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आचा०
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आसं च छन्दं च विचि धीरे ? तुमं चेव तं सलमाहद्ध, जेण सिया तेण नोसिया, इणमेव नाव बुज्झंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पवहिए, ते भो ! वयंति एयाई आययणाई, से दुःखाए मोहाए माराए नरगोए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्मं नाभि जाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्मं संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं (सू० ८४ ) गुरु उत्तम शिष्यने कहे छे के—
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तुं भोगोनी आशाओने तथा भोगोना अभिलापोने छोड, धी. (बुद्धि) तेना वडे राजे. ( शोभे ) ते धीर पुरुष जाणवो. तेवा उत्तम शिष्यने गुरुनो उपदेश लागे छे. तेथी कहे छे के हे शिष्य ! भोगमां दुःखज छे. अने तेमां सुखनी प्राप्ति नथी. (मृगतृष्णामां जळ नथी. पण जळनो खांटो आभास छे तेम भोगोमां सुख नथी. ) आ प्रमाणे शिष्यने गुरु समजावे छे. अथवा पोते आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा तुं भोगनी आशा विगेरे शल्यने छोडीने परमशुभ संयम तेनुं सेवन कर. पण भोगोने विसरी जा कारण जे जे पैसा विगेरेना उपायथी भोग उपभोगनी आशा छे तेना वडे मळतो नथी. पटले जेना वडे भोगो मळे तेज धन विगेरेथी कर्मनी परिणति विचित्र होवाथी धार्या करतां उलडं थाय छे.
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सूत्रम्
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