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8 सूत्रम्
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॥३२४॥
॥२४॥
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विणावि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारित्ति पवुच्चइ, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुठ्ठाइ संजोगट्टी अट्टालोभी आलंपे सहकारे विणिविट्ठचित्ते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहि दंडसमायाणं संपेहाए भया
कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा आसंसाए (सू०७५) भरतचक्रवर्ती विगेरे कोइ लोभना कारण विना पण दीक्षाने मेळवीने अथवा मूत्र पाठांतरमां विणइत्तलोभं छे तेनो अर्थ संज्वलन लोभने जडमूळथी दूर करीने पोते घाति कर्मनी चोकडीने दूर करीने आवरण रहित निर्मळ केवळज्ञान प्राप्त करी सर्व विशेषथी जाणे छे अने सामान्ययी जुए छे. अर्थात् जेणे पूर्वे बतावेलो अनर्थोनुं मूळ जे लोभ छे. तेने तज्यो छे तेनो लोभ दर थतां मोहनीयकर्म क्षय थतां अवश्ये घातीकर्मनो क्षय थाय छे अने निर्मळ केवळज्ञान प्रगट थाय छे तेथी बीजां कर्म जे भवउप ग्राहिक छे ते पण दूर थाय छे (जेनां घातो कर्म दूर थयां तेना अघाती कर्म सर्वथा स्वयं नष्ट थाय छे.) तेथी लोभ दूर थतां अकर्मा ए, विशेषण मूत्रमा आप्युं छे. आ प्रमाणे लोभतजवो दुर्लभ अने तजवाथी अवश्य कर्मनो क्षय थाय छे तेथी शुं करवू ते कहे
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