Book Title: Kushalchandrasuripatta Prashasti
Author(s): Manichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
Publisher: Gopalchandra Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकुशलचन्द्रसूरिपट्टप्रशस्तिः । ग्रन्थकर्तान्याय-व्याकरण-साहित्यतीर्थ, जैनश्वेताम्बरधर्मोपदेष्टा यतिवर्य पं०प्र० श्रीमणिचन्द्रजी महाराज अथच जैनबिन्दुवृत्तिः मूलकर्तावैदिकधर्माचार्य श्रीकाष्ठजिह्वा स्वामीजी महाराज वृत्तिकारजैनाचार्य श्रीबालचन्द्रसरिजी महाराज संवत् २००८ For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकुशलचन्द्रसूरिपट्टप्रशस्तिः प्रन्धकर्तान्याय-व्याकरण-साहित्यतीर्थ, जैनश्वेताम्बरधर्मोपदेष्टा यतिवर्य पं० प्र० श्रीमणिचन्द्रजी महाराज अथच जैनबिन्दुवृत्तिः मूलकर्तावैदिकधर्माचार्य श्रीकाष्ठजिह्वा स्वामीजी महाराज वृत्तिकारजैनाचार्य श्रीबालचन्द्रसूरिजी महाराज - *52 संवत् २००८ For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक---- गादीतरफसेपं० गोपालचन्द्रजी जैन जैनमन्दिर, रामघाट, काशी मुद्रकके० कृ० पावगी हितचिन्तक प्रेस रामघाट, काशी For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 किंचित् वक्तव्य के आज हमको श्राप सज्जनों के करकमलों में यह पवित्र ग्रन्थ रखते हुए हर्ष होता है। इसे पढ़कर विक्रम अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दियों में जैनधर्म की दृष्टि से ऐतिहासिक परिस्थिति क्या थी, इसका बोध होगा, जिससे जैनों में नव चेतनात्मक स्फूति उत्पन्न होगी, व उनको ज्ञात होगा कि, हमारे पूज्य धर्माचार्यों ने इन प्रदेशों में नष्टप्राय जैन-ज्योति को पुनः प्रदीप्त करने में कितना परिश्रम उठाया है। . उन्हींकी श्रादर्श तपस्या के सुपरिणाम में आज भी हमारे इन अंग, बंग, कलिंग, मगध, बिहार, काशी, कोशल श्रादि प्रदेशों में "जैन संस्कृति" कायम रह सकी है, जो कि "अहिंसा संयम तप प्रधान" है । यद्यपि जैन-इतिहास से यह स्वयंसिद्ध है कि ये सर्व प्रदेश एक समय "जैन संस्कृति" के महान् केन्द्रस्थल हो रहे थे, किन्तु "समय एव करोति बलाबलं" इस प्रकृति नियमानुसार उत्थान पतन होना स्वाभाविक है । तथापि आज भी इन प्रदेशों में महत्व के जैनों के अनेक पवित्र धर्मतीर्थ क्षेत्र हैं। विशाल जैन श्रीसंघ है, अनेक विद्वान् हैं । श्राज भी इन प्रदेशों का जैन श्रीसंघ ७ व्यसनो से मुक है, यह जैन संस्कृति की सफलता के सुस्पष्ट लक्षण हैं । जैन संस्कृति और जैन श्रीसंघ के लिये यह कितने सौभाग्य का विषय है कि उन पूज्य धर्माचार्यों ने-जिन्होंने भीषण परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्यों के पालन द्वारा धर्म-सेवा करके असीम श्रेय प्राप्त किया था। प्रस्तुत पुस्तक में विक्रम अठारहवों शताब्दी में, काशी कोशल श्रादि प्रदेशों में से नष्टप्राय जैनसंस्कृति को, ऐतिहासिक पवित्र जिनेन्द्र भगवान को कल्याणक भूमियों के नामशेष तीर्थ-क्षेत्रों का पुनरुद्धारकर जैन धर्म संस्कार विहीन जैन श्रीसंघों को, पुनः धार्मिक नवजीवन देनेवाले, उस कालके महान् धर्मज्योतिर्धर परम पूज्य सद्गुरुदेव पूज्यवर प्राचार्य श्रीकुशलचंद्र सूरीश्वरजी महाराज की धार्मिक जीवन ज्योति से किस तरह से पुनः इन प्रदेशों For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में धार्मिक प्रगति हुई है, और उनकी पाट परंपरा के महान् धर्माचार्यों के द्वारा जो जैनसंघ और जैन शासन की महत्व की अमिट महान सेवाएं हुई है, जैन शासन के हित कार्यों में जैन श्रीसंघ के मान्य अग्रणी जैन सद्गृहस्थों का जो अनुपम सहयोग गुरुसेवा दृष्टि से प्राचार्यश्री को रहा, जिसका कितना सुन्दर परिणाम हुआ, यही प्रस्तुत पुस्तक में प्रदर्शित किया है, जिसका उद्देश्य भविष्यकालीन जैनश्रीसंघों में भी