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समाहित हो गई। मैं नहीं जानता कि आचार्यश्री किस-किस को लक्ष्य करके प्रवचन करते हैं, पर इतना सुनिश्चित रूप से जानता हूं और अनुभव करता हूं कि आचार्यश्री के प्रवचनों से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से लोगों की समस्याएं समाधान की राह पाती हैं।
मैं मानता हूं, हर प्रवचनकार की प्रवचन करने की अपनी एक शैली होती है। आचार्यश्री की भी अपनी एक शैली है, विशिष्ट शैली है। उनके प्रवचनों में तत्त्व, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, काव्य, आख्यान, संगीत, कथा, दृष्टांत, संस्मरण, घटना, लोकोक्ति, इतिहास, परंपरा, बीते कल की समीक्षा, आनेवाले कल की तस्वीर, वर्तमान युग-बोध, प्रेरणा, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन, प्रयोग का जो मिला-जुला समृद्ध रूप देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वे अपने प्रवचन के लिए कोई एक विषय लेते हैं, उसका प्रतिपादन शुरू करते हैं और उसके बीच में जो कोई विशेष शब्द, दार्शनिक या तात्त्विक संदर्भ, ऐतिहासिक प्रसंग या सामयिक - शाश्वत चर्चा सामने आ जाती है, उसकी कली कली खोलते चलते हैं। इस प्रतिपादन में प्रायः ऐसा अनुभव किया जाता है कि आचार्यश्री ने अपना मूल विषय छोड़ दिया है और वे एकदम विषयांतर हो गए हैं, पर मुझे लगता है, यह स्थूल दृष्टि की बात है। सूक्ष्म दृष्टि कि बात यह है कि आचार्यश्री बिलकुल अपने विषय पर चलते हैं। उनके प्रवचन का मूलतः एक ही विषय है - जागरण; और यह जागरण का स्वर उनके प्रवचन - प्रवचन एवं प्रवचन के हर वाक्य - वाक्य तथा शब्द - शब्द में अनुगुंजित होता हुआ सुनाई देता है । इसे केंद्र में रखकर ही वे विभिन्न संदर्भों में अपनी बात कहते हैं। शुरू किया गया विषय तो बहुत गौण बात है । प्रवचनकार को कहीं-न-कहीं से तो अपनी बात का सूत्र उठाना ही होता है।
हालांकि आचार्यश्री के प्रवचनों में साहित्यिक गुण - सुमनों का सौरभ सहज रूप में महकता है, पर उनके प्रवचनों की विशेषताएं हैं-सहजता, सुबोधता, हृदय को छूने की अर्हता और समस्याओं की समाधायक क्षमता। उनकी इन विशेषताओं को सुरक्षित रखने के लिए अपेक्षित है कि उनका उसी स्तर पर संकलन / संपादन हो । मैं इस दृष्टि से अपनेआपको बहुत अक्षम पाता हूं। पर गुरु गुरु ही होते हैं। वे निर्माता होते हैं। ना कुछ को भी बहुत कुछ बना देते हैं। मिट्टी को भी घड़ा बना देते हैं। अपनी अक्षमता की अनुभूति में भी यह सक्षमता प्राप्त कर मैंने आचार्यप्रवर के प्रवचनों के संकलन / संपादन का काम शुरू किया। उसके
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