामाटे प्रमाद न करवो? सांभळो. तारी वय (उमर) दिवसे दिवसे व्यतीत थाय छे. जुवानी चाली जाय छे.! (मूळ सूत्रमां वय अने जुबानी एक छतां जुवानीमां मोह थाय माटे ते जुदुं बतावेलुं छे.) जुवानीमां धर्म अर्थ अने काम त्रणे सधाय छे. माटे मोहमां न पडतां तेमां धर्म साधी लेवो गुरु कहे छे के हे शिष्य! ते जुवानी जल्दीथी जाय छे. कां छे के. "नइवेगसमं चवलं च जीवियं जोव्वणं च कुसुमसमं । सोक्खं च जं अणिच्चं तिष्णित्रि तुरमाणभोजाई ” ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३०५॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३०६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नदीना पूर समान तारुं जीवित चपळ छे. अने जुवानी फुलनी समान. ( जल्दी करमाय तेवी.) छे संसारीक सुख अनित्य छे अने ते जीवित जुबानी अने सुख ए त्रणे शीघ्र भोगववानां छे. (जल्दी बिती जनाएं छे.) आ प्रमाणे मानीने साधुए विचार के विहार करवो ते वधारे सारुं छे. (जे साधुओ चालवाथी कंटाली एक जग्याए पडी रहेता होय तेमणे उपरनुं रहस्य विचारवा जेवुं छे.) पण जे संसारना सुख वांच्छको छे, तेओ असंयम जीवित ने खुखकारी माने छे. तेमनी शुं दशा थाय छे. ते सूत्रकार कहे छे. जीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्यवित्ता उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिंवा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया निगया तं पुछि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तत्र ताणाए 'वा' सरणाए 'वा' तुमंपि तेसिं, नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू. ६६ ) जेओ पोतानी वय वीते छे, तेने जाणता नथी तेओ विषय कषायमां प्रमादी थाय छे. तेओ रात दिवस कलेश पामता काळ अकाळमां उद्यम करी जीवोने दुःख आपनारी क्रिया (आरंभ) करे छे. संसारी गुणमां रहीने विषयना अभिलापमा प्रमादी बनी स्थावर अने त्रस जीवोना घातक बने छे. (बहु वचनने बदले एक वचन मूळ सूत्रमां छे. ते जातिनी अपाक्षाएं जाणं) तथा कान नाक विगेरेने छेदनारा पण छे. तथा माधुं आंख पेट विगेरेने भेदनारा पण छे. अने कपडानी गांठ विगेरेने छोडीने चोरनारा पण छे, गामनी लुंट करणारा पण छे. तथा विष तथा शस्त्र वडे प्राण लेनारा पण छे. अथवा दगो देनारा पण छे. अथवा देखाळो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ३०६ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie | विगेरे मारीने त्रास आपनारा पण छे. आचाल शिष्य पूछे छे. शामाटे आवी परने पीडा आफ्नारी क्रिया करे छे.? सूत्रम् उत्तर-बीजो तेवू नथी करी शकतो पण हुं बहादुर छु एबुं अभिमान लावीने पैसो मेळववा मारवा विगेरेनी पाप क्रियामां ॥३०७॥ 8 ते जीव वर्ने छे. वली ए प्रमाणे ते अतिशय क्रूरकर्म करनारो समुद्रने तरवानी क्रिया पण करे हे. छतां तेना पापना उदयथी कंइ ४ ॥३०७॥ है. पण न मेळवेलो. गांठन गुमावी केवो थाय छे. (के, अपमान पामे छे.) ते बतावे छे के जेओनी साथे ते बसे छे, ते माता पिता सगां विगेरेर्नु पूर्वे जेणे पोपण कर्यु छे. अने आ वखते जो ते न कमाइ लाग्यो होय तो तेओ तेनुं रक्षण करता नथी अथवा संसारी दुःखथी पार उतारता नथी. कदाच कमाइने लावे अने सगाने पोषे तो तेओ तारुं रक्षण करवा समर्थ नथी तेमज तुं तेमना आलो| कना रक्षण माटे के परलोक ना भलाना माटे समर्थ नथी. वली एम समजवू के-महा कष्टथी मेळवेलं धन पण साचत्री राख्या छतां रक्षण आपवा योग्य नथी. ते बतावे छे. उवाईयसेसेण वा संनिहिसंनिचओ किजई, इहमेगासिं असंजयाण 'भोयणाएं तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजंति,जेहिं वा सम् िसंवसइ ते वाणं एगया नियगा तं पुविं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए'वा'सरणाएवा,तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू.६७) ते घणु खाधुं (भोगव्यु.) हवे तेमांनुं थोडं बाकी छे. अथवा जे नथी भोगवायुं तेनो तुं संचय करे छे. अथवा उपभोग करवाने & CLACE For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३०८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | माटे पुष्कळ सुख लेवा द्रव्यनो संचय करे छे. ते लोभीओ जीव आ संसारमां असंयत. ( संसारसुखना चाहक.) ना माटे अथवा साधुनो वेश मात्र धारेला पण साधुगुणथी रहित एवाने जमाडवा माटे धन एकटुं करे छे. तेने गुरु कहे छे के ते तने अंतराय कर्म उदय आवतां तारी संपत्ति माटे सहायक नही थाय अथवा द्रव्य क्षेत्र काळ भावना निमित्तथी ज्यारे तने असातावेदनीयकर्मनो उदय थाय त्यारे रोगो आवतां ताव विगेरेथी तुं पीडाय छे. (त्यारे ते धन के समां कंइ पण काम लागतां नथी) ते पापी ज्यारे तेना पापना उदयथी कोढ, क्षय रोग, विगेरेथी पीडाएलो ज्यारे तेनुं नाक झरे छे. अथवा हाथ पग गळे छे. (लथडे छे.) अथवा दम चढवाथी अशक्त थतां जे सगां बहालां साथ पोते बसेलो छे ते तेना दुःखथी कंटाली भयंकर रोग उत्पन्न थतां तेने त्यजे छे. (क्षयरोगीना आश्रममां मोकले छे.) अथवा सगांने घणो कंटाळो आये तो ते समां तेनी वेलाइथी तेनी उपेक्षा करे. एटले वधा समां तजीदे. अथवा न तजे तोपण ते रोगोथी बचाववा के शरणुं आपवा समर्थ नथी त्यारे रोगीए शुं करधुं ! ते गुरु कहे छे के समताथी सहन कर. जाणिदुक्खं पत्तेयं सायं (सू. ६८) आ प्रमाणे बुद्धिमाने दरेक प्राणीनुं दुःख के सुख तेना पुन्य पापथी आवेलुं छे. ते विचारखुं एटले ताव विगेरेभुं दुःख आवतां पोताना करेलां कर्मं फळ अवश्य भोगव पडशे. माटे हाय पीट न करवी कां छे के. |" सह कलेवर ! दुःखमचिन्तयन् स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे ! परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३०८ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie आचा० सूत्रम् ॥३०९॥ ॥३०९॥ हे शरीर! तुं बीजो विचार कर्या विना दुःखने सहन कर कारणके हाल तने स्ववशता मळी छे. ते दुर्लभ छे. पण जो तुं हायपीट करीश तो परभवमा घणां दुःख भोगवां पडशे. त्यां परवशता छे. तने त्यां विशेष लाभ नथी. एथी ज्यां सुधी कान विगेरेनी शक्ति न हणाय अने तारा सगा तने बुट्टो थतां न निंदे अने दया लावीने तारुं पोषण करवानो वखत न आवे तथा क्षयरोगी थतां घरमांथी न काढे त्यां सुधी तुं तारो आत्मार्थ (परलोकनु हित) साधी ले ते बतावे छे. अणभिकंतं च खलु वयं संपेहाए (सू. ६९) (मूळ मूत्रमा “च" विशेष पणा पाटे छे. खलु शब्दनो अर्थ पुनः-थाय छे.) आ प्रमाणे पोतानी उमर जती जोइने संसारी जीव घेलो बने छे. एवं पूर्वे कहेलं छे. माटे ते पश्चाताप न करवो पडे तेथी जुबानअवस्थामां बुद्धिथी विचारीने आत्महित करे. प्रश्न-शुं जुवानीमांज आत्महित करवू.? के बीजी वखतमां पण करवू ! उत्तर-बीजाए पण आत्महित ज्यारे समज्यो होय त्यारे करी लेवु. अर्थात् बोध मले त्यारे धर्म साधी लेवो ते बतावे के. खणं जाणाहि पंडिए (सू. ७०) क्षण-ते धर्म करवानो समय छे. ते आर्यक्षेत्र उत्तम कुळ विगेरे छे. अने निंदायोग्य, पोषण करवा योग्य, तथा तजावाना दोपथी दुष्ट छे. तेवा जरा (बुट्टापो) बाळकपणुं अथवा रोग छे. ते न होय त्यारे गुरु कहे छे. हे पंडित हे आत्मन्न! तुं बोध पाम अने आत्महित कर अथवा खेद पामता शिष्यने गुरु कहे छे. हे शिष्य! ज्यांसुधी तारी जुवानी बीती नथी अथवा निंदापात्र थयो नथी REPRESARIES CIRCURI For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org 18 सूत्रम् ॥३१०॥ अथवा पूर्वे कहेला प्रण दोपथी रहित छे, त्यांसुधी हे पंडित शिष्य द्रव्य क्षेत्र काळ भावना भेदथी मिन्न अवसरने आ प्रमाणे तुं जाण बोध पाम, ते बतावे छे. आचा०४ द्रव्य क्षण ते तुं जंगमपणुं पाम्यो छे. पांच इंद्रियो छे. उत्तम कुळमां जन्म्यो छे. रुप बळ आरोग्य अने आयुष्य सारं पाम्यो छे | ॥३१॥ आ प्रमाणे उत्तम मनुष्य भव पामीने संसार समुद्रथी पार उतारवा समर्थ चारित्रनी प्राप्तिने योग्य तने अवसर मल्यो छे अने अनादि संसारमा भमता जीवने आ अवसर मलबो दुर्लभ छे. कारणके चारित्र मनुष्य जन्ममां छे. देव नारकीना भवमां सम्यक्त्व तथा ज्ञा-4 नना बोध रुप सामायिक छे. अने तिर्यंचमां कोकनेज देशविरति (श्रावकनां व्रत.) होय छे. क्षेत्र क्षण ते जे क्षेत्रमा चारित्र मले ते सर्व विरति अधोलोकनागाममा अथवा तिर्यंच क्षेत्रमाज छे तेमां पण अढीद्वीप अने बे समुद्रमा छे. तेमापण "१५" कर्म भूमिमां छे. तेमां पण भरतक्षेत्रनी अपेक्षाए "२५॥" देशमा चारित्रधर्म प्राप्त थाय छे. आ प्रमाणे क्षेत्ररुप अवसर दुर्लभ जाणवो बीजा क्षेत्रोमा पहेलां बेज सामायिक छे. बीजा घणा द्वीपो अने समुद्रो छे. तेषां सम्यकत्व अने श्रुत सामायिक छे. तथा कोइकने देशविरतिनो संभव थाय छे.) काळक्षण काळरुप अवसर आ अवसर्पिणीमांत्रण आरा जे सुखम, दुखम, दुखम मुखम. तथा दुखम नामना त्रण आरामां धर्म प्राप्ति छे. द तथा उत्सर्पिणीमां त्रीजा चोथा आरामां सर्व विरति सामायिकनी प्राप्ति छे. आ नवो धर्म पामता जीवाश्रयी का पण पूर्वे धर्मल पामेला तो तिर्यक् अथवा उर्द्ध तथा अधोलोकमां तथा बधा आरामां जाणवा. भावक्षण ते वे प्रकारे छे. कर्म भावक्षणनो कर्म भावक्षण कर्म भावक्षण ते कर्मन उपशम थर्बु. क्षय उपशम थर्बु अथवा सर्वथा क्षय थर्बु REAKHAROSECREER For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३१९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए त्रणमानुं कंपण प्राप्त थाय ते अवसर जाणवो तेमां उपशम श्रेणीमां चारित्रमोहनीयउपशम थतां अंतर्मुहूर्त्त काळ औपशमीक | नामनो चारित्र क्षण थाय छे ते चारित्र मोहनीयनो क्षय थतां अंतर्मुहूर्त्तनोज छद्मस्थ यथाख्यातचारित्र नामनो क्षण थाय छे. अने क्षय उपशमवडे क्षायोपशमिक चारित्रनो अवसर छे ते उत्कृष्टथी थोड ओ एवो पूर्व कोडी वर्षनो चारित्र काळ जाणवो. सम्यकत्व क्षण ते अजघन्य उत्कृष्ट (मध्यम) स्थितिमां वर्तता आयुष्यवाळा जीवने छे. अने बीजा कर्मोनुं पल्योपमना असंख्येय भाग ओद्धं एवा सागरोपम कोडाकोडी स्थितिवाला जीवने छे. तेनो अनुक्रम आ प्रमाणे छे. सम्यक्त्वनुं वर्णन. ग्रंथी- (मिथ्यात्वनी चीकणा कर्मनी बंधाएली गांठ) वाळा अभव्य जीवोथी अनंत गुणवाळी शुद्धिथी शुद्ध थएल मति, श्रुत, विभंग ए ऋण ज्ञानमांथी कोइपण साकार उपयोग जे जीवने होय ते शुद्ध लेश्या (तेजु, पदम, शुकल) मांनी कोइपण लेश्यावालो जीव अशुभकर्मप्रकृतिनो चार ठाणीओ रस तेने वे ठाणीओ करीने अने शुभ प्रकृतिना वे ठाणीआ (चासणीमां जेम वधारे रसना तार पडे ते प्रमाणे कर्मना भाव होय. अने आत्मा वेदे ते ठाण कहेवाय छे.) ने चार ठाणीआवाळो करी बांधतो तथा ध्रुव प्रकृतिने परिवर्त्तमान करतो भव प्रायोग्य बांधतो जीव जाणवो. हवे व प्रकृति बतावे छे. ज्ञानआवरणीय पांच; तथा दर्शनावरणीय नव - मिथ्यात्वनी एक-तथा सोळ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस कार्मण शरीर, वर्ण, गंध, रस स्पर्श अगुरुलघु उपघात-निर्माण अने पांच अंतराय ए बघी मलीने ४७ ध्रुव प्रकृति छे. ध्रुवनो अर्थ एवो छे के, ते हंमेशां बंधाय छे. मनुष्य अथवा तिथेच आ बेमांथी कोइपण जीव ज्यारे प्रथम सम्यक्त्व मेळवे छे, त्यारे आ २१ प्रकृति परिवर्तनवाळी बांधे छे ते नीचे सुजब. छे., देवगति तथा अनुपूर्वी मली बे. तथा पंचेंद्रिय जाति वैक्रिय शरीर, अंगोपांग मली बे, तथा समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३१९॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३१२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, प्रशस्त त्रसादि दशक, शाता वेदनिय उंचगोत्र मळी २१ छे. पण देव अने नारकिना जीव मनुष्यगति अने अनुपूर्वी मली वे तथा औदारिक शरीर अंगेपांग मलीने थे. पहेलुं संघयण मलीने ए पांच सहीत शुभ बांधे छे. तमतमा (सातमी नारकी) वाळा तिर्येच गति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा नीच गोत्र सहीत बांधे छे. आ प्रमाणे तेना अध्यवसाय उत्पन्न थतां आयुष्य न बांधतो प्रथम उपर कही गया ते जीव यथा प्रवृत्ति नामना करणवडे ग्रंथीने मेळवीने अपूर्व करणवडे मिथ्यात्वने भेदीने अंतरकरण करीने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यकत्व मेळवे छे. त्यारपछी क्रमवढे कर्म ओछां थतां चढता भावना शुद्ध कंडक (शुद्ध भावना अंशने कंडक कहे छे.) मां देश विरति तथा सर्वविरति (साधुपणा)नो अवसर आवे छे. आ प्रमाणे कर्म भाव क्षण कहीने नो कर्मभाव क्षण बतावे छे. नो कर्मभावक्षण ते आळस मोह अवर्णवाद तथा स्थंभ (मान विगेरे ) ना अभावे सम्यकत्व विगेरेनी प्राप्तिनो अवसर छे. कारणके आळस विगेरेथी हणालो (प्रमादी जीव) संसारथी छुटवा समर्थ मनुष्य भव पामीने पण धर्म श्रद्धा विगेरे उत्तम गुणो मेळवतो नथी. कछे के.“आलस्स मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता भयसोगा अन्नाणा, विक्खेव कुऊहला रमणा ॥ १ ॥ आलस्य मोह अवरण (निंदा) स्थंभ (अहंकार) क्रोध प्रमाद, कृपणता, भय, शोक अज्ञान विक्षेप कुतुहल रमण आ १३ कारणो (१३ काठीआ) छे. एहिं कारणेहिं, लहूण सुदुलहंपि माणुस्सं । न लहइ सुइं हिअकरिं संसारुत्तारणिं जीवो ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३१२॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ते मळतां जीव पोते मनुष्यपणुं अमूल्य छे. ते मेळवीने पण संसारने पार उतारनार हितकानार गुरुवाणीने पामतो नथी. आचा० आ प्रमाणे चार प्रकारनो क्षण बताव्यो तेमां एम समजबुं के द्रव्यक्षणमां जंगमपणाथी श्रेष्ट मनुष्यजन्म अने क्षेत्र क्षणमा & सत्रम "आर्यक्षेत्र छे. काळ क्षणमां धर्म चरणनो काळ छे भाव क्षणमां क्षय उपशम विगेरे छे. आ प्रमाणे सारो अवसर पामीने धर्म आरा-2 ॥३१३॥ ४ धवो जोइए बली कहे छे के. | ॥३१३॥ जाव सोयपरिणाणा अपरिहीणा, नेत्तपरिणाणा, अपरिहीणा घाणपरिणणा अपरिहीणाजीह परिणाणा फरि० इच्चेएहि विरुवरुवेहिं, पण्णाणेहिं अपरिहिणेहिं आयह संमं समणुवासिज्जासि (सू.७१) तिबेमि ___ ज्यांमुधी आ नाश पामनारी कायाना अपशद (निमकहरामपणा)थी काननुं ज्ञान (सांभळg ते) बुट्टापणाना के रोगना कारणे ओर्छ न थाय त्यांखुधी धर्म करी लेवो.. ४ आप्रमाणे आंख कान जीभ स्पर्शना विज्ञाननी शक्ति पण पोतानुं काम करवामां निष्फळ न थाय त्यांसुधी पण धर्म साधवो. जो ४ पांच इंद्रियोनी शक्ति ओछी थशे तो धर्म नही थाय आ शक्ति ओछी थशे तो इष्ट अनिष्टपणे जुदा जुदा ज्ञानवडे काम नहि थाय P माटे ज्यांसुधी शक्ति होय त्यांसुधी आत्मानो अर्थ ते सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्ररुप साधी लेवू. आ त्रण सीवाय बाकी बधां अनर्थ समजवां अथवा आत्माने माटे जे प्रयोजन छे. ते आत्मार्थ छे. अने ते चारित्रनुं अनुष्ठान जाणवू. अथवा “आयत" ते अपर्यवसान (अनंतपणा) थी मोक्षज छे. ते मोक्ष अर्थ छे. तेने साधी ले. अथवा आयत्त (मोक्ष.) तेज जेतुं प्रयोजन छे एवा पूर्व कहेला सम्यक् CATEGORM For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१४ 15] दर्शन ज्ञान चारित्र छे. तेमां निवास कर एटले शास्त्रोक्त रीतिए अनुष्ठान वडे तुं आराध, अने पछी पण वय न बीती होय ते वि-13 आचा० र चारीने अवसर मेळपीने कान विगेरेनुं ज्ञान ओछु यतुं जाणीने आत्मार्थ ने आत्मामां धारण करजे. सूत्रम् है अथवा ते आत्मार्थ वडे एटले ज्ञान दर्शन चारित्ररुप आत्मार्थ वडे आत्माने रंजीत करजे. (तेमां आनंद मानजे.) अथवा आय तार्थ जे मोक्ष छे. तेने फरीथी संसारमा न आवचु पडे ते माटे शास्त्रमा कहेली विधिए अनुष्ठान करीने आत्मावडे (मोक्षने) पामजे. ॥१४॥ ६ आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंवृस्वामीने कहे छे. में श्री वर्धमानस्वामी पासे अर्थथी जे सांभळपुं. ते ९ तने मूत्र रचनावडे कहुं | छं. आ प्रमाणे बीजा अध्यायननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बोजो उद्देशो. 80 पहेला उद्देशानो बीजा उद्देशा साथे आ प्रमाणे संबंध छे के विषय-कपाय तथा माता-पिता विगेरेनो प्रेम विगेरेथी जे बंधन ते 81 लोक छे. तेनो विजय करवाथी अर्थात् राग द्वेपने छोडी समभाव धारण करवाथी मोक्षनी प्राप्ति छे. अने तेनो हेतु चारित्र छे. जेम | P संपूर्ण भावने अनुभवे छे, एवा रुपवाळो आ अध्ययननो अर्थ अधिकार पूर्वे कह्यो छे, तेमां मातापिता विगेरे लोकनो विजय करवाथी रोग अने बुट्टापानी अशक्तिी ज्यांसुधी अशक्त न थाय; ते पहेलां आत्मार्थ ते संयमने आराधवो ए पहेला उद्देशामां का अने आ बोजा उद्देशामां पण ते संयमने पाळतां कदाच ते जीवने मोहनीयकर्मनो उदय थवाथी अरति थाय; अथवा अज्ञानकर्म विगेरे, M तथा लोभना उदयथी पूर्वकर्म ना दोपथी संयममां स्थिरता न रहे; तो उत्तम साधुए ते अरति विगेरेने दूरकरी जेम, संयममा दृढता 5 थाय तेम करवू. ते आ बीजा उद्देशामां बताव्युं छे. अथवा आठ प्रकारना कर्म जेम दुर थाय; ते आ अध्ययनना अर्थाधिकारमा क{15 % ARRIES For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३१५ ते केवीरीते कर्मक्षय थाय ते बतावे छे. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरई आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के (सू. ७२ ) पूर्वसूत्र साथै एनो संबंध कहेवो जोइए ते बतावे छे. ७१ मा सूत्रमां कां:- आत्मार्थ ते संयम छे. तेने सारी रीते पाळेते संयममां कदाचित अरति थाय; तेथी उपदेश आपे छे के, अरति न करवी; ते आ ७२ मां सूत्रमां बतान्युं छे. तथा परंपर सूत्र संबंध आ प्रमाणे छे. “खणं जाणाहि पंडिए." एटले चारित्रनो क्षण (अवसर) मेळवीने अरति न करे; तथा प्रथमना सूत्र साथ आ संबंध छे. "मुअं मे" इत्यादि में भगवान पासे आ सांभळ्युं छे के, “अरई” इत्यादिके साधु अरति न करे. आ अरति साधुने पांच प्रकारना आचारमां मोहना उदद्यथी कषाय, तथा प्रेमथी एटले मातापिता स्त्री विगेरेमां स्नेह थतां थाय छे, ते समये संसारनो स्वभाव जाणेला बुद्धिमान साधुए से मोहने दूर करवो. जो तेम करे तो चारित्र पळे नहिं तो शुं थाय ? ते कहे छे. जेम, कंडरीकने दुःख थर्युः तेम, संयममां अरति करनारने नरकगमन छे, तथा विषयवांच्छामां रति दूर करीने साधुनी दश प्रकारनी गुरुनी आज्ञामां रहेवारूप विगेरे समाचारीमां ते कंडरिकना भाइ पुंडरिकनी माफक रतिथाय; तो संयममां अरति न थाय तेज कहे छे: साधु संयममां रति करे ( आनंद माने) जेथी तेने कोइपण प्रकारनी बाधा ( अडचण न आवे; तथा आलोकमां पण संयम शिवाय बीजं सुख छे, एवं मनमां पण न लावे. कयूं छे केः “क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा, महति फलविशेषे नित्य For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३१५॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie मभ्युद्यतानां, न मनसि न शरीरे दुःख मुत्पादयन्ति ॥१॥ आचा०18/ पृथ्वीनां तळमां शयन छे तुच्छ भिक्षानुं भोजन, अथवा कुदरती लोकर्नु अपमान, अथवा नीच पुरुषोनां महेणां सांभळवां; आ-13 सूत्रम् टलुं छता उत्तम साधुओ मोटाफळ (मोक्षने) माटे निरंतर उद्यम करनारा छे. तेमने मनमां के, शरीरमा पूर्वे कहेलां कृत्य कंइपण ॥३१६॥ दुःख उपजावी शकतां मथी. (मोक्षार्थी-साधु नेने गणकारता नथी.) IP॥३१६॥ तणसंथारनिसण्णोऽवि, मुणिवरो भट्ट रागमयमोहो। जं पावइ मुत्तिसुहं, तं कत्तो चक्कवट्टीवि? ॥२॥” घासना संथारे बेठेलो जे मुनि छे, अने तेणे राग-मद, मोह त्यज्यां छे, तेवो मुनिज मुक्ति-सुख पामे छे, तेवू मुख चक्रवर्ती पण क्यांधी पामे! ___ अहीं चारित्र मोहनीयकर्मना क्षय उपशमथी जे पुरुषने चारित्र मळ्यु छे, तेने पाछो मोहनो उदय थतां घेर जवानी इच्छाबाळाने आ मूत्रवडे उपदेश अपाय छे, अने ते संबंधमां जे कारणोथी संयममाथी भ्रष्ट थवाय छे, ते हेतुओने नियुक्तिकार कहे छे. बिइउद्देसे अदढो उ, संजमे कोइ हुज्ज अरईए। अन्नाणकम्मलोभा, इएहिं अज्झत्थ दोसेहिं ॥१९७॥ (पहेला उद्देशामां नियुक्तिनी गाथा घणी कही; अने आ उद्देशामां आ एकज छे, तेथी मंदबुद्धिवाळा शिष्यने आरेका (शंका) & थाय के, आएक पण पहेला उद्देशानी हशे; ते शंका दूर करवा बीजो उद्देशो एवु गाथामां लखवू पडयुं छे.) वीजा उद्देशामां बताव्यु के, कोइ कंडरीक जेवा साधुने १७ प्रकारना संयममां मोहनीयना उदयथी अरति थाय; अने तेथी संयममां ढीलापणुं थाय; अने ते । 31 मोहनो उदय मनमा रहेला जे दोषो छे, तेनाथी थाय छे, ते दोषो अज्ञान, लोभ, विगेरे छे. For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥३१७॥ AASARASCIRECAUSESE एटले आदि शब्दथी इच्छा मदन काम विगेरे पण लेवा ते अज्ञान लोभ काम विगेरेथी साधुने अरति थाय छे. ते बताव्यु | त शंका-अरतिवाला बुद्धिवानने आ ७२ मा मूत्रवडे उपदेश अपाय छे के संयममां अरति थाय तो बुद्धिवान साधुए अरति दूर करवी सूत्रम् परंतु संसारनो स्वभाव जाणेलो आयूँ कहेवाथी ते अरतिवालो थाय नही अने जो अरतिवालो थाय तो संसारर्नु स्वरुप जाणनारो | विद्वान न कहेवाय आ बेने परस्पर विरोध होवाथी जेम एक जग्याए छाया अने तडको न रहे ते अहीं ते बुद्धिमान न कहेवो अ- X॥३१७॥ | थवा अरतिवालो न कहेवो. का छे के. नज्झानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम?" जेना उदयथी राग गण (संसारप्रेम) उत्पन्न थाय छे. तेने ज्ञान न कहे, कारणके ज्यां मूर्यना किरणो प्रकाशीत थयां होय त्यां अंधाराने रहेवानी शक्ति क्याथी होय ? विगेरे छे. जे अज्ञानी जीव मोहथी चित्तमां विकल्प करे ते विषयमुखथी निश्चय (नक्की) रागद्वेष विगेरे सर्व जोडला जे संयमना शत्रु छे, तेमां रति करे अने संयममां अरति करे. अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते; कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा; विद्वञ्चित्तं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यंसभित्तिं गजेन्द्रः ॥ १॥” अज्ञानथी आंधळा थएला, सुंदर स्त्रीओना अपांगथी डामाडोळ थएला कामीओ काममा प्रेम धारण करे छे. अथवा वैभवना For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 5 विस्तारने मेळववा चाहे छे. पण जेओ विद्वान छे, तेनुं चित्त मोटा मोक्ष मार्गमा एकतान वालुं छे. कारणके श्रेष्ट हाथी नाना पा-8 आचा० तळा थडबाला झाडनी साथे पोतानुं शरीर घसतो नथी. म आचार्यनो उत्तरः-अमे तेने जुटुं कहेता नथी. कारणके, चारित्र पामेलाने आ उपदेश छे, अने चारित्रप्राप्ति ज्ञान शिवाय नथी; सूत्रम् ॥३१८॥ कारण के चारित्रनुं कारण ज्ञान छे अने कार्यए चारित्र छे. तथा ज्ञान, अने अरति तेने विरोध नथी; परंतु रतिनो विरोधी अरति छे. ६ तेथी संयममा जेने रति छे, तेनी साथे अरति बाधारुप छे, परंतु ज्ञाननी साथे तेनो विरोध नथी; कारणके, ज्ञानीने पण चारित्र मो-18 | हनीयना उपशमथी संयममां अरति थाय छे, कारणके, ज्ञान पण अज्ञाननु बाधकज छे, पण संयमनी अरतिनुं बाधक नथी; तेज कडू छे: ज्ञानं भूरि यथार्थ वस्तुविषयं स्वस्य द्विषो बाधकं, रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कर्तृ स्वयम्। दीपो |2| यत्तमसि व्यनक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षतां, सर्वः स्वं विषयं प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः ॥१॥” 8 घणुं ज्ञान छे, ते यथार्थ वस्तुविषय संबंधी छे, ते पोताना शत्रु अज्ञानतुं बाधक छे. रागनो शत्रु, शम (शांतिने) माटे बीजो 6 हेतु पोते जोडतो नथी. जेम दीवो छे ते पोते अंधारामा रुपने प्रगट करे छे, तेज अहींया रुपने जुओ; कारणके, सर्व प्रासंगीक विधि र पोतपोताना विषयने साधे छे. तथा आचार्य कहे छे केः-आ तमारा कानमां आव्यु नथी. 'बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुद्यतीति' इंद्रियसमूह वळवान छे, अने तेमां पंडित पण मुंझाय छे, एवी तमारूं कहेवू कंइ विसातमा नथी. SarkarRAAG For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३१९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा जेने अरति प्राप्त न थइ होय; तेनेज एम कहेवाय छे, पण आ उपदेश संयम - विषयमा बुद्धिमान पुरुषने कहेवाय के, संयममां अरति न करवी; तथा संयममांथी अरति दुर करनारने केवा गुण मळे ते कहे छे: "खणं सि मुके" विगेरे बारीक काळने क्षण कहे छे. ते क्षण, जुनी साडी (वने) फाडतां जेटली वार लागे; तेथी पण वारीक काळ समय छे. आवा सूक्ष्म संयममां पण कर्म जे आठ प्रकारनां छे, अथवा संसारबंधन छे ते बंधन नथी. भरत महाराजा | माफक मोह मूकी दे, तो तेनुं कल्याण थइ जाय. ( केवळज्ञान पामीने मोक्षमां जाय; ) अने जेओ उपदेश न माने; तेओ कंडरीक मुनि माफक चार गतिमां भ्रमण करे छे, अने दुःखसागरमा डुबे छे, तेज कहे छे: अणाणा पुट्ठावि एगे नियहृति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो, समुद्वाय लद्धे कामे अभिगाइ, अणाणाए मुणिणां पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए (सूत्र- ७३) हितमा अहित छोड, ए जिनेश्वरनी आज्ञामां छे. तेथी विरुद्ध चालबुं ते अनाज्ञा छे. जे पुरुषो आज्ञाबहार थइने परिषह अने ऊपसर्गथी कंटाळीने, अथवा मोहनीयकर्मना उदयथी कंडरीक विगेरे मुनिओनी माफक संयमथी भ्रष्ट थाय छे, ते जडपुरुषो जेमने करवा न करवानो विवेक नथी: तेओ मोहथी, अथवा अज्ञानथी घेरायला छे. कहां छे के: “अज्ञानं खलु कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ १ ॥” खरेखर, क्रोध विगेरे बधां पापोथी पण अज्ञान मोढुं पाप छे, ते घणुं दुःख आपनार छे, ते अज्ञानथी घेरायलो माणस पोताना For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३१९॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥३२०॥ *RPE GIACCHE हित-अहित पदार्थने जाणतो नथी. आ प्रमाणे मोहथी घेरायलो जडमाणस चारित्र पामेलो छतां, कर्मना उदयथी, अथवा परिसहना उदयमां चारित्र धारण करेलोटू सूत्रम् चारित्र मूकवा इच्छा करे छे अने बीजा साधुओ पोतानी रुची प्रमाणे वृत्ति रचीने जुदा जुदा उपायोबडे लोक पासेथी पैसा ग्रहण है करता छता कहे छे केः-अमे संसारथी खेद पामेला छीए; अने मोक्षनी इच्छावाला छीए. तोपण, तेओ (अंतरंगत्यागी न होवाथी) M॥३२०॥ जुदा जुदा आरंभमां, तथा विषय-अभिलाषामां वर्ते छे ते बतावे छे. मन, वचन अने कायाना कर्मवडे जेनाथी घेराय ते परिग्रह छे. ते परिग्रह जेमनामां नथी; ते अपरिग्रहवाळा अमे थइY; एवं बौद्धमत विगेरेना साधुओ माने छे, अथवा जैनदर्शनमा जे साधुओए साधुवेष पहेरेलो छे, तेओ पछी इच्छानुसार (भोळा माणसोने ठगीने) परिग्रह धारीने भोगो भोगवे छे. जे प्रमाणे निस्पृहता धारवी जोइए; तेज प्रमाणे बीजां महावतो पाळवां जोइए; एटले जैनेतर मतवाळाए, अथवा पासत्थ (वेष मात्र धारी जैनसाधु) जेम परिग्रह धारेछे तेवीरीते मोढेथी कहे के, अमे सर्व जीवोना रक्षक (अहिंसक) छीए; छतां तेओ स्वार्थना माटे हिंसा करे छे, तेवीजरीते उपरथी कहे छे केः-अमे साचे बोलीए छीए; अने खरीरीते | तो, तेओ जुटुं बोले छे, जेम चोरी करता होय; छतां कहे के, अमे चोरी करता नथी; तेथी आधुं करनारा शैलुष (ठगनी) माफक बोलवा जुडुं, अने करवानुं जु९. एवा जगतने ठगनारा भोगनी इच्छाथीज वेष मात्रने धारे छे. का छे केः "स्वेच्छाविरचितशास्त्रः प्रत्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्वैः। नानाविधैरुपायैरनाथवन्मुष्यते लोकः ॥१॥" For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥३२१॥ पोतानी इच्छा मुजब शास्त्र बनायनारा, अने दीक्षामा वेष धारण करनारा क्षुद्र मनुष्योए जुदा जुदा उपायोथी अनाथने जेम ४ आचाट लुटारो लुटे; नेम आ भोळा लोकोने आ साधुठगो लुटे छे, तेथी आ प्रमाणे वेषधारी साधुओ मेळवेला भोगोने भोगवे छे, अनेट IP तेवा बीजा भोगो मेळववा, तेवा तेवा उपायोमां वर्ते छे. ते कहे छे के:॥३२॥ वीतरागनी आज्ञा विरुद्ध पोतानी बुद्धिए मुनिना वेषने लजावनारा संसार सुखना उपायना आरंभमां वारंवार लागे छे. (मचेछे) A आ विषयसुखना अज्ञानरूप भावमोहमां वारंवार कादवमां खुंचेला हाथी माफक बहार पोते पोताने काढवाने समर्थ नथी. जेम कोइ महा नदीना पूरमां वचमां जइने डुब्यो होय तो ते जल्दीथी तरवा के सामे किनारे आववा समर्थ नथी एज प्रमाणे कोइपण निमित्तथी प्रथमयी घर स्त्री पुत्र धन धान्य सोनु रत्न तांबु दास दासी विगेरे वैभव छोडी त्यागवृत्ति स्वीकारीने आरातीयतीर (पाछो आववा के किनारे जवा ते समर्थ नथी ते) समान घरवासना सुखथी नीकळेलो साधु थयो अने फरी ते वमेला भोगने पाछो ग्रहण करवा इच्छा करे तो संयम पण जाय तो मोक्षमा जइशके नहि तेम घरवालां पण संघरे नही एटले बने बाजुथी जुदी पडेली मुक-& 12 तोली माफक साधुपण जो संसार वांच्छना करे तो न ग्रहस्थ रहे तेम न साधु रहे तेथी ते बंने प्रकारे भ्रष्ट छे. का छे के. "इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया। मानुष्यं दुर्लभ प्राप्य, न भुक्तं नापि शोषितम् ॥१॥" जेणे इंद्रियोने कबजे लीधो नथी अथवा इच्छानुसार ते इंद्रियोने विषय मुखमा जोडी नथी तेणे मनुष्य पणुं पामीने न भोग भोगव्या न त्याग वृत्ति स्वीकारी (आ बधानो केहेवानोसार ए छेके साधुए साधु वेष धार्या पछी गमे तेटलां कष्ट आवे; तोपण धीरज राखी संयम पाळq.) RRCRACHAR RECCALORER-CAECCCCCC For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३२२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेओ उपर कहेली अप्रशस्त (संसारी विषय सुख) रतिथी दूर थयला छे, अने उत्तम रति (चारित्रमां प्रेमवाळा ) छे, ते केत्रा होय छे ते बतावे छे. विमुता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुर्गुछमाणे लद्धे कामे नाभि गाहइ ७४ द्रव्यथी एटले धन संगांना अनेक रीतना प्रेमथी मुकायला; अने भावथी विषय कषायथी प्रत्येक समये छुटता साधुओ जे भविष्यकाळमां वधारे वधारे निर्लोभी बने छे, ते पुरुषो सर्व प्राणीने समानभावे गणी निर्ममत्ववाळा बनी (संसारथी) पारगामी बने छे. पार ते मोक्ष छे, कारणके, संसार-समुद्रना किनारे जवानी वृत्तिनां कारणो ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रण छे, ते त्रणने पार कहे छे. | जेम, लोकमां सारा वरसादने चोखानो वरसाद कहे छे. एटले कारणने कार्यमा समान्युः तेथी ते प्रमाणे ज्ञान दर्शन चारित्रनो परे। जवानो आचार जेमनो छे, तेओ संसारना मोहथी के, विषयकपायथी मुक्त थाय छे. प्रश्नः - तेओ केवीरीते संपूर्ण पारगामी थाय ? उत्तरः – जोके, आ लोकमां लोभछे, ते वधाने तजवो दुर्लभ छे. जेमके क्षपक श्रेणीमां चढेला मुनिने पण ओछो ओछो करतां जरा जरापण लोभ रहे छे, तेवा जरा लोभने पण उत्तम साधु संतोषवडे पूर्वना लोभने निंदतो; अने छोडतो सामे आवता सुंदर विलासोने ( लोको प्रार्थना करे; छतां पण ) सेवतो नथी जेम महात्मा पोताना शरीरमां पण महत्व रहित थयलो छे, ते पर वस्तुना विषयसुखमां लुब्ध थतो नथी जेमके, ब्रह्मदत्त, चक्रवर्त्तिए पोताना पूर्वभवना भाइ चित्रमुनिने ओळखीने प्रार्थना कर्या छतां पण, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३२२ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लसूत्रम् तेणे भोगो न स्वीकार्या. आचा० उपर प्रमाणे सुंदर भोगो जेणे त्याग्या; ते त्यागवाथी बीजुं पण त्यागेलं जाणवू ते आ प्रमाणे-क्रोधने क्षमाथी, तथा मानने है कोमळताथी, मायाने सरळताथी, ए प्रमाणे बधा दुर्गुणोने निंदी उत्तम साधु छोडे छे. ॥३२३॥ सूत्रमा लोभ लेवानुं कारण ए छे के, ते बधा कषायमां मुख्य छे ते बतावे छे. ते लोभमां पडेलो साध्य असाध्यना विवेकथी ४ ॥३२३॥ शून्य छे तथा कार्य अकार्यना विचारथी रहित बनी ने एक धनमांज दृष्टि राखनारोज पापना मूळमां उभो रहीने सर्व क्रियाओ करे छे कडं छे के. F"धावेइ रोहणं तरइ सायरं, भमइ गिरिणिगुंजेसुं । मारेइ बंधवंपिह पुरिसो तो होइ धणलद्धो ॥१॥ जे धननो लोभीओ होय ते पहाड चढे छे समुद्र तरे छे पहाडनी झाडीमां भमे छे बंधुओने पण मारे छे. अडइ बहुं वहइ भरं, सहइ छुहं पावमायरइ धिटो। कुल सील जाइपच्चय, विइं च लोभहुओ चयइ॥२॥" __ घणु भटके छे घणोभार वहन करेछे भूखने सहे छे. पाप आचरे छे कुळ शील जाति विश्वास धीरज ए बधाने लोभथी पीडाएलो धृष्ट पुरुष त्यजे छे. तेथी आ प्रमाणे उत्तम साधुए प्रथमथी लोभ विगेरेथी दीक्षा लीधी होय अने तेवा भोग मळतां लालच थायतो पण मन दृढ करीने लोभ विगेरेनो त्याग करवो केटलाक लोभ विना पण दीक्षाले छे ते बतावे छे. 446 For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० 8 सूत्रम् 4- %4% ॥३२४॥ ॥२४॥ -04 विणावि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारित्ति पवुच्चइ, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुठ्ठाइ संजोगट्टी अट्टालोभी आलंपे सहकारे विणिविट्ठचित्ते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहि दंडसमायाणं संपेहाए भया कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा आसंसाए (सू०७५) भरतचक्रवर्ती विगेरे कोइ लोभना कारण विना पण दीक्षाने मेळवीने अथवा मूत्र पाठांतरमां विणइत्तलोभं छे तेनो अर्थ संज्वलन लोभने जडमूळथी दूर करीने पोते घाति कर्मनी चोकडीने दूर करीने आवरण रहित निर्मळ केवळज्ञान प्राप्त करी सर्व विशेषथी जाणे छे अने सामान्ययी जुए छे. अर्थात् जेणे पूर्वे बतावेलो अनर्थोनुं मूळ जे लोभ छे. तेने तज्यो छे तेनो लोभ दर थतां मोहनीयकर्म क्षय थतां अवश्ये घातीकर्मनो क्षय थाय छे अने निर्मळ केवळज्ञान प्रगट थाय छे तेथी बीजां कर्म जे भवउप ग्राहिक छे ते पण दूर थाय छे (जेनां घातो कर्म दूर थयां तेना अघाती कर्म सर्वथा स्वयं नष्ट थाय छे.) तेथी लोभ दूर थतां अकर्मा ए, विशेषण मूत्रमा आप्युं छे. आ प्रमाणे लोभतजवो दुर्लभ अने तजवाथी अवश्य कर्मनो क्षय थाय छे तेथी शुं करवू ते कहे AC-AA For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३२५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे प्रति उपेक्षणा एटले गुण दोषनो विचार करी गुणोने ग्रहण करवा अने लोभ छोडवो अथवा लोभनां कडवां फळने विचारी तेना अभावमा जे गुण तेने चाहीने ते लोभने जे त्यजे तेनेज अणगार कहेवो. अने जे अज्ञानवडे मनमां मुझाएलो छे ते अप्रशस्त मूळ गुण स्थानमा रही विषय कषाय विगेरेमा फसेलो होय ते दुःख पाये छे ए वधुं फरीथी सारो साधु याद करे के संसारी जीव अलोभने लोभ वडे निंदे अने विशयसुखमळतां तेने भोगवे अने लोभने छोडी साधु थइ पाछो लोभमां गृद्ध बनी बहोळा कर्मवालो कइ पण जाणे नहीं तथा जुवे नहीं ( कामान्ध जन्मथी आंधळा करतां पण वधारे आंधळो छे ) अने हृदयमां चक्षु मीचावाथी विवेक रहित बनी भोगोने वांच्छे छे. अने पहेला उद्देशामां जे बतान्युं ते अहि जाणं. प्रमाणे उत्तम साधु विचारे छे के लोभी रात दिवस दुख पामतो अकाळमां उठतो भोग बांच्छुक अर्थ लोभी लुंटारो विचार वगरनो वेला जेवो बने छे अने पृथ्वी विगेरे जोवोने उपघात करी शस्त्रो वारंवार चलावे छे. ली ते पोतानी शरीर शक्ति वधारवा जुदा जुदा उपायो बडे आलोक परलोकना सुखने नाश करनारी क्रिया करे छे ते नीचे मुजब छे. मांसथी मांस वधे तेथी पंचेन्द्रिय जीवोने हणे छे तथा चोरी विगेरे करे छे सूत्रमां बताव्युं छे एज प्रमाणे संसारी जीव सगांने पुष्ट करवा मित्रने पुष्ट करवा मथे छे एटले ते शक्तिवालां हशे तो हुं तेमनी मददथी आपदामांथी बचीश तथा प्रेत्य बळ वधारवा वस्त (बेदुं) विगेरेने ते हणे छे, तथा देववळ वधारवा (प्रसन्न करवा) रांधवा रंधावानी क्रिया (नैवेद्य करे छे) अथवा राजानुं वळ वधारवा राजानुं इच्छित करे छे, अथवा अतिथीनुं बळ वधारवा चाहे छे, ते अतिथी निःस्पृह होय छे. कं छे के; For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ३२५॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ १ ॥ " जे महात्मा तिथिना, तथा पर्वना बधा महोसत्वो तज्या छे, तेने अतिथि कहेबो; अने बाकीनाने अभ्यागत कहेवो; तेनो सार आ छे. तेना माटे पण प्राणीओने दुःख न आप एज प्रमाणे कृपण - श्रमण विगेरेने माटे पण जाणवुं जे संसारीजीव बीजाओ माटे के, पोतानां आलोकनां सुख छे, तेना माटे जुदी जुदी जातनां हिंसककृत्यो करी; एटले पिंडदान विगेरे आपी बीजा जीवोने दुःख आपे छे, तेओने अल्पलाभने बदले महान दुःख मळ जाणीने उत्तम पुरुषेते पाप न करवुं जोइए. छतां, अज्ञानथी, अथवा मोहथी हणायलो भयथी तेवां पाप करे छे, अथवा कुगुरुना खोटा उपदेशथी पापकर्ममां पण, धर्म मानी दुष्ट कृत्य करे छे, अथवा कांइपण आशाथी पाप करे छे, ते बतावे छे. अग्नि जे छ जीवनिकायनुं घात करनार शस्त्र छे, छतां ते अग्निमां पीपळानुं, अरणीतुं लाकडं होमे छे, अथवा समिति (एक जातनुं लाकडे) लाज्य, (धाणी) विगेरे नांखे छे, अने तेमां धर्म समजे छे, तथा बापनुं श्राद्ध करवामां बेटा विगेरेनुं मांस रांधीने ब्राह्मणोने जमाडे छे, अने वधेलुं पोते खाय छे. ( आ रीवाज गुजरात विगेरे देशोमां नथी; पण वंगाळ दक्षिण विगेरेमां छे. ) ते आ प्रमाणे जुदा जुदा उपायोवडे अज्ञानथी हणायली बुद्धी वळा पापथी छुटवाना बहाने दंड मेळववारूप ते ते क्रियाओ प्राणी ओने दुःख आपनारी करे छे. अथात् अनेक शत करोडनी संख्याना भवमां भोगववा छतां पण न छुटाय तेनुं अघोर पाप करे छे, अथवा पापथी छुटवानुं मानीने अज्ञानदशाथी नवां पापज बांधे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३२६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३२७॥ अथवा न मेळवेलुं फरीथी मेलववानी इच्छाथी पाणीओने दुःख आपी पोते दंड मेळवे छे ते आ प्रमाणे:आचा० आ मने बीजा लोकमां, अथवा आलोकमां, पछीथी कांइ ऊंचपद अपावशे; एवी इच्छाथी ते पाप करवामां वर्ते छे. अथवा पोते धननी आशाथी मूढ बनीने राजानी सेवा करे छे, ( अने राजाने खुशी करवा प्रजाने पीडवाना अनेक पाप 2 ॥३२७॥ 18 करे छे.) कर्जा छे के: आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि; इत्याशया धनविमोहितमानसानां, कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम ॥१॥ राजाने प्रसन्न करीने तेनी पासेथी धन मेळवीशुं अने पछी अमे रोज सुख भोगवीशुं. आवी आशाथी धनथी मोह पामेला मIN नवाला माणसोने आखी जींदगी सुधीकाळ वीती जाय छे. (पण तेओ धर्म आराधी शकता नथी.) एहो गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचर । इत्याद्याशाग्रहग्रस्तः, क्रोडन्ति धनिनोऽर्थिभिः ॥२॥ आव जा, पड, उठ, बोल, चुप रहे आ प्रमाणे बोलनारा धनवाला छे. ते धननी इच्छ्वाला गरीबोने वारंवार रमाडे छे. आ द आ प्रमाणे सारा साधुए समजीने शुं करवु ते शास्त्रकार कहे छे. तं परिणाय मेहावी नेव सयं एएहिं कजेहिं दंडं समारंभिज्जा नेव अन्नं एएहिं कजहि दंडं समा. SMARS AAROCHAR For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३२८॥ रंभाविजा, एएहिं कजेहिं दंडं समारंभंतपि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, आचा० जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि, तिबेमि, (सू०७६) लोगविजयस्स बितिओ उद्देसो ॥२॥ ___ पहेला अध्ययनमा परिज्ञा बतावेली छे. तेमां वे प्रकारनां स्वकाय अने परकायवालां दुःख देनारां शस्त्रने चलाववां नहीं अ-18 ॥३२८॥ | थवा पहेला उद्देशामां बतावेल विषय तथा मातापिता संबंधी प्रेमनुं अप्रशस्त गुणमूळ स्थान समजीने तथा काळ अकाळे रखडवू ते समजीने अथवा अमूल्य अवसर तथा सुगुरुनो बोध तथा पांचे इन्द्रियोनु विचक्षणपणुं तथा वृद्धावस्थामां तेनी हानी विगेरे समजीने तथा आज उद्देशामां शरीर शक्ति वधारवा अथवा सगावहालांनुं बळ वधारवा दंडनुं लेQ (नवा पाप बांधवानु) ज्ञपरिज्ञावडे जाणीने मर्यादामा रहेला मुनिए प्रत्याख्या न परिज्ञावडे पाप कृत्य छोडी देवा ते बतावे छे. पोते जाते शरीर शक्ति वधारवानां के वीजां दुष्ट कृत्यो करवा वडे जीवोने दुःख न आपे तेम हिंसा जुठ विगेरे पाप कृत्य बीजा पासे न करावे, अथवा पापीओने मन वचन अने कायाथी कोइ पण रीते सहायता के अनुमोदना न करे. आवो सर्व जीवने अभयदान देवानो उपदेश तीर्थकरे को छे. तेवू सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. ज्ञान विगेरेथी युक्त भावमार्ग जेनाथी कोइ पण जातवें दूषण के दंड के पाप लागवानां नथी ते मन वचन अने कायाए करी IN करवो कराववो अने अनुमोदवो जोइए तेम करनारा आर्य पुरुषो छे. एटले जेटला पाप धर्म छे. तेमने छोडी सर्व प्रकारे उत्तम 13 मार्गमा जे जीवो जोडायला छे तेओ संसार समुद्रथी किनारे पहों वेला अने घातीकर्मनो अंश पण नाश करनार जीवो संसारनी ॐ%AR- RH २२सन्द For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥३२९॥ ॥३२९॥ अंदर रहेला बधा भावोने जाणनारा सर्वज्ञ तथैकर प्रभुए देव मनुष्यनी सभामां वधाए समजी शके तेवी तथा बधाना मनना संशय ४ छेदनारी वाणीवडे आ मार्ग कह्यो छे. पोते ते प्रमाणे वर्तेला छे एवो आ मार्ग जाणीने उत्तम पुरुषे उपर बतावेलां पाप कृत्योने छोडीने वधां तत्व जाणीने पोतानो आत्मा पापोमां न लेपाय तेम सर्व प्रकारे करवू. आ प्रमाणे हुं कहुं छबीजो उद्देशो समाप्त थयो. हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे. बीजा उद्देशानी साथे त्रीजानो आ प्रमाणे संबन्ध छे. गया उद्देशामां कडं के संयममा दृढता करवी अने असंयममां उपेक्षा करवी अने ते बन्ने पण कपाय दूर करवाथी थाय तेमां पण मान उत्पत्तिना आरंभथी उंच गोत्रमा जन्मे छे ते उत्थापेलो (अहंकारी) 8. थाय तेथी ते दूर करवा कहेवाय छे तेथी बीजा अने त्रीजानो आ संबन्ध छे के बुद्धिमान साधु राग द्वेषमां न लेपाय तेज प्रमाणे बुद्धिमान साधु उंच गोत्रना अभिमानमां पण न लेपाय शुं मानीने अहंकार न करवो ते सिद्धांतकार बतावे छे. __ से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरिते नोऽपीहए, इय सखाय को गोयावाइ को ___माणावाई? कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं सू. ७७ 2 संसारी जीव अनेक वार मान सत्कारने योग्य एका उंच गोत्रमा आव्यो छे तथा अनेकवार नीच गोत्रमा ज्यां लोको निंदे । तेवामां पण पोते जनम्यो छे ते कहे छे. नीच गोत्रना उदयथी अनन्तकाळ तिर्यंचगतिमा संसारी जीव रहेल छे त्यारपछी भटकनो जीव नाम कर्मनी ९२ उत्तर प्रक्रत्तिना कर्मवाळो बनी तेवा तेवा अध्यवसाये उत्पन्न थयेलो आहारक शरीर तेनुं संघात बन्धन 54 For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगोपांग देवगति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा नरकगति अने अनुपूर्वी मली वे ए वैक्रिय चतुष्टय (चोक) ए १२ कर्म प्रकृतिने निर्लेप करीने (दूर करीने) बाकीनी ८० प्रकृतिवालो बनी तैजस अने वायुकायमां उत्पन्न थयो त्यारपछी मनुष्यगति तथा अनुपूर्वी |मली वे ते दूर करीने उंच गोत्रने पल्योपमना असंख्येय भागवडे उद्वल करे छे. एथी तैजस वायुकायनो पहेलो भांगो थयो. ते आ प्रमाणे नीच गोत्रनो बन्ध, अने उदय पण अने तेज कर्मनी सकर्मता (सत्ता) छे. त्यांथी नीकळीने बीजी कायना एकेन्द्रियमां आवीने उपजे तो तेज भांगो थाय; अने त्रसकायमां पण अपर्याप्त अवस्थामां पण तेज भांगो याय; अने ज्यांसुधी उंच गोत्रनो निर्लेप न थाय; तो बीजो चोथो एम वे भांगा थाय ते बतावे छे. नीच गोत्रनो बंध, अने उदय, तथा तेज कर्मपणाथी सत्ताथी उभयरूपे बीजो भागो थाय; तथा ऊंच गोत्रनो बन्ध नीच गोत्रनो उदय, अने सत्कर्मपणुं बन्ने रूपे छे. ए चोथो भांगो छे, पण बाकीना चार भांगा नथीज थतांः कारण केः - तिर्यचयोनिमां उंच गोत्रना उदयनो अभाव छे तेज उंच गोत्रना ( अहंकारथी ) उदूलनवडे कलंकवाळा भावमां आवेलो जीव अनंतकाळ सुधी एकेन्द्रियमां रहे छे, अथवा उद्बलन थया विना तिर्यचमां अनंत उत्सर्पिणी, अने अवसर्पिणी रहे छे. प्रश्न - आवलिकाना संख्येय भाग समय संख्यावाळा पुद्गल परावर्त्त एम जोइए; पण पुद्गलपरावर्त्त केम जोइए ? आचार्यनो उत्तरः- जेओ औदारिक, वैक्रिय तैजस भाषाअनापान, (श्वासोश्वास) मन = ( आ छ थाय छे, पण सात लखेल छे. आहारक ए टीकामां लख रही गयुं छे.) कर्मसप्तकथी संसारना वचला भागमां पुद्गलो आत्मानी साक्षे एकमेकपणे परिणमेलाछे, ते For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३३०॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SOC | पुद्गल परावर्त छे, ए, केटलाक आचार्य कहे छे. आचा० बीजा आचार्थनो मत एवो छे के, द्रव्य, क्षेत्र, काळ, अने भाव, एम चार भेदे वर्णवे छे, अने आ प्रत्येक पण बादर, अने । आ प्रत्येक पण बादर, अनसूत्रम् सूक्ष्म एम वे भेदे अनुभवे छे, तथा द्रव्यथी बादर जे औदारिक, बैक्रिय, तैजस कार्मणना चतुष्टय (चोकडावडे) सर्व पुद्गलो ग्रहण ॥३३१॥8 करीने छोडी दीधा त्यारे थाय छे, अने सूक्ष्म छे, ते एक शरीरवडे बधा पुद्गलो स्पर्शवाला थाय त्यारे जाणवू. ॥३३१॥ (२) क्षेत्रथी बादर ज्यारे क्रम, अने उत्क्रमवडे मरतां जीवने बघा लोकाकाशना प्रदेश स्पर्शवाळा थाय त्यारे होय छे, अने & | सूक्ष्म तो त्यारेज जाणवो के एक विवक्षित आकाशखंडमां मरेलो, ज्यारे तेना प्रदेशोनी वृद्धि थाय त्यारे सर्वे लोकाकाशने व्याप्त थाय त्यारेज जाणबु. (३) काळथी बादर ज्यारे उत्सर्पिणी, अने अवसर्पिणीना जेटला समयो छे, तेटला क्रम, अने उत्क्रमवडे मरण पामवावडे स्पर्श ४ करे छे त्यारे जाणवू; पण मूक्ष्म तो, उत्सर्पिणीना प्रथम समयथी आरंभीने क्रमवडे सर्व समयो मरनाराजीवे बधा स्पर्श कर्या होय त्यारे जाणवू (४) भावथी बादर ज्यारे अनुभागना बन्धना अध्यवसायना स्थानो क्रम अने उत्क्रम वडे मरेला जीवथी व्याप्त थाय त्यारे कहे छे. ___अनुभागना बन्धना अध्यवसायतुं प्रमाण प्रथम संयम स्थानना अवसरमां कही गया छीए अने मूक्ष्म तो जघन्य अनुभाव बंध| ना अध्यवसाय स्थानथी आरंभीने ज्यारे बधामां पण क्रमे करीने मरेलो थाय त्यारे जाणवू तेथी आ प्रमाणे कलंकी भावने पामेलो | अथवा बीजो कोइ जीव नीच गोत्रना उदयथी अनंत काळ सुधी पण तिर्यचमां रहे छे. मनुष्यमां पण नीच गोत्रनाज उदयथी तेवा I ECRECRUCIES SSESASUR For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निंदनीय स्थानमां उत्पन्न थाय छे. तथा कलंकवालो जीवपण बेइन्द्रिय विगेरेमां उत्पन्न थयेलो पहेला समयमां पर्याप्तिना उत्तर का मां उंच गोत्र बांधीने मनुष्यमां अनेक बार उंच गोत्र मेळवे छे. त्यां त्रीजा भांगामां रहेलो अथवा पांचमा भांगामां उत्पन्न - एलो छे ते आ प्रमाणे छे. नीचगोत्र बांधे छे. अने उंचगोत्रनो उदय होय छे। अने कर्मपणुं (सत्ता) बन्नेनुं छे ते त्रीजो भांगो अने पांचमा भांगामां उंचगोत्र बांधे छे तथा तेनोज उदय छे। अने सत्कर्मपणं (सत्ता) बन्नेनुं छे छट्टो अने सातमो भांगो तो जे बंधथी उपरत (दूर) थयोहोय तेने थाय छे अने तेनो विषय न होवाथी ते बनेनो अधिकार नथी. ते वने बंधना उपरमां उंचगोत्रनो उदय थाय छे अने सकर्म पशुं बनेमा कायम छे ते छट्टो भांगो थयो भने सातमो भांगो शैलेशी अवस्थामां द्विचरम (छल्ला समयना अगाडीना समयमां) नीचगोत्र खपावे छते ऊंचगोत्रनो उदय होय तेनेज छे। अने सत्ता पण ऊंचगोत्रनी छे. आममाणे ऊंच नीच गोत्रमां रहेला जीवे अहंकार न करवो जोइए तेम दीनता पण न करवी जोइए. ऊंच अने नीच ते बने गोत्रनो बंध अध्यवसाय स्थानना कंडको समान छे. सूत्रमां बतावे छे के. णो हीणे, णो अइरिते जेटलां उंच गोत्रमां अनुभाव बन्धना अध्यवसायना स्थान कंडक छे तेटलांज नीचगोत्रमां पण छे अने ते सर्वे अनादि संसारमां आ जीवे वारंवार अनुभवेलां छे. तेथी उंचगोत्रना कंडकना अर्थपणे जीव होणो पण नथी तेम वधारे पण नथी एज प्रमाणे नीचगोत्र कंडकमां पण समज ते संबन्धमा “ नागार्जुनीया " आ प्रमाणे कहे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||३३२॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun yanmandie सूत्रम ॥३३३॥ “एगमेगे खल्ल जीवे अईअद्धाए असई उच्चागोए असई नीआ गोए, कंडगट्टयाए नो हीणे नो अइरिते" आचा० एक एक जीव भूतकाळमां अनेकवार उंच नीच गोत्रमा आव्यो अने उंच नीचना अनुभाग कंडकनी अपेक्षाए हीन के अति1 रिक्त नथी तेज कहे छे. ऊंच गोत्र कंडकवालो एक भविक अथवा अनेक भविकमाथी नीच गोत्रना कंडको ओछां नथी तेम वधारे पण नथी. एबुं समजीने अहंकार के दिनता न करवी. ( अर्थात् समाधि राखवी तेज साधुपणुं छे.) ते बतावे छे. कारण के उंच हनीच स्थानमां कर्मना वशथी उत्पन्न थाय छे. तेज प्रमाणे बळ-रूप-लाभ विगेरे मदना स्थानोर्नु असमंजसपणुं ( अस्थिरता) स मनीने साधुए सुं करवु ते कहे छे. जाति विगेरेनो कोइ पण मद साधु न वांच्छे अथवा तेवी इच्छा पण न करे कारण के उंच नीच २ स्थानमां आ जीव घणीवार उत्पन्न थयो, ए, समजीने कोण गोत्रनो-के-माननो अभीलाषी थाय.! अर्थात् मारुं उंच गोत्र बधा 18 लोकोने माननीय छे. तेवू बीजार्नु नथी. ए, क्यो बुद्धिवान मनुष्य माने.! ___में तथा बीजा जीवोए उंच अने नीच ए बधां स्थानोने अनेकवार पूर्वे अनुभवेलां छे तेज प्रमाणे गोबना निमित्ते मान-वादी * कोण थाय. अर्थात् जे संसारना स्वरूपने सारी रीते जाणे छे, ते अहंकारी न थाय वली अनेकवार ते स्थानो पूर्वे अनुभवे छते हमणां एकाद उंच गोत्र विगेरे अस्थिर स्थानकमां आवतां राग विगेरेना विरहथी गीतार्थ थएल कोण ममत्व करे ! एनो भावार्थ आ छे. के कर्मनुं परिणाम जेणे जाण्यु छे तेवो मुनि आ सेवाने धारण करे. ग्रद्धपणाने क्यारे योजे के जो पूर्वे तेणे तेवून मेळव्यं होय तो. पण खरीरीते तेणे घणी वखत उंचगोत्र विगेरे मेळव्युं छे. तो ते ऊंचगोत्रना लाभथी के अलाभथी ২২-ৰেফেকেৰে। For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहंकार, दीनता, न करवां तेवुं सूत्रमां कथं छे. कारण के अनादि संसारमां भटकता जीवे भाग्यने आधारे घणी वार उंच नीच गोत्रनां स्थान अनुभवेलां छे. तेथी कोइ वखत उंच नीच गोत्र मेळवीने डाह्यो पुरुष जे खराब तथा सारी वस्तुने ओळखे छे ते उंच गोत्र विगेरेथी अहंकार न करे. कां छे केः “सर्व सुखान्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु ॥ १ ॥ बधां ए सुखोने में आ संसारमां भमतां मेळव्यां छे. उंच स्थान पण मेळव्यां छे, तेथी हवे मने तेनामां कांइ आश्चर्य जोवामां आवतुं नथी. जइ सोऽवि णिज्जरमओ पडिसिद्धो अट्टमाण महणेहिं । अवसेस मयट्टाणा, परिहरि अन्वा पयतेणं ॥२॥ जो, निर्जराने माटे ऊंच गोत्रना मदनो निषेध कर्यो छे, तोपण आठ मानने मथनारा साधुओए प्रयत्नवडे बीजां मदस्थान पण त्यागी देवां. तेजप्रमाणे नीच गोत्रमा के निंदनीक स्थानमा उत्पन्न थइने दीनता न करवी. तेज सूत्रमां कां छे केः "नोकुप्पे" भाग्यवशथी लोकमां निंदनीक जाति कुळ रूप वळ लाभ विगेरेमां ओछापशुं पामीने साधुए क्रोध न करवो मनमां विचार के मारे नीच स्थान अथवा बीजाना हलका शब्द सांभळीने मारे दुःख शा माटे मानवुं, में पूर्वे तेवुं घणीवार अनुभव्युं छे तेथी दीनता न करवी कं छे के. " अवमानात्परिभ्रंशाद्वधबन्धधनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च जात्यन्तरशतेष्वपि ॥ १ ॥ अपमानथी नीच दशा थवाथी अथवा वध बन्ध के धनना क्षयेथी माणसे खेद न करवो कारण के पूर्वे आ जीवे रोग शोक For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३३४॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुदी जुदी जातिमां सेंकडोवार भोगव्या छे. संते य अविभ्हइउं असोइउं पंडिएण य असंते । सक्का हु दुमोवमिअहिअएण हिअं घरंतेण ॥ २ ॥ पंडित पुरुषे प्राप्तिमां आश्चर्य न करं; अने अप्राप्तिमां नाखुश थधुं नहि. झाडनी उपमावाळा हृदयवडे हितने धारनारा पुरुषने शक्य छे. (झाड बधां दुःख सहे; पण त्यांथी खसे नहि; तेम हृदय स्थिर करी दुःखसुख सहेबां.) होऊण कट्टी, पुवई विमलपंडरच्छत्तो । सो चेव नाम भुज्जो अणाहसालालओ होइ ॥ ३ ॥ चक्रवर्त्तिके, पृथ्वीपति निर्मळ सफेद छत्रने धरनारो पहेलां पोते बन्यो अने तेज पुरुष पोते रहेनारो (तेज जन्ममां) अनाथ आश्रममां भाग्यवशथी बने छे. अथवा एक जन्ममां जुदी जुदी अवस्थानी नीच उंचपणानी स्थिति कर्मवशथी अनुभवे छे, तेथी उंच-नीच गोत्रनी कल्पना मनमांथी काढीने तथा बीजा पण मनना विकल्प दूर करीने शुं करतुं ? ते कहे छे: जीवने संसारमां आवां उंच-नीच पद हमणा थाय छे. पछीथी थवानां छे, अने पूर्वे थयां छे, एवं विचारीने शिष्यने गुरु कहे छे केः - तारी तीक्ष्ण बुद्धिथी जाण के, जीवने कर्मवशथी मुख आवे छे, तेम दुःख पण आवे छे, तथा तेनां कारणो पण विचार, (जीवे जेवां पुन्य पाप कर्यो होय; तेवां सुखदुःख मळे छे.) अविगान पणे प्रणीओ सुखने इच्छे छे. अहींयां जीवजंतु प्राणी विगेरे शब्दोपयोग लक्षणवाळां द्रव्यना मुख्य शब्दोने | छोडीने “ सत्तावाचि " शब्द “ भूत " शब्दने लेवाथी एम सूचव्यं के, जेम आ उपयोग लक्षणवाळो पदार्थ अवश्य सत्ताने धारण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३३५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie करे छे, ते मुखने वांच्छे छे, अने दुःखने धिकारे छे, सुख पुन्यना उदयथी छे, तेथी एम जाणवू के, वधी पण शुभ प्रकृतिओ पु-15 आचा० न्यना उदयथी छे जेथी शुभ नाम गोत्र आयुष्य विगेरे कर्म प्रकृतिओने दरेक जीव चाहे छे अने अशुभने निंदे छे आ प्रमाणे छे | सूत्रम् तो शुं करवू ते कहे छे. ॥३३६॥ समिए एयाणुपस्सी, तं जहा-अन्धत्तं बहिरत्तं मृयत्तं काणत्तं कुटत्तं खुजतं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं P॥३३६॥ सह पमाएणं अणेगरुवाओ जोणीओ संघायइ विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ (सूत्र ७८) अथवा शुभ अशुभ कर्म वधा जीवोमां जोइने डाह्या पुरुषे ते जीवोने अप्रिय होइ तेवू कृत्य न कर, एवो शास्त्रकारनो उपदेश छे, आ संबन्धमां " नागार्जुनीया " कहे छे. "पुरिसेणं खलु दुक्खुव्वेअ सुहेसए" जीव दुःखने काढवा तथा सुखने मेळववा इच्छे छे. तेथी जीवनी प्ररूपणा करवी अने ते पृथ्वी पाणी वायु अग्नि वनस्पती ६ सूक्ष्म बादर विकल पंचेन्द्रिय संज्ञो असंज्ञीपर्याप्ता अपर्याप्ता विगेरे पहेला अध्ययनमां बताव्या छे अने ते दुःखने छोडवानी इच्छा बाला तथा सुखने मेळववानी इच्छावाला जीवोनुं पोतानी उपमाए मानता साधुए पोताना मुखना माटे जोवोने दुःख आपवान P हिंसा विगेरे स्थान छोडवा इच्छता पुरुषे पंच महावतोमा पोतानो आत्मा स्थापन करवो, अने ते महावतो पूरां पाळवा माटे उत्तर गुणो पण पाळवा जोइए तेज बात आ मूत्रमा लाव्या छे, ते कहे छे. RAHASRAE%ADARA RAcc For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांच समितिथी बनेलो हवे पछी कहेवात। शुभ अशुभ कर्मनुं स्वरूप जाणे एटले अंधपणुं बहेरापणुं मुंगापणुं काणापणुं अने कुंटपणुं विगेरे कर्मनांज फळ छे. ते जीवोमां साक्षात् जोड्ने पोते समजे, के हुं दुःख बीजाने आपीश, तो ते मने पण भोगववुं पडशे ते खुलासावार कहे छे. हवे समितिनुं वर्णन कहे छे. सम् उपसर्ग इ. धातु अने ति. प्रत्यय लागवाथी समिति शब्द बन्यो छे. अर्थात् सम्यक् वर्तन ते समिति छे. तेना पांच भेद छे. (१) इर्या समिति ते जोइ विचारी पगलं भरवानुं छे, जेथी बोजा जीवोनी तथा पोतानी रक्षा थाय, (जोइने चालेतो, पग नीचे कीडी विगेरे मरे नही, तेम ठोकर पण न लागे) आ अहिंसा नामना पहेला महाव्रतने टेको आपनार छे. तेथी अहिंसा बरोबर पळे छे. (२) भाषा समिति ते असत्य अहितकारक वचन रोकवा माटे छे, अर्थात् साधुए बीजुं महाव्रत पाळवु जोइ विचारीने बोलबुं. तथा (३) एषणा समिति ते साधुने कोइनुं पण चोरीने के पूछया विना कांइ पण न लेबुं ते श्रीजुं महाव्रत पाळवा माटे छे, एटले निर्दोष भोजन विगेरे दिवसना प्रकाशमां मालीकनी रजा लइ वापरवानुं छे. वाकीनी वे समितिओ. (४) आदान - पटले वस्तु लेवीमुकवी ते समिति तथा [५) उत्सर्ग-एटले शरीरमांथी के मकान विगेरेमांथी नीकळतो मळ विगेरे योग्य स्थाने नांखवो के जेथी बीजाने पीडा न थाय, ते बघा महाव्रतमां सर्वोत्तम अहिंसा नामना पहेला महाव्रतनी सिद्धि माटे छे, आ प्रमाणे पंच महाव्रतो मेळवीने पांच समिति पाळता साधुने बीजा जीवोनुं सुख विगेरे देखाय छे, अथवा जे रीते पोते बीजानुं भलुं चाहनारो थाय छे ते सूत्र वडेज बतावे छे अंधपणुं विगेरे जे जे विरूप रूपोमां संसारी जीवो संसारमां भ्रमणा करता घणी अवस्थाओ भोगवे छे. ते बतावे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३३७॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मां एकेन्द्रिय बेन्द्रिय त्रेन्द्रिय ए आंख विनाना द्रव्य अने भाव अंधा छे (आपणी माफक तेमने आंखो जोवानी नथी) तथा चौरेन्द्रियवालाथी जोवानी आंखो छतां धर्मना अभावे मिध्यादृष्टिओ भाव अंधा छे. (सारा माठानो तेमने विवेक नथी) कां छे के. "एकंहि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम्; एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥ १ ॥ जेने निर्मळ चक्षु समान स्वभाविक विवेक छे अने तेवा विवेक साथे एमने सोबतरूप वीजुं नेत्र छे, आ बन्ने चक्षु जेमने नथी ते हृदयना आंधळा कुमार्गे जाय तो ते बीचारानो खरेखर भुं अपराध छे : वीतरागनो धर्म पामेला छे तेओ सम्यक् दृष्टि छे, तेमने कोइपण कारणे आंखनुं तेज नाश पाम्युं होय ते द्रव्यअंधा जाणत्रा पण खरा देखता कोने कवा के जे द्रव्यथी पण आंधळा नथी अने भावथी पण आंधळा नथी अर्थात् आंखे जुए छे, अने विवेकथी वर्त्ते छे. थी द्रव्य अने भावी भिन्न एवं बन्ने प्रकारनुं जेने अंधपणुं छे, ते एकान्तथी दुःख आपनारुं छे. कयुं छे के. "जवन्नेव मृतोऽन्धो, यस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः । नित्यास्तमितदिवाकर, स्तमोऽन्धकारार्णवनिमग्नः ११ ॥ जीवतांजमुवा जेवो आंखथी आंधळो छे. के ते बीचारो वधी क्रियामां परतंत्र छे. जेने चक्षु नथी तेने हमेशां सूर्य अस्त थलो छे. अने पोते अंधकारना समुद्रमां डुब्यो छे. लोकद्रव्यसन वह्निविदीपिताङ्गमन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||३३८॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३३९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम को नोद्विजेत भयकृजननादिवोद्यात्कृष्णाहिने कनिचितादिव चान्धगर्त्तात् ? ॥२॥” आलोक परलोकमां दुःखना अग्निमां वळता अंगवांलो तथा पारकानी लाकडीए दोराता दुःखी आंधळाने जोड़ने कोण खेद न | पामे ? अथवा भयने पमाडनार एवो भयंकर काळो साप अंधारानी खाडावाळी जग्यामां जे एक दृष्टिए करडवानी इच्छावालो बेठेलो | छे तेने जोड़ने तेना आगळ जतां जेवो भय लागे छे, तेवी रीते अंधपणना खाडानुं दुःख कोने भयंकर न लागे. ? ॥ ३३९॥ जेम उपर आंधळानुं दुःख बतान्युं ते प्रमाणे केटलाक जीवो कर्मना वशथी बहेरापणुं भोगवे छे। अने जेने सारा के माठा वि वेकनुं भान नथी ते आ लोक परलोकनुं जे सारं फळ छे तेनी क्रिया करवाने ते अशक्त छे छे छे के "धर्मश्रुति श्रवणमङ्गलवर्जितो हि, लोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहारत्राह्यः ॥ किं जीवतीह बधिरो ? भुवि यस्य शब्दाः, स्वप्नोपलब्ध धन निष्फलतां प्रयात्नि ? ॥१॥ धर्मनां वचन सांभलवाना कल्याणथी दूर थयेल तथा लोकना वचन सांभळवाना वहेवारथी बहार थएल छे ते बहेरो आ दुनीयामां केम जीवे छे.? के जेने कहेला शब्दो स्वप्नमां मेळवेला धननी माफक निष्फळताए जाय छे. स्वकलत्रबालपुत्रकमधुरवयः श्रवणवाह्यकरणस्य । वधिरस्य जीवितं किं जीवन्मृतकाकृतिधरस्य ॥२॥ पोतानी स्त्री तथा नाना पुत्रनां मधुर वचन सांभळवाथी त्रिमुख एवा बहेरानुं जीवित जीवतो छतां पण मरेलानो आकार घर For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रमू नारनुं कंइ गणत्रीमा छे ? (नकामुं छे.) आचा०४ आ प्रमाणे मुगांने पण एकांत दुःखनो समूह भोगववानुं छे. कथु छे केः "दुःखकरमकीर्तिकर, मुकत्वं सर्वलोकपरिभृतम् । प्रत्यादेशं मूढाः कमै कृतं किं न पश्यन्ति ? ॥१॥" ॥३४०॥ दुःखने करनार अपजशवाळू सर्वलोकमां निंदा पात्र मुंगापणुं छे, ते पोतानाकर्मोनुं करेलु फळ बीजाने भोगवाताने मूढो केम है। जोता नथी ? (पोते पाप करशे तो, तेवू फळ भोगवईं पडशे.) तेज प्रमाणे काणापणुं पण दुःखरूपे छे. कां छ:___ "काणो निमग्न विषमोन्नतदृष्टिरेकः शक्तोविरागजनने जननातुराणाम् ॥ यो नैव कस्यचिदुपैति मनःप्रियत्वमालेख्यकर्मलिखितोऽपि किमु स्वरूपः? विषमस्थानमा डुबेलो, जेने एकज दृष्टि ( आंख ) छे. जे पोते काणो होवाथी वैराग्य उत्पन्न करवामां शक्तिवान छे, अने जन्मदुःखीओमा ते छे पोते कोइनां पण मनने वहालो लागतो नथी. आलेखवा जोग कर्मथी लखायो छतां; जे बीजाने वहालो न टू लागे; तेनुं स्वरूप गइ गणत्रीनुं छे ? आ प्रमाणे कुंटपणुं एटले, जेना हाथपग बांका होय; अथवा ठींगणापणुं होय; अथवा जेनी पीठ वडनी (सुंधाना ) आकारे । होय; तथा रंगे कळो होय; तथा सबळपणुं होय. आबु स्वाभाविक कदरुपुं शरीर होय अथवा पछवाडे कर्मना वशथी तेवो थाय; CRECR - RA C3% For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३४१॥ www.kobatirth.org तो, घणुं दुःख भोगवे छे. वळी प्रमादथी एटले, विषयक्रीडाना कारणे सारां काममां एटले, धर्ममा प्रमाद करवाथी संकट, विकट शीत, ऊष्ण विगेरे, अनेक भेदवाळी योनीमां पोते भ्रमण करे छे, अथवा प्रथम बतावेली चोराशीलाख जीवायोनीमां एकसरखं भ्रमण करे छे. अने | नवां नवां आयुष्यो बांधीने तेमां जाय छे। अने ते योनीओमां जुदी जुदी जातनां दुःखोने अनुभवे छे, तेज प्रमाणे उंचगोत्रनो अइंकार करवामां हणाएला चित्तवाळो अथवा नीच गोत्रना कारणे दीन बनेलो, अथवा आंधळो बहेरो थवा छतां अज्ञानी जीव पोते पोतानुं कर्त्तव्य नथी जाणतो तथा पूर्वे करेलां कर्मनुं आ फळ छे, ते जाणतो नथी. तथा संसारनी बुरी दशाने भूली जाय छे. अने | हित-अहितने विसारे छे तेमज उचित वातने गणतो नथी. ते तत्वने भुलेलो मूढ बनेलो होय तेज उंच गोत्र विगेरेमां अहंकार करे छे. तेज कहे छे से अबुझमाणे हओ वहए जाईमरणं अणुपरिमाणे, जीवियं पुढो पिर्य इहमेगेसिं माणवाणं वित्तवत्थुममायमाणाणं आरतं विरतं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगज्झति, तत्थे व रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपुष्णं वाले जोविकामे लालप्पमाणे मुढे विप्परिया समुवेइ || (सू० ७९) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३४१॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा०४ सूत्रम् ॥३४२॥ पूर्वे कहेला उंचगोत्रनो अभिमानी अथवा आंधळां, बहेरां विगेरेनां दुःखने भोगवतो; अथवा कर्मविपाकने न जाणतो हत उ-18 पहत छे एटले, जुदीजुदी जातना रोगथी शरीरे पीडाता हणायलो छे, तथा बधा लोकमां पराभव पामवाथी उपहत छे, अथवा उंच गोत्रना अहंकारथी उचित कार्यने छोडवाथी विद्वान पुरुषोना मुखथी, जेनो अपयश पडयो पडवाथी ते हणायलो छे, तथा अभिमान करवाथी ॥३४२॥ अनेक भवमा अशुभकर्म बांधीने, नीचगोत्रना उदयने अनुभवतो उपहत छे, अने ते दुःखथी मूढ बने छे, ते दरेक जग्याए जोडq. तेज प्रमाणे जाति (जन्म-मरण) ए वनेने "पाणी काढवाना रेंटना न्याये" नवा नवा जन्म-मरणनां दुःखसंसारना मध्यभागमा रहीने ते जीव भोगवे छे, अथवा क्षणेक्षणे क्षयरूप आवोचीमरणथी दरेक क्षणे जन्म तथा विनाशने अनुभवतो दुःखसागरमां | डुबेलो सघळ नाशवंत छतां, तेने नित्य मानीनेः जेमां हित थवा, छे तेने पण अहित मानी विमुख थाय छे. (धर्म, जे सुखने आ| पनार छे, ते धर्मने छोडी दुःख आपनार विषयमां खेचाय छे.) कडं हे केः आयुष्यने नित्य मानीने अथवा, असयंमजीवित दरेक पाणीने वधारे वहालं छे. एटले आ संसारमा अज्ञान अंधकारथी हणाएला चित्तवाला मनुष्यने तथा बीजा प्राणीओने विषय रसमां जीवq वहालुं छे, ते बतावे छे. आयुष्य वधारवा माटे रसायण विगेरे क्रियाओ बीजा जीवोने जे दुःख करनारी छे तेने करे छे. तथा चोखा विगेरेनुं क्षेत्र IP| खेडावे छे. धोळांघर (हवेलीओ) विगेरे बधावे छे. तथा आमारां छे. एम मानीने तेना उपर वधारे प्रेम करे छे. तथा थोडां रंगेलां अथवा 8 जुदी जुदी जातनां रंगेला अथवा वगर रंगेलां वस्त्रो तथा रत्नोना कुंडळो तथा सोनुं तथा स्त्री विगेरे मेळवीने तेमां एटले उपर 8 BREAKINGAAR For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir 18 कहेली रमणीय वस्तुओमां गृद्ध थएला हे. ते मृढपुरुषो दुःख आवतां गभराय छे. अथवा तेमनी शरीर शक्ति बरोबर होय त्यारे ४ आचा०ल तेओ धर्म विगेरेने उत्तम बोलता नथी पण तप ते अणसण विगेरे तथा " इन्द्रियोन दमन तथा अहिंसानो नियम फळवाळो नथी 6. सूत्रम् एम तेओ उलटुं बोले छे. ते बतावे छे, तप नियम धारण करेला धर्मि जीवने तेओ कहे छे. के" आ तप विगेरेनुं फळ भविष्यमां 2 ॥३३॥ नथी. फक्त आलोकमा कायाने दुःख अने भोग विगेरेथी दूर रहे, ए तमने ठगवा माटे गुरुओए खोटुं बतावेलुं छे. ॥३४३॥ ___ वली बीजा जन्ममां सुख मळशे. ए पण खोटो गुरुए भ्रम आपेलो छे. कारण के हाथमां आवेला भोगो तथा सुखो भोगववां छोडीने भविष्यमा सुखनी आशा करवी ए वधारे पापरूप छे तेथी वर्तमाननुं मुख चहानार संसारी जीवो (गुरुना वचनोने ऊंचा मूकी) 2 भोग भोगववमा एक पुरुषार्थ मानी अवसरे अवसरे संपूर्ण भोगोने भोगवतो अज्ञानी जीव लांबा आयुष्यने इच्छतो भोगोने माटे अतिशय कुवचन बोलती वचन दंडनु पाप बांधे छे. एटले जे माणस एम बोले के तप तथा इन्द्रिय दमन अथवा अहिंसादिक नियम फळवालुं नथी एवं बोलनारो मूढ तत्वने न जाणनारो हत उपहत थएलो नवां नवां जन्म भरण करी जीवित क्षेत्र स्त्री विगेरेमां लोIP लुप बनी तत्वमां विमुख अने अतत्वमां तख मानीने हित अहितनी बाबतमा पण उलटो चाले छे. ते बतावे छे. दाराः परिभवकारा बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥१॥g स्वीओ अपमानने करनारी, बंधुजन बंधन समान तथा इंद्रियोना विषयो विष समान छे. छतां माणसने आ केवो मोह छे के जे खरेखरा शत्र छे. तेमां मित्रपणानी आशा राखे छे. पण जेो शुश कर्म उपार्जन करीने मोक्षनी इच्छावाला बनेला छे ते केवा छे ते बतावे छे. CROO For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥३४४॥ ॥३४४॥ CASES इणमेव नावकखति, जे जणा धुवचारिणो । जाइमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे (१) नत्थि कालस्स णागमो, सवे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जोविउकामा, सवेसिं जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अ. भिजंजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऽपि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहया वा, से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोअणाए, तओ से एगया विविहं परिसिढे संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से,आगारदाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्सऽहाए कराई कम्माइं बाले ठकुचमाणे तेण दुक्खेण सं मूढे विप्परियासमवेइ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा झए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए, अयाणिजं च आयाय तंमि ठाणे न चिट्ठइ, वितहं पप्पऽखेयन्ने तंमि ठाणंमि चिट्ठइ (सू० ८०) RAHARANAS S IOSEX For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३४५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेओ ध्रुवचारी एटले मोक्षनुं कारण ज्ञान विगेरे छे तेने मेळववाना स्वभाववाला छे तेवा धर्मात्मापुरुषो उपर कहेला असार जीवितक्षेत्र धन स्त्री विगेरेने चहाता नथी. अथवा धुतचारी एटले धुत ते चारित्र तेमां रमणता करनारा छे. अर्थात् चारित्र लइ तेने पूर्ण पाळी मोक्ष मेळवे ते संसारने चहाता नथी भोगना अभावे ज्ञान मेळवीने जन्ममरणना दुःखने जाणीने तेवा पुरुषे संक्रमण ( चारित्र ) मां रमणता करवी एवं शिष्यने गुरु कहे छे के विश्रोतमिका रहित अथवा परिसह उपसर्ग आवतां तारे कंटाळवु नही अथवा हे शिष्य तुं शंका रहीत मन| बालो थइ संयममां रहे एटले शिष्ये तप दमन नियम विगेरे आलोकमां जे कष्ट छे. ते परभवनुं अनंतु सुख आपशे एवं नि:शंकपणे | मानी ने धर्ममां आस्था राखे; अने ते तप नियम विगेरे करे; अने तेथीज पोते तपना प्रभावथी राजा-महाराजाओने पण पूजनायोग्य थाय छे. जे विषय कपायने जीत्या छे, तेवा तपस्वी शांत पुरुषने अहीं जे सुखरूप फळ मळ्युं छे, तथा तेणे वधा जोडकांने दूर करी समभाव मेळव्यो छे, तेवा पुरुषने परलोक कदाच न होय; तोपण नेनुं कंइ बगळतुं नथी. (उपशमभावमां अहींज अनंतु मुख छे, तेने परलोकना सुखनी इच्छा नथी. कछे के: “संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः॥१॥” परलोक छे के नहि ? एवी एवी शुंकावाळा लोकमां पंडित पुरुषोए पापने छोडबुंज जोइए; जो परलोक नथी; तो तेनुं शुं बगडवानुं छे ? अने परलोक छे तोषण, तेनुं शुं बगडवानुं छे ? एथी परलोक न माननारो नास्तिक हणायो अर्थात् पाप करनारो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ३४५॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥३४६॥ ---C आलोकमांज नास्तिक केदमां पड़ी दुःख भोगवे छे, तोपण तेनी आशा पुराती नथी; अने आस्तिक भोगने रोग मानी तेनी आशा मूके छे, तो ते देवनी माफक पूजाय छे. तेथी गुरुमहाराज शिष्यने कहे छे के तमारे पोताना वशमा रहेलुं संयम सुख मेळववामां 6 सूत्रम् दृढ रहेQ. पण आq न विचार के थोडा वर्ष पछी अथवा वृद्धावस्थामां धर्म करीश. कारण के मृत्युनु आवq अनिश्चत छे के हमणा मृत्यु नहि आवे. कारण के सोपक्रम आयुष्यवाळा जीवने कोइ अवस्था एवी नथी के-जेमां कर्मरूपी अग्निमां पडनारा लाखना 5॥३४६॥ गोळा माफक जीव पीगळी न जाय. कधु छे के शिशुमशिशु कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीरं मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रकाशमवलीनमचेतन मथ सचेतनं, निशि दिवसेऽपि सान्ध्य समयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥१॥" वाळक, जुवान, कठोर कोमळ, मूर्ख, पंडित धीर, अधीर, अहंकारी दीन गुण रहित, घणा गुणवाळो, साधु, असाधु, प्रकाशवाळो अप्रकाशवाळो, अचेतन, सचेतन, अर्थात् जेटला जीवो संसारमा छे. ते बधा काळ (मृत्यु) थी दिवसमां, रात्रीमां अथवा संध्याना समयमां पण कोइ रीते नाश पामे छे. तेथी मृत्युना सर्वेने कडवापणाने समजीने उत्तम पुरुषे अहिंसा विगेरे महावतोमां सावचेत थर्बु जोइए. शा माटे ते कहे छे. " सव्वे पाणा पियाउया" GCC-% ACC-IAS For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥३४७॥ ॥३४७॥ एटले मूत्रमा बताव्या प्रमाणे बधा जीवोने पोतार्नु आयुष्य प्रिय छे. शंका-सिद्धने आयुष्य प्रिय नथी, तेथी तमारा कहेवामां दोष आवशे. उत्तर-एटला माटेज अमे मुख्य शब्द जीवने न वापरतां प्राण शब्द वापर्यो छे. अने तेथी पाण धारण करनार संसारी जीवज लेवा. तेथी तमारो वांधो नकामो छे. “सव्वे पाणा पियायया" आ पाठ छे. एटले आयुष्यने बदले आयत शब्द छे अने तेनो अर्थ आत्मा छे. कारण के ते अनादि अनंत छे. अने बधाने पोतानो आत्मा वहालो छे. अने मुखनी वांच्छादुःखनो नाश करवानी अभिलाषा छे. कयु छे के सुहसाया दुक्खपडिकूला. आनंदरूप-सुख छे, तेनो स्वाद करवो ते सुख भोगववानी इच्छावाला जाणवा. अने असाता ते दुःख. तेना द्वेषी जाणवा; & तथा पोतानो घात करे; तो, पोते अप्रिय माने छे, तथा जीवितने प्रिय माने छे, एटले दीर्घ आयुष्य वांच्छे छे, अने ते पण असंयम जीवित वांच्छे छे, एटले दुःखमा पीडाइने पण, अंतदशामां पण जीववाने इच्छे छे कयुं छे के:', रमइ विहवी विसेसे ठितिमित्तं थेव वित्थरो महई। मग्गइ सरीर महणो, रोगीजीए च्चिय कयत्थो॥१॥ वैभववाळो विशेष वैभवमा रमे छे. योडावाळो पण रहेवाने इच्छे छे. निर्धन पण पोतनां शरीरने संभाळे छे. रोगी पण जीव 25345-ॐASHI For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॐॐ ॥३४८॥ वामां कृतार्थ माने हे. तेथी आ प्रमाणे सर्व प्राणी सुखना जीवितना अभिलाषी छः अने संसारी-निर्वाह आरंभ विना नथी; अने आरंभ छे, ते 41 सूत्रम् माणीने उपघात करनार छे, अने प्राणीओने पोतानुं जीवित वधारे वहालुं छे, तेथी वारंवार गुरुमहाराज उपदेश आपे छे के-द-है रेकने सर्वथा इन्द्रियोना विषय वहाला छे, अनेतेथी विषयोने ध्यानमा राखीने शुं करे छे ? ते कहे छे. चे पगवाला दास दासी चार | P॥३४८॥ | पगवाळा गाय घोडा विगेरे उपभोगमां लइने; धननो संचय करीने मन, वचन, अने कायाथी करवू कराव; अने अनुमोदनावडे पोतानां मनुष्य-जन्ममा जे कइ जींदगी परमार्थमां गुजारवी जोइए; तेने बदले तेने आरंभमां एटले पापकर्ममां रोकीने व्यर्थ करे छे. ते वखते अर्थमां गृद्धथयलो पोते क्लेशने गणतो नथी. धनने रक्षण करवानो परिश्रम विचारतो नथी; तथा तेनी चंचळताने ध्यानमां लेतो नथी, तेना नकामापणाने विसरे छे. (धनना अपायो भूलोने लाभज नजरे जुए छे, अने पापमां रक्त रहे छे.) कयु छे के कृमिकलचित्तं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम ॥ सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं सशाङ्कितमीक्षते, न हि गण यति क्षुद्रो लोकः प्ररिग्रहफल्गुताम् ॥१॥ कृमिना समूहथी व्याप्त अने लाळथी भरेलु दुर्गधवाळू निंदनीक एवं मांस विनानुं हाडकुं मोढामां ममरावतो अधिक स्वाद तेमां मानतो कुतरो-पासे उभेला इन्द्रने पण शंकाथी जुए छे. (के रखेने मारुं हाडकुं इन्द्र लइ न जाय.) आ उपरथी निश्चय एम जणाय 3/छे के क्षुद्र जंतु छे. ते पोतानी संघरेली वस्तुनी असारता जाणतो नथी. ते पैसाने शा माटे चाहे छे, ते कहे छे. भोजनने माटे For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् ॥३४९॥ उपभोगने माटे-धनने इच्छी तेवी तेवी क्रियामां वर्ते छे. एटले अवलगन. (बीजानो आशरो लेवा) विगेरेनी क्रिया करे छे. तेमां द लाभांतराय कर्मना क्षय उपशममा जुदीजुदी जातनुं मळेलं अने वापरतां बचेलं साचववा महान उपकरण भेगां करे छे. ___अने कोइ पापीने तेवा लाभनो उदय न होय, तो धननी इच्छाए ते रंक मनुष्य समुद्र ओळंचे छे, पहाड चढे छे. खाण खोदे ॥३४९॥ द्रा छे, गुफामा पेसे छे, पारानो रस बनावी तेना वडे सुवर्ण सिद्धि (कीमीयो) करवा चाहे छे. राजानो आश्रय ले छे, खेती करावे छे, आ बधी क्रियामां पोताने अने परने दुःख आपवा वडे पोताना सुखना माटे मेळवेलुं धन पोते कष्ट करेलुं होय छतां कोइ वखत तेना पापना उदयथी तेना पीतराइओ तेमां भाग पडावे छे. अथवा दगाथी ले छे. चोरो चोरे छे. राजाओ दंडे छे. अथवा पोते राजना भयथी जंगलमां नासी जाय छे. अथवा तेनुं जुनुं घर पडी जाय छे. अथवा अग्निथी बळतां धन नाश पामे छे. लुटाइ जाय छे; | आवां घणां कारणोथी अर्थ नाश पामवानो छे. एथी उपदेश करे छे के, हे शिष्य ! अर्थनो मेळवनारो बीजानां गळां रेसनारो पाप ४ है करीने आज्ञानी जीव ते धनथी सुख भोगववाने बदले दुःख भोगवतां मुढ बनीने घेलो थाय छे. अने तेथी विवेक नाश थवाथी कार्य-अकार्यने मानतो नथी. तेज तेनी विरूपता छे. कयु छे के "रागद्वेषभिभूतत्वा, कार्याकार्य पराङ्मुखः । एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥१॥ रागद्वेषथी घेरावाथी कार्य अकार्यना विचारमा शून्य एवो विपरीत कार्य करनारो मूढ माणस जाणवो. आ प्रमाणे मूढपणाना अंधकारमा छवायाथी जेने आलोकना मार्गनुं ज्ञान नथी एवा सुखना अर्थिओ छतां दुःखने पामे छे. KARORRECRCOACHCCESS SHASRASHBाकर For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३५०॥ * 15 तेथी सर्वज्ञ वचन रूप दीवाने बधा पदार्थनुं स्वरूप खरेखलं बतावनार जाणीने गुरु कहे छे. हे मुनिओ तेनो आश्रय तमे ल्यो.2 आचा० में आ मारी बुद्धिथी नथी का. एबुं सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे, त्यारे कोणे कबुं ? ते कहे छे. ___त्रणे काळमां जगत विद्यमान छे. एवं जे माने ते मुनि जाणवा अने ते त्रणे काळनुं ज्ञान जेने होय ते सर्वज्ञ तीर्थकर छे. ते॥३५०॥ मणे का छे. तेओए अनेकवार पोताना पुन्य बळथी उंच गोत्र विगेरे मेळव्युं छे. अथवा प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी ज्ञान माप्त थतांज 8/ बधा जीवो पोतानी भाषामां समजे तेवां वचनवडे तेमने उपदेश कर्यो छे. ते कहे छे. ____ अनोघ-ओघ चे प्रकारे छे. द्रव्यओघ ते नदीनु पूर विगेरे छे. अने भावओघ ते आठ प्रकारनुं कर्म अथवा संसार छे. ते आठ कर्मथी संसारी जीव अनंत काळ भमे छे. ते ओघने ज्ञान दर्शन अने चारित्ररूपी वहाणमां बेठेला मुनिओ तरे छे. अने जेओ । नथी तरता ते अनोपंतरा छे, अर्थात् जेओ मुनि धर्म पाळे छे तेओ तरे छे, अने जेओ ते धर्मने छोडी विषयना लालचु बने छे, ४ ते जैनेतर अथवा जैनमां पतित साधु छे. तेओ ज्ञान विगेरे उत्तम वहाणथी भ्रष्ट थवाथी तरवानो उद्यम करे तो पण संसार तरवा | समर्थ थता नथी. तेज मूत्रमा का छे नोय ओहं तरित्तए, जे संसार तरता नथी ते अतीरंगमा छे, एटले तीर ते संसारनो पार तेनी पासे जq. ते तीरंगमा छे अने जेओ विषय रसमां 18. पडे तेओ किनारे न जवाथी अतीरंगम छे. ते कोण ? ते कहे छे. जैनेतर अथवा प्रथम कहेला धर्म भ्रष्ठ जैन साधु-ते बतावे छे. KAROSARO UGCROCTOCTO SA-A GEX For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : तेओ वेष धारे छे छतां सम्यक् आचार न पाळवाथी सर्वज्ञना कहेला सन्मार्गथी दूर होवाथी किनारे जता नथी तेज प्रमाणे अपा-४ आचा० रंगम पण जे. अहीं पार एटले, सामेनो तट जाणवो. तेज प्रमाणे अपारगत पण जाणवा; एटले वितरागना उपदेशथी वीरुद्ध चा- सूत्रम् लवाथी पारगमनमां सफळता मळती नथी. आ बधुं कहीने कहे छे के-ते संसारना सुखइच्छको संसारमांज अनंतकाळ रहे छे. ॥३५॥ जोके, तेओ वेष धारवाथी के, स्वेच्छाचारथी थोडंक कष्ट पण सहेता होय; तोपण सर्वज्ञना उपदेशथी विकळ, अने पोतानी इच्छा-19॥३५१॥ नुसार बनावेला शास्वनी रीतिए चालनारा होवाथी संसारपार जवाने समर्थ नथी. प्रश्नः-तीर, अने पारमा शुं भेद छे ? उत्तरः-अहींआं तीर एटले मोहनीयकर्मनो क्षय लेवो. तथा बाकीनां बीजां त्रण घातीकर्म दूर थवाथी पार जाणवो; अथवा ४/ तीर एटले, चार घातीकर्मनो नाश अने पारमां बाकीनां अघातीकर्मनो पण नाश जाणवो. प्रश्नः-जैनेतर अथवा, पतितसाधु केम मोक्षमा न जाय ? . उत्तर:-जेनाथी सर्व पदार्थो ग्रहण कराय; ते आदानीय ते श्रुतज्ञान जाणवु. ते श्रुतज्ञानमां कह्या प्रमाणे संयमस्थानमां जे न वर्ते ते मोक्षमा न जाय अथवा लोकोने प्रियएवां भोगनां अंग दास दासी चोपगां धन धान्य सोनुं रु' विगेरे ग्रहण करीने अथवा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगवडे ग्रहण करवा योग्य कर्म ग्रहण करीने ज्ञानादिमय मोक्षमार्गमां अथवा सम्क् उपदेशमां अथवा प्रशस्तगुण स्थानमा जे जीव पोताना आत्माने स्थिर नथी करतो ते संसारमा भमे छे. POSEKARNALSECRE GRAHASY For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३५२॥ www.kobatirth.org वली ते धर्मभ्रष्ट पोते बोतरागना उपदेश स्थानमां स्थिर थतो नथी. पण तेने बदले अनुचित स्थानमां वर्त्त छे. ते बतावे छे. वितथ ते असत् वचन दुर्गतिनो हेतु छे तेने पामीने अकुशळ अथवा खेदने जाणनारो असंगम स्थानमां वत्ते छे. अथवा वितथ एटले | ग्रहण करवा योग्य भोग नथी. जुदु जे संयम स्थान “छे तेने पामीने खेदने जाणनारो निपुण साधु तेज स्थनमां एटले कर्मने हवामां तत्पर रहे छे अर्थात् पोताने सर्वज्ञ प्रभुनी आज्ञामां स्थापे छे. आ उपदेश जे शिष्य ज्यां सुधी तत्वनो बोध पाम्यो नथी तेने सुमार्गमां वर्त्तवा अपाय छे. पण जे तत्खनो जाण तथा हेय ( त्यागवा योग्य ) उपादेय ( ग्रहण करवा योग्य ) नुं विशेष जाणे छे, ते बुद्धिवान पुरुष यथाअवसरे यथायोग्य करवुं, ते पोतानी मेळेज करे छे; ते बतावे छे. उसो पासगस्स नत्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव अणुपरि (सू० ८१) त्तिबेमि ॥ लोकविजये तृतीयोदेशकः || आ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देश उपदेश एटले सत् असत् कर्त्तव्य तेना आ देशने जे जाणे ते पश्य जाणवो तेज पश्यक छे. तेने आ उपदेशनी जरुर नथी. ते पोतेज समजे छे. अथवा पश्यक ते सर्वज्ञ अथवा तेना उपदेश प्रमाणे चालनारो जाणवो. जे काय ते उद्देशो. ते नारकादि चार गति अथवा उंच नीच गोत्रनुं कहेवुं. ते उपर कहेला सर्वज्ञने अथवा उत्तम साधुने नथी. कारण के थोडाज वस्त्रतमां तेनो मोक्ष थवानो छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥३५२ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३५३॥ www.kobatirth.org प्रश्नः - क्यो माणस वीतरागना उपदेश प्रमाणे चालतो नथी ? ते कहे छे— "बाळ" राग विगेरेथी मोहीत थएलो ते कषायो तथा कर्मोवडे अथवा परिसह उपसर्गवडे हणाय छे. ते “निह" अथवा जेनाथी स्नेह थाय ते स्नेहि ते जेने छे. ने स्नेह वालो रागी जाणवो. ते इच्छा संसार सुखनो अभिलाषी मनोहर भोगोनो रागी बनी कामनी इच्छावालो ते कामी वारंवार विषयनी इच्छा शांत न पडवाथी तेना दुःखी दुःखीओ बनेलो शरीर अने मनमां दुःखोथी पीडातो रहे छे. कांटा तथा शस्त्रनो घा अथवा गुमडुं कोड विगेरेथी शरीर दुःख भोगवे तथा बहालांनो वियोग अप्रियनो संयोग अनिष्टनो लाभ अने इच्छितनो अलाभ तथा दारिद्र दुर्भाग्यथी मननी पीडाओ भोगवे छे. अने तेनाथी वारंवार आर्त्तध्यान करतो | वारंवार तेमां भमे छे. एटले दुःखना आवर्त्तमां डुबेलो संसारमां भमे छे. ( आ बधानो सार ए छे के-जे अहंकार करे- दीनता करे ते संसारमां भमे अने जे मुनि सुख दुःखमां अहंकार दीनता न करतां चारित्रने समता भावे आराधे ते मोक्षमां जाय ) लोक विजयनो त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. ओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जति जेहिं वा सार्द्ध संवसइ, ते व णं एगया नियया परिवति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमपि तेसिं नालं नाणाए वा सरणाए वा जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३५३॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३५॥ भोगा मे व अणुसोयन्ति इहमेगेसिं माणवाणं (सू० ८२) आचा० त्रीजो उद्देशो कह्या पछी चोथो उद्देशो कहे छे भोगोमां प्रेम न करवो. ए आ उद्देशामां छे. जेथी भोगीओने शुं दुःखो थाय छे, ते बतावे छे. पूर्वे पण तेज का छे के भो-18 ॥३५४॥ गीओने कोइ वखते रोग उत्पन्न थाय छे. पूर्वे बताव्यु के संसारमा विषयी जीव परिभ्रमण करे छे. ते जीव आ दुःखोने पण भो गवे छे, आ प्रमाणे त्रीजा उद्देशानो संबंध छे. तथा एना पहेलांना मूत्रनो आ संबंध ठे के बालक जेबो जीव प्रेममा पडीने काम 15 भोग करे छे. ते काम दुःखरुपज छे. तेमां आसक्त थएला जीवने वीर्यनो क्षय भगंदर विगेरे रोगो थाय छे. तेथी कहे छे के का | मना अभिलाषथी अशुभ कर्म बंधाय अने तेथीज मरण थाय छे, पछी नरकमां उत्पन्न थाय छे, अने नरकमांथी नीकळीने माना पे| टमां वीर्यना बींदुमा उत्पन्न थइ कलल अर्बुद पेशी व्युह गर्भ प्रसव विगेरेनां दुःख भोगवां पडे छे. त्यार पछी मोटो थतां रोगोथाय छे. आ बधुं अशुभ कर्मनुं फळ उदय आवतां थाय छे, ते रोगो बतावे छे, माथार्नु दुखवू पेटमां शूळ उठवी विगेरे रोगो थाय छे. आ रोग उत्पन्न थतां जेनी साथे ते बसे छे. ते सगां तेने निदे छे. अथवा चाकरी न यतां सगांने ते निदे छे, वली गुरु कहे छे, के हे शिष्य ! जे सगां उपर मोह राखे छे, ते सगां तेना प्राण रक्षणना माटे थतां नथी, तेम तुं पण तेना प्राण शरणना माटे थवानो नथी. एबुं जाणीने तथा जे कंइ दुःख सुख आवे छे; ते पोताना कार्योनुंज पाणीओ फळ भोगवे छे, तेथी रोगोनी उत्पत्तिमां दिनता न लाववी; तथा सुंदर भोगोने याद करवा नहि, तेथी" सूत्रमा कयु छे के" शब्द रूप रस गंध अने स्पर्श ए पांच विषयनो %A4%A4% For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३५५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिलाष अमे कोइ पण अवस्थामां भोगवीए एवी इच्छा न करवी, तथा पूर्वे अमारी चढती अवस्थामां तेनो आनंद न लीधो, एवं पण याद न कर, "एटले इच्छा" संसारमां जेमणे विषय रसना कडवां फळ जाण्यां नथी तेवा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती विगेरेने थाय छे. पण बधाने तेवा भोगनी इच्छा थती नथी. जो तेम न मानीए तो सनत्कुमार चक्रवर्ती जेवाने पण दोष लागे ते बतावे छे ब्रह्मदत्त मरणांतिक रोगनी वेदनाथी पीडाएटो संतापना अतिशयथी प्रिय स्त्रीने स्पर्श करवा माफक विश्वास भूमीमां मूर्छाने | पामेलो तेने बहु मानतो तथा कोकडं बली गएलो तथा विषमतानो विषय बनेलो ग्लानीथी पीडाएलो दुःख तलवारथी घवाएलो, | काळे बाथमां लीघेलो, अने पीडाथी पीडाएलो, नियतिए दुर्दशामां मूकेलो दैवे भाग्यहीन बनावेलो छेवटना उच्छवासमां पहोंचेलो महा प्रवासना मुखमां पडेलो दीर्घ निद्राना द्वारमां पडेलो जीवित इश (जम) ना जाग्रे आवेलो, बोलीमां गद गद बनेलो, शरीरमां विछळ बनेलो, प्रलापमा प्रचुर थएलो जृमिका (रोवा) वडे जीताएलो अर्थात् करेलां पापोथी दुर्गतिमां जवानी तैयारी करी रहेलो. छतां | महा मोहना उदयथी सुंदर भोगोनी इच्छावाळो पासे बेठेली भार्या जे पोते पतिना दुःखनी भयंकर वेदनाथी पीडाइने आंखमांथी आंसु पाडती राती आंखोवाली सामे बैठेली छे. तेने कहे छे के हे कुरुमति हे कुरुमति एम वारंवार पोकरवा छतां ( ते स्त्रीना देखताज ) पोते सातमी नारकीए गयो. त्यां पण अतिशय वेदना भोगवतो छतां वेदनाने न गणकारतो ते कुरुमतिने बोलावे छे. आ प्रमाणे भोगोनो प्रेम कोइक जीवो बीजी गतिमां पण तजवो दुर्लभ छे. पण जे उदार सत्ववाला महान् पुरुषो छे. तेमने ते नथी जेमके जेणे आत्माथी शरीर For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ३५५॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् TEASER ॥३५६॥ 15 जु९ जाण्यु छे. एवा सनत्कुमारजेवा तखप्रेमीओने तेवो भयंकर रोग आववा छतां पण (हायपीट करवाने बदले) में पूर्वे पाप कर्या छे. ते हुँ । आचा० भोगq छ. एवो निश्चय करीने कर्म समूहने तजवा तैयार थएलाने (शरीर दुःख छतां पण) मनमां क्लेश थतो नथी. कां छे के " उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, । रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघबीजस्त्वया। ॥३५६॥ रोगैरंकुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं, ! सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः ॥१॥ उत्तम पुरुष पोताना आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा जे मोहरूपी पाणीवालो अने अशुभ जन्मरूपी "आलवाल" (झाडने पाणी पावानो क्यारो) वालो तथा रागद्वेष तथा कषायनो समूह तेना वडे निर्विघ्नपणे मोटुं बीज ते रोप्यु छे तथा ते हवे रोगे करीने अंकुरावालुं थयु छे. विपदाओ तेनां फुलो छे. एवं कर्मरूपी मोटुं झाड तें तैयार कर्यु छे जो हवे तेने सारी रीते सहन नहींकरे तो नीच गतिमां लइ जनार दुःखोए करीने ते फळवाळो थशे (जो तुं तेने लीधे हायपीट करीश तो फरीथी दुःखो भोगवां पडशे.) पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं । न खलु भवति नाशः कर्मणा संचितानाम् ॥ इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग् । सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः? ॥२॥ जो तुं हायपीट करीश तो तारे फरीथी पण दुःखनो पाक भोगववो पडशे. कारणके हायपीटथी बंधायेलां कर्मोनो नाश भोगव्या । विना थशे नही. आ प्रमाणे समजीने जे जे दुःख सुख आवे ते सहन कर. तेज विवेक छे. ते सिवाय बीजो विवेक क्याथी होय 15/ (विवेक लक्षण ए छे के दुःख मुखमां हायपीट न करवी पण संतोपथी रहे.) ब- - RAKESies A For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आचा० सुत्रम् ॥३५७॥ ॥३५७॥ SARA%AAAAACARECIR भोगोनुं मुख्य कारण धन छे, तेथी तेनुं स्वरूपज सूत्रकार कहे छे. तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गड़िए चिट्टइ, भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिहं संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से हरति, रायाणो वा से विलंपंति, नस्सह वा से विणस्सइ वा ते, अगारडाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्स अट्ठाए कुराणि कम्मा णि बाले पकुचमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ (सू० ८३) प्रण प्रकारे एटले मन, वचन, अने कायाथी तेनी पासे जे कंइ मील्कत थोडी अथवा घणी छे. तेमां भोगी गृद्ध थइने रहे छे.15 ते माने छे के-आ मील्कत मारे भविष्यमा भोग भोगवा काम लागशे. तेथी तेनुं रक्षण करवा महान उपकरणो राखे छे. पण जो तेनुं एकळु करेलुं धन कोइपण रीते नाश मामे छे एटले पीतराइयो भाग पडावे, चोरो चोरी करे, राजाओलुंटे, नाश पामे, बळीजाय विगेरेथी पोताने भोगमां न आववाथी इच्छा पुरी न थतां ते घेलो बने छे. अने धनने माटे क्रुर कर्म करतो अज्ञानी जीव तेना दुःख वडे मूढ बने छे. आ वधुं पूर्वे कहेलुं छे, तेथी समजी लेबु. अहीं नथी कहेता आ प्रमाणे दुःखना विपाकवाला भोगोने जाणीने डाया मुनिए शृं करवू ते कहे छे. For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३५८॥ www.kobatirth.org आसं च छन्दं च विचि धीरे ? तुमं चेव तं सलमाहद्ध, जेण सिया तेण नोसिया, इणमेव नाव बुज्झंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पवहिए, ते भो ! वयंति एयाई आययणाई, से दुःखाए मोहाए माराए नरगोए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्मं नाभि जाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्मं संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं (सू० ८४ ) गुरु उत्तम शिष्यने कहे छे के— Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुं भोगोनी आशाओने तथा भोगोना अभिलापोने छोड, धी. (बुद्धि) तेना वडे राजे. ( शोभे ) ते धीर पुरुष जाणवो. तेवा उत्तम शिष्यने गुरुनो उपदेश लागे छे. तेथी कहे छे के हे शिष्य ! भोगमां दुःखज छे. अने तेमां सुखनी प्राप्ति नथी. (मृगतृष्णामां जळ नथी. पण जळनो खांटो आभास छे तेम भोगोमां सुख नथी. ) आ प्रमाणे शिष्यने गुरु समजावे छे. अथवा पोते आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा तुं भोगनी आशा विगेरे शल्यने छोडीने परमशुभ संयम तेनुं सेवन कर. पण भोगोने विसरी जा कारण जे जे पैसा विगेरेना उपायथी भोग उपभोगनी आशा छे तेना वडे मळतो नथी. पटले जेना वडे भोगो मळे तेज धन विगेरेथी कर्मनी परिणति विचित्र होवाथी धार्या करतां उलडं थाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३५८॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् SEX ॥३५९॥ अथवा गुरु महाराज कहे छे के जेना वडे कर्म बंधन थाय ते कृत्य तारे न करवू. एटले पापना काममां न वर्तवू अथवा जेना आचा० वढे राजना उपभोग विगेरेनो कर्म बंध छे, ते न करवं. (एटले संयमथी राज मुख न वांच्छ) अथवा जे साधुपणाथी मोक्ष थाय तेज साधु जो भोगमां पडे तो मोक्षने बदले संसार भ्रमण थाय (माटे साधुए दरेक जग्याए विवेकथी वर्तवू.) ॥३५९॥ आ प्रमाणे अनुभवयी निश्चय करेलु छतां मोहथी हारेला जीवो सत्य वातने समजता नथी. आज हेतुनुं विचित्रपणुं छे के जे पुरुषो तीर्थकर प्रभुना उद्देशयी रहीत छे. तेओनुं मोह तथा अज्ञान बढे अथवा मिथ्यात्वना उदयथी तत्व संबंधी ज्ञान बंधाएलुं छे. में तेओ मोहनीय कर्मना उदयवी मृढ बने छे. अने तेओने स्त्रोओ भोगनुं मुख्य कारण छे, ते बतावे छे. एटले युवान स्वीओना कटाक्ष अंगना चाळा सुंदर देखाव हाथना लटका विगेरेथी आ लोक (संसारी जीव समूह) आशा अने | अभिलापथी हारेला जीवो क्रूर कर्म करीने नरक विपाक फळरूप शल्यने मेळवीने ते दुर्गतिना दुःखरूप फळने विसरीने मोहर्थी ४ सुमति (अंतरात्मा) ने विसरेलो प्रकर्षे करीने पीडाएलो पराजीत बने छे. एटले पोतेज परवश थाय छे. एटलं नहीं पण बीजाओने 4 पण वारंवार खोटो उपदेश आपीने दुर्गतिमां लइ जाय छे. ते मूढो आ प्रमाणे बोले छे. आ स्त्री विगेरे उपभोगने वास्ते आनंदमां # स्थान बनावेलां छे. एना विना शरीरनी स्थिति नज याय अने ते उपदेश तेओना दुःखना माटे थाय छे. एटले तेमना कहेवाप्रमाणे 3 चालनारने पण शरीर तथा मननां दुःखो भोगवां पडे छे. अथवा मोहनीय कर्म बंधाय छ, अथवा ते अज्ञानी बने छे. अने वारंवार टू तेमने मरणनां दुःख थाय छे. नरकमां जर्बु पडे छे, त्यांची नीकळीने तिर्यंच थर्बु पडे छे. आवधानो मूळ कारण स्त्रीमा मोह पामवानुं AE%AC%ा For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६०॥ www.kobatirth.org छे. एटले सर्व भोगोमां मुख्य भोगनुं स्थान आ स्त्री छे. अने तेथीज बधां दुःख छे एम बधी जग्याए संबंध लेबो. आ प्रमाणे खीना हावभावथी तेना अंग जोवामां रसीओ बनेलो उपर कहेली योनी ओमां भमतो छतां आत्माना हितने जाणतो नथी. तथा निरंतर दुःखथी हारीने मूढ बनेलो क्षमा विगेरे दश प्रकारमा लक्षणवाला साधु धर्मने जाणतो नथी. अने ते धर्म दुर्गतिना भ्रमणने रोकनार छे. ते जाणतो नथी. आ तीर्थकरे कहेलुं छे कोणे कछु ? ते कहे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेणे संसारनो भय विसाय ते वीर प्रभुए कयुं छे. हे शिष्यो, तमारे महा मोहमां एटले स्त्रीओना हावभावमां रक्त यनुं नहीं पण सावचेत रहेबुं. तेज महा मोहनुं कारण छे. एटले ते स्त्रीमां जराए पण रागी न थवुं प्रमाद न करवो. आ निपुण बुद्धिवाला शिष्यने माटे आटलं वचन वस छे, वली मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा, ए पांच प्रकारना प्रमादथी तमारे सावचेत रहेनुं का| रणके ते प्रमाद उपर कहेलां दुःखो आपवाने माटेज छे. प्रश्न - शुं आधार लइने प्रमादने छोड़वो ? उत्तर - शांति एटले शमन ते वधा कर्मनो नाश जाणवो ते मोक्ष तेज शांति छे. प्राणीओ वारंवार चार गतिना संसारमां मरण जेना वडे पामे छे, ते संसार छे. ते शांति अने मरण ए बन्नेने विचारीने प्रमाद छोडो. गुरु कहे छे के हे शिष्य, एक बाजु ममादीने वारंवार जन्म मरणनुं दुख छे. अने बीजी बाजु अप्रमादीने जन्म मरणना त्यागरूप अनंतुं सुख छे ए बन्नेने कुशळ बुद्धिवाला शिष्ये विचारीने विषय कषायरूप प्रमादने न करवो. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३६०॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RE ___ अथवा शांतिवडे मरण एटले मरणसुधी जे फळ थाय छे ते विचारीने प्रमाद न करवो. एटले जीवतां सुधी उत्तम पुरुषे | आचा० कोइपण साथे क्लेश न करवो. अने ते क्लेश प्रमादधी थाय छे माटे प्रमाद न करवो. वळी विषय कषाय अने स्वीना विलासरूप जे प्रमाद छे ते शरीरना अंदर रहेलो छे. अने ते शरीर पोतानी मेळे नाश पामनारुं | ॥३६१॥18 छे. तो तेवा नाशवंत शरीरने विचारीने साधुए प्रमाद न करवो. (जे शरीरना माटे प्रयास थाय ते शरीर नाशवंत छे. धन अहीज X॥३६॥ में रहेवानुं छे.) एटले भोगो भोगववा छतां पण तृप्ति थती नथी. तेम भोगो अभिलाषने संतोष पमाडी शकता नथी. माटे हे शिष्य! तारी || * बुद्धिवडे जो के दुःखना कारणवाला प्रमादरूप विषयोनुं भोगवq छे ते तृप्तिने अथवा शांतिने आपता नथी. को छे के “यल्लोके ब्राहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रीयः । नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं कुरु ॥१॥ आ लोकना विषे व्रीहि, जव, सोनु, पशुओ, स्वीओ, विगेरे बधुं पण एक माणसनी तृप्तिना माटे समर्थ नथी ए, समजीने तेनो मोह छोड, आत्माने शान्त कर. उपभोगो पायपरो वांछति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । धावत्याक्रमि तुमसौ, पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम् ॥२॥ उपभोगना उपायमा तत्पर थएलो जे विषय तृष्णाने शान्त करवा इच्छे छे तो फरीथी आंतरे पोतानी छायामां आक्रमण क-12 ४ रवाने ते तृष्णा तैयार रहे छे (एक इच्छा पूरी करीके बीजी तैयारज छे. तृष्णानो अंत कोइ वखत नथी) तेथी भोगना लालचुओने दि तेनी प्राप्तिमां के अप्राप्तिमां दुःखज छे ते बतावे छे. A COCRACTECISISCIENCE For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६२॥ www.kobatirth.org एयं परस मुणी ! महब्भयं नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए जे न निविज्जइ, आयाणा, न मे देइ न कुपिज्जा थोवं लद्धुं न खिंसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा एवं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवासिज्जासि (सू० ८५) ॥ तिमि ॥ गुरु सारा शिष्यने व छे के हे मुनि ! भोगनी आशारूप महा तापथी घेरायेला पुरुषने कामदशानी अवस्थाना मोटा भयने तुं प्रत्यक्ष जो, कामीने डगले डगले बीजानो भय छे. तेथी मोटो भय तेज दुःख छे. अने भोग लंपटोने मरणनुं कारण छे. तेथी ते मोटो भय को, तेथी हे शिष्य ! आ लोक अने परलोकमां भय आपनार भोगोने जाण, तेथी शिष्ये शुं करवुं ते गुरु कहे छे. मातुं ते भोगोथी तारा आत्माने दुर्गतियां न नाखीश, तुं कोइ जीवोने दुःख न आपीश. तेज प्रमाणे बीजा कोइने जुटुं बोली न फसावीश तेम चोरी पण न करीश विगेरे पांचे पापोने त्यजजे. भोगी दूर रहे छे अने जीव हिंसाथी दूर रहे छे. ते महात्माने शुं गुण थाय छे ते बतावे छे. ते भोगोनी आशा अभिलाषा त्यागनार अममादिसाधु पंच महाव्रतना भारथी पोतानो स्कंध नमावेलो अनेक कर्म विदारण करवाथी वीर पुरुष इंद्र विगेरेथी स्तुति कराय छे. प्रश्न – क्या पुरुषनी स्तुति थाय छे ? उत्तर - जे महात्मा आत्माने ग्रहण करवा योग्य तत्वने ग्रहण करे छे एटले वधां घातीकर्म क्षय थवाथी बधी वस्तुनो प्रकाश करनार केवळज्ञान तेने प्रकट थवाथी अन्यावाध सुख मळे छे. ते ज्ञान मळवानुं मुख्य कारण संयमनुं अनुष्ठान छे. तेमां दोष ल For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३६२॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३५३।। SHASHRI गाडतो नथी. अथवा रेतीना कोळीआ खावा मुश्केल छे ते, संयम पाळवं कठण छे छतां पाळे छे. एटले कोइ वखत गोचरी न मळे | आचा०ला तोपण साधु संयमने मूके नहिं तेम मनमां दिनता पण न लावे. ___अथवा आ गृहस्थ पोतानी पासे वस्तु छे छतां मने आपतो नथी. एवं मानीने तेना उपर क्रोध न लावे. परंतु मुनिए एम मा-1 ॥