अपने पूर्वाचार्यों के पवित्र कार्यों की विस्मृति न हो, और वे अपनी संस्कृति के अनुगामी बने रहे, यही इस ग्रन्थ के निर्माण में हेतु है। - इस ग्रन्थ का निर्माण वर्तमान पटधर पूज्यवर विद्यालंकार प्राचार्य श्रीहीराचंद्र सूरीजी महाराज के स्वर्गवासी विद्वान् शिष्य न्याय व्याकरण साहित्य तीर्थ श्वेताम्बर. जैनधर्मोपदेष्टा पूज्यवर यतिवस्य श्रीमणिचन्द्रजी महाराज ने किया है। आप एक प्रखर विद्वान श्वे० यति थे, पर ३० वर्ष के वय में ही आप देवलोकवासी हो गये थे, उन्हीं के स्मारक में, उन्हीं की इस पवित्र कृति रूप ग्रन्थ को, गादी तरफ से प्रकाशित किया है। इसके साथ ही पूज्य श्री काष्ठजिह्वास्वामीजी महाराज का लिखा "जैनबिन्दु' ग्रन्थ, जिस पर परम पूज्य गुरुदेव समर्थ विद्वान आचार्य श्री १००८ श्रीवालचंद्र सूरिजी महाराज श्री ने हिन्दो में वृत्ति लिखी है। वह ग्रन्थ भी इसके साथ प्रकाशित किया है, जिससे पाठकों को ज्ञात होगा कि काशीराज के गुरु वैदिक धर्म के महान् श्राचार्य स्वामीजी का "जैनदर्शन" के विषय में क्या अभिप्राय था। यह स्पष्ट होने के लिये ही दोनों ग्रन्थों को एक साथ प्रकाशित कर दिया है, श्राशा है। जैन-जैनेतर विद्वान् इससे लाभ उठावेंगे। जो अशुद्धियां दृष्टिदोष से रह गई हों, उनको दयालु विद्वानवर्ग सुधार लेवें। किमधिकं सुक्षेषु श्री सरयूप्रसाद शास्त्री प्रधानाध्यापक, श्री खेतान विद्यालय, काशी For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3556 SaamaHOMHILABipan THANNECHARGOINE - - - - - यविन्यात्म जैन शासन प्रभावक, काशी, कोशल प्रान्तों के तीर्थीद्धारक जैन-परम पूज्य गुरुदेव श्री १००८ श्री आचार्य श्री कुशलचंद्रसूरिजी महाराज For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "पूज्य गुरुदेव" "श्रीकुशलचंद्रसूरिपट्टप्रशस्तिः " श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथमनिशं श्रीरामघाटस्थितम् काश्यां नौमि जिनार्तिसंकटहरं सार्वीयलक्ष्मीयुतम् । आधिव्याधिहरं भवोदधिकषं भव्यांगिसंपद्प्रदम् योगीन्द्रनमितैर्नतं धरणिराट् पद्मावती सेवितं ।। १ ।। सरदामां शारदां स्तौमि संततं सुविचक्षणां । नित्यं नवेन्दुनिर्नाम नौमि नेत्रामृतां नवां ॥ २ ॥ पूर्णप्रेमाङ्कितं पार्श्व पापाब्धिपारगं प्रभुं । प्रमोदेन प्रणीपत्य प्रस्तवीमि परंपराम् ॥ ३ ॥ सूरीश्वराणां महनीयमुख्यो समस्तशास्त्रांबुधिसंचरिष्णुः । नमामि नित्यं निरवद्यनेमिचन्द्रं सुरीन्द्रं किल सद्गुरुं मुदा ॥४॥ वीरादखंडितवदान्यपरंपरायां संजातपंडितजिनेश्वरसूरिराजात् । जाते वरे सुविहिते विधिमार्गवाचि गणेऽभवत् खरतरे जिनलाभमूरिधा५।। तस्याभवत् प्रवरपाठकहीरधर्म शिष्यो दमी स्वपरशास्त्ररहस्यवेत्ता । चक्रे लसन्नवपदात्मकसिद्धचक्रादेश्चैत्यवंदनस्तुतिस्तवनानि येन ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाचंयमः शमदमादिगुणौधधर्ता धर्मादिकृत्यकुशलः कुशली जनानाम् । विद्वत्तमः कुशलचन्द्रगणिस्तदीय शिष्यो यतिप्रवरपाठकमुख्यदान्तः॥७॥ श्रेयांसचन्द्रप्रभपार्श्वनाथसुपार्श्वकल्याणकपूतभूमौ । शरीरभूसंख्यक(१६)तीर्थजीर्णोद्धाराणि योऽचीकरदार्यपूज्यः ॥८॥ योऽकारयद् कौशलदेशसंस्थ खेटेन्दु(१९)कल्याणकसद्सायां। . आधादितीर्थकरनष्टतीर्थोद्धाराणि सद्देशनया च भूयः ॥९॥ पूर्वदेशवर्णनम्यत्राहतां तीर्थकृतां च जन्म दीक्षादिकल्याणकपूतभूमिः। यस्य प्रदेशोऽपि पवित्रोऽस्ति नरोत्तमाईद्गणभृद्विहारैः ॥१०॥ संवेग-निर्वेद-शास्तिकादिगुणोधभृत्तत्वविदो वरिष्ठाः । यत्राभवन्नार्हतधर्मनिष्ठा अनेकशः श्राद्धजनाश्च दक्षाः ॥११॥ आसन् गुरोर्देशनया प्रबुद्धाः यत्रैधमानोच्चवरेण्यभावात् । सहस्रशो भव्यजनान् विहाय गृहादिकं दीक्षितजायमानाः १.१२॥ आहत्यश्रीसाधुसंपात्तधर्मनिष्ठश्राद्धौधेन यत्राजनिष्ट । केन्द्रस्थानं सद्गरिष्ठं शरीरीकारुण्याद्युत्कृष्टसत्कृत्यजुष्ठं ॥