Book Title: Acharanga Stram Part 02
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३५३॥ www.kobatirth.org प्रश्नः - क्यो माणस वीतरागना उपदेश प्रमाणे चालतो नथी ? ते कहे छे— "बाळ" राग विगेरेथी मोहीत थएलो ते कषायो तथा कर्मोवडे अथवा परिसह उपसर्गवडे हणाय छे. ते “निह" अथवा जेनाथी स्नेह थाय ते स्नेहि ते जेने छे. ने स्नेह वालो रागी जाणवो. ते इच्छा संसार सुखनो अभिलाषी मनोहर भोगोनो रागी बनी कामनी इच्छावालो ते कामी वारंवार विषयनी इच्छा शांत न पडवाथी तेना दुःखी दुःखीओ बनेलो शरीर अने मनमां दुःखोथी पीडातो रहे छे. कांटा तथा शस्त्रनो घा अथवा गुमडुं कोड विगेरेथी शरीर दुःख भोगवे तथा बहालांनो वियोग अप्रियनो संयोग अनिष्टनो लाभ अने इच्छितनो अलाभ तथा दारिद्र दुर्भाग्यथी मननी पीडाओ भोगवे छे. अने तेनाथी वारंवार आर्त्तध्यान करतो | वारंवार तेमां भमे छे. एटले दुःखना आवर्त्तमां डुबेलो संसारमां भमे छे. ( आ बधानो सार ए छे के-जे अहंकार करे- दीनता करे ते संसारमां भमे अने जे मुनि सुख दुःखमां अहंकार दीनता न करतां चारित्रने समता भावे आराधे ते मोक्षमां जाय ) लोक विजयनो त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. ओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जति जेहिं वा सार्द्ध संवसइ, ते व णं एगया नियया परिवति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमपि तेसिं नालं नाणाए वा सरणाए वा जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३५३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204