३५३॥ नवु के आ मने अंतराय कर्मनो दोष छे. अनेन मळवाथी तपनो लाभ थशे तेथी मने कांइपण नुकसान नथी. अथवा थोड़ें आपे अथवा तुच्छ खोराक आपे तोपण दान आपनारने निंदे नही. ____ कोइ गृहस्थ ना पाडे तो त्यांथी रीसाया विना खसी जq. एकक्षण मात्र पण हठ लइ उभा न रहे. अथवा दान आपनारी, बाइने कटु वचन न कहेवां जेमके तारा गृहस्थावासने धिक्कार छे ? "दिहाऽसि कसेरुमई! अणुभूयासि कसेरुमइ !। पीयं चिय ते पाणिययं वरि तुह नाम न देसणं ॥१॥" हे उदार बुद्धिवाली स्त्री ! तने जोइ ! हे उदार बुद्धिवाली ! तारो अनुभव कर्यो ! तारं पाणी पीधुंज ! तारुं नाम सारं ! आलिटलं बधुं छतां पण तारुं दर्शन सारं नथी. (आबु साधुए बोलवू नहि.) कदाच ते आपेतो लइने रस्तो पकडवो. पण त्यां उभारहीने नीचा उचा वचन वडे तेनी स्तुति निंदा न करवी. अर्थात् भाटनी 18| माफक तेनां खोटां गीतडां न गावां. आ वधानो सार कहे छे. आ प्रव्रज्याना निर्वेदरूप (शांतिथी) दातार उपर न आपे तो पण कोप न करवो, थोई आपे तो निंदा न करवी. आपे तो ल-8 RECISIS For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इने चालता थ. आमुनिनुं मौन छे एटले मोक्षार्थि साधुनुं आ आचरण छे. तुं पण अनेक भव कोटिने भ्रमण करता अमूल्य एंवा संयमने पामीने सारी रीते पाळजे, आम गुरु शिष्यने समजावे छे. अथवा पोताना आत्माने उपदेश आपे छे. के तुं राग द्वेष न करजे, चोथो उद्देशो समाप्त थयो. (१ हवे पांचमो उद्देशो कहे छे. तेनो आ संबंध छे आ लोकमां भोगोने तजीने संयम देह पाळवाने माटे लोकनी निश्राए विहार करवो जोइए. ते आ उद्देशामां बतावे छे. आ लोकमां संसारथी खेद पामेला भोगना अभिलाष तजेला मोक्षाभिलाषिए पोतानामां गुरुए स्थापन करेला पंच महाव्रत भार वडे निवेद्य अनुष्ठान करनारा सुनिए दीर्घ संयमनी यात्रा माटे देहतुं परिपालन करवा लोकनी निश्राए बिहार करवो जोइए, कारण के आश्रय विना देहनां साधन क्यांथी थाय ? अने देह विना धर्म क्याथी थाय ? कां छे के “धर्मे चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पञ्चापि । राजा गृहपतिरपरः षङ्काया गणशरीरे च ॥१॥” धर्ममा चालनारा साधुने लोकमां पांच निश्रानां पद छे, राजा गृहस्थ छकाय साधु समूह तथा शरीर ए पांच जाणवां वस्त्र, पात्र, अन्न, आसन, शयन, विगेरे साधनो छे. तेमां पण प्रायः निरंतर आहारनो मुख्य उपयोग छे, अने ते आहार गृहस्थ पाथी लेवानो छे. अने गृहस्थो जुदा जुदा उपायो वडे, पोताना पुत्र स्त्री विगेरे माटे आरंभमां प्रवर्तेला छे, तेमने त्यां साधुए संयम देहनी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३६४॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A% A 5 %- व रक्षामाटे निर्वाह करवा जोइती वस्तु शोधवी जोइए. ते बतावे छेआचा० जमिणं विरुवरूवेहि, सत्थेहिं लोगस्स 'कम्मसमारंभा' कजंति, तंजहा-अप्पणो से सूत्रम् पुत्ताणं, धूयाणं सुण्हाणं नाईणं, धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्म ॥३६५॥ ४॥३६५॥ करीणं आएसाए पुढोपहेणाए सामासाए पायरासाए संनिहि संनिचओ कजई, इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए (सू० ८६) । तत्वने जाणनारा पुरुषो मुख मेळववा तथा दुःख छोडवा माटे जुदांजुदां शस्त्रो जे पाणीओने दुःख आपनारां छे, ते द्रव्य अने भावथी चे प्रकारनां बताव्यां छे, तेनावडे पोतानुं शरीर पुत्र दीकरी छोकरानी बहु ज्ञाती विगेरेना निर्वाह माटे कर्मना समारंभो ४ न करे छे, ते बतावे छे. व मुख मेळव, दुःख छोडवू, तेना माटे कायाथी अधिकरणवडे, अथवा द्वेषथी, परिताप उपजाववावडे, अथवा जीवथी शरीर दूर करवावाली पांच पापनी क्रियाओ छे, अथवा खेतीवाडी व्यापार विगेरे कर्मना समारंभो छे, ते लोको करे छे. आसमारंभ शब्द लेवाथी "संरंभ." तथा आरंभ पण जाणी लेवा एटले शरीर अने स्त्री माटे लोको संरंभ समारंभ अने आरंभो करे छे. संरंभर्नु वर्णन-इष्ट प्राप्ति अनिष्ट छोडवू. तेने माटे प्राणातिपात विगेरे, संकल्पनो आवेश जाणवो. AAAACOCON For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् ॥३६६॥ समारंभनुं वर्णन-संकल्प कर्या पछी तेनां साधन भेगां करवां, तथा काया अने वचनना वेपारथी बीजाने परिताप विगेरेना लक्षणवालो छे, आचा० आरंभनुं वर्णन-त्रण दंड (मन वचन काया) ना व्यापारथी मेळवेली तथा उपयोगमा लीधेली जीव हिंसा विगेरेनी क्रिया चालु करवी, ते आरंभ छे, अथवा आठ प्रकारना कर्मना समारंभ, एटले जोइती वस्तुने मेळववाना उपायो करवा ते. ॥३६६॥ सूत्रमा लोक शब्द छे, ते लोक क्यो छे, के जेना बढे आरंभो कराय छे ? ते बतावे छे. आत्मा शरीरथी जोडाएलो हे, ते शरीर निभाववा लोको आरंभ करे छे, तेज प्रमाणे पुत्र दीकरी विगेरे माटे पण आरंभ कराय छे, एटले रसोइ विगेरे बनाववी पडे छे. तेवी रीते चीजा आरंभो पण करवा पडे छे एबुं पूर्वे कझुं छे. प्रश्न-शरीर लोकशब्दना अर्थमां केवीरीने घटे.? उत्तर-तमारूं कहेवू बराबर नथी, कारण के परमार्थ दृष्टिथी जोनाराओने ज्ञान दर्शन चारित्ररूप अत्मतखने छोडीने बाकीनं शरीर विगेरे पण पारकुंज छे, कयुं छे के-वहारना पुद्गळर्नु बनेलं अचेतनरूप कर्मनुं विपाकरूप पांचे शरीरो छे. तेथी शरीर आत्म पण लोक शब्दवडे बताव्यो, तेथी कोइ शरीर माटे पापक्रियाओ करे छे, बीजो कोइ दीकरा दीकरी माटे, तो कोइ दीकरानी बहुने माटे तो कोइ न्यात माटे, तेज प्रमाणे संबंधथी जोडाएलां सगां, धाव माता माटे,राजा माटे दास दासी माटे नोकर नोकरडी माटे आरंभ करे छे, कोइ परोणा माटे करे छे, कोइ जुदा जुदा पुत्र विगेरेने प्रहेणक माटे करे छे, कोइ रात्रिमा खावा रांधे छे. 13 कोइ प्रभातमा खावा रांधे छे, ते आ बधामा कर्म समारंभ छे, वळी विशेष कहे - AAR For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जल्दी नाश पामे तेवी वस्तुओने राखी मुके छे, दहीं भात मेळवी राखे छे, तथा घणो काळ रही शके तेवी वस्तुओनो संचय पण करे छे, ते बाल हरडे, साकर द्राक्ष, बिगेरेने संघरे छे, आ बधुं परिग्रह विगेरे आजीविकाना कारणे छे, अथवा धनधान्य सोनुं विगेरेनो संग्रह करे छे. आ बधुं शा माटे करे छे ते कहे छे: आ लोकमां परमार्थ बुद्धिवाला मुनिओने जमाडवा माटे करे छे, एटले कोइ स्वार्थ माटे, तथा कोइ परमार्थ माटे रात्रिमां, मभातमां के दिवसमा भोजन माटे के, निर्वाह माटे संसारी- पापक्रियाओ करे छे, अने विरूप शस्त्रोवडे बीजां जीवोने पीडा करे छे. आ प्रमाणे लोकनी स्थिति होय; तो, साधुए शुं करवुं ते कहे छे: ease अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी अयंसंधित्ति अदक्खु, से नाईए ना इयावर न समणुजाण, सवामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिवए (सु० ८७) जे साधु सम्यक् रीते निरंतर संयम अनुष्ठानवडे वर्ते छे, ते जुदां जुदां शस्त्रोवडे थती पापक्रियाथी मुक्त थयलो छे, ते मुनिने घर नथी; तेम ममत्त्व पण नथी; तेथी ते अनगार छे, तेम तेने गृहस्थनी माफक दीकरा - दोकरी बहु विगेरेने पण पोषवां नथी. ते अनगार पोते वधां पापकर्मोथी दूर थयेल छे, तेथी ते आर्य छे, तेथी ते चारित्रने पाळवा योग्य छे. वळी जेनी बुद्धि उत्तम छे, ते आर्य प्रज्ञावाळो जाणवो; एटले सूत्र भण्याथी; जेनी बुद्धि परमार्थमां खीलेली छे, तथा न्यायमां मन रहेलुं होवाथी ते न्यायने जुए | तेथी ते आर्यदर्शी छे, एटले ते जुदा “ प्रहेणक ' श्यामा' अशन " ( पूर्वे परोणा विगेरे माटे राते रांध; विगेरे तेनाथी मुक्त ) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३६७॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६८॥ www.kobatirth.org छे, तथा पोते “ असंधि " छे, एटले पोतानां दरेक कार्य योग्यवखते करनारो छे. ज्यारे जे कर होय; ते प्रमाणे करे छे. कपडां जोबां; ध्यान राखवुः सिद्धांत भणत्रो; गोचरी जवृं; प्रतिक्रमण कर. विगेरे दरेक क्रिया एकबीजाने 'बाधा' विना समये समये करे छे, तेज परमार्थने जोनारो जाणवो. तथा ते मुनि “ अदक्खु " छे, एटले जे आर्य छे, आर्यबुद्धिवाको छे. आर्यदर्शी छे, काळने जाणनारो छे, तेज परमार्थने जाणनारो जाणवो. बीजी प्रतिमां सूत्रपाठमां भेद छे, ते, अयं संधिमदक्खु — तेनो अर्थ कहे छेः- पूर्वे बतावेलां उत्तम विशेषणवाळो साधु कर्तव्यकाळने जाणे छे, एटले जे परस्पर हित-अहित मेळव, छोड विगेरे क्रियाने वाधा न करता; प्रथम अवसरने जाणे छे, अने ते प्रमाणे करे छे. ते परमार्थने जाणनारो छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावसंधि - ज्ञान दर्शन अने चारित्र तेनी वृद्धि शरीर विना न थाय, अने शरीरनो निर्वाह आहारना कारण विना न थाय, अने तेमां पण सावद्यनो त्याग करवानो छे. तेथी ते भिक्षुक जे उत्तम साधु छे, ते पोते दोषित आहारने ग्रहण न करे तेम बीजा पासे लेवडावे नहीं, अथवा कोइ लेतो होय तेने अनुमोदे नहीं, अथवा इंगाल दोष, अथवा धुम दोष, न लगाडे, एटले सारा आहारनी स्तुति न करे, तेम खराब आहारनी निंदा पण न करे, तेज प्रमाणे बीजा पासे तेवा दोषो न लागवा दे, तथा तेवा निंदा करनारानी प्रशंसा पण न करे, तथा आम गंधने छोडे पटले अशुद्ध आहार वडे दोष न लगाडको जोइए. शंका- पूति शब्दनो अर्थ अशुद्ध छे, तो आम शब्द शा माटे वापर्यो ? For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥३६८ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मत्रम ॥३६९॥ उत्तर-अशुद्ध ते सामान्य शब्द छे, अने पूति शब्द लेवाथी अहीं आधाकर्म विगेरेनी अशुद्ध कोटि पण बतावी, अने तेनो & आचाल मोटो दोष होवाथी तेनुं प्रधानपणुं बताववा फरी कहुं छे, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे. गंध शब्द लेवाथी (१) आधाकर्म (२) औद्दे शिकत्रिक (३) पूति कर्म (४) मिश्र (५) बादर प्राभृतिका (६) अध्यय पूर्वक एम छ प्रकारना उद्गम दोष अविशुध्ध कोटिनी अंदर ॥३६९॥ रहेला छे, अने बाकीना विशुध्धकोटिमा छे ते आम शब्दवडे बताव्या छे, तथा सूत्रमा सर्व शब्द छे, ते बधा प्रकारोने सूचवे छे, तेथी एम जाणवू के, कोइपण प्रकारे अपरिशुध्ध, अथवा पूति होय; तो, ते दोषित भोजन विगेरे ज्ञ-परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान, परिज्ञावढे निरामगंधवाळो बने; एटले निर्दोष भोजन विगेरे लेनारो वर्ते; बने; तेथी पोते ज्ञान दर्शन-चारित्र नामना मोक्षमार्गमा सारीरीते वर्ते; अने संयम अनुष्ठानने पाळे. ___आम शब्द ग्रहण करवाथी खरीद करेलु साधुने न कल्पे; छतां, अल्पसत्त्ववाळा साधुने ओछं समजाय; तेथी विशुध्धकोटिमां | रहेल व्रतदोष छे, एम जाणीने ते ले, तेवी तेनी वृत्ति, न थाओ; ते माटे फरीथी तेनुं नाम लइने निषेध करे छे.साधु माटे वेचातुं आणेलं; पण साधुए न लेवु ते बतावे छे: अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से एकिणे न किणावए, किणंतं न समणुजाणइ, से भिक्ख कालन्ने बालन्ने मायन्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणुहाई अपडिण्णे (सू०८८) BAKA5%%%AR KARACROBLEM For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IFO लेवू, वेच, ते क्रय-विक्रय छे. ते पोते तेनाथी अदृश्य रहे; अर्थात् पोते साधु माटे खरीद करेली वस्तुने भोगवे नहि; एटले आचा मोक्षवांच्छक साधु कर्म उपकरणोने पण खरीद न करे; बीजा पासे न करावे; तेम खरीद करनारने प्रशंसे पण नहि अथवा नि रामगंधवाळो वनी साधुपणुं पाळे, अहीयां पण आम शब्द ग्रहण करवाथी हननकोटिनी त्रिक छे, तथा गंध ग्रहणवडे पचनत्रिक लेवी%B ॥३७०॥ तथा क्रयणकोटित्रिक ते पोतानां स्वरूप बतावनारा शब्दवडे लीधी छे, एथी नवकोटि परिशुद्ध आहारने अंगार धूमदोषरहित साधु 'भोजन' करे अथवा वस्तुने भोगवे. ए गुणथी उत्तम साधु केवो होय ते कहे छे, ते भिक्षुक (साधु) समयनो जाण होय छे. तथा बळने जाणनारो छे, एटले पो• नानी शरीरशक्ति विचारीने ते प्रमाणे धर्मक्रिया करे छे, पण बळने छुपाची राखतो नथी, करवाना काममा प्रमाद करतो नथी, तथा पोताने केटली वस्तु जोइशे, तेने जाणनारो छे, ते “मात्रज्ञ" कहेवाय छे. तथा 'खेद' ते अभ्यास तेनावडे जाणनारो छे. | अथवा खेद एटले 'श्रम' के, संसारना भ्रमणमां आटलुं दुःख छे, तेने जाणे छे. का छे के "जरामरणदोर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धोरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम्" ॥१॥ जरा (बुढापो) मरण, दुर्गति, रोग, आ मोटी पीडा 'तो' 'दूर' रहो, पण धीर पुरुषने विचारतां मालुम पडशे के, जन्म वारे है IPवारे लेबो, ते जन्म वखतनी अवस्था पण निंदनीक छे, एबुं हुं मानु छु. अथवा क्षेत्रज्ञ शब्द लइए तो संसक्त (रागर्नु कारण) विरुद्ध द्रव्य, परिहार्य, (तजवा योग्य) कुळ विगेरे क्षेत्रनुं स्वरूप जाणनारो R-61-62-24x SALAAAAAA-RACT For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् CAT ॥३७१॥ एटले आ जग्याए जवाथी राग थशे, आ जग्याए जवाथी द्वेष थशे, अमुक जग्याएथी अमुक वस्तु मळशे, आवा भ्रष्ट क्षेत्रमा गोचरी आचाललेवा योग्य नथी. विगेरे स्थिति जाणनार तथा "खण यन्न" एटले क्षण (अवसर) एटले अमुक वखते गोचरी जवू ते जाणनारी मुनि होय छे, तथा ज्ञान दर्शन चारित्रने योग्य रीते पाळवां, ते 'विनय' हे, तेने जाणनारो छे. तथा जैन तथा अन्य मतोना तखने ॥३७१॥ जाणनारोछे. एटले पोताना सिद्धांतनो जाण होवाथी गोचरी विगेरेमा गएलो सुखेथी गोचरीना दोषोने जाणे छे. ते दोषो नीचे मुजब छे. सोन्ट उद्गम दोषो कहे छे१ आधाकर्मी (साधुना माटे रांधेल) २ औद्देशिक (अमुक मुनि माटे अमुक भोजन बनावेलु) रु पूतिकर्म (निर्दोष अन्नने आधा कर्म साथे मेळवई) ४ मिश्र (साधु तथा पोताना माटे भेगु बनावेलु) ५ स्थापना [साधुना माटे राखी मुकेलं] ६ प्राभृतिका [साधुना माटे वहेलं मोडुं कार्य करवं] ७ प्रकाशकरणं [अंधारमाथी अजवाळे बहार लावे. अथवा दीवी विगेरे करे ने. ८ क्रीत [वेचातुं ४ लावेळु.] ९ उद्यतक [उधारे लावीने आपq ते.] १० परिवर्तित बदली करीने लावे ते. ११ अभ्याहृत (सामे लावीने आपq.) / १२ उद् भिन्न (लाख विगेरे शील तोडीने आपबु.) १३ मालापहृत (उपरथी नीचे लावीने आप.) १४ अछेद्य (जोर जुलम करी वीजा पासेथी लइने आपy) १५ अनिसृष्ट [घणाओनी भेगी रसोइमांथी वगर ग्जाए एक माणस आपे ते.] १६ अध्यव पूर्वक सा5 धुने आवता जाणीने तेमना माटे पूर्व रंधाता अनाजमां थोडु उमेरे ते.] आ उपरना सोळ दोषो वोहोरावनार तरफथी साधुने लागे छे. सोळ उत्पाद दोषो कहे हे २% ACI For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥३७२॥ RECE% A5% १ धात्रीपिंड. [गृहस्थना छोकराने रमाडीने साधु ले ते.] २ दूतीपिंड-परदेशना समाचार आपीने गोजरी ले ते. ३ निमित्त-12 पिंड [ज्यीतिषथी समजावी गोचरी ले.] ४ आजीवपिंड (पोतानो पहेलांनी अवस्था बतावी गोचरी ले ते.) ५ वनीपकपिंड (जैनेतर सूत्रम् पासे तेनो गुरु बनी गोचरी ले ते.) ६ चिकित्सापिंड (दवा करीने गोचरी ले ते.) ७ क्रोधपिंड (धमकावीने गोचरी ले ते.) ८ मानपिंड (पोतानी उंच जाति विगेरे बताबीने गोचरी ले ते.) ९ मायापिंड (वेष बदलीने गोचरी ले ते.) १० लोभपिंड (स्वादिष्ट भो- P३७२॥ जन माटे वारंवार ते जग्याए गोचरी लेवा जाय ते.) ११ पूर्व स्तवपिंड (पहेलांना सगपणनो परिचय करावबो) १२ पश्चात् संस्तवपिंड (तेना संबंधीना गुण गाइने गोचरी ले ते.) १३ विद्यापिंड छोकरा भणावीने गोचरी ले ते. १४ मंत्रपिंड कामण टुमणना मंत्र बतावीने गोचरी लेवी ते. १५ चुर्णयोगपिंड-वास क्षेप विगेरे मंत्री आपीने गोचरी ले ते. १६ मूळ कर्मपिंड-गर्भ रहेवा संबंधी उपाय विगेरे बतावीने गोचरीले ते. आ उपरना सोळ दोषो गोचरी लेनार साधुने पोताने लीधे थाय छे. दश एषणा दोषो आपनार लेनारना भेगा थवाथी बने ते कहे छे. १ शंकित-अशुद्ध आहारनी शंका छतां लेबु ते २ प्रक्षित-अशुद्ध वस्तुथी खरडाएला हाथे ले, ते. ३ निक्षिप्त-सचित्त वस्तुमां पडेली अचित्त वस्तु मुकेली लेवी ते. ४ पिहित-अचित्त वस्तु उपर सचित्त वस्तु ढांकेली होय ते अचित्त वस्तु ले तो तेनो पण दोष लागे ५ संहत-बीजा वासणमां नाखीने आपे ते. ६ दायक-आपनारने भान न होय ते ले ते.७ मिश्र-सचित्तमां अचित्त वस्तु मेळवीने आपे ते. ८ अपरिणत-अचित्त थया विनानी वस्तु आपे ते. ९ लिप्त लीट-बळखा विगेरे गंदा हाथथी आपेते.१० ऊज्झित HARSICA-AAS For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie छांटा पाडती आपे ते. उपरना दश दोषो लेनार तथा आपनार, बन्नेना-मेगा थाय छे. आचा०ला । पर समयज्ञ होवाथी ऊनाळाना बपोरे खरा तडकाना तापमां तपेला सूरजथी परसेवाना 'बिंदु टपकता साधुना मेला शरीरने ट। जोइ कोइ अन्य गृहस्थे पूछ्यु के, भाइ तमारामां बधा माणसोए उचित्त मानेलं स्नान शामाटे नथी करता ? त्यारे साधुए जवाब में ॥३७३॥ आप्यो के, हे बंधु ! सर्व साधुओने जळनुं स्नान छे. ते काम 'स्त्रीनो अभिलाष' तेनुं एक अंग छे. तेथी निषेध कयों छे ते सांभळोः-४ ॥३७३॥ “स्नानं मददर्पकरं, कामा प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥१॥ ___ स्नान मदनो दर्प करावनार छे, तथा कामनुं पहेलं अंग छे. माटे कामने छोडनारा ब्रह्मचारी, अने दमनमां रक्त थयेला छे तेओ स्नान करता नथी. आ प्रमाणे स्व अने परसिद्धांतने जाणनारो परने उत्तर आपवामां कुशळ होय छे, तथा भावज्ञ एटले,चितना अभिप्रायने जाणनारो छे के आ 'दान' आपनार के, व्याख्यान सांभळनारनो आवो अभिप्राय छे. वळी परिग्रह ते, संयममा जोइतां ऊपकरणर्थी वधारे छे, ते न ले, अने लेवानी पण मनमा इच्छा न राखे; तेवा साधु काळज्ञ, बळज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, खेदज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, भावज्ञ; होय ते परिग्रहने ग्रहण न करतो योग्यसमये योग्यक्रियानो करनारो बने छे. शंका-पूर्वे 'कालज्ञ' शब्दमां ते वात आवी छे, अने अहीं फरीथी केम कहो छो ? उत्तरः-त्यां ज्ञपरिज्ञावडे जाणवानुं छे, अने अहींयां कर्तव्य करवानुं छे.. वळी कोइपण जातनुं नियाj न करे; ते अप्रतिज्ञ छे. जेमके, क्रोधना कारणे स्कंदक आचार्ये पोताना शिष्योने घाणीमां पीलेला -24 8560 For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचा०४ सूत्रम् ॥३७॥ ॥३७॥ जोइने प्रतिज्ञा करी के, जो मारुं 'तप-तेन' होय; तो, चीजा भवमां लश्कर, वाहन, राजधानीसहित पुरोहित, जेणे मने दुःस्त्र दीधुं छे, ते बधानो नाश करीश. ते प्रमाणे पाछळथी देवता थइने नाश कर्यो, तेज प्रमाणे मानना उदयथी बाहुबळीए प्रतिज्ञा करी के प्रथम दिक्षा लीधेला नाना भाइओने हुं केवीरीते नमस्कार करूं. कारण के तेओ केवळज्ञानी थया छे, अने हुं छदमस्थ ज्ञानवाळो | छ. तेज प्रमाणे कपटना उदयथी मल्लिस्वामीना जीवे पूर्व भवमां वधारे उंचं पद लेवा बीजा मित्र साधुओने ठगवा माटे कयु हतुं एटले पेला मित्रोने खबडावीने पोते उपवास करेल हता ते, तथा लोभना उदयथी परमार्थ न जाणनारा वर्तमाननो लाभ जोनार यतिनो वेश राखनारा मास क्षपण (महीना महीनाना उपवास) करनारा छतां प्रतिज्ञा (नियाj) करे छे, (अर्थात् क्रोध, मान, मायाना लोभथी चारित्र भ्रष्ट न करवं. ते वताव्युं छे.) ___ अथवा वसुदेव माफक संयमर्नु अनुष्ठान करतो नियाj न करे के हुँ आवता भवमां आवा भोग भोगवनारो थाउं अथवा गोचरी विगेरेमा गएलो एवी प्रतिज्ञा न करे के मने आवीज गोचरी मळवी जोइए, अथवा जैन मतमा स्याद्वाद प्रधान होवाथी जिन वचनमा एकांत पक्ष ग्रहण न करे, ते अप्रतिज्ञ जाणवो, जेम के मैथुन विषय छोडीने कोइपण जग्याए कोइपण नियमवाली प्रतिज्ञा न करवी जेथी कड्यं छे केः"न य किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोनुं मेहणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥" निनेश्वरे कंइपण कल्पनीयनी आज्ञा आपी नथी. अने कारण वडे कोइपण जातनो निषेध पण कर्यो नथी; पण तीर्थकरोनी आ RXSASIES For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie निश्चय वहेवार 'वे' नयने आश्रयी सम्यक् आज्ञा मानवी के ज्ञानादि आलंबन 'ना' कार्यमा सत्यवडे सारां स्वभाववाळा साधुए थर्बु ४ आचा० लिं पण कपटथी कंइपण खोटो आश्रय न लेवो.. सुत्रम न तात्वीकज्ञान विगेरेना आलंबननी सिद्धिथीज मोक्षमार्गनी सिदिवाळा बाह्य अनुष्ठाननी सिदि छे, कारणके, बाह्याअनुष्ठानमां अ॥३७५॥ नेकांतवाद, अने अत्यंतिपणुं न होवाथी समजवु. आज प्रमाणे करवाथी द्रव्यत्वनी सिद्धि थाय छे, अथवा सत्य नाम संयमनुं छे, ४॥३७५॥ तेनावडे कार्य उत्पन्न थतां तेम नेम वर्तवू, अने नेनुं उत्सर्पण (वधq.) पण शक्तिने छुपाच्या विना निर्वाह करवो. अर्थात् शक्ति प्रमाणे संयम पाळवामां उद्यम करवो. आना संबंधमा वृहत्भाष्यकार कहे छे:"कजं नाणादीयं सच्चं पुण होइ संजमा णियमा । जह जह सोहेइ चरणं, तह तह कायवयं होई ॥१॥" ज्ञानादि कार्य ते सत्य ते; संयम छे, माटे जेम जेम चरण (चारित्र) निर्मळ रहे; तेम वर्तन करवू. ( उपर बतावेल टीकानां टीपणमां लीधुं छे,) पण टीकानी गाथानो अर्थ नीचे मुजब छे. जिनेश्वरे मैथुन (स्त्रीसंग ) छोडीने चाकीनुं जे कइ कर्तव्य छे, तेमां कोइपण वातनी एकांत आज्ञा करवानी आपी नथी; तेम न करवानो निषेध पण कर्यो नथी. एटले साधु शुद्ध बुद्धिए ज्ञानदर्शन-चारित्रनी वृद्धि माटे उपदेश आपे; अने पोते बर्ते. फक्त रागद्वेष विना स्त्रीसंग थाय नही; माटे | तेनोज निषेध कर्यो छे. हैदोसा जेण निरुज्झति जेण जिज्झंति पुवकम्माई । सो सो मुख्खोवाओ. रोगावत्थासुं समणं व ॥२॥" For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेनावडे दोषो दूर थाय अथवा न थाय; अने जेनावडे पूर्वनां कर्म क्षय याय; ते ते मोक्षनो उपाय, एटले अनुष्ठान साधुए आचा० करवा. जेमके रोगमा चित्त औषध आपवावडे, तथा पथ्य-भोजनवडे रोगनी शांति करे छे, तेज प्रमाणे साधुए उत्सर्ग-अपवादने आचरवां; पण रागद्वेष न करवा अने कर्मों खपावां. सूत्रम् ॥३७६॥ वळी कोइ वखत, तेज औषध उपयोगी होय छे, तेम कोइ वखत, अन्उपयोगी पण छे, तेथी जरुर पडता अपाय तेज प्रमाणे || साधुनां अनुष्ठानमां पण समजवानुं छे. नीचे टोपणमा लख्यु छे केः3" उत्पद्यते हि साऽवस्था, देशकालामयान प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात कर्मकार्य च वर्जये ॥१॥" F ते अवस्था देशकाळना रोगप्रत्ये छे. के जेमां, अकार्य ते कार्य थाय; अने कार्य ते अकार्य थाय; माटे देश, अने काळ विचारी रोगने वैये औषध आप. "जे जत्तिया उ हेउ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे । गणणाइया लोया दुण्हवि पुण्णा भवे तुल्ला ॥३॥18 जेटला हेतुओ भ्रमणना छे, तेटलाज हेतुओ मोक्षना पण छे, अने ते गणत्रीए गणाय तेवा नथी; पण बन्ने बराबर छे. आ बधानो ल परमार्थ ए छे के साधुए रागद्वेष कर्या विना पोतानी शक्तिने अनुसार एकांत न पकडतां ज्ञानदर्शन-चारित्र्यनी आराधना करवी.. ___उपर प्रमाणे "अयंसंधि" त्यांथी लइने "काले अणुट्टाइ" सुधी अगीआर पिंडेषणा बतावी छे. आ प्रमाणे होय तो प्रश्न थाय छे, अप्रतिज्ञावाळो आ सूत्रबडे एम सिद्ध थयुं के कोइए क्यांय पण प्रतिज्ञा न करवी, त्यारे शास्त्रमा आवे छे के जुदा जुदा अभि For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun yanmandie आचा० सूत्रम् ॥३७७॥ ॥३७७॥ ग्रहो करवा तेथी शुं समजवू ? आचार्यनो उत्तर-सूत्रमा आपेल छ केदुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं, उग्गहणं च कडासणं एएसु चेव जाणिजा (सू०८९) ____ राग अने द्वेष वडे जे प्रतिज्ञा थाय छे, तेने छेदीने निश्चयथी जे करे ते नियाति एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, नामनोज मोक्ष । मार्ग छे, तेमां अथवा संयम अनुष्ठानमां अथवा भिक्षादिमां प्रतिज्ञा करे, एटले राग द्वेष विनानी प्रतिज्ञा गुणवाली छे. अने राग वेशवाली प्रतिज्ञा दुःखदाइ छे, हवे ते साधु उपरना गुणवालो राग द्वेपने छेदीने शुं करे ते कहे छे. पोते जोइतां वस्त्र, पात्र, । कंबल, पादपुंछन विगेरे निर्दोष जाणीने ले, तेनी विधि बतावे छे. पूर्व कह्या मुजब जे गृहस्थो पोताना पुत्र विगेरे माटे आरंभमां वर्तेला छे. तथा पोताने जोइती वस्तुनो संग्रह करनारा छे, तेमने र ४ त्यां जइ लेवा योग्य वस्तुनी तपास करे एटले शुद्ध ने ले. अने दोषितने छोडी दे ते केवी रीते जाणे ते कहे छे. वस्त्र शब्द लेवाची वस्त्र ती एपणा (शुदि) बतावी अने पात्र शब्द लेवाथी पातरांनी शुद्धि बतावी. कंबल शब्दथी आविक पातरानो नियोग गुच्छा विगेरे वताव्या, तथा सवार सांज के रातना कारण विशेषे खुल्लामां नीकळवू पडे. तो ओढवानी कामळ पण सूचवी तेज प्रमाणे पाद पुंछन ते रजोहरण (ओघो) जाणवो, आ सूत्रोथी ओघ उपधि अने उपग्रहीक उपधि बतावी तेज प्रमाणे वस्त्र | एषणा तथा पात्रेषणा पण सूचवी. For Private and Personal use only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३७८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवग्रह कहे छे जेनी आज्ञा लड्ने क्षेत्रमां फराय; ते अवग्रह छे. ते पांच प्रकारे छे. (१) इंद्रनो अवग्रह (२) राजानो अवग्रह (३) गामना मा| लीक पटेल विगेरेनो अवग्रह (४) घरवालानो अवग्रह ( ५ ) प्रथम उतरेला साधुनो अवग्रह आ प्रमाणे अवग्रहनी बधी प्रतिमाओ सूचवी; तेथी तेनुं पण समर्थन कर्यु, अने अवग्रहना कल्पतुं वर्णन आ सूत्रमां कहे छे कटासण कहे छे- कट शब्दथी संथारो जाणवो. अने आसन शब्दथी आसंदक विगेरे बेसवानां आसन जाणवां, जेनामां बेसाय ते आसन छे. अने तेज शय्या छे. तेथी आसन शब्दथी शय्या पण जाणवी, तेनुं स्वरूप कं. उपर बतावेल साधुने उपयोगी सर्व वस्तु वस्त्र वि| गेरे तथा आहार विगेरे आरंभ करनारा ग्रहस्थ पासेथी मळता जाणवा अने तेमां आमगंध ( दोषित) छोडीने निर्दोष जेम मले तेम वर्ते । प्रश्न--आवीरीते गृहस्थोने त्यां जतां जे मले, ते ले के तेनी कंइ हद छे ? ते बतावे छे. लद्धे आहारे अणगारो मायं जाणिजा, से जहेयं भगवया पवेईये लाभुत्ति न मजिज्जा अ लाभुति न सोइजा, बहुपि लहुं न निहे, परिग्गहाओं अप्पाणं अवसक्किजा (सू० ९०) साधुने आहार मलतां विचारे के हुं लइश, तो पछी मारे खातर नवो आरंभ गृहस्थने करवो पडशे के नही तेतुं विचारीने ले, के जेथी नवो आरंभ न करवो पडे; तेवीजरीते वस्त्र औषध विगेरेमां पण जाणी लेवुं; तथा नवो आरंभ न करवो पढे; पण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३७८॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३७९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोताने वधारे पण न आवे; ते ध्यानमा राखीने ले, आ हुं मारी बुद्धिथी नथी कहेतो; परंतु जिनेश्वरे आ उद्देशाथी मांडीने हवेपछीनुं बधुंए बतावे छे ते कहे छे: ते जिनेश्वर चोत्रीस अतिशययुक्त केवळ ज्ञानीए अर्धमागधी भाषामां कहुँ छे, अने बधी भाषावाळाजाणे, तेवा शब्दोमां देवतामनुष्यनी सभामां कं. आवुं सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे: तथा वस्तु मळतां मने वस्त्र-आहारनो लाभ थयो. हुं लब्धिमान छं, एवो अहंकार न करेः तेम याचवा छतां मळे तो, दीन पण बने; एटले वस्तु न मळतां खेद न करे के, मने धिकार छे ! हुं मंदभागी छु ! के, सर्वने सर्व वस्तु आपनार दातार होवा छतां, मने नथी मळतुं. तेथी साधुए लाभ अलाभमां मध्यस्थपणुं राखवं. कां छे के:-- “लभ्यते लभ्यते साधु, साधुरेव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिर्लब्धे तु प्राणधारणम् ॥ १ ॥” मळे तो सारं, अनेन मळे तोपण सारूं. कारण के, न मळेतो, न भोगववाथी तपश्यानो लाभ थशे अने मळवाथी माणनुं धारण थशे. आप्रमाणे पिंडपात्र, वस्त्रोनी एषणा बतावी छे" हवे वधारे न संघरे ते कहे छे. घणुं मळे तो मोह न करे; अने वधारे लइने राखी न मुके; एटले थोडो पण संग्रह न करे. जेम आहार बधारे न ले, तेम संयम ऊपकरण करतां वधारे वस्त्रपात्र विगेरे न ले, ते सूत्रमां कनुं छे के:-- For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३७९॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिग्रह कहे छेधर्मऊपकरणथी जेटलं वधारे उपकरण लेवू, ते परिग्रह छे. माटे वधारे मळतुं न ले, अथवा संयम उपकरणमां पण मूर्छा क-14] आचाका सूत्रम् 1 रवाथी परिग्रह छे. कडु छे के:॥३८०॥ (तत्वार्थ 'भ. ८.मू.) मूर्छा परिग्रह छे, तेथी वधारे मळतुं छोडीने जोइतां लीधेलां ऊपकरणमां पण मूळ न करे. ॥३८०॥ शंका-जे कंइ धर्मऊपकरण विगेरेनो परिग्रह छे, ते पण चित्तनी मलीनता (राग) शिवाय थतो नथी कयुं छे के-पोताने उपकार करनारमा राग थाय; तो उपघात करनार उपर द्वेष पण थाय; तेथी परिग्रह राखतां रागद्वेष नजीक आवे छे, अने नेनाथी कर्म बंध थाय छे, माटे तमो कहो छो के, धर्मऊपकरण परिग्रह नहीं; ते केवीरीते मानीए ? कयुं छे के: "ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, । कृतान्त मुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः॥ यशः 'खुख' पिपासितैरयमसावनोंत्तरैः, । परैरपसदः कुतोऽपि, कथमप्यपाकृष्यते ॥१॥" आ मारुं एवो ज्यां सुधी अभिमानरूप, दाहज्वर रहेलो छे, त्यांसुधी जमना मुखमां जवानुं छे तेम त्यां सुधी शांति पण | | नथी तेम उन्नति पण नथी. माटे जस अने सुखना बांच्छकोए परिणामे आ अनर्थ छे एम जाणे छे, तेथी ते उत्तम पुरुषोए आ ममताना दुर्गुणने कोइपण रीते गमे त्यांथी खेंची काढवो जोइए. CREASESEXSASEX CAGAR For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३८१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य उत्तर- वो दोष नधी, कारण के धर्मउपकरणमां साधुओने आमारुं छे, एवो परिग्रहनो आग्रह नथी. एज शास्त्रमां कहां छेके, "अवि अपणोऽवि देहमि, नायरंति ममाइॐ" जे मुनिओने पोताना शरीरमां पण ममत्व नथी, ते बीजामां ममत्व केवी रीते करे ? (न करे.) जे अहींआं कर्मबंधना माटे लेवाय तेज परिग्रह छे, पण जेनावी कर्मनी निर्जरा थाय (कर्म ओछां थाय) ते परिगृहज नथी, (साधुनो लेप करवाथी पूर्वना तेल विगेरेना लेपमां बधारो थतो नथी, पण तेलने खाइ वस्त्र साफ बनावे छे. तेवी रीते जोइतुं उपकरण संयमनी रक्षा करे छे.) कहां छे के अन्ना णं पासए परिहरिजा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि ॥ आ प्रकारे देखतो बनीने (विचार पूर्वक) परिग्रह छोडे जेम गृहस्थो तत्व जाण्या विना आ लोकना मुखना माटे परिग्रह - घरवा जुए छे, पण साधुओ तेम करता नथी, तेनो आशय आ छे. आचार्यने आश्रयी आ वधारानुं उपकरण छे पण मारुं नथी, मां रागद्वेषमूळ छे; ते परिग्रहनां आग्रहनो योग अर्ही निषेधवो परंतु धर्म उपकरणनो निषेध न करवो, तेना बिना संसार - मुद्रथी पार जवाय नहीं. कछु ले के साध्यं यथा कथञ्चित् स्वल्पं कार्य महञ्च न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं, पारं गन्तुं समुद्रस्य ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३८१ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुत्रम् ॥३८॥ ३८२॥ कोइ नानुं कार्य गमे तेम साधी लेवाय, पण मोटुं कार्य तेम सिद्ध न थाय. कदाच नानुं खाबोच्यु कुदीने जवाय पण नाव विना समुद्रनी पार जबुं शक्य नथी. जेओ धर्मोपकरणने पण परिग्रह माने छे, तेवा दिगंबर बंधुओ माटे आ संबंधमां मतभेद छ, तेथी अविवक्षित अर्थने तीर्थकरना अभिप्रायने अनुसारे साधवानी इच्छार्थी कहे छे, के “ एसमग्गे " मूळ सूत्रमा बताव्या प्रमाणे आ धर्मोपकरण परिग्रहने माटे नथी, एवु पूर्वे कयुं, ते मार्ग तीर्थंकरोए कह्यो छे, कारण के सर्व पापरूप "हेय" धर्मथी जेओ दर छे. ते आर्यो, तीर्थकरो, छे, पण जेओ धर्मोपकरणने इच्छता नथी. तेवाओए पण कुंडिका, तट्टिका लंबणिका अश्ववाळधि, विगेरे ४ इच्छानुसार उपकरण राखबानो मार्ग पोतानी मेळे शोधी काढ्यो छे, तेम अमारा उपकरणो नथी. (वर्तमानमा श्वेतांबर साधुओ पासे रजोहरण मुहपत्ति विगेरे धर्मोपकरणो छे, त्यारे दिगंबर साधुओ पासे मोरनी पीछीनुं उ- पकरण विगेरे छे, अने टीकाकारना समयमां ते वखते दिगंबर साधुओ जेम करता हशे. तेने उद्देशीने लख्यु छे, खरीरीते ते चर्चा | करवा करतां परमार्थद्रष्टिए जोनारा बन्ने पक्षना साधुओ रागद्वेष रहित बनी जे भविष्यमा अने वर्तमानमां वधारे लाभदायी याय 8 | तेवां धर्मोपकरण वापरी संयमनो निर्वाह करे अने सम्यक्ज्ञान दर्शन चारित्रनी आराधना करे.) अथवा उपरनी चर्चा बौद्ध मतना मौगलि तथा स्वाति पुत्र ए बमेथी बौद्ध मतनुं जे मंतव्य छे. तेने आश्रयी कहे छे. तेज प्रमाणे धर्मोपकरण कोइ खंडन करतो होय. तो तेमने पण ते प्रमाणे समजाववा. कारण के जिनेश्वरे परोपकारना माटे रागद्वेष रहित थइने जे कडं छे. तेना बहु मानना माटे आटलं लखवू पडद्यु. अने For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1132311 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेटला माटेज आ जिनेश्वरना कहेला मार्गमांज उत्तम साधुए उद्यमबाला थनुं, तेज सूत्रमां कहे छे के आ कर्मभूमी छे. जेमां मोक्षना झाडना बीज समान सोधी ( सम्यक्त्व) तथा सर्व संवर रूप चारित्र पामीने कर्ममां जेम लेप न थाय, नवां कर्म न बंधाय तेम आ उत्तम मार्गमां वर्त्तनुं, ते विदित वेद्य (पंडित) जाणवो, जो ते मार्ग उलंघीने बतावेलां धर्म अनुष्ठान न करे तो कर्मनो बंध थाय. तेथी आ सत्पुरुषोनो मार्ग छे तेथी पोते चारित्र लेतां प्रथम सर्व जीवने समाधि आपवारूप प्रतिज्ञा करी हे, ते छेवटनो उच्छवास लेता सुधी पाळवी जोइए. कल छे के: “लक्षां गुणौघजननीं जननोमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनु वर्त्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति; सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ १॥ * गुणना समूहनी माता तथा अत्यंत शुद्ध हृदय बनावनारी जे लज्जा छे, तेने श्रेष्ठ माता माफक मानीने तेनी पाछळ चालनारा | तेजस्वी पुरुषो (साधुओ) सुखे करीने पोताना प्राण पण त्यजे छे, परंतु सत्य स्थितिने चाहनारा तेओ पोतानी प्रतिज्ञानो भंग करता नथा. आप्रमाणे स्वामी जंत्रस्वामीने कहे छे के: में उपर प्रमाणे जे कधुं ते महावीरप्रभुनां चरणसेवन करतां सांभळ् छे, ते तने कहां छे, माटे परिग्रहथी आत्माने दुर कर; एवं जे कधुं छे, ते संसारी-वासनाना उच्छेद विना न थाय; अने ते संसारी-वासना पांच प्रकारना इन्द्रियोना विषयरसने अनुसरनारा अभिलाषो छे, अने ते तजवा मुश्केल छे. तेथी कहे छे के:-- कामा दुरतिकमा, जीवियं दुष्पडिवूहगं, । कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयड़ जूरइ तिप्पड़ परितप्पड़ For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥३८३॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रम् ॥३८४॥ काम कहे छे:आचार कामना बे भेद छे. (१) इच्छाकाम, (२ मदनकाम, तेमां, मोहनीयकर्मनाभेद हास्य (हांसी.) रतिथी उत्पन्न थयेल इच्छाकाम & | छे, अने मोहनीयकर्मना वेदना उदयथी मदनकाम छे. ते बन्ने प्रकारना कामोर्नु मूळ मोहनीयकर्म छे, तेना सद्भावमा कामनो उ॥३८४॥5 च्छेद करवो मुश्केल छे, एटले तेनो विनाश करवो दुर्लभ छे, तेथी मुनिने एम समजाव्युं के, तारे प्रमाद न करवो, आ काममा प्रमाद न करवो; पण जीवितमा प्रमाद न करवो. कारणके, क्षण क्षण जे ओछी थाय छे, ते वृद्धि पामवानी नथी; अथवा संयमजीवितनो संसारीवासनामां पडतां दुःखेकरीने निर्वाह थाय छे. अर्थात् संयम पाळवो मुश्केल थाय छे. कथु छे केः __ "अगासे गंगसोउव, पडिसोउन दुत्तरो। बाहाहि चेव गंभीरो, तरिअवो महोअही ॥१॥ आकाशमां गंगा नदीनो प्रवाह छे, तेने सामे जइने तरवु मुश्केल छ; अथवा महासागर हाथवडे तरवो मुश्केल छे. बालुगाकवलो चेव, निरासाए हु संजमो । जवा लोहमया चेव, चावेयवा सुदुक्कर ॥२॥" वेळ (रेती) ना कोळीआ मुश्केल है. तेज प्रमाणे इन्द्रियोनो कोइपण जातनो स्वाद जेमां नथी; तेवु संयम पाळबु घणुं मुश्केल छे, अथवा लोढाना बनावेला जव चाक्वा मुश्केल छे. तेवु संयम पाळवं मुश्केल छे. P आ अभिप्राय प्रमाणे अभिलाष तजवा मुश्केल छे, ते बताव्या छतां वधारे खुलासा माटे कहे छे. कामकामी एटले, इंद्रिय विषयुरसनो लालचु जीव जे छे, ते शरीर, अने मन संबंधी घणा दुःखोने भोगवशे ते बतावे छे. For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् एटले इच्छीत वस्तु न मळतां, अथवा तेनो वियोग थतां तेनो शोक करीने जेम ताव चढेलो घेलो माणस बके थे, तेम पोते ४ आचा० पोक मूकीने रडे छे. “गते प्रेमाबन्धे प्रणयबहुमाने च गलिते । निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुरः॥ ॥३८५॥ तमुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि ? गतांस्तांश्च दिवसान, न जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्न हृदयम् ? ॥१॥" प्रेमनुं बंधन नाश पामतां, अथवा प्रणय (वहांला) नुं बहु मान ओछु थतां अथवा सद्भाव ओछो थता जतो रहेतां प्रेम, मादणसमां माणसनी माफक आगळ जाय छे, तेने जोइ जोइने कोइ स्त्री पोतानी सखीने कहे छे के:-हे सखी ! ते गयेला दिवसोने ज्यारे याद करूं छु, त्यारे हुँ नथी जाणती के क्यो हेतु मने सो प्रकारे दुःख आपे छे ? पण, ते मारु हृदय भेदतो नथी. (आ 8/ विलाप प्रेमी स्त्रीपुरुषांना वियोगमां अथवा, बन्नेने कंइपण कारणे भेद पडतां, वीरही बनेलो पोतानां हेतस्वी आगळ पूर्वनां सुखो याद करीने कहे छे): तेज नमाणे पोते हृदयथी झुरे छे. "प्रथम तरमदं चिन्तनीयं तवासी-बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन ॥ हृतहृदय ! निराश! क्लीव ! संतप्यसे किं । न हि जगततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते ॥१॥" हे हृदय (पहेलं आ तारे चिंतवQ जोइए के, तारो प्रेमीजन प्रेम करीने छुटो पडी गयो छे ! हे हृदय ! हे आशारहित ! हे न ASSICALCULASSESDA ऊऊऊऊलकर For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३८६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुंषक ! तुं हवे शामाटे खेद करे छे ! पाणी गया पछी पाळो बांधवी नकामी छे. (पोते पोतानां हृदयने उपको आपे छे के, तारां हालांसंबंधी जवा केम दीधो ? अने हवे, गया पछी रोये शुं थाय ? पाणी ज्यारे जोइतुं हतुं; त्यारे पाळ बांधीने कां रोकी न लीधुं ?) | तथा जेनां घरमा मोत थाय; ते पोते मर्यादाथी भ्रष्ट थाय छे. एटले शरीर, अने मनमां दुःखोथी पीडाय छे. तथा तेज प्रमाणे घं वाळु सगुं गुजरीगयुं होय; तो केलांक लोको पश्चाताप करे छे के हे बहाला पुत्र ! हे बहाली स्त्री ! तुं मने मुकीने केम जती रही ? इत्यादि अथवा कोइ जग्याए कोप करीने गयेलो होय. अर्थात् नाशी गयेलो होय; अने बनेनो वियोग थाय तो पछीथी, | कहे के:- में तारूं कहें गुस्सामां न मान्युं; तेथी तुं रीसाइने चाल्योगयो. इत्यादि व्यर्थ दुःखो भोगवे छे. आ वां दुःखो शोक विगेरे जे कां छे, ते बधांए जे मनुष्यो विषय-विपना आश्रयमां अंतःकरणने राखे छे, तेमनी दुःखनी अवस्था सूचवे छे. (केडलीक वीओ रडी रडीने आंधळी थाय छे, कोइ छाती कुटीने पोतानां नानां बाळकोने अथवा, पोताना गर्भाशयने अथवा, गर्भमा रहेलां बाळकने दुःख आपे छे, केटलीक अज्ञान स्त्रीओ माथां कुटीने पीडाय छे.) अथवा शोक करे छे. एटले यौवन, धन, मदविगेरेना मोहथी वेरायला मनवाळो विरुद्ध कृत्य करीने ज्यारे बुट्टापो थाय; त्यारे, मोतनो समय आवतां मोढ दूर थतां पस्ताय छे. के, में दुर्भागी पूर्वमां बधा श्रेष्ठ पुरुषोए आचरेलो सुगतिमां जवाना एक हेतुरूप अने दुर्गतिद्वार अटकाववाने बारणांनी पाछली गळसमान धर्म न कर्यो. कां छे के: “भवित्रीं भूतनां परिणतिमनालोच्य नियतां । पुरा यद्यत् किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||३८६ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३८७॥ www.kobatirth.org पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, । तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् ॥ १ ॥” निश्चय करीने जीवोने भविष्यमां थनारी अवस्थाने विचार्या विना मे जुवानीमां जे जे अशुद्ध कृत्यो कर्या छे, ते परलोकमां जवाना बखते बुढापाथी जीर्ण थयेला शरीरवाळा पुरुषने खेद पमाडे छे. (के, में धर्म न कर्यो. हवे मारी शी दशा थशे ! तथा हवे पस्ताये भुं लाभ ? ) तथा तेज प्रमाणे कडवां फळ अहीं भोगवतां, पापीओ पण झुरे छे, विगेरे उपर बताव्या माफक लंपटोने दुःख पडे छे, ते बुद्धिमान वांचके विचारी लेबुं कां छे केः " सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं । परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ॥ अतिरस्कृतानां कर्म्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ १ ॥” गुणवालुं के अवगुणवालुं कार्य करतां पहलां बुद्धिमाने प्रयासथी विचार के एनुं परिणाम शुं आवशे. कारण के उतावळमां करेला कार्यनुं फळ भोगवतां ते समये हृदयने बाळनारो शल्य समान पश्चाताप विपत्तिना माटे थाय छेआधुं कोण न शोचे ते बतावे छे. कछे के आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ उहुं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाइ गढिए लोए अणुपरियहमाणे संधिं विइत्ता इह मच्चिएहिं, एस वीरे पसंसिए Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३८७॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् આ રૂ૮ जे बझे पडिमौयइ जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूइ आचा० देहतराणि पासइ, पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए ॥ (सू० ९३) जेने आ लोक अने परलोकना परिणामनां दुःख जोवामां (विचारवामां) विशाळ दृष्टि (ज्ञान) छे. ते विशाळ चक्षुवाळो बने ॥३८८॥ छे. ते उपर कहेला भोगोने घणा अनर्थोनुं मूळ समजीने तेने छोडीने "शम सुख" (वीतराग दशा) ने अनुभवे छे. तथा संसारी | लोको जे विषय रसमां पडतां अतिशय दुःखी थएला छे. (एटले कुमार्गे जतां गुप्त इन्द्रि सडतां विसफोटकनो रोग थतां के क्षयथी मरतां जोइने) पोते तेवा कुमार्गने इच्छतो नथी. तेथी प्रशम सुखने अनेक प्रकारे जुए छे. तेथी ते लोकविदर्शी छे. अथवा लोक एटले उर्द्ध अधः तथा तिर्थक् (स्वर्ग पातळ अने मृत्यु) ए त्रण लोकमां चार गतिमां थतां दुःखो मुखोना कारणोने तथा त्यां भोगवाता P आयुष्य विगेरेने जुए छे. ते वतावे छे. लोकना अधो भागमां शुंछे ते जाणे छे. एटले धर्म अधर्म अस्तिकायथी व्याप्त आकाश खंडनो नीचलो भाग जाणे छे. तेनो टूसार आ छे के जीवो जे कर्मों वडे त्यां उत्पन्न थाय छे. तथा त्यां सुख दुःखनो विपाक केवो छे. तेने जाणे छे. (नारकीना जीवोने है यतुं दुःख पोते जाणे छे. तथा भुवनपति व्यंतरना देवोन सुख पण जाणे छे.) तेज प्रमाणे उर्द्ध तथा तिर्यक् लोकने पण जाणे छे. (उर्द्ध लोकमां वैमानीक देव तथा मोक्षनुं मुख छे. ते जाणे छे. तथा ४ तिर्यक् लोकमां ज्योतिषना देवतार्नु सुख तथा धर्मी मनुष्यनुं सुख तथा पापी तथा तियेच प्राणीनुं दुःख जाणे छे.) अथवा लोक ASSASSIC AACA- 5ऊ For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदर्शी ते काम मेळेववा पैसो पेदा करवा एक ध्यान राखनारा पुन्य पापने भूली गएला अन्य लोकोने पोते जुए छे. ते बतावे छे. 181 आचा० जे काम विगेरेमा अथवा तेने प्राप्त करवाना उपायमा लागेला छे. तेने वारंवार आचरवाथी बन्धाता तथा अशुभ कर्म बढे संसार & सत्रम चक्रमा भमता जोइने पोते विशाळ चक्षुवाळा कामना अभिलाषयी दूर थवा केम समर्थ न थाय ? ( अर्थात् डाह्यो माणस दुःख वि-| ॥३८९॥ चारी पापथी दूर भागे.) ॥३८९॥ गुरु शिष्यने कहे छे-दे शिष्य ! संसारना भोगोमां राचता अने तेथी दुःखी थता जीवोने तुं जो, वळी आ मनुष्य लोकमां | जे ज्ञानादिक भाव संधि छे. ते मनुष्य लोकमांज संपूर्ण प्राप्त थाय छे, (केवळ ज्ञान यथाख्यात चारित्र जे मोक्षना हेतुओ छे, ते 8 मणष्यनेज छे. माटे मय लोकने लीधो छे,) अने जे डाह्यो छे ते पोते उपर बनावेल तत्वने समजीने विषय कपाय विगेरेने छोडे छे, तेज वीर पुरुष छे. ते मूत्रकार बतावे छे एटले जे आयत चक्षुवालो छे. तथा लोकना विभागना स्वभावने यथावस्थित पणे जाणे छे. P ते भाव संधिनो जाण छे, अने विषय तृष्णाने छोडनारो छे. ते वीर पुरुष कर्मने विदारण करवाथी वखणायो छे. अर्थात् तत्व जा४णनारा पुरुषोए तेनी प्रशंसा करी छे. ते आप्रमाणे तखज्ञानी बनीने बीजुं शुं करे छे ते कहे छे___जे बद्धे" एटले द्रव्य भाव बंधन वडे बंधाएला छे. तेमने पोते मुक्त बनी बीजाने मुकावनार छे. तेज द्रव्य भावबंधनो विमोक्षक (मुक्ति अपावनार) छे. ते वाचानी युक्ति वडे बतावे छे. जेवीरीते पोते अभ्यंतरथी मुकाएलो छे, तेवीरीते बहारथी पण मुक्त छे, एटले अंदर आठ प्रकारनी कर्मनी बेडी छे, ते छोडावे छे. तथा पुत्र, स्त्री, विगेरेने पण छोडावे छे. एटले जेम आठ प्र CHES For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३९०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारनी कर्मनी बेडी छे. तेम बहारनुं सर्गानुं बंधन छे, ते बने मोक्ष गमनमां विघ्नतुं कारण छे, ते बन्नेथी मुकावे छेअथवा आ केवी रीते मुकावे छे. ते कहे छे. पोते पोताना विशाळ ज्ञानवडे तत्वनो प्रकाश करी बोध आपवा वढे मुकावे छे. बोध आपतां पोते कहे छे के आ काया विष्टा, पिशाच, मांस लोही, परु, विगेरे गंदी वस्तुथी भरेली असार छे. एटले विष्टानुं भरेलुं माटलं अंदर पण गंहुं छे. अने बहारथी पण तेवुंज छे. ते प्रमाणे आ काया, अंदरथी गंदी छे अने बहारथी लगाडेला सारा पदार्थने पण गंदा बनावे छे. कछु छे के “यदि नामास्य कायस्थ, यदन्तस्तद्वहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं, शुनः काकांश्च वारयेत् ॥” आ कायानी जेवी अंदरनी गंदकी छे, तेवी साक्षात् बहार जणाती होत तो लोको हाथमा दंड लइने कुतराने अने कागडाने | वारता होत (बहारथी मांसना लोचा जोइने कागडा चुंथत, अने विष्टाने जोइने कुतरा बाझत, तेथी लाकडी लइने हांकना पडत.) आप्रमाणे जेम बदार असारता छे. (परसेवानी गंध बहार देखाय छे. ते अनुमाने) अंदर पण काया गंदी छे. ते जाणे छे. वली जेम जेम शरीरमां उंडाणमां तपासे तेम तेम विशेष गंदी एटले मांस रुधिर मेद मज्या विगेरे जणाय छे. तथा कोढ रक्तपीत विगेरे रोगो आवतां उपर कही बधीए मलीनता साथै प्रत्यक्ष देखाय छे, अथवा शरीरनां नवे द्व(रोथी झरती गंदकी छे, काननो मेल आंखना पीया वळखो लाल पिशाब झाडो विगेरे छे. ते सिवाय बोजी व्याधियी गुमडां पाकतां लोही, परु, तथा रसीवाळा पदार्थो विगेरेथी गंदकी छे आ प्रमाणे बधुं जोइने पंडित पुरुष विचारे छे के द्वारो वहे छे, गुमडां रोमे रोमे पीडा करे छे. ते तत्व समजनारो तेनुं स्व For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३९०॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३९९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप जाणे तेज कहे छे "सरुिहिरण्हारुवणद्ध कलमलयमेव मज्जामु । पुण्णंमि चम्मकोसे दुग्गंधे असुइबीभच्छे || १ ||” मांस, हाडकां, लोही, स्नायु, विगेरेथी बन्धाएला तथा मत्रीन मेद मज्या विगेरेयी भरेला अने अमुचिथी बीभत्स एवा दुर्गधीवाला चामडाना कोथळारूपे कायामां संचारिमजंत गलंतवच्च मुनसे अपुष्णंमि । देहे हुजा किं रागकारणं अनुइहेउम्मि ? ॥२॥ तथा विष्टा पिशाब झरनारां यंत्रवाळा परसेवाथी भरेला शरीरमां ज्यां ज्यां अशुचिनो हेतु छे. तेमां रागनुं कारण केवीरीते थाय ? आ प्रमाणे देहती अंदरनो गंदको जागोने तथा बहार पण झरतुं छे, ते जोड़ने डाह्या माणसे शुं करवुं ते कहे छे. से मइमं परिन्नाय माय हु कालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमात्रायए, कासंकासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाईकडे मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं बड्ढेइ अप्पणो जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चैत्र पडिवूहणयाए, अमरा य महासड्ढी अट्टमेयं तु पिहाए अपरिण्णाए कंदइ || (सु० ९४ ) पूर्व कहेलो बुद्धिमान साधु जेनी सिद्धांत भणवाथी संस्कारवाली बुद्धि थएली छे, ते देहना स्वरूपने तथा कामना स्वरूपने प्रकारी प्रतिज्ञावडे शुं करे ते कहे छे हे साधु-तुं 'लाळ झरतां' अने वळखा वारंवार पडता मोढानो अभिलाषि न थइश. एटले जेम बाळक पोतानी पडती लाळने For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ३९९॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३९२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवेकना अभावे चाटे छे. तेम तुं तजेला भोगोने पाछा स्वीकारतो नही अर्थात् भोगो तजीने पाछा न भोगवतो. वली ते संसारमां भ्रमण करावनार अज्ञान अविरति मिथ्यादर्शन विगेरेने तिरवीन (तिरछि गति) अथवा प्रतिकुळ उपाय वडे, उलंघी जा, अने निर्वाणना झरणरूप ज्ञान दर्शन विगेरेमां तु अनुकुळता कर, एटले तुं अज्ञान विगेरेमां आत्माने इवावीश नहीं, अने ज्ञानादि कार्यमां नतिकुळता न करीश तेथी सावचेत रहे. जे प्रमादी छे, ते अहीं पण शांति नथी पामतो; एटले, जे ज्ञानथी विमुख थइने भोगनो अभिलाषि थइने तिरछी गतिमां पडे छे, ते पुरुष कर्तव्यतामां मूढ बनेलो छे ते माने छे के, आ में एम कर्यु; अने हवे एम करोश, एवी भोगना अभिलाषनी तृष्णामां | व्याकुळ बनेलो चित्तनी शांतिने निचे भोगवतो नथी. (मूत्रमां भूत भविष्य लीधो; पण वर्तमानकाळ अति सूक्ष्म होवाथी न लेतां, अतीत अनागत भूत भविष्य लोधा छे.) आ प्रमाणे में कर्यु अने करीश; एम विचारनारा कामातुरने शांति नथीज थती. कं छे केः "इदं तावत् कराम्पद्य, श्वः कर्त्ताऽस्मीति चापरम् ॥ चिन्तयनन्निह कार्याणि प्रेत्यार्थं नावबुध्यते ॥१॥” आ हमणां करूं छं. अने बोद्धुं सवारमां करीश; एम कार्यने विचारतां तेने, अहीं परलोकने माटे कंइ धर्म कृत्य सूझतुं नथी. अहीं दहींना घडावाळा भीखारीनुं दृष्टात कहे छे. कोई रंकने कोइ जग्याए भेंसने चारतां दुध मळेलं; तेनुं दहीं करीने विचारवा लाग्यो के, आनुं घी बनावी, अने तेथी पैसा पेदा करी, वेपार करीने बैरी परणीश, अने पुत्र उत्पन्न थइने मोटो थतां, खावा बो| लाववा आवशे; त्यारे लात मारीश. विगेरे तुरंगमांज पग अफाळतां माधुं धुणावतां दहींनो घडो पड्यो, अने वडो फुटी गयो; तेथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३९२॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बधा तुरंग दूर थया. न खाधुः न कोइने पुन्य माटे आप्युं. ए प्रमाणे बीजा पण जीवो करवा कराववाना संसारी - कर्तव्यमां- मूढ बनीने पोतानो आरंभ निष्फळ करे छे. अथवा जेमां कषाय ते “कास" संसार छे तेने कसे; एटले सन्मुख जाय; ते ज्ञान विगेरेमां प्रमाद करनारो छे ते कहे छे. एटले संसार भ्रमण कषायथी छे, एटले तेमां माया लीधी; एटले जे बहुमायी छे, ते क्रोधी मानी अने लोभी पण जाणवो; अने अशुभ कृत्य करवाथी मूढ बनेलो सुख वांच्छतो छतां दुःखज भोगवे छे. कळु छे: "सोउं सोवणकाले मज्जणकाले य मज्जिउं लोलो । जेमेउं च वराओ जेमण काले न चाएइ ॥१॥" जे स्वार्थी छे, ते रातना सुवानुं, अने दिवसमां नावानी वखते, नावानुं तथा जमवानी वखते, जमवानुं ते सुखेथी करी शकतो नथी. आना संबंधमां मम्मण शेठनुं दृष्टांत पूर्वे कहेलं छे, तेना जेवो कासकप एटले बहु कपटी. तेणे करेला कपटथी बनेलो मूढ, जे जे करे तेनावडे वेरनो प्रसंग थाय; ते कहे छे:- ते कपटी बीजाने ठगवा लोभनुं कृत्य करे छे, जेथी वेर बधे छे, अथवा लोभ करीने नवां कर्म बांधीने, सेंकडो नवा भव करे छे, अने नवां वेर बधे छे. ते कहे छे: 66 55 दुःखार्तः सेवते कामान्, सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः ॥१॥ दुःख पीडायलो काम भोगने सेवे छे, अने परिणामे ते दुःख आपे छे, तेथी गुरु शिष्यने कहे छेः – हे मुनि ! तने जो, दुःख प्रिय न लागतुं होय; तो ते भोगोनो स्वाद छोड. प्रश्नः - जीव, एवां शुं कृत्य करे छे के, पोताने वेर बधे छे ? For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ३९३ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ आचा० सूत्रम ॥३९४॥ %A3 ॥३९॥ उत्तरः-आ नाशवंत शरीरनी पुष्टि माटे जीवहिंसा विगेरे पापक्रियाओ करे छे, ते क्रियामां हणायला सेंकडो प्राणीओ नाश पामे छे, तेथी मरेला जीवो साथे वेर बन्धाय छे. जे उपर कही गया के, भवभ्रमणमां कपट करवाथी वेर वधे छे, अथवा गुरु कहे| छे:-आ वारंवार हुँ जे उपदेश आउँ छ, नेनुं कारण ए छे के, संसारमा वेर वधे छे, तेथी संयमनीज पुष्टि करवी ते सारं छे.. हवे बीजूं कहे छे. जे देवता नहीं छतां, देवता माफक द्रव्य-जुवानी स्वामीपणुं, सुंदर रुप, विगेरेथी युक्त होयः ते मनुष्य अमर (देवता) माफक आचरे ते अमराय ( देवताइ) पुरुष कहेवाय; ते महाश्रद्धी एटले, जेने भोगमां, अने तेने मेळववाना उपायमा घणी लालसा ( श्रद्धा) होय; ते महाश्रद्धी ( पापारंभी ) छे, तेनुं दृष्टांत कहे छे:-राजगृह-नगरमां मगधसेना नामनी गणिका (वेश्या ) रहेती इती. तेज नगरमा धनशेठ नामनो सार्थवाह हतो. ते कोइ वखते घणुं धन आपीने, ने वेश्यानां घरमां पेठो. तेना | 2 | रुपयौवन-गुणोनो समूह, द्रव्य विगेरेनी लालचथी वेश्याए तेने स्वीकार्यो; पण ते शेठनु आवक, खर्चना हीसावनी जंजाळमां मन रोकायाथी ते वखते, वेश्याने नजरे पण जोइ शक्यो नहों. ( मतलब के, पारनी धुनमां, वेश्या साथे वात पण करी नहीं.) आ वेश्या पोताना रुपयौवन-सुंदरताना अहंकारथी दुःखी थइ. तेने अति दुःखी जोइने जरासंघ राजांए कहेवडाव्यु के तारुं दुःख, कारण शुंछे ? अथवा तुं कोनी साथे रहे छे ! वेश्याए कह्यु के हुँ अमर साथे रहुं छ राजाए पूछयु के केवी रीते ? तेने कडं के मने राखनार शेठ आ प्रमणो पैसादार छे, अने भोगना अभिलापीओ धनमा असक्त बनेला देवता माफक क्रियामां वर्ते छे, खावा पीवामां तथा बीजी क्रियामां देवता माफक विलास भोगवे छे, पण कामनो अभिलापि शरीर अने मननी पीडामा पीडाएलो बहारथी सुखी अने अंदरथी दुःखी भोगोनी इच्छावालो छतां भविष्यना वेपारनी चिंतामां पडेलो मने जोतो पण नथी, तेथी मारां बधांए SHOCKNO-ASC For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३९५॥ मुखो एक मुख विना रद छे, तेथी गुरु शिष्यने कहे छे, संसारी कामी जीवोनां दुःख जोइने तेमने सुखी न मानतां भोगोनी इच्छा न करवी. आचाल बली संसारी भोग वांच्छकनुं स्वरूप कहे छे. पोते कामना स्वरूपने अथवा तेना कडवा विपाकने न जाणीने तेमां चित्त राखेलो बीजानी सुंदर स्त्रीओ जोइने ते न मळवाथी अथवा पोतानी बहाली मिया मरी जवाथी तेनी आकांक्षामां रात दिवस शोक करे छेकधु छे के: "चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे-मुक्ते तु तृप्तिरधिका रमितेऽप्य तृप्तिः ॥ द्वेषोऽन्यभाजि वश वर्तिनि दग्धमानः-प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथञ्चिदस्ति ॥१॥" नाश पामे तो चिन्ता थाय, पासे होय तो तेना धाकथी गभरामण थाय, त्याग करे तो तेनी इच्छा थाय, बोगवतां अतृप्ती थाय, 18 अथवा पति के पत्नी वीजा साथे संबंध करे, तो द्वेष थाय, वश करेतो पति वळेला जेवो थाय, तेथी करीने सुखनी प्राप्ति पतिथी स्त्रीने कदापि पण नथी, आ प्रमाणे धन विगेरेमां पण समजवू के कोइपण प्रकारे काम विपाकमां सुख नथी. पण परिणामे दुःखज छ, एवु वतावीने समाप्त करवा कहे छे. से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हत्ता, छित्ता भित्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता, अकड करिस्सामिति मन्नमाणे, जस्सवि य णं करेइ, अलं बालस्स संगणं, जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ (सू० ९५) तिबेमि ॥ For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३९६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुःखनाज हेतुओ छे. तेयुं तमे जाणो तेथी हुं कहुं छु, मारो उपदेश चित्तमां राखवा माटे कानेथी सांभळो अने खोटी वासनाने छोडी दो. शंका- अही कामवासनानो निग्रह बताव्यो, ते बीजा उपदेशथी पण कार्य सिद्धि थात तेथी आचार्य कहे छे. "ते इच्छे" काम चिकित्सामां पण पंडित अभिमानी पोते तेवा वचन बोलतो अथवा व्याधिनी चिकित्सानो उपदेश करतो अन्य दर्शनीसाधु जीवना उपमर्दनमां वर्ते छे. एटले जे भविष्धना कडवा विपाकने भूले छे, ते बीजाने संसार भोगबवाना (कोकशास्त्र) ग्रंथनो उपदेश करे छे, जेना वडे अज्ञानी जीवो विषय सुख लेवा शरीर शक्ति वधारवा अनेक पाप करे छे, तेनुं मूळ कारण तेवा उपदेशने | कहेवाथी बीजा जीवोने लाकडी विगेरेथी मारनारो तथा शूळ विगेरेथी कान विगेरेनो भेदनारो तथा गांठ छोडवी, विगेरेथी धन चोरनारो, तथा लंट के खातर पाडीने धन लेनारो तथा जीव नारो बने छे. कारण के कामचिकित्सा के शरीरनी पुष्टि के रोग निवारण तत्व दृष्टिथी विमुख पुरुषोने जीवहिंसा सिवाय थतुं नथी. वली केटलाक पंडित मानी पुरुषो एम गर्व करे छे के तेणे कामचिकित्सा विगेरे न करी पण हुं तो करीशज ! एम मानीने पोते हवा विगेरेनी क्रिया करे छे, तेथी कर्मबन्ध थाय छे, जे कुवासना अथवा जीव हिंसाना औषधोनां शास्त्र बनावे छे ते परिणामे दुर्गतिने आपनार शास्त्र होवाथी ते अकार्य छे. वली कहे छे के, जे पोते चिकित्सा करे छे. ते करनार अने करावनार बन्ने पाप क्रियाओना भागी छे. तेथी तेवी दुर्गतिमां जनारा अज्ञानी जीवनी संगत पण न करवी, कारण के तेथी कर्मबंध थाय छे, अने जीवहिंसाथी औषध करावे, तेनी पण सोबत न करवी. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३९६ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तम साधुओने उपर कहेल प्राणीओनी हिंसावालुं काम वासनानुं अथवा वैदकशास्त्रनुं भणवा भणाववानुं होय नहिं. एटले जेम बाळजीवो करे तेम साधुओने करखुं कल्पे नहिं, तेओनुं वचन पण साधुओए सांभळबुं नहिं. आ सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे, पांचमो उद्देशो समाप्त थयो. वे छट्टो उद्देशो कहे छे. पांचमा साथ छठ्ठा उद्देशानो आ संबंध छे के, संयम देहना निर्वाह माटे लोकोमां जनुं, पण तेमनी साथै प्रेम न बांधवो एवं कं ते हवे सिद्ध करे छे. आ सूत्रनो पूर्वना सूत्र सानो संबंध कहे छे: - एटले, “ ९५ मा " सूत्रनी छेवटे कं केः- उत्तम साधुने चिकित्सा विगेरे न होय. अहींआं "९६" सूत्रमां पण तेज कहे छे. से तंबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्वाय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा । ( सू० ९६ ) जेने चिकित्सा न होय; ते अनगार कहेवाय; अने जे जीवोने दुःख आपनार चिकित्सानो उपदेश आपको; अथवा तेनुं कृत्य करवुं ते पाप छे, एम जाणीतो (गीतार्थ) साधु ज्ञ - परिज्ञावडे तथा, प्रत्याख्यान परिज्ञावडे जाणीने तथा पाप छोडीने आदानीय ( ग्रहण करवा योग्य) परमार्थथी भाव आदानीय ज्ञानदर्शन- चारित्र छे, तेने ग्रहण करीने पापकर्म कोइपण वखते न करे तेम न करावे; | अने करनारने अनुमोदना पण न आपे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥३९७॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जाचा० ॥३९८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से अथवा, 'साधु ज्ञान विगेरे, मोक्षनुं साधुं कारण छे, एम जाणीने, संयम - अनुष्ठानमां सावध थइने सर्वसावध (पापनां) कृत्य मारे न करवां; एवी प्रतिज्ञारूपपर्वत उपर चडीने शुं करे छे ? ते कहे छे: साधना आरंभनी निवृत्तिरूप-संयम लीधो छे, तेथी, मुनिए पापकर्मनी क्रिया न करवी. मनथी पण इच्छवी नहीं; पोते बीजापासे पण कराववी नहीं; एटले, नोकर विगेरेने पापकर्ममां प्रेरवां नहीं; तथा, “१८" प्रकारनुं पापजीव - हिंसा, जुटुं, चोरी, कुचाल, परिग्रह ममता, क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष, कजीओ अभ्याख्यान, पैशून्य रति अरति, परनिंदा, मायामृषावाद, (कपटनुं जुठ,) मिथ्यादर्शन - शल्यने पोते न करे; तेम न बीजा पासे न करावे; तथा, पाप करनारी प्रशंसा न करे, एम, मन, वचन, कायाथी त्याग करे. प्रश्नः - एक पाप करे; तेने बीजां पाप लागे के नहीं ? उत्तरः- ते शास्त्रकार बतावे छे. सिया तत्थ एयरं विपरामुसइ छसु अन्नयरंमि कप्पइ सुहट्टी लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मूढे विपरियालमुवेइ, सण, विप्पमाएण पुढो वयं पकुबइ, जंसिमे पाणा पवहिया पडिनो निकरणयाए, एस परिन्ना पवुच्चइ कम्मावती । (सू० ९७) हा कोइ पापआरंभमां पृथ्वीकाय विगेरेनो समारंभ करे छे, ते एक प्रकारनुं आश्रवद्वार मारंभे छे, ते छ कायना आरंभमां वर्ते छे, ते जाणवुं. जोके, पोते एकने हणवानो विचार करे छे, छतां संबंधने लीघे सर्व हणाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३९८॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ३९९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्न- ज्यारे कोइपण एक कायने हणवा आरंभ करे त्यारे बीजीकायना समारंभनुं पाप अथवा सर्व पापोमां वर्ते छे तेवुं केम मनाय ? उत्तर—कुंभारनी शाळामां पाणीने अडकवाना दृष्टांतवडे जाणवुं. एटले पाणीने अडकतां पाणी साथे रहेली माटीने स्पर्श थाय तेथी बीजी पृथ्वीकायनो आरंभ थयो अने पाणीमां रहेली वनस्पतिनो आरंभ थयो, ते हालतां वायुनो समारंभ थाय, त्यां रहेली अग्नि प्रदीप्त थाय. ए प्रमाणे अग्नि वळतां त्रस जीवोनो आरंभ पाय. ( माटे साधुए दरेक जग्याए विचारीने पग मूकवो ) अथवा प्राणातिपात आश्रवद्वारमां वर्तवाथी, अथवा एक जीवना अतिपात ( हिंसा ) अथवा एक कायाना आरंभथी बीजा जीवोनो पण घातक समजवो, तथा प्रतिज्ञा लोपवाथी ते बीजुं पाप बांधे छे. कारण के जीव हिंसानी आज्ञा जिनेश्वरे आपी नथी, तथा प्राणीओना प्राण लेवानी आज्ञा प्राणीओ आपता नथी, माटे चोरीनो दोष छे, तथा सावद्यना ग्रहण करवाथी परिग्रहवाळो पण छे, अने परिग्रहमां मैथुन तथा रात्रिभोजन पण आवे, कारण के ग्रहकार्य विना स्त्री भोगवाय नहीं. एथी एकना आरंभमां वधी कायानो आरंभ छे, अथवा चार आश्रवद्वारने रोक्या विना चार महाव्रतमां तथा छडा रात्रिभोजन विरमणत्रत केवी रीते थाय ? एथी वधानो आरंभ लागे अथवा एक पाप आरंभ करे, ते अकर्तव्यमां प्रवर्तवाथी छए कायना आरंभनो दोपित छे, अथवा जे एक पण पाप करे, ते आठे प्रकारना कर्मने ग्रहण करी वारंवार तेमां प्रवर्ते छे. प्रश्न- शा माटे ते पाप करे छे ? उत्तर - सुखनो अर्थ ते वारंवार अयुक्त बोले छे, अने कायाथी दोडवा - कुदवानी क्रिया करे छे, अने पैसो पेदा करवा उपायोने मनथी चिंतवे छे, ते कहे छे. खेती विगेरे करीने पृथ्वीनो आरंभ करे छे, स्नान माटे पाणीनो, तापवा माटे अमिनो गरमी दूर करवा हवानो ( पंखाबडे ) तथा खावाने माटे वनस्पति अथवा पशु हत्या विगेरेनो आरंभ करे छे, भा पाप वरनार For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥३९९॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४००॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहस्थ अथवा वेषधारी साधु रसनो रसीओ बनीने सचित्त लवण वनस्पति फळ विगेरेने ग्रहण करे छे, तथा बीजी वस्तु पण वापरे छे, ने समजी लेबुं. आ प्रमाणे जे वधारे बोलनारो होय, ते पापकर्मथी बीजा नवा जन्मना दुःखरूपी झाडनुं कर्मबीज पण वावे छे, अने तेथी दुःखना झाडनुं कार्य प्रकट थशे, ते तेणे अहीं कर्यु. माटे आत्मीय (पोतां) कर्यु अने ते पाप कर्मना विपाकनो उदय थतां मूढ माणस परमार्थने न जाणवाधी, धर्म करवाने बदले सुखने मेळववा प्राणीने दुःख आपवानां कृत्यो करे छे, अर्थात् सुखने बदले भविष्यमा पण दुःख पामशे. कछु छे के: “दुःखद्विट् सुखलिप्सु - महान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्तेः ॥ १ ॥” दुःखनो द्वेषी, सुखनो चाहक, मोहथी आंधळो थवाथी गुण दोषने न जाणनारो जे जे चेष्टाओ करे छे, तेनाथ पोते दुःखज पामे छे. अथवा ते मूढ हित मेळवावा, अहित छोडवाना विवेकथी शून्य उलटो चाले छे, एटले हितने अहित माने छे. तथा अहितने हित माने छे तथा कार्यने अकार्य, पथ्यने अपथ्य विगेरेमां पण समज एट्ले एम बतान्युं के, मोह ते अज्ञान छे, अथवा मोहनीयनो भेद छे, ते बन्ने प्रकारना मोहथी मूढ बनेलो अल्प सुखना माटे तेवो तेवो आरंभ करे छे के, जेनावडे शरीरना अने मनना दुःखना व्यसनाने पामीने अनंत काळना संसार भ्रमणनी पात्रताने पामे छे. वली मूढनी बीजी अनर्थनी परंपरा बतावे छे, एटले पोताना आत्मावडे मद्य विगेरेना प्रमादथी एटले इन्द्रियोनो रस लेवो, कषायो करवा, विकथा करवी, अथवा घणी निद्रा करवाथी जुदुं जुदुं वृत (पापना चाळा) करे छे. अथवा वय एटले पोताना कर्मवडे जेमां जीवो भ्रमण करे छे ते वय संसार जाणवो, एटले For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४००॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक एक कायमां घणो काळ रहेवाथी नेनो अनंतोकाळ दुःखमां बीते छे. आया अथवा कारणमां कार्यनो उपचार करीए; तो पोताना. जुदीजुदीरीते करेला प्रमादथी बंधायलां कर्मवडे क्य एटले, कोइपण अवस्था भोगवे; ते एकेंद्रिय विगेरेमां कलल, अर्बुद विगेरेथी लइने, एक दिवसना जन्मेला बाळक पण विगेरेनी अवस्थामांव्याधिथी दि सूत्रम् ॥४०१॥ पीडायला, अयवा दारिद्र तथा दुर्भाग्य विगेरेनां दुःखथी प्राप्त थयेल ते प्रकर्ष करीने बांधे छे. (एटले पूर्व कर्म बांधे; अने पछीथील ॥४०॥ भोगवे; ते आश्रयी वयः शब्द लीधो छे. ते संसारमा अथवा, उपर कहेली अवस्थामा प्राणीओ पीडाय छे ते बतावे छे. 'जं सि मे.' एटले, आ पोताना करेला प्रमादना कारणे अशुभकर्मनां फळ भोगवतां चारगतिवाळा आ संसारमा अथवा, एकेन्द्रियादि अवस्थामा प्राणीओ दुःखोथी पोडाय छे, (एबुं गुरु शिष्यने कहे छे के तु जो.) 1 तेओ सुखने माटे आरंभमां राचीने मोहथी धर्मने वदले अधर्म करीने गृहस्थो तथा साधु वेषधारी तथा पाखंडीओ पीडाय छे, (जे ब्रह्मचर्यने बदले कुशील सेवे; तेने इन्द्रिय सडतां संसारमांज नरकवास भोगववो पडे. वैदनी गुलामी करवी पडे; अने वधारे & रोग न वधे; ते माटे, बधी इन्द्रियो वशमा राखवी पडे; ए कुमार्गे चाल्यानुं फळ छे.) जो एवीरीते पाणीओ पोतानां पापोथी अहीं पीडातां देखाय; तो शुं करवू ? ते कहे छे:-आ संसार-भ्रमणमां पोतानां कृत्योचें फळ भोगववामां समर्थ जीवोनुं स्वरूप जाणीने अथवा, गृहस्थवडे मार खातां अथवा, परस्पर लढतां अथवा रोगादीनी पीडाओ भोगवतां, तेमनां कर्मनां फळ भोगवतां जाणीने पंडित साधुए निश्चयथी तेनो त्याग करवो; एटले सर्वथा अथवा, निश्चयथी पाणी-15 For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ४०२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओने जुदा जुदा दुःखोनी अवस्था जेमां थाय; ते “निकरण" अथवा "निकार” छे, अने तेज अशुभकर्म शरीर मननुं दुःख उत्पादक छे, ते कर्मने साधु न करे; एटले जेथी प्राणीओने पीडा थाय; तेनुं कृत्य साधु न करे; (साधुए कोइ पण जातनो पापारंभ न करवो) तेथी भुं थाय ते कहे छे. आजे सावय वेपारनी निवृत्तिरूपपरिज्ञा छे, तेज तत्वयी प्रकर्षथी 'परिज्ञान' कद्देवाय छे, पण शैलुन ( ठगनी ) माफक मोक्ष फळ रहित ज्ञान नथी. आ प्रमाणे ज्ञ परिज्ञा, तथा प्रत्याख्यान परिज्ञावडे प्राणीनो निकार (हिंसा) छोडवावडे साधुने मोक्ष पळे छे, एटले कर्मो शान्त पामे छे, संपूर्ण जोडला राग द्वेष विगेरेनां छे, ते वधां संसार झाडनां बीजरूप कर्म छे, तेनो क्षय थाय छे, ते जीवहिंसांनी क्रिया दूर करनारने थाय छे. अने आ कर्मक्षयम विरूप जीव हिंसानुं मूळ आत्मामां विषयवासनानुं ममत्व छे, ते दूर करवा कहे छे. जे ममामई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावो विइत्ता लोगं घंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कमिज्जासि तिबेमि ॥ नारई सहई " वीरे, वीरे न सहई रतिं । जम्मा अविमेण वोरे. तम्हा वीरे न रज्जइ ॥१॥ (सू० ९८) संसारी जड वस्तुमां मारापणानी मति तेने जे साधु परिग्रहना कडवां फळ जाणे छे, ते छोडे छे, ते परिग्रह द्रव्यथी अने For Private and Personal Use Only सूत्रम् 1180211 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun yanmandie सूत्रम ट्र भावथी एम चे प्रकारे छे, ते चन्ने प्रकारनी परिग्रहनी बुद्धि छोडवाथी अंतरनो भावपरिग्रह पण निषेध कर्यो, अने परिग्रहनी बुद्धि | आचार्य विषयनो प्रतिषेध करवायी बहारनो द्रव्यपरिग्रह पण तजवानो कहो अथवा काकुन्याये लइए तो एम अर्थ थाय के, जे परिग्रहना विचारनुं मलिन ज्ञान छोडे, तेज परमार्थयी बहार अने अंदरनो परिग्रह छोडे छे, तेनो अर्थ आ छे. ॥४०॥ संबंध मात्रथी चित्तना परिग्रहनी काळाशनो अभाव छे. जेम नगरमां साधु रहे, अथवा पृथ्वी उपर से छतां जेम जिनकल्पी8/॥४०३॥ * मुनिने निष्परिगृहताजळे, तेम स्थविर कल्पीने पण जाणवू, तेथी | समजवं ते कहे छे.. जे मुनि जाणे छे के मोक्षमा मुख्य विघ्ननो हेतु तथा संसार भ्रमणनं कारण छे, ते परिग्रह ममखथी छुटवाना विचारवाळो छे, तेज देखतो छे, तेणेज मोक्षनो मार्ग ज्ञानादिक जोयुं छे, ते द्रष्टपथ छे. ___अथवा दृष्ट भय लइए तो साते प्रकारनो भय जे शरीर विगेरेना ममत्वथी साक्षात देखाय छे, अथवा विचारतां परंपराए जणाय छे, ते साते प्रकारना भयने जाणनारो निश्चयथी थाय छे, तेनो वधारे खुलासो करे छे. जेम ममत्व न करे, परिग्रह न राखे, ते दृष्ट भय छे, एम समजीने पूर्वे बतावेला परिग्रहने तेज-परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे गीतार्थमुनि परिग्रहना आग्रहवाळा एकेन्द्रियादि संसारी-जीवलोकने दुःखी जाणीने पोते पाणीगणनी दश प्रकारनी ममत्वसंज्ञा (परिग्रहने) त्यागे छे, तेज मुनि सत्यासत्यना विवेकने जाणनारो छे तेने गुरु कहे छे. तु संयम अनुष्ठानमा योग्य रीते उद्यम कर! अथवा, आठ प्रकारनां कर्म ने अथवा कर्मनुं मूळ रागद्वेषादि छ रिपुवर्ग छे, तेने अथवा, विषयकषायने जीतवा पराक्रम कर एबुं कहुं छु. ते मुनि संयम अनुष्ठानमा पराक्रम करनारो परिग्रहना आग्रहने छेडनारो मुनि केवो थाय छे ते कहे छे: SEKASKACASS REG ॐॐ For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४०४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ari काममां विघ्न वधारे आवे तेम) कदाच ते संसारनो घर, स्त्री, धन सोनुं विगेरे परिग्रह छोडनार अकिंचन मुनिने सेयम अनुष्ठान करतां मोहनीयकर्मना उदयथी संयममां अरति थाय; तोपण, ते संयम संबंधी अरतिने पोते सहन करे; (तेमां मन न राखे) पण वधारे वैराग्यथी वीर बनीने आठ प्रकारना कर्मशत्रुने प्रेरणा करीने ते शक्तिमान बनेलो वीर असंयममां अथवा, विष- परिग्रहमां रति न करे; अने संयममां जे अरति थाय; अने विषयमां रति थाय तेथी, विमन बनीने शब्दादिमां रमणता न करे; एटले, रति अरति, ए बन्नने छोडवाथी खेदी मनवाळो न थाय; तेम, राग पण न करे ते बतावे छे. रति अने अरतिमां मन न लगाड धुं ते वीर छे, अरे जे वीर छे, ते पांच इन्द्रियना विषयमां आसक्ति न करे त्यारे शुं करवुं ते कड़े छे:स फासे अहियासमाणे निविंद नंदिं इह जीवियस्स । मुणो मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥२॥ पंतं लुहसेवंति वीरा संमत्तदंसिणो । एस ओहंतरे मुणी तिने मुरिए विग्राहिए, तिमि ॥ ( सू० ९९ ) जेथी रति- अरतिने त्यागीने मनोहर शब्द विगेरेमां साधु राग न करे; तेम खराबमां द्वेष पण न करे. ते स्पर्श विगेरेमां पण सारीरीते सहन करे; एटले, मनोज्ञ शब्द सांभळीने आनंद न माने; तेम, खराब सांभळीने खेद न करे; ते प्रमाणे शब्द, तथा स्पर्श लघाथी बीजी इन्द्रियना विषयमां पण जाणवुं कां छे केः सद्देसु अ भद्दयपावसु, सोयवितयमुवगएसु । तुट्टेण य रुद्वेण व समणेण सया न होअहं ॥१॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४०४ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ES मुंदर के. खराब शब्द कानमा आवतां साधुए खुश अथवा नाखुश हमेशां, (कोइपण वखते) न थq. एज प्रमाणे रूपगंध विगेआचा० रेमां पण जाणवू, तेथी, शब्द विगेरेमां पण मध्यस्थता राखनारा शुं करे? ते कहे छे:आ गुरुती उपासना करनार शिष्य जे विनय छे, तेने अथवा, मोक्षाभिलाषी बीजाने पण आ उपदेश छे. के, तुं सारी रीते ४ सूत्रम् ॥४०५॥ जाण के, औश्वर्य, वैभव विगेरेथी मननी जे प्रसन्नता छे, तेने दुर कर. आ मनुष्य लोकमां जे संयम विनानुं जीवित छे तेने त्यजी X॥४०५॥ । दे, अथवा वैभव विगेरेथी कुदरती जे आनंद थाय छे, के मने आ आवी उत्तम समृद्धि मली छे, मळे छे. अने मळशे. एवो जे विकल्प थाय छे, ते आनंदना विकल्पने पण तुं निंद, विचार के आ पापना कारण रूप अस्थिर समृद्धिवडे भुं लाभ छे ! का छे केःविभव इति किं मदस्ते? च्युतविभवः किं विषादमुपयासि ? । करनिहितकन्दुकसमाःपातोत्पाता मनुष्याणाम्। अमारो वैभव छे, एवो तने मद शुं काम थाय छे ! अने वैभव जतां खेद केम करे छे ? तुं जाणतो नथी के माणसोने मळेली रिद्धि हाथमा रमवाना दडा माफक पडे छे, ने उछ ! आ प्रमाणे रूप विगेरेमां पण जाणवू. ते संबंधी सनतकुमारनुं दृष्टांत जाणवू. 8 अथवा पांच अतिचारने पण तुं जे पूर्वे कर्या होय, तेने निंद अने थताने रोक अने आवताने अटकाव, केवी रीते? ते कहे ट्र, त्रग काळ ने जाणनार ते मुनि छे, अने मुनिन मौन ते संयम छे, अथवा मुनिनो भाव ते मौन अने वचननुं संयम छे, अने ते # प्रमाणे काया अने मननु पण जाणवू ते मन वचन अने कायाना संयमने आदरीने कर्म शरीर, अथवा औदारिक विगेरे शरीरने आ* माथी जुदुं कर, अर्थात् तेनो ममत्व मूक, ते ममत्व केवी रीते मूकाय ? ते कहे छे. प्रान्त एटले रस रहित तथा घी विगेरेथी रहित लुख्खं भोजन कर, अथवा द्रव्यथी अने भावथी प्रान्त एटले विगत धुम ते गोचरी करतां द्वेष न करवो. तथा रुक्षभाव एटले सारी C RECR-CAN | For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 गोचरीमां राग न करतो, ते अंगार दोष रहित, वीर साधुओ गोचरी करे छे, ते साधुओ, सम्यक्त्वदर्शी छे. ते रागद्वेप रहित छे./31 आचा० अथवा सम्यक्त्वदर्शी छे, एटले परमार्थ दृष्टिवाला छे. तेओ जाणे छे. के आ शरीर कृतघ्न छे; निरूपकारी छे. एना माटे पाणीओ 21 सूत्रम् आलोक परलोकमां क्लेश करी दुःख भोगवनारा छे. (अने अनेक आदेशमा एक आ देश छे) तेथी रस रहीत लुरु खानारो है ॥४०६॥ तथा समदर्शी कर्मादि शरीर छोडीने भावथी भवओघने तरे छे. ते उत्तम क्रिया करतां भव ओघने तरे छे. अने जे बाह्य अभ्यंतर ॥४०६॥ परिग्रहथी रहित छे. ने युक्त छे. एटले जे निर्मळ भावथी शब्दादि विषयनो राग त्यजे ते विरत छे, अने मुक्तपणे तथा विरतपणे जे विख्यात छे, तेज मुनिभव ओघने तरे छे, अथवा ते क्यों छे, एम जाणवू जे मुनि आ प्रमाणे मुक्त अने विरतपणाथी विख्यात न थयो, ते केवो दुःखी थशे ते बतावे छे. दुबसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ वत्तए, एसवोरे पसंसिए, अच्चेइ लोयसंजोगं एस नाए पवुच्चइ(सू१०० वसु द्रव्य छे. अने भव्य अर्थमां उत्पन्न कर्यु छे. ते मोक्षरूपी भव्य द्रव्य छे. एटले मुक्ति गमन योग्य जे द्रव्य ते वसु छे, P अने खराब मार्गे वपराय ते दुर्बसु छे. एटले दुरुपयोग करनार जे मुनि छे. ते मोक्षगमनने अयोग्य छे. (अर्थात् ते संयमरूप वसुने ४ खोटे मार्गे ले छे, तेथी तेनो मोक्ष न थाय.) आम शाथी धाय ? ते कहे छे. तीर्थकरना उपदेशथी शून्य बनी स्वेच्छाचारी बने छे. प्रश्न-शाथी ते स्वछंदी बने छे. ? उत्तर-प्रथम कहेला उद्देशामां बताव्युं छे. ते सघळ अहीं जाणवू, ते आ प्रमाणे छे. मिथ्यात्वथी मोहीत लोक छे. तेमां तत्व समजबुं दुर्लभ छे भने व्रतोमा आत्माने रोकवो ते कठण छे. अने रति अरतिने दाववी तथा पांच इन्द्रियना विषयमा इष्ट अनिष्टमा समभाव भाववो तथा प्रान्त (निरस) तथालुरूखो आहार करवो आवी तीर्थकरनी आज्ञा तलवारनी ARRIERSIC CARSA For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० धार उपर चालवा माफक पाळवी कठण छे. तथा अनुकूळ प्रतिकूळ जुदा जुदा उपसर्गो सहेवा कठण छे. अने ते न सहेवानुं कारण अनादि अतीत काळ सुखनी भावना जीवने छे. ते स्वभावथी दुःखभां बीकण अने सुखनो प्रिय बनीने वीतरागनी आज्ञाने पाळतो नथी. तेमां दुःख माने छे. कारणके आज्ञा सहन करवानी छे. सुख के दुःखमां समभाव राखवानो छे, ते भूली परवश बनी तुच्छ ॥४०७ ॥ ४एटले, पापना उदद्यथी द्रव्यथी, निर्धन अथवा, घट अथवा जळ विगेरेथी रहित बने छे. (पीवाने पाणी पण मळतुं नथी.) तथा भावथी रिक्त एटले ज्ञान दर्शन चारित्र तेने मळतुं नयी; एटले ते मूर्ख साधुने कोइए प्रश्न करतां जवाब आपवामां अशक्त होवाथी बोलवाने शरम आवे छे, अथवा, ज्ञानवाळो छतां, चारित्रभ्रष्ट होवाथी; खरं बोलतां पोतानी पूजा नहीं थाय; माटे शुद्ध मार्ग कहेवाना अवसरे बोलतां शरमाय छे. पोते परिग्रह राखे त्यारे कोई पूछे के, साधुने धन राखवं कल्पे ? त्यारे पोते कहे केः-धन राखवामां दोष नथी; एवं खोडं पण बोले. जे कषायरूपी महाविषनो टाळनार भगवाननी आज्ञा पाळनार ते 'सुसु' मुनि छे, ते ज्ञानथीभरेलो प्रभुना कहेला मार्गने बतावनारो कर्मने विदारवाथी वीर बनेलो उत्तम पुरुषोए प्रशंसेलो छे. (जे आज्ञा पाळे ते प्रशंसा तथा सद्गतिने पामे; अने जे आज्ञा न पाळे; ते अपमान अने दुर्गति पामे.) वळी “अच्चेइ” भगवाननी आज्ञाने अनुसरनारो वीरपुरुष असंयत लोकथी जे ममल थाय तेनेत्यजे छे, ते लोक वे प्रकारना छे. एटले - बाह्य, धन, सोनुं, मातापिता विगेरेमां ममत्व थाय छे, ते तथा हृदयमां रागद्वेष विगेरे अथवा तेनाथी बंधातां आठ प्रकारनां कर्म, ते अभ्यंतर लोक (ममत्व) छे तेनो संयोग उल्लंघे छे, अर्थात ममत्व त्यागे छे. जो, एम छे तो, शुं करं ! ते कहे छे:- जे आ लोकना ममत्वनुं उल्लंघन छे, ते सारो मार्ग एटले, मोक्षाभिलाषिओनो आचार For Private and Personal Use Only सूत्रम् 1180011 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रम् ॥४०८॥ 18| छे ते कहे छे:-अथवा 'परं' ते आत्मा छे, तेने मोक्षमा लइ जाय छे, ते 'नाय' (मागधी मूत्र प्रमाणे) छे तेनो अर्थ आ छे. के जे, लोकनो संयोग त्यजे; तेज श्रेष्ठ आत्माना मोक्षनो न्याय छे. सदुपदेशथी मोक्ष मेळवनारो कहेवाय छे. आचा० एम हो; पण, ते उपदेश केवो छे ते कहे छे:॥४०८॥ जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिन्नमु दाहरंति, इह कम्म परिन्नाय, सवसो जेअणन्नदंसी, से अणन्नारामे, जे अणण्णारामे, से अणन्नदंसो, जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ, जहा तुच्छस्स कत्थइ जहा पुणस्स कत्थइ (सू० १०५) जे दुःख अथवा दुःखनुं कारण अथवा, लोकना ममत्वयी बन्धातुं कर्म तीर्थंकरोए बताव्यु छे के, आ संसारमा जीवाने आवां आवां दुःखो छे, ते दुःखने अथवा तेनां कर्मने धर्मकथानी लब्धि प्राप्त करेला जैन तथा जैनेतर मतना जाण गीतार्थ योग्य विहार करनारा; बोले तेवू पाळनारा, निद्रा जीतेला; इन्द्रियो वश राखनारा, देशकाळ विगेरेनुं स्वरूप जाणनारा; उत्तम गुणोवाळा साधुओ विगेरे आवी परिज्ञा बतावे छे के, दुःखोनुं मूळ कारण तथा, तेनुं रोकावानुं कारण आ प्रमाणे छे. ते जाणीने ज्ञ-परिज्ञावडे प्रत्या ख्यान परिज्ञावडे पापने त्यागे छे. वळी, उपर दुःख थवानो विचार विगेरे मनुष्य तथा बीजा जीवोनुं का ते दुःख जाणवानी P तथा दुःखनु मूळ पाप त्यागवानी वे प्रकारनी परिज्ञा-गीतार्थ साधुओएबतावी. ते परिज्ञा करीने तथा. पापना मूळ आश्रवद्वार जाणीने छोडवा ते कहे छे: AARGARH For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie आचा ज्ञानतुं शत्रुपणुं (भणनारने विघ्न करणे) विगेरे करवाथी ज्ञानावरणीयकर्म बन्धाय छे. तेम आठे कर्म संबंधी जाणीने प्रत्या-16 ख्यानपरिज्ञावडे पाप छोडीने तेना आश्रवद्वारमा मन-वचन-करवा-कराववा तथा अनुमोदवावडे पोते न वर्ते, अथवा, सर्वथा सुत्रम् जाणीने कहे छे. सर्वथा 'परिज्ञान' ते केवळीने गणधरने अथवा चौदपूर्वि साधुने छे. अथवा सर्वथा 'कहे छे' एटले आक्षेपणि विगेरे चार प्रकारनी धर्मकथा छे ते टिप्पणमां नीचे मुजब छे. 18॥४०९॥ स्थाप्यते हेतु दृष्टान्तः स्वमतं यत्र पण्डितैः । स्याद्वाद ध्वनिसंयुक्तं सा कथाऽऽक्षेपणी मता ॥१॥ हेतु अने दृष्टांत वडे पंडितो जेमां स्याद्वादवादने अनुसरी जे वचन बोले, ते वचनयुक्त जे कथा ते आक्षेपणी छे. मिथ्यादशां मतं यत्र, पूर्वापरविरोधकृत् ॥ तन्निराक्रियते सद्भिः सा च विक्षेपणीमता ॥२॥ मिथ्यादृष्टिओना मतने तेमनो पूर्व अपर विरोध बताची उत्तम पुरुषो तेनो निषेध करे, ते कथा विक्षेपणी छे. यस्याः श्रवण माण, भवेन्मोक्षाभिलाषिता ॥ भव्यानां सा च विद्वद्भिः प्रोक्ता संवेदनीकथा ॥३॥ जेना सांभळवा मात्रथी भव्य पुरुषोने मोक्षनी अभिलाषा थाय, तेवी विद्वानोनी कहेलो कथाने संवेदनीकथा कहे छे. यत्र संसारभोगाइ, स्थितिलक्षणवर्णनम् । वैराग्य कारणं भव्यैः सोक्ता निवेदनीकथा ॥४॥ जे संसार भोगना अंगोनी स्थितिना लक्षगनुं वर्णन छे अने वैराग्य कारण छे तेवी कथाने भव्य पुरुषो कहे छे ते निर्वेदनीकथा जाणवी ते कथा केवी छे. ते कहे छे बीजं एटले जैन सिवायर्नु जे तत्त्व तेने माने ते अन्यदर्शी-तथा न अन्यदर्शी ते यथायोग्य For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४१०॥ www.kobatirth.org | पदार्थ जाणनारो सम्यक् दृष्टि जिनवचन माननारो गीतार्थ साधु छे ते मोक्ष सीवाय बीजा मार्गमां रमतो नथी. हेतु अने हेतुवाळा - भाववडे सूत्रने जोडवा कहे छे के जे भगवानना उपदेशथी अन्य स्थानमां रमणता न करनारो ते अनन्यदर्शी छे अने जे अनन्यदर्शी छे ते बीजे रमे नही कां छे के “शिवमस्तु कुशास्त्राणां वैशेषिकषष्टि तंत्र बौद्धानाम् । येषां दुर्विहितत्वाद्भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥१॥” कुशाखो जे, “वैशेषिकषष्टितंत्र" तथा बौद्धनां रचेलां छे, तेमनुं पण भलुं थाओ; कारण के, तेमनामां विसंवाद जोड़ने जिनेविरना वचनमां अमारुं मन रंजित थाय छे. आ प्रमाणे सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहेल छे, ते कहेनार रागद्वेष दूर करनारो थाय छे ते बतावे छे. जहा पुण्णस्स. विगेरे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीर्थकर, गणधर, आचार्य विगेरे जे प्रकारे इन्द्र चक्रवर्त्ती मांडलीक राजा विगेरे पुन्यवान - जीवने उपदेश करे छे. तेज प्रमाणे कठीयारा विगेरे तुच्छ जीवोने पण उपदेश करे छे. (बन्नेमां तेमनो समभाव छे,) अथवा पूर्ण ते जाति, कुळ, रूप, विगेरेथी पुण्यवान छे, अने नीच जाति कुरुपवाळो ते तुच्छ छे, अथवा, विज्ञानवाळो पूर्ण तथा अन्य सामान्य बुद्धिवाळो तुच्छ छे, ते दरेकने उत्तम पुरुषो समानभावे उपदेश करे छे. कधुं छे केः “ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वय बलान्वितः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छा विपर्ययात् ॥१॥" For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४१०॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥४११॥ ऊस CASEARCARECASSES ज्ञान, ऐश्वर्य अने धनवाळो, तथा जातिवंश, तथा बळवाळो तेजस्वी, बुदिमान प्रख्यात ए गुणवाळो पूर्ण कहेवाय; अने तेथी| रहित ते तुच्छ कहेवाय. आनो परमार्थ आछे के, साधुओ, भिक्षुक विगेरेने तेना कल्याण माटे स्वार्थ राख्या विना उपदेश करेलसूत्रम् . तेज प्रमाणे चक्रवर्ती विगेरेने पण उपदेश करे छे. ॥४१॥ ___अथवा चक्रवर्ती विगेरेने संसारथी पार उतारवाना हेतुने जेवा आदरथी कहे छे, तेज प्रमाणे भीक्षुकने पण कहे . आ वाक्यथी साधुमां 'निरीहता' (निस्पृहता) बतावी. पण एवो नियम नथी के, वधाने एक सरखीरीते कहेवू; पण जेम जेने बोध लागे तेम तेने कहे एटले, बुदिमानने समजावq होय तो मूक्ष्म वात कहेवी; अने सामान्य बुद्धिवाळाने सादी वात कहेवी; तथा राजाने कहेतां तेना अभिमायने अनुसरीने कहे; एटले, उपदेशके विचार के, आ राजा अन्यदर्शनना आग्रहवाळो छे के, मध्यस्थ बुद्धिवाळो छे के संशयवाळो छ ? के, संशयरहित छे ? तथा आग्रहवाळो छतां, कुतीथिओए कदाग्रहवाळो बनाव्यो छे के, पोते कदाग्रही छे ? जो एवो होय; तो, तेने आ प्रमाणे कहेतो क्रोध थाय. जेमके: “दशसूना समश्चक्रो, दशक्रिसमो ध्वजः । दशध्वजासमो वेश्या, दशवेश्या समो नृपः ॥१॥” दशसूना समान चक्री छे, अने दशचक्री समान ध्वजा छे. अने दशध्वजा समान वेश्या छे. अने दश वेश्या जेवो एक राजा छे. माटे ( आबु न बोल.) तेनी भक्ति रुद्र, विगेरे देवता उमर होय; तो, तेनु चरित्र कहेतां तेने तेना पापना उदयथी सत्य ऊ ECE For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४१२॥ www.kobatirth.org कहेत पण, मोह उत्पन्न थतां द्वेषी थाय; अने द्वेषी थइने भुं करे ते पण कहे छेः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ? एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडियमोयए, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु से सबओ सब परिन्नाचारी, न लिप्यई छण पण वीरे से मेहावी अणुग्घायण खे यन्ने जे य बन्ध मुक्ख मन्नेसी कुसले पण नो बद्धो नो मुक्के ॥ (सू० १०२) क्रोधायमान थयलो राजा वाचाथी अपमान करे; अने तेनुं गायुं न गावाथी वखते मारवा पण तैयार थाय; एटले, लाकडीचाबकाथी साधुने मारे कनुं छे केः 'तत्थे वय निवणं बंधण निच्छुमण कडगमदो वा । निविसयं व नरिंदो करेज संघपि सो कुद्धो |१| क्रोधायमान थयलो निष्ठापन करे; बंधन करे; देशनिकाल करे; सेनापासे मार मरावे; अथवा, पोतानां राज्यमां आवतां बंध करे अथवा संघने पण दुःख आपे ते प्रमाणे, तच्चनिक (विगेरे नो ) उपासक - नंदवळनी कथाथी एटले, बुद्धनी उत्पत्तिना कथानकथी भागवत मतनो भल्लिग्राहनां दृष्टांतथी रौद्रमतनो पेढालनो पुत्र सत्यकी जमाना दृष्टांतने सांभळवाथी द्वेषी थाय छे. (बीजा मतना गुणो न जोतां इर्षारूपे कथाओ जोडी काढेल छे, तेवी कथा कहेतां बीजा मतवाळाने क्रोध थाय छे. माटे, बने त्यांसुधी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४१२॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ गुणमाप्तिनीज कथा करवी;) अथवा भीखारी काणोकुट (हाथपगनी खोडवाळो) तेने उद्देशीने धर्मफळना उपदेशरूप-कथा कहेतां 18 आचा० तेने क्रोध थाय. आ प्रमाणे, विधि न जाणनारो कथा कहे; तो, तेने बाधा (पीडा) थाय छे, तथा तेमां परलोकनो पण कंइ लाभ & सूत्रम् IP नथी विगेरे जाणवू, जोके, मुमुक्षुने धर्मकथापरना हित माटे कहेतां पुन्य छे, पण जो, कहेनारसभाने न ओळखे; अने द्वेषनुं वचन ॥४१३॥ बोले, तो, तेने शाखकारे पुन्य बताव्युं नथी. M४१३॥ ___अथवा राजानु अपमान थतां धर्मकथा कहेनार साधुने हणे; एटले, राजा पशुवधनो यज्ञ करे; तथा, श्राद्ध, होम, विगेरे करे; म तेमां, धर्म मानतो होय; ते समये धर्मकथा कद्देनार साधु राजाना सांभळतां कहे के:-तेमां धर्म नथी; तो, राजा क्रोधी थइने दुःख आपे. अथवा, जे जे अविधिए कहे; तेमां पण साधुने श्रेय नथी. ते बतावे छे. साक्षर पंडितनी सभामां पक्षहेतु दृष्टांत विगेरे छोडीने प्राकृत भाषामां कहेवू ते अनुचित छे, तथा मूर्खानी सभामां तत्त्व समजाववा जq; ते पण अनुचित छे. एज प्रमाणे कंइपण अनुचित कार्य करतो साधु जैनधर्मनी हीलनाज करे छे, अने तेने पापनोज बन्ध छे, तेनुं कल्याण यवानुं नथी; माटे, तेवा विधि न जाणनारा पुरुषे मौन धारण कर, वधारे सारुं छे. (के बीजाने क्रोध उत्पन्न करी अशुभकर्म पोते न बांधे.) कयं छे के:'सावजणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वुत्तपि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं ॥१॥ जेने सावद्य अने निर्वद्य वचननुं जाणपणुं नथी; तेने बोलवानो पण अधिकार नथी. तो, तेने उपदेश आपवानो अधिकार है W ACADE याण विसेसं । बत्तुंपि तस्य न खमं. किमंग पण देसj कार्ड un? | For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् [8क्याथी होय ? आ प्रमाणे छे. तो, धर्मकथा केवीरीते करवी ते कहे छे:-जे, पोतानी इन्द्रियोने वशमा राखनारो छे, अने विषय आचा० द विषनो वेरी छे, संसारथी उद्वेग मनवाळो छे, अने वैराग्यथी जेनुं हृदय खेंचायलुं छे, तेवो माणस धर्मने पूछे तो, ते समये आचार्य IM विगेरे धर्मकथा कहेनारे विचार के, आ पुरुष केवो छे ? मिथ्यादृष्टि छे के भद्रक छे? अथवा, केवा आशयथी पूछे छे ? एनो इष्ट॥४१॥ देव क्यो छे ? एणे क्यो मत मान्यो छे ? विगेरे विचारीने योग्य उत्तर समय उचित कहेवो ते बतावे छे. एनो सार आ छे के धर्मकथानी विधि जाणनारे पोते आत्ममा परिपूर्ण होय ते सांभळनारनो विचार करे के द्रव्यथी ते केवो छे. तथा आ क्षेत्र केबु छे ? जेमां तच्चनिक भागवत अथवा बीजा मतवाला अथवा पतित साधुए अथवा उत्कृष्ट साधुओए आ क्षेत्रने केवा रूपमा बनाव्युं छे. अने काळ ते सुकाळ छे के दुकाळ छे. अथवा वस्तु मळे तेम छे के नहीं. अने भावथी जोवू के पूछनार माणस मध्यस्थ भाववाळो छे. के रागी द्वेषी छे, विगेरे विचारीने जेम ते बोध पामे, तेवी धर्मकथा करवी. उपरना गुणवाळो माणस धर्मकथा करवाने योग्य छे. बीजाने अधिकार नथी. कयुं छे के| 'जो हेउवायपक्खंमि, हेउओ आगमम्मि आगमिओ। सो ससमयपण्णवओसिर्फत विराहको अण्णो।१।' जे हेतुवाद पक्षमा हेतुने बतावनार छे. आगममां आगम बतावनार छे. ते स्वसमयनो प्रज्ञापक (उन्नति करनार) अने बीजो सिद्धांतनो विराधक छे (जो पूछनार हेतु मागे तो हेतु बतावे अने युक्तिथी सिद्ध करे अने आगम प्रमाण मागे तो आगम बतावे तते बन्नेनो जाणनारो बीजाने धर्मकथा कहे ते योग्य छे.) ॥४१४॥ RARIA FACTRESISTRA For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie सुत्रम ॥४१५॥ जे उपर प्रमाणे धर्मकथानी विधिने जाणनारो छे. ते प्रशस्त छे, अने जे पुन्यवान अने पुन्यहिनने धर्म कथामां समष्टिना आचाविधिए जाणे छे. तथा सांभळनारनो विवेक करी शके तेवा गुणवाळो कर्मने विदारण करनार वीर साधु, उत्तम पुरुषोथी वखाणा एलो छे. बळी तेनुं वर्णन करे छे. ॥४१५॥ 'जे बद्धे' विगेरे. ते आठ प्रकारना कर्मवडे अथवा स्नेह रूप सांकळ विगेरेथी बंधाएला पाणीओने धर्मकथा संभळाववा, विगेरेथी मुकावनारो थाय तेज तीर्थकर गणधर अथवा आचार्य विगेरे उपर कहेली धर्मकथानी विधि जाणनारो छे. ते क्ये स्थाने रहेला जीवाने मुकावे छे ? ते कहे छे. उंचे रहेला ज्योतिषी विगेरेने तथा नीचे भवनपति विगेरेने तथा तिर्यंच तथा मनुष्यने बोध आपे छे (देवताना जीवो सम्यक्त्व पामे अने तियच पचेंद्रिय चारित्रनो थोडो भाग अने मनुष्य पूर्ण चारित्र पण पामे.) बळी ते वीर पुरुष बीजाने मुकाबनारो हमेशा बने परिज्ञाए पोते चाले छे, एटले सर्वोत्तम ज्ञाने युक्त छे, अने सर्व संवर चारित्र पाळनार छे, ते पोते जे गुणोने मेळवे छे ते कहे छे: पोते हिंसाथी थतां पापे लेपातो नथी; (एटले कोइनी हिंसा करतो नथी.) (क्षणनो अर्थ हिंसा कयों छे,) ते मेघावी (बुद्धिमान) पण छे, एटले, जेनावडे जीवो चार गतिमा भमे ते अण (कर्म) छे, तेनो घात करे; ते खेदने जाणनारो निपुण मुनि छे. एटले ते । कर्म क्षय करवानो उद्यम करनारा मोक्षाभिलाषीओने कर्म क्षय करवानी विधि बतावनार पण छे, ते मेघावी, कुशळ, वीर मुनि छे, ACCOASAREEKSECCIEWS ARSAHASRASHR-525%2527 For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४१६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा, जे प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश. एम चार प्रकारनां बन्धनाथी मोक्ष करावे; अथवा तेनो उपाय बतावे; ते 'अन्वेषि' पण छे, ( ते पूर्वनां वाक्य साये जोडवु ) एटले, जे जीत्र हत्याने दूर करे; खेदने जाणे; ते मूळ उत्तर प्रकृतिना भेदोवडे भिन्न, तथा योगनिमित्ते आवती कर्मप्रकृति, तथा कषाय-स्थितिवाळी कर्मनी बन्धाती अवस्थाने जाणे छे. बांध स्पर्श करवो; निधत कर निकाचित कर. आ कर्म परिणामने आश्रयी बन्धाय छे, अने सारा भावथी तेनो नाश थाय छे, ए बन्नेने ते जाणे छे. प्रश्न –आ फरीथी केम कछु ? उत्तरः- पुनरुक्त दोष लागतो नथी; कारणके, एनावडे कर्म छोडवानुं बतान्युं छे. प्रश्न - उपर बतावेला गुणोवाळो साधु छद्मस्थ कहेबो के, केवळी कहेवो ? उत्तरः- उपरनां विशेषण केवळी साधुने न घटे; माटे, छद्मस्थ लेवो; तो केवळीनी शी वात. प्रश्नः - कुशल साधुना केवा गुणो होवा जोइए ? उत्तरः- कुशळ एटले, जेणे घातिकर्मनो संपूर्ण क्षय कर्यो छे, ते तीर्थकर अथवा, सामान्य केवळी छे. अने छद्मस्थ-घातिकर्मथी बन्धायलो मोक्षार्थि तथा, तेना उपायने शोधनारो छे, अने केवळी पोते धाविकर्मनो क्षय थवाथी पोते कर्मी बन्धायलो नथी; पण, अघाति चार कर्म जे भव उपग्रहीक छे, ते तेने होवाथी पोते मुक्त पण नथी; अथवा, तेवा गुणीने छद्मस्थज कहीए छीए. के, 'कुशल' ने, जेणे ज्ञानदर्शन- चारित्र मेळवेलुं छे, तथा मिथ्यात्र, अने वार कषायोनो उपशम करेलो होवाथी; तेने उदयमां न होवाथी ते 'बन्ध' न कहेवाय. आ प्रमाणे, गुणवान साधु कुशळ होय; पछी, ते केवळी होय के, छद्मस्थ होय; पण ते साधुना आचारने पाळतो होवो जोइए. जेम साधु माटे कं; तेम, बीजा मोक्षाभिलाषीए पण वर्त्तं ते बतावे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४१६॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४१७॥ www.kobatirth.org से जंच आरभे जं नारभे, अणारद्धं च न आरभे, छणं छण परिण्णाय लोगसन्नं च सबसो (सू० १०३ ) जे संयम अनुष्ठान संपूर्ण कर्मक्षय माटे आदरे; ते मिथ्यात्व अविरति विगेरे संसारनां कारणने न आरंभे; एटले, साधुपणुं | अराधे; अने संसारीपणुं छोडे; एटले, अढारे प्रकारनां पापो विगेरे जे एकांतथी दूर करवानां छे, तेवां पापो छोडीने संयम अनुष्ठानने करीने मोक्ष पामे अने केवळी, अथवा, उत्तम साधुओए जेने अनाचीर्ण क; ते पोते न करे; अने मोक्ष अनुष्ठान करे. बळी, जिनेश्वरे त्यागवा योग्य कझुं; तेमां मुख्यत्वे हिंसा छे. ते हिंसानां कारणने जाणीने साधु तेने छोडे, ज्ञ-परिझाए जाणे; अने प्रत्याख्यान परिझाए त्यागे अथवा, क्षणनो अर्थ हिंसाने बदले समय लइए; तो समयने जाणीने ते काळे ते काम करे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बळी लोक जे गृहस्थ छे, तेमने सुखनी अभिलाषा छे, अथवा, ते कारणे तेने परिग्रहनी संज्ञा छे, तेवी संसारी - वासनाने साधु छोडे, ते मन, वचन, कायाथी पोते न करे, न करावे; न अनुमोदे; तेथी कछु केः - उपरना गुणवाळो धर्मकथा-विधि जाणनारो, बन्धायला ने मुकावनारो कर्मने छेदवामां कुशळ, अने बन्ध-मोक्षनी खोळ करनारो सुमार्गे चालनारो, कुमार्गने समजी अढार पापने रोकनारो, संसारी-लोकनी स्थिति चाणारो जे मुनि छे, तेने भुं थाय ते बतावे छे. उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुणे निहे कामसमणुन्ने असमिय दुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवहं अणुपरियes, (सु० १०४) तिबेमि लोकविजयाध्ययनम् ॥२॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४१७॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४१८॥ www.kobatirth.org जे परमार्थथी जोनारो छे, तेने त्रीजा उद्देशाथी लइने आ उद्देशाना छेडा सुधी जे दोष बताव्या; जेनाथी नारकादि गति भोगववी पढे; ते उद्देशो छे, ते गीतार्थ साधुने न होय; तथा बाळ (मूर्ख) संसार प्रेमी होय; ते स्नेह करीने कामनी इच्छाथी दुःखना आवर्त्तमांज वारंवार वर्ते छे. एवं हुं हुं छं. (टीकाना श्लोक २५०० छे.) छट्टो उद्देशो समाप्त थयो. सूत्र अनुगम तथा सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेपो सूत्रने स्पर्श करनारी निर्युक्ति सहित पूरो थयो नयोनुं वर्णन बीजे स्थळे कधुं छे. अहीं संक्षेपामां ज्ञान क्रियानुं मधानपणुं जाणवुं. तेमां पण पोते ज्ञानवाळो ज्ञानने एकांत खेचे अने क्रिया उठावे अथवा क्रियावाळो क्रियाने पकडी राखे तो ते मिध्यात्वी छे. शिष्यने एम कछु के तमारे बन्नेने अपेक्षापूर्वक समजीने बनेने आराधवां ॐ शांति लोकविजयनामनुं बीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. इतिश्री आचाराङ्गमूत्रे द्वितीयो भाग समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥ 55555 फ्रफ़ समाप्त. फफफफफ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४१८ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie 00809090000000000308 @000000 এpto@@!@pbdpdbd.b:edpdbhটুকটুghtbdpopppppppdbghtn@bdb ॥ इति श्रीआचाराङ्गसूत्रेद्वितीयोभागः समाप्तः ॥ * কটকটচেকচিকককককককককককককককককককককককক Seebeeee8eeeeeeeeeelo For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only