१३॥ पूर्वीयदेशेषु च तेषु सर्वेतद्वासिजैनाः भवितव्ययोगात् । शनैः शनैजैनवृषं विहाय विधर्मिकाभक्ष्यभुजो बभूवुः ॥१४॥ For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यतो मरुद्गुर्जरमेदपाटसौराष्ट्रकच्छादिकदेशवास्याः । तत्राधुना श्राद्धजनाः वसंति सम्मेतशैलादिविभूषिते हि ॥१५॥ ग्रामानुग्राम विहरन्नथैकदा शिष्यप्रशिष्यादिगणैर्निजैः समं । संम्मेतशैलादिकतीर्थयात्रया पवित्रयन् जन्म निजं विशारदः॥१६॥ संबोधयन् भव्यजनान् विकाशयन् सर्वत्रधर्म जिनजल्पितं वरम् । विमदर्यन् वादिगणानगात् क्रमात् काशी पुरीं श्रीकुशलेन्दुपाठकः ॥ रामघाटे समागत्य यतिधृन्दसमन्वितः । कुशलचन्द्र सुरोराट् वरेण्यगुणवारिधिः ॥ १८ ॥ काशीवर्णनम् वैदिकधर्मिणां सा च गंगानदी तटस्थिताः। परमा-तीर्थभूतास्ति पूर्वदेशविभूषिका ॥ १९ ॥ जन्ममरणसंस्कारदानस्नानादिकाक्रियाः । क्रियन्ते तत्र तैः सर्वैः सद्गतेरभिलाषया ॥२०॥ तस्यां गवेषमाणोऽपि कुशलचंद्र पाठकः। ... स्थानं सर्वत्र न प्राप यतियोग्यं च कुत्रचित् ॥ २१ ॥ तैश्च विचारितं हं हो ! यत्र पार्श्वजिनेशितः । अजनि जन्म दीक्षादि कल्याणकं शुभप्रदम् ।। २२ ।। For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ४ ) ये समवसृता यत्र तीर्थंकरा : जिनेश्वराः । वीरा वीराः क्षमावतो वाचंयमा सहस्रशः ॥ २३ ॥ जना विहृत्य यै-यंत्र लक्षशः प्रतिबोधिताः । तत्रस्थानं मया प्राप्तं नोतरितुं च कुत्रचित् ॥ २४ ॥ आचार्य चरणानां दुर्धर प्रतिज्ञाकरणं- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिंसा परमो धर्मः सर्वशर्मसमर्पकः । प्रायरस्तं गतो वीक्ष्य दूनायतिमतल्लिका ॥ २५ ॥ कष्टं कृत्वा कायक्लेशं विधाय जैनो धर्मो रक्षणीयो मयात्र । मन्त्रैर्यन्त्रैः स्वात्मशक्त्या स्वबुध्या नष्टान् भ्रष्टान् सत्पथे तान्नयामि ॥ २६ ॥ ततोऽत्र साहसं कृत्वा यतियोग्यमुपाश्रयम् । लुप्तप्रायं पुनर्जें नतीर्थ ख्यातीकरोम्यहम् || २७ || रामघाटे वरस्थानं शुभं शकुनसूचितम् । भाविलाभं च तैः प्राप्तं केन्द्रस्थानमिवाद्भुतम् ॥ २८ ॥ वसंत परतस्तस्यार्यपरिव्राजकादयः । अन्यतीर्थिकदेवौकः पाठशालामठादिषु ।। २९॥ तारागणै र्यथा- चंद्रो नियोगिभिर्नराधिपः । तस्मिन् स्थाने तथा रेजे शिष्यादिभिः स पाठकः ||३०|| बहुश्रुततया तस्य ख्यातिर्जाता पुरे ततः । For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वजिज्ञासवो यांत्यायान्त्यंतिकं विशारदाः ॥३१॥ गमनागमनं विद्वद्-सभायां मानपूर्वकम् । विद्वत्तयाभवत्तस्य द्रव्यकालादिवेदिनः ॥ ३२ ॥ इत्थं भूतो गुणयुतो महनीयमुख्यो दान्तो दमान्वितदुसाध्यदमी दमान्तः । गंगानदीपटतटे बहु तप्यमानः शान्त्यादि साधनपरोऽत्र सुरीश्वरोऽयम् ॥ ३३ ॥ वेदान्तिकान् वादविचक्षणान् जनान । विद्यावतां विश्वविमोहकान् विभोः । विनम्रभूतान् विविधान् विभास्वरान् वशी विचक्रुर्विनयादिवैमुखान् ॥ ३४॥ करवाणि किं काव्यकृति कथां वा-गतं सुतीर्थं प्रति संसृजामि । जिनालयं पार्श्वजिनाधिपस्य चिन्तामणेरत्र नवं करोमि ॥३५॥ इति विचाराब्धिनिमजमानो विभुर्विभाव्येहबंध्यकार्यम् । कार्य मयात्रैव विहाय सर्व कार्य सुधार्य मनसा निवार्यम् ॥३६॥ सौजन्यतायां हि पतन्तु विना न मानसे मेऽत्र पतन्तु क्वापि । श्रेयांसि विघ्नानि सदा सृजति तथापि धीरा न भवन्ति कातराः॥३७॥ निन्दन्तु लोकाः निपुणाः सदैव स्तुवंतु वा गालीप्रदान वीराः। For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मा प्रयातु प्रलयं तु यातु नैवानुसंधाऽस्मदीया प्रयातु ॥३८॥ परं न कार्य नवरं कदापि आर्य विना कोपि विशालकार्यम् । सदा विचार्य सहसा न धार्य कार्य शुभार्य प्रतिसंविचार्यम् ॥३९॥ एवं मत्वा चेतसि धीरवीरः कुर्वन्नित्यं मंत्रराजाधिजापम् । तस्याधीना वाग्मिकानां वरेण्या जाता ख्याता वादिरूपा विचित्रा॥