Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 145
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६२॥ www.kobatirth.org एयं परस मुणी ! महब्भयं नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए जे न निविज्जइ, आयाणा, न मे देइ न कुपिज्जा थोवं लद्धुं न खिंसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा एवं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवासिज्जासि (सू० ८५) ॥ तिमि ॥ गुरु सारा शिष्यने व छे के हे मुनि ! भोगनी आशारूप महा तापथी घेरायेला पुरुषने कामदशानी अवस्थाना मोटा भयने तुं प्रत्यक्ष जो, कामीने डगले डगले बीजानो भय छे. तेथी मोटो भय तेज दुःख छे. अने भोग लंपटोने मरणनुं कारण छे. तेथी ते मोटो भय को, तेथी हे शिष्य ! आ लोक अने परलोकमां भय आपनार भोगोने जाण, तेथी शिष्ये शुं करवुं ते गुरु कहे छे. मातुं ते भोगोथी तारा आत्माने दुर्गतियां न नाखीश, तुं कोइ जीवोने दुःख न आपीश. तेज प्रमाणे बीजा कोइने जुटुं बोली न फसावीश तेम चोरी पण न करीश विगेरे पांचे पापोने त्यजजे. भोगी दूर रहे छे अने जीव हिंसाथी दूर रहे छे. ते महात्माने शुं गुण थाय छे ते बतावे छे. ते भोगोनी आशा अभिलाषा त्यागनार अममादिसाधु पंच महाव्रतना भारथी पोतानो स्कंध नमावेलो अनेक कर्म विदारण करवाथी वीर पुरुष इंद्र विगेरेथी स्तुति कराय छे. प्रश्न – क्या पुरुषनी स्तुति थाय छे ? उत्तर - जे महात्मा आत्माने ग्रहण करवा योग्य तत्वने ग्रहण करे छे एटले वधां घातीकर्म क्षय थवाथी बधी वस्तुनो प्रकाश करनार केवळज्ञान तेने प्रकट थवाथी अन्यावाध सुख मळे छे. ते ज्ञान मळवानुं मुख्य कारण संयमनुं अनुष्ठान छे. तेमां दोष ल For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३६२॥

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