Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 178
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥३९५॥ मुखो एक मुख विना रद छे, तेथी गुरु शिष्यने कहे छे, संसारी कामी जीवोनां दुःख जोइने तेमने सुखी न मानतां भोगोनी इच्छा न करवी. आचाल बली संसारी भोग वांच्छकनुं स्वरूप कहे छे. पोते कामना स्वरूपने अथवा तेना कडवा विपाकने न जाणीने तेमां चित्त राखेलो बीजानी सुंदर स्त्रीओ जोइने ते न मळवाथी अथवा पोतानी बहाली मिया मरी जवाथी तेनी आकांक्षामां रात दिवस शोक करे छेकधु छे के: "चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे-मुक्ते तु तृप्तिरधिका रमितेऽप्य तृप्तिः ॥ द्वेषोऽन्यभाजि वश वर्तिनि दग्धमानः-प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथञ्चिदस्ति ॥१॥" नाश पामे तो चिन्ता थाय, पासे होय तो तेना धाकथी गभरामण थाय, त्याग करे तो तेनी इच्छा थाय, बोगवतां अतृप्ती थाय, 18 अथवा पति के पत्नी वीजा साथे संबंध करे, तो द्वेष थाय, वश करेतो पति वळेला जेवो थाय, तेथी करीने सुखनी प्राप्ति पतिथी स्त्रीने कदापि पण नथी, आ प्रमाणे धन विगेरेमां पण समजवू के कोइपण प्रकारे काम विपाकमां सुख नथी. पण परिणामे दुःखज छ, एवु वतावीने समाप्त करवा कहे छे. से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हत्ता, छित्ता भित्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता, अकड करिस्सामिति मन्नमाणे, जस्सवि य णं करेइ, अलं बालस्स संगणं, जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ (सू० ९५) तिबेमि ॥ For Private and Personal Use Only

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