४०॥ चरणकरणमध्ये ख्यातिरस्यातिजाता परमविमलमंत्र मुख्यधीमन्यमानः । नरपति रपि तेषां पंकजे संप्रणाम कारं कारं काष्ठजिह्वातिप्रेम्णा ॥४१॥ काष्ठजिह्वाम्वामिसंम्मेलनम्काष्ठजिह्वाख्यसंन्यासी सर्वशास्त्रविशारदः। अद्वैते शांकरः कोऽपि तर्केऽपि गौतमो परः ॥४२॥ उत्तरोत्तरवक्ता च ब्रुवतोऽपि घृहस्पतेः । रसनां कलहेमूलां धर्षितारातिमंडलां ॥४३॥ सर्वानर्थकरौं बुध्वा काष्ठे गुप्ति चकार सः । तदा प्रभृतिमारभ्य काष्ठजिह्वेति विश्रुतः ॥४४॥ विश्वविख्यातयशसः काशिराजस्य भूभृतः । काष्ठजिह्वः गुरुः साक्षाद् पंडितःप्रवरो महान ॥४५॥ For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत्वा प्रगाढं पांडित्यं भव्यलोकप्रशंसितम् । पूज्य श्रीकुलचन्द्रस्य सूरीश्वरमहामुनेः ॥४६॥ तदन्तिकं समागत्य वार्तालापं विधाय च । धर्ममध्यात्मिकं साधं गुरुणा तत्ववेदिना ॥४७॥ प्रमुदितो गुरुत्वेन तमङ्गीकृत्य नित्यशः । समागत्य गुरोः पावं वार्तालापं च धार्मिकम् ॥४८॥ क्रमात्स जैनतत्वज्ञः संजातो रचितं पुनः । तेन सन्यासिना जैनबिन्दुशास्त्रं मनोहरम् ॥४९॥ प्रशस्तशास्त्राम्बुनिधि निमनो विशालनेत्रोऽतिविचारदक्षः। जिह्वां निजां काष्ठगृहे विधाय सदा सदाचारसमाजमध्ये ॥५०॥ आसंशये संततशांतचित्तः स्तुवन् गुणान् काशिनरेशपावें । क्रमो विनीतः खलु काष्ठजिह्वः एकोऽत्र वादीन्द्रचूडामणिनिमः।५१॥ सूरीश्वगे विश्वविमोहको हि समागतोस्ति तटिनीतटे भो !। विलोकनीयो भवतामवश्यः सतां हि सङ्गोमुविदुर्लभोऽस्ति । ५२।। निशम्य श्लाघां तु सूरीश्वरस्य श्रीपूज्यपादस्य गुरोर्मुखाद्धि । सम्मानयित्वा हि नराधिपेन आकारयामास प्रमोदमेदुरात् ॥५३॥ प्राज्ञापितास्तु विवादतत्पराः नामांकिता हि नृपतेः समायाम् । सच्छाब्दिकाः न्यायप्रगलभकाश्च दृष्ट्वा सरि चेतसि संविदध्युः॥५४॥ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोयं ब्रह्मा वास्ति किं देववाणी किंवा विष्णुः पार्वतीशो महात्मा। किंवा सूर्यो वा निशानाथ एव किंवा कामो विश्ववृन्दारकोऽयं ॥५५।। ब्रह्मा नैव न देवबोधि परमो नारायणो नैव हा ! शंभुनैव न भानु भासुरमणिर्नायं निशानाथ नु । कामो नैव मनोहरो नहि जिनो देवो न तु तात्विकः हं हो ! ज्ञातमहो विकल्परहितः सूरीश्वरोऽयं महान् ॥५६॥ ध्यात्वैवं बहुपंडिता खरतरा म्लानानना निश्चिताः वादीन्द्रं प्रतिकूर्महे कथमहो वादं विवादं ह हा ! । ब्रह्माशंकर वासुदेवप्रमुखा रक्षंतु ह्यस्मानहो । नोचेत्कारणकार्ययोर्बहुविधं विघ्नं ह्यवश्यं सदा ॥५७ ॥ एवं हृदि सर्वविचार्यमाणाः परस्परं तर्कवितर्कमाजः । तदेश्वरीनाथ समूचिवान् भो कुर्वन्तुवादं ह्यथ पंडितास्तु ॥५८॥ अध्यक्षः काष्ठजिह्वो हि जातः पंडितसंसदि । वादी विरेजिरे तत्र खद्योतामासुभास्वरम् ।। ५९ ॥ शरदाभा शारदा सास्तु पलायितुं प्रचक्रमे । महता परिश्रमेणैव रुद्धा केनापि वादिना ॥ ६० ॥ एतस्मिन् समये काष्ठजिह्वो जगाद जल्प्यताम् । संमुखीभूय कोप्यत्र शास्त्रार्थ कुरुतां सताम् ॥ ६१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगादैवं गुरुं तत्र कुशलसूरीन्द्रं प्रति । प्रतिपक्षो क्षमो ह्यत्र नाभवत् भवतां प्रति ॥ ६२ ॥ तदा गुरुर्जगादैवं कुशलसूरीन्द्रो मुदा। स्वयमेव करिष्येहं पक्षं प्रतिपक्षं ह्यथो । ६३ ।। अधोधरे कृतवानत्र सिन्दूरबिन्दुकं तदा । वादं प्रचक्रमे पश्चात् प्रतिवादं स्वयं सुधीः ॥ ६४ ।। सार्धद्वयघटिका तु जाते प्रतिपक्षपक्षान्ते । विजयोऽनेकांतस्य जातो विद्वसंसदि तत्र ॥ ६५ । नेमुः सर्वे पंडितानां वरेण्याः श्रीमत्पादौ प्रेमपूरेण सम्यक् । धर्मलाभो भो! भवंतु भवेऽस्मिन् आशीर्वादो विश्वविश्वस्तकोयं॥६६॥ एवं सम्मानयित्वा विविधगुणयुतैस्तार्किका शाब्दिकाश्च साधं श्रीरामघाटे समरसनिभृतः सूरिराडाजगाम । कंदर्पाभः सूरीन्द्रः प्रवरगुणगणैः गीयमानोऽवतिष्ठन् धर्मध्यानादिशक्तो यतिगणवृषभैः सेव्यमानो विशुद्धैः ।।