Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 180
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तम साधुओने उपर कहेल प्राणीओनी हिंसावालुं काम वासनानुं अथवा वैदकशास्त्रनुं भणवा भणाववानुं होय नहिं. एटले जेम बाळजीवो करे तेम साधुओने करखुं कल्पे नहिं, तेओनुं वचन पण साधुओए सांभळबुं नहिं. आ सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे, पांचमो उद्देशो समाप्त थयो. वे छट्टो उद्देशो कहे छे. पांचमा साथ छठ्ठा उद्देशानो आ संबंध छे के, संयम देहना निर्वाह माटे लोकोमां जनुं, पण तेमनी साथै प्रेम न बांधवो एवं कं ते हवे सिद्ध करे छे. आ सूत्रनो पूर्वना सूत्र सानो संबंध कहे छे: - एटले, “ ९५ मा " सूत्रनी छेवटे कं केः- उत्तम साधुने चिकित्सा विगेरे न होय. अहींआं "९६" सूत्रमां पण तेज कहे छे. से तंबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्वाय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा । ( सू० ९६ ) जेने चिकित्सा न होय; ते अनगार कहेवाय; अने जे जीवोने दुःख आपनार चिकित्सानो उपदेश आपको; अथवा तेनुं कृत्य करवुं ते पाप छे, एम जाणीतो (गीतार्थ) साधु ज्ञ - परिज्ञावडे तथा, प्रत्याख्यान परिज्ञावडे जाणीने तथा पाप छोडीने आदानीय ( ग्रहण करवा योग्य) परमार्थथी भाव आदानीय ज्ञानदर्शन- चारित्र छे, तेने ग्रहण करीने पापकर्म कोइपण वखते न करे तेम न करावे; | अने करनारने अनुमोदना पण न आपे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥३९७॥

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