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मत्रम
॥३६९॥
उत्तर-अशुद्ध ते सामान्य शब्द छे, अने पूति शब्द लेवाथी अहीं आधाकर्म विगेरेनी अशुद्ध कोटि पण बतावी, अने तेनो & आचाल मोटो दोष होवाथी तेनुं प्रधानपणुं बताववा फरी कहुं छे, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे. गंध शब्द लेवाथी (१) आधाकर्म (२) औद्दे
शिकत्रिक (३) पूति कर्म (४) मिश्र (५) बादर प्राभृतिका (६) अध्यय पूर्वक एम छ प्रकारना उद्गम दोष अविशुध्ध कोटिनी अंदर ॥३६९॥ रहेला छे, अने बाकीना विशुध्धकोटिमा छे ते आम शब्दवडे बताव्या छे, तथा सूत्रमा सर्व शब्द छे, ते बधा प्रकारोने सूचवे छे,
तेथी एम जाणवू के, कोइपण प्रकारे अपरिशुध्ध, अथवा पूति होय; तो, ते दोषित भोजन विगेरे ज्ञ-परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान, परिज्ञावढे निरामगंधवाळो बने; एटले निर्दोष भोजन विगेरे लेनारो वर्ते; बने; तेथी पोते ज्ञान दर्शन-चारित्र नामना मोक्षमार्गमा सारीरीते वर्ते; अने संयम अनुष्ठानने पाळे. ___आम शब्द ग्रहण करवाथी खरीद करेलु साधुने न कल्पे; छतां, अल्पसत्त्ववाळा साधुने ओछं समजाय; तेथी विशुध्धकोटिमां | रहेल व्रतदोष छे, एम जाणीने ते ले, तेवी तेनी वृत्ति, न थाओ; ते माटे फरीथी तेनुं नाम लइने निषेध करे छे.साधु माटे वेचातुं आणेलं; पण साधुए न लेवु ते बतावे छे:
अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से एकिणे न किणावए, किणंतं न समणुजाणइ, से भिक्ख कालन्ने बालन्ने मायन्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणुहाई अपडिण्णे (सू०८८)
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