Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 170
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३८७॥ www.kobatirth.org पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, । तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् ॥ १ ॥” निश्चय करीने जीवोने भविष्यमां थनारी अवस्थाने विचार्या विना मे जुवानीमां जे जे अशुद्ध कृत्यो कर्या छे, ते परलोकमां जवाना बखते बुढापाथी जीर्ण थयेला शरीरवाळा पुरुषने खेद पमाडे छे. (के, में धर्म न कर्यो. हवे मारी शी दशा थशे ! तथा हवे पस्ताये भुं लाभ ? ) तथा तेज प्रमाणे कडवां फळ अहीं भोगवतां, पापीओ पण झुरे छे, विगेरे उपर बताव्या माफक लंपटोने दुःख पडे छे, ते बुद्धिमान वांचके विचारी लेबुं कां छे केः " सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं । परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ॥ अतिरस्कृतानां कर्म्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ १ ॥” गुणवालुं के अवगुणवालुं कार्य करतां पहलां बुद्धिमाने प्रयासथी विचार के एनुं परिणाम शुं आवशे. कारण के उतावळमां करेला कार्यनुं फळ भोगवतां ते समये हृदयने बाळनारो शल्य समान पश्चाताप विपत्तिना माटे थाय छेआधुं कोण न शोचे ते बतावे छे. कछे के आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ उहुं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाइ गढिए लोए अणुपरियहमाणे संधिं विइत्ता इह मच्चिएहिं, एस वीरे पसंसिए Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३८७॥

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