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आचा०
॥३५२॥
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वली ते धर्मभ्रष्ट पोते बोतरागना उपदेश स्थानमां स्थिर थतो नथी. पण तेने बदले अनुचित स्थानमां वर्त्त छे. ते बतावे छे. वितथ ते असत् वचन दुर्गतिनो हेतु छे तेने पामीने अकुशळ अथवा खेदने जाणनारो असंगम स्थानमां वत्ते छे. अथवा वितथ एटले | ग्रहण करवा योग्य भोग नथी. जुदु जे संयम स्थान “छे तेने पामीने खेदने जाणनारो निपुण साधु तेज स्थनमां एटले कर्मने हवामां तत्पर रहे छे अर्थात् पोताने सर्वज्ञ प्रभुनी आज्ञामां स्थापे छे. आ उपदेश जे शिष्य ज्यां सुधी तत्वनो बोध पाम्यो नथी तेने सुमार्गमां वर्त्तवा अपाय छे. पण जे तत्खनो जाण तथा हेय ( त्यागवा योग्य ) उपादेय ( ग्रहण करवा योग्य ) नुं विशेष जाणे छे, ते बुद्धिवान पुरुष यथाअवसरे यथायोग्य करवुं, ते पोतानी मेळेज करे छे; ते बतावे छे.
उसो पासगस्स नत्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव अणुपरि (सू० ८१) त्तिबेमि ॥ लोकविजये तृतीयोदेशकः ||
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उद्देश उपदेश एटले सत् असत् कर्त्तव्य तेना आ देशने जे जाणे ते पश्य जाणवो तेज पश्यक छे. तेने आ उपदेशनी जरुर नथी. ते पोतेज समजे छे.
अथवा पश्यक ते सर्वज्ञ अथवा तेना उपदेश प्रमाणे चालनारो जाणवो.
जे काय ते उद्देशो. ते नारकादि चार गति अथवा उंच नीच गोत्रनुं कहेवुं. ते उपर कहेला सर्वज्ञने अथवा उत्तम साधुने नथी. कारण के थोडाज वस्त्रतमां तेनो मोक्ष थवानो छे.
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सूत्रम् | ॥३५२ ॥