६७॥ अत्रांतरे काशीनृपोपरि मुदा नेपालदेशाधीश्वरेण प्रेषितः । लेखः शिलायां परिकर्मितोमहत्तं वाचयितुं विविधाशयान्वितः ॥६८।। शक्ता भवेरन्नहि केऽपि पंडिताः परस्परालोकनतत्पराद्भुताः। ततः सरिराजसमीपप्रेषितो यथावदातं कथितं महात्मना ॥६९।। For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) वृत्तं विचित्रं हि नरेश्वरस्य वंशस्य स्पष्टीकरणं कृतं तदा । तुष्टो नरेन्द्रो मूरिणोपरि किल दत्तंच द्रव्यं पृथुलं प्रमोदात् ॥७०॥ कमठप्रतिबोधस्थलप्राप्तिःपुराभवत् पार्श्वजिनेश्वरस्य प्रभांकिता सुंदर "पादुका" च । स्थानं हि तत् किल वेदवेदिभिलुप्तं कृतं संश्रुतमेव संभृतम् ॥७१।। कालप्रमावो विषमो विलोक्यते न निश्चित केन च किं भविष्यति । अतो विधेयोऽत्र मया परिश्रमः पुनर्नवाय करवाणि कार्यम् ॥७२॥ इति परिभाव्य विनिर्मितुं जिनालयं सदुपाश्रयकं च नव्यम् । विरोधिभिभूरिश्रमेण कार्य कृतं विनष्टं तु पुनर्नवीकम् ॥७३॥ एवं त्रिधा कार्यकृतं निपातितं तदा सुरीणा निजचेतसि भृशम् । विचारितं तेन कृतं सुयंत्रं संस्थापितं भित्तिविमध्यभागे ॥७४॥ यः कोऽपि कोपी स्पृशति तु भित्तिं जिनालयस्य परिपाटनाय । पतिष्यति भूतलमध्यभागे इति सूरिणा परिजल्पितं मुदा ॥७५।। अवमन्य तं सुंदर चांद्रवाक्यं रोषाद् विनिपाटयितुं विलमा । ' संस्पर्शमात्रात्पतिता भुवित्वहो! पलायिता:सत्वरकांदिशीकाः ॥७६।। अतःपरं नैव विकुर्महे वयं इत्थं तु कार्य ह्यविचारकार्यम् । कृता समाधीगुरुणा स्यात् तदा सदा सदाचारविकल्पकारिणा ।।७७॥ जिनालयंपार्श्वजिनस्य निर्मितं तुंगं विशालं सुदुपाश्रयान्वितम् । For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परमपूज्य भगवान् - श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जी का बड़ा मंदिर SSSSSS 95DOE परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री कुशल चंदसूरि संस्थापित जैन श्वेतांबर पंचायती बड़ा मंदिर, रामघाट, काशी। - - - - For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११ ) चिंतामणिपार्श्वजिनस्य बिंब यदि लभेच्चेत् सकलार्थसिद्धये ॥७८।। चतुर्थकालीन देवाधिष्ठितश्री प्रभुपार्श्वनाथप्रतिमा प्राप्तिः इति विकल्पो-हृदयेषु जातः सूरीश्वराणां-हि विशुद्धज्ञानिनाम् । रात्रौ तदाधीश्वरदेवकेन दत्तं हि स्वप्नं सकलार्थसिद्धिदम् ॥७९।। पांचालदेशस्य समोस्ति श्राद्धोऽत्र. स्टेशन मुगलाभिधे । पार्श्वेऽस्ति तस्य किल पार्श्वनाथ चिंतामणिनामकबिंबभव्यम् ॥८॥ पण्यं प्रदाय तस्य त्रिंशद् रुप्यकात्मकं श्रीमन् । लात्वा श्रीजिनबिंबं स्थाप्यं नव्ये मंदिरे धीमन् ॥८१॥ प्रातः समेत्य हि सुश्राद्धयुतैः सुधीमन् । श्रीपार्श्वनाथ जिनबिंबयथोक्तमूल्यम् ॥ दायं सुतुष्टिकररूपविलोक्य श्राद्धाः । चिंतामणेः सरसपार्श्वजिनेश्वरस्य ॥८२॥ संस्थापितं प्रवरभावयुतेन सम्यक् । चिंतामणिनिभनिरूपमभावयुक्तम् ॥ सूरीश्वरेण विधिना विविधप्रकारैः । श्रीपार्श्वजिनबिंबमनोभिरामम् ॥८३॥ अद्यापि तं समरसांकित शुद्धरूपम् । नेत्रांमृतांजनसमं सकलार्थसाध्यम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) कल्याणकारकमिदं भवतारकं वैः। ___ राज्यं करोति जिनमंदिर मध्यभागे ॥८४॥ अचीकरोद्रामघाटादि-सिंहरत्नपुरीषु यत् । अयोध्यापुरितिर्थानि कुशलेन्दुर्ननु मूरिणा ॥८५॥ श्रीतीर्थक्षेत्रभेलुपुरस्य पूर्व स्थितिवर्णनम्भेलुपुरे पुरा भट्टजनाधीना चिरंतनी । अभूद् बद्रुमासन्नं श्रीपाश्र्वप्रभुपादुका ॥८६।। जैनास्तान पूजयामासुः विभिन्नदेशवर्तिनः । यात्रार्थमागता स्वात्मविशुद्धिकरणेच्छवः॥८७।। पूज्यैः प्रबोध्य-तान भट्टान् कुशलचंद्रसूरिभिः । तत्पादुकास्पदं श्वेतांबराधीनं व्यधीयत ॥८८।। ततो गुरोस्तेषु सुतीर्थकेषु भेलुपुरेन्दुपुरिस्थानकेषु । श्रीहीरधर्माख्यसूरीश्वरेण सम्यङ् हि तीर्थोद्धरणं चकार ॥