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आचा०
॥४१८॥
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जे परमार्थथी जोनारो छे, तेने त्रीजा उद्देशाथी लइने आ उद्देशाना छेडा सुधी जे दोष बताव्या; जेनाथी नारकादि गति भोगववी पढे; ते उद्देशो छे, ते गीतार्थ साधुने न होय; तथा बाळ (मूर्ख) संसार प्रेमी होय; ते स्नेह करीने कामनी इच्छाथी दुःखना आवर्त्तमांज वारंवार वर्ते छे. एवं हुं हुं छं. (टीकाना श्लोक २५०० छे.) छट्टो उद्देशो समाप्त थयो. सूत्र अनुगम तथा सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेपो सूत्रने स्पर्श करनारी निर्युक्ति सहित पूरो थयो नयोनुं वर्णन बीजे स्थळे कधुं छे. अहीं संक्षेपामां ज्ञान क्रियानुं मधानपणुं जाणवुं. तेमां पण पोते ज्ञानवाळो ज्ञानने एकांत खेचे अने क्रिया उठावे अथवा क्रियावाळो क्रियाने पकडी राखे तो ते मिध्यात्वी छे. शिष्यने एम कछु के तमारे बन्नेने अपेक्षापूर्वक समजीने बनेने आराधवां ॐ शांति
लोकविजयनामनुं बीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. इतिश्री आचाराङ्गमूत्रे द्वितीयो भाग समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
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समाप्त.
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सूत्रम ॥४१८ ॥