________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचा०
॥३१७॥
AASARASCIRECAUSESE
एटले आदि शब्दथी इच्छा मदन काम विगेरे पण लेवा ते अज्ञान लोभ काम विगेरेथी साधुने अरति थाय छे. ते बताव्यु | त शंका-अरतिवाला बुद्धिवानने आ ७२ मा मूत्रवडे उपदेश अपाय छे के संयममां अरति थाय तो बुद्धिवान साधुए अरति दूर करवी
सूत्रम् परंतु संसारनो स्वभाव जाणेलो आयूँ कहेवाथी ते अरतिवालो थाय नही अने जो अरतिवालो थाय तो संसारर्नु स्वरुप जाणनारो | विद्वान न कहेवाय आ बेने परस्पर विरोध होवाथी जेम एक जग्याए छाया अने तडको न रहे ते अहीं ते बुद्धिमान न कहेवो अ- X॥३१७॥ | थवा अरतिवालो न कहेवो. का छे के. नज्झानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम?"
जेना उदयथी राग गण (संसारप्रेम) उत्पन्न थाय छे. तेने ज्ञान न कहे, कारणके ज्यां मूर्यना किरणो प्रकाशीत थयां होय त्यां अंधाराने रहेवानी शक्ति क्याथी होय ? विगेरे छे.
जे अज्ञानी जीव मोहथी चित्तमां विकल्प करे ते विषयमुखथी निश्चय (नक्की) रागद्वेष विगेरे सर्व जोडला जे संयमना शत्रु छे, तेमां रति करे अने संयममां अरति करे.
अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते; कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा; विद्वञ्चित्तं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यंसभित्तिं गजेन्द्रः ॥ १॥”
अज्ञानथी आंधळा थएला, सुंदर स्त्रीओना अपांगथी डामाडोळ थएला कामीओ काममा प्रेम धारण करे छे. अथवा वैभवना
For Private and Personal Use Only