८९।। श्रीवच्छराजेन सुकारितेऽस्मिन काशीस्थ सुचारु भदैनिघाट । सुपार्श्वनाम्नि जिनमंदिरे तु स्वयं प्रतिष्ठामकरोद्विधेर्वशात् ।।९०॥ भदैनीपुरचैत्यस्य प्रतिष्ठावसरे पुनः । रात्रौ शक्ति खमार्गेण गच्छंती दृष्टवान् गुरुः ॥९१। पार्श्वस्थान् वच्छराजादीन् शालूणकरणादिकान् । For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) जैनान् गुरुरुवाचैवं श्राद्धगुण विराजितान् ॥ ९२ ॥ शक्तिर्मुक्तास्ति केनापि द्वेषिणा मारणाय च । कस्य चित्ते जगुः पूज्यान् तस्माद् वारयितुं च ताम् ॥९३॥ गुरुर्जगौ यदा शक्तिं वारयामि तदाध्रुवम् । स नरो म्रियतेऽथार्यैस्तंभिता सा स्वविद्यया ।। ९४ ।। आकर्षितः स ना पूज्यैरागतो गदितस्त्वया । शक्तिर्मुक्तास्ति तेनोक्तमोमित्यथ गुरुर्जगौ ॥ ९५ ॥ त्वं निवारयतां सोऽवग् वारयितुं क्षमोस्मि न । चेन्मुक्ता भवता सा मां मारयिष्यति निश्चितम् ॥ ९६ ॥ अतः प्रभृति कस्यापि मारणाय त्वया न सा । प्रयोक्तव्या कदापीति प्रतिज्ञां प्रविधाप्य च ॥ ९७ ॥ सा च श्रीगुरुणा मुक्ता शुष्कतरुवरोपरि । दयालुना क्षणादेव भस्मीभूतः स पादपः ॥ ९८ ॥ सोऽपि गुरुं नमस्कृत्य स्वस्थानमाययौ ततः । सर्वत्र प्रससारोच्चैः ख्यातिः सद्गुणिनो गुरोः ॥ ९९ ॥ श्रीमान् जगत् श्रेष्ठिवरः प्रसिद्धः विख्यातकीर्तिं च गुरुं दिक्षुः । आगत्य काश्यां बहुधर्म चर्चा श्रुत्वा गुरोः शांतिमवाप शीघ्रम् ॥ १०० ॥ गुरु श्रावकमुख्येषु इमे तत्कालवर्तिनः । । श्रीनृपोत्तमचंद्रच वच्छराजनृपस्तथा ॥१०१॥ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४ ) गंगाप्रसादरायसुराणाश्रावकादयः । लक्ष्मीचंद्रनाहट्टाप्रभृति परमाहताः ।। १०२ ।। इमे परमाहताः सर्वे गुरुसेवापरायणाः । एवं संबोध्य जीवान् श्रीकुशलचंद्रसूरयः ॥१०३॥ काशीकोशलमध्यस्थ नष्टतीर्थगवेषणे । साफल्यं प्रययुः शीघ्रं तीर्थोद्धारं विधाय च ॥ १०४ ॥ रामघाटेवरस्थानमुपाश्रयमचीकरत् । गुरुमादर्श कर्माणंजैनशासन मंडले ।। १०५ ।। आचार्यपदं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विलोक्यैवं मुमुदिरे सर्वभूतहितेच्छुभिः । । पूर्व प्रान्तीय जैनसंघ श्वेतांबरैमर्हत् ॥१०६॥ गुरवेऽमितकर्मणे । द कार्यमेवं महत्कृत्वा चकाराप्तघृषोन्नतिम् ॥१०७॥ तत्पट्टे गणि राजसागर इति ख्यातो महान् पाठकः । १ - ज्ञानपंचमीव्याख्यान प्रशस्तौ स्वयं सूरिवरैः श्रीबालचंद्रसूरिभिः लिखितमेतत् - पूज्याः श्रीजिनला मसूरि गुरवो जाताः प्रगत्मप्रभा, तच्छिष्याः गणिनः सुपाठकवराः श्रीहीरधर्मामिधा, चंद्राश्रीकुशलादिमाः समभवन् शिष्यास्तदीयावराः श्रीकाश्यादिसुतीर्थदीपनकराः विशाः उपाध्यायकाः ॥ १ ॥ तत्पट्ट े गणि 'राजसागर' इति ख्याता: जने पाठकाः, संजाता गुरवो ममाति सुभगाः शान्ताः सुरूपाः भृशं ॥ तत्पादाब्ज कृप्रास पाठकपदो वै बालचंद्रो गणी, व्यारव्यानं व्यकरोदिमं शुभतरं श्रीपिप्पलोदे पुरे ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) विद्यावादविवादयोश्चनिकषा जाज्वल्यमानास्वतः ॥ तत्वातत्वविवेचने मतिरति विद्योतते चंद्रवत् । यस्यैवंविधसुन्दरागुणततिः लक्षात्परं चागताः॥१०८॥ संवदश्वरसाष्टवारनिधिजं पूर्व हि वर्ष मुदा । पट्कार्याणि शुभानि यानि विधिवजातानि तद्धस्तकात् ॥ येनाद्यापि सुतीर्थकानि सततं रक्षति धर्माशयात् । कल्याणं कुरुतां सदा जिनवरा भव्यांबुजा तान्प्रति ॥१०९॥ गंगानदीस्थविविधानि च यानि कानि पात्राणि यानि सततं समलंकृतानि । मासे मधौ भवति तं बुडवेति मेलम् लोकाः मिलंति विविधाशयकास्तदानीम् ॥११॥ जगुश्च कार्यकर्तारः सूरीणं प्रतिसत्वरम् । यास्यामो हि वयमद्य बुढ़वामंगले प्रभो ॥११॥ तदा प्रोक्तं सूरिणवमत्रस्था प्रपश्यतु भो । इहैव तृतीये यांति प्रहरे पोता हि स्वयम् ॥११२।। वायुना प्रेरिताः पोता: समग्राश्च समाययुः । रामघाटेतिचिन्तादि दृष्ट्वा मोहं विदधिरे ॥११३॥ स्फारं दृष्ट्वा चमत्कारं नेमुः सद्गुरु पंकजे । For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D955em % 3D - - न्याय तर्क वाचस्पति, परम पूज्य, आचार्य श्री १००८ श्री श्री बालचंद्रसूरिजी महाराज For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपयन् । ( १६ ) समग्रे नगरे जाता ख्यातिः चित्रकराः किल ॥११४॥ धर्मान्तरस्य तु संपर्कात् श्राद्धाः जाता विधर्मिणः । तान्पुनर्वालयामासुराशु तेन तपोबलात् ॥११५॥ श्राद्धाः श्राद्धयश्च सौजन्यं दध्रुर्पुनर्जिनालये । नैकांस्तारयामासुरासुमव्यान् जनान् सुधीः ॥११६।। जितकाशीमिव स्वात्म प्रतिमन्य सूरीश्वरः । धर्मध्यानैक तल्लीनो मीनो यथा जलाशये ॥११७॥ प्रसंस्थाप्य सुतीर्थानि स्वात्मं धर्मे विधापयन् । अन्तेऽनशनमादाय स्मारं स्मारं जिनाधिपान् ॥११८॥ सर्वान् जीवान् क्षमन् संतस्त्यक्त्वा मायान्वितं जगत् । स्वर्ग गताः सुधीमतः हंत ! देवेन किं कृतम् ॥११९॥ संवत् क्षपांकशेषेन्दुरब्दे वैशाखमेचके ( सं० १८९७) तृतीयायां तिथौ भौमे दिवं याताः सुरीश्वराः ॥१२०॥ तच्छिष्यो वररूपचंद्र कविनां ह्यमेश्वरः पाठकः संजातो गुरुवजिनेन्द्ररसिको धर्मोन्नतेः कारकः । तच्छिष्याः वरदायकाः मतिमतां मान्या वदान्याः सदा सूरीन्द्रा भुवनेऽत्र भास्वरनिभा न्यायांबुधेर्धारकाः ॥१२१॥ जन्मामवद्यस्य विशुद्धवंशे, करांकनागेन्दुप्रसिद्धवत्सरे ! For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १७ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१ ९ 9 (१९१८) संबद् गजेलांकसमेन्दुवत्सरे ! संजातदीक्षा हि महामहोत्सवात् ॥ १२२ ॥ श्रीरूपचंद्रस्य द्वितीयकामदो यतेहिंशिष्यार्यवरेण्यमोहनः । यतिवरो विश्वविमोहनो हि श्रीनामधेयो जिन आदियुक्तः ॥ १२३ ॥ महेन्द्रसूरीश्वरहस्तदीक्षितः कविवरो वारिनिधि निभो हि । महेन्द्रसूरिवरदस्य शुद्धाः शिष्याः बभूवुर्जिनमुक्तिसूरयः ॥ १२४॥ एते त्रयोऽपि बलबुद्धिधारकाः । पूर्ण प्रभावा विनयादियुक्ताः ॥ १२५ ॥ जिनमहेन्द्रसूरिपार्श्वे कृताभ्यासश्च तैर्ननु । पारदृश्वा बभ्रुवुस्ते सर्वशास्त्रप्रतिक्रमात् ॥ १२६ ॥ जिनादियुक्ताः यतिवृंदवंद्याः मुक्तिसूरीन्द्रा महनोयमुख्याः । दिदीपिरे भव्यविशुद्धपट्टे महेन्द्रसूरीश्वर पारगस्य ॥१२७॥ हार्यं परिग्रहं काश्यां मोहनर्षिर्महाशयः । महामहोत्सवायुक्त के क्रियोद्धारपरं ॥ १२८ ॥ श्रीबालचंद्रसूरीश्वराणां वर्णनम् -- श्रीजिनमुक्ति सूरीन्द्राः निस्तंद्रा बलधारिणः । श्रीमच्छ्री बालचंद्राय गुणिने महामहोत्सवात् ॥ १२९ ॥ ॥ "दिगमंडलाचा" पदं पवित्रं ददुविशुद्धं विनयादियुक्तं । देशाधिदेश भ्रमणं चकार जनस्य कल्याणकृते सदैव ॥ १३०॥ पूर्वे विदेशे च मरुधरे खरे, श्रीगौर्जरे कोंकण कच्छ देशै । For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) सौराष्ट्र-मेवाड हि मालवेषु, दाक्षिण्ययुक्ते ननु दक्षिणेऽस्मिन् ॥१३॥ अशेष भूमंडलमंडलेऽस्मिन् , प्रतिपुरं पूर्णप्रति हि ग्रामं । सर्वत्र स्थाने हि पुरप्रवेशो शोभान्वितस्तस्य सूरीश्वरस्य ॥१३२॥ विलोकनीयो विविधो विचित्रोऽभवद् महाभाग्यवता हि योग्यः । चित्रं किमत्रास्ति यथार्थवादे, अथैकदाचंद्रसूरीश्वरोऽयम् । १३३॥ चालाधिपूर्वो विहरन् भुवि मुदा, संबोधयन् भव्यगणान् विशुद्धान् । समागतो नाशिकनाम्नि धामे, पुरप्रवेशो विनिषेधयंति-॥१३४॥ (युग्मम् ) आडंबराविद्धद्विजोत्तमा ननु, उद्विग्नतायुक्तसमस्तजैनाः । संजायमानाः परितो विभाव्यते, श्राद्धा जगुस्ते गुरवे यथार्थम् ॥१३॥ पुर:प्रवेशोत्सवरुद्ध कारणं, गोदावरीनाम्नि नदीप्रतीरे । दिनत्रयं संस्थितवान गुरु स्वयं, विद्वत्सभा तत्र नदीप्रतीरे ॥१३६।। भृत्वाजिताः पंडितमन्यमाना स्तैरेव विद्वद्भिवरैः प्रमुख्यैः । एकी समाभूय समहोत्सवान्वितः चक्र प्रवेशं सूरि बालचंद्रः ।।१३७॥ लामोविशेषविज्ञाय, जामं नगर प्रस्थितः । तत्रश्राद्धाग्रहाचातुर्मासं तु कृतवान् गुरुः ।।१३८॥ तत्रोपस्थिता मारी सर्वसंहारकारिणी। म्रीयमाणाञ्जनान् बीक्ष्य भीतो राजा व्यजिज्ञपत् ॥१३९॥ For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९ ) समागत्य गुरोः पार्थे धार्मिको जनवल्लभः । कारिताष्टोत्तरीशांतिस्नात्रं चैवसहोत्सवम् ॥१४०॥ बत्सर्व तु जलं पूतं सत्कलशैकेऽत्र ममौ । पतितं नीरं नहि किंचिदहो-विधिवजलधारा ॥१४॥ संचलिता जाता किल शांतिविस्मयदा । जनताः नेमुस्तत्पदकमले ! ॥१४२।। एवं तु कोंकणदेशै जुन्नेराभिधपत्तने । चातुर्मासी स्थितो भव्यजनाँस्तारयितुं गुरुः ॥१४३।। तदानीं घृष्टिलिंबो जातो दैवनियोगतः।। लोकाः संमील्य सम्प्रोचुः सूरिणा वृष्टिनिरोधिता ॥१४४॥ सत्संगाय सूरिं सर्वे लोकाः सम्भूय ह्यागताः । जैनाः संमिलिताः सर्वे, सूरिस्तत्रास्तु निश्चलः ॥१४५॥ गुरुणोक्तं महाभागाः किमेवं क्रियते ह ! हा ! । यथार्थ श्रोतुमिच्छामि आकस्मिक किमागताः ॥१४६।। प्रोचुः सर्वे महाराज, ! किमर्थं वृष्टिः रोधिता । म्रीयमाणाः वयं सर्वे आगतास्तेन हेतवे ॥१४७॥ कथितं गुरुणा लोकाः गच्छंतु भो ! यथागताः । एषा गमिष्यति वृष्टिविश्वासं विदधुमयि ॥१४८॥ For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) एवमुक्तवति सम्यग् जाताद्भुत विगर्जना । वृष्टिर्जाता बहुला हो ! लोकाः सर्वे प्रशंसिरे ॥१४९।। धन्याः जैना जैनोधर्मो धन्यो विश्वोपकारकः । गुरवस्तेषु धर्मेषु एतादृशाश्चकाशिरे ॥१५०॥ अधर्मशोषणे ख्यातो वालचंद्रसूरीश्वरः । तिग्मांशुरिव विश्वेस्मिन् चित्रं तत्र विभाव्यते ॥१५॥ एवंविधानि हि व्यतिकराणि संजातकानि विविधानि यानि । तानि च सर्वाणि मनोहराणि धर्मार्थकार्याणि प्रचारणाय ॥१५२॥ एवंविधाश्च वृत्तान्ताः सूरीणां बहवोऽभवन् । प्रान्ते तेऽनशनं कृत्वा दिनत्रयं समाधिना ॥१५३॥ काश्यांकरांगखेटेन्दु वत्सरे (१९६२) चाश्विने सिते । एकादशी तिथिं प्राप्य पूज्याः सुरालयं गताः ॥१५४॥ सारां नमस्कृति स्मारं वारं वारं सुरीश्वराः। धाम्नि स्वलोक संप्राप्ता बालचंद्रसूरीश्वराः ॥१५५।। श्रीबालचन्द्रसूरिसमये आचार्य श्रीवालचन्द्र यतिवर समये श्रावकोभव्यवर्गः। धन्यो मान्यो यशस्वी प्रथित सुयशसा नाम तेषां क्रमेण ॥१५६॥ लक्ष्मी निहाल गोपाल शिखरचन्द्रोत्तरा अमी। गखेचा रायसुराणा धम्मावत नाहटाः । For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१ ) राजा श्री शिवप्रसाद सितारे हिन्द विश्रुतः । पदैः सुशोभिता एते गुरुदेवस्य पूजकाः ॥१५॥ चोर्डिया गोत्र संभूतो मोहन लाल विश्रुतः । चंडालिया मन्साराम प्रमुखाः बहुश्रावकाः ॥१५८॥ तच्छिष्या "गुणचंद्रा"ख्याः तर्कालंकारधारकाः । संशाब्दिकाः स्याद्वादाश्च न्याय्याः सर्वगुणाश्रयाः ॥१५९।। संगीतशास्त्रेऽपि सदा प्रवीणाः साहित्यसारांबुनिधि निमनाः। गुणज्ञानचंद्रौ यमको यतीन्द्रौ स्वर्ग गतौ सद्गुरुविद्यमाने ॥१६॥ तच्छिष्याः प्रवराः यतीन्द्रमहिता दिङ्मंडलाचार्यकाः श्रीमन्नेमिपदादिकाः पटुतराश्चन्द्रोत्तराधारकाः। इत्येवं विलपंति हा ! किमु गताः सूरीश्वराः स्वर्भुवि स्थास्यामः कथमत्र भावभयदे तेषां बिना नश्वरे ॥१६॥ किं कुर्महे तनुमहे गमनं क्ववायं के वा भुवीह परमेश्वरमाश्रयामहे । कस्याग्र आपदमिमां परिदर्शयामहे प्राप्येत येन पुनरेष सूरीश्वरोऽयं ॥१६२॥ भो ! भो। प्रदर्शयत तादृशमुच्चमंत्रं यजापतः सुमनसा सहसा नयामः । श्रीमत् सूरीश्वर महोदय बालचंद्रम् For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) नीहारहारधवलाननमक्षिमार्गम् ॥१६॥ लोकेऽत्र किं सपरिभावितवान् यतीन्द्रः नैर्गुण्यमाशु परिहाय यती जगाम । अत्र प्रयाम्यहकमित्यपि यन्न चोचे कस्माद् गतोऽपि पुनरेष्यति वा नवाथ १ ॥१६४॥ धीमन् ! तवाद्भुतनतिर्मनसो न याति धीमन् ! तवाद्भुतमतिर्मनसो न याति । धीमन् ! त्वदीयमुदितं मनसो न याति धीमन् ! त्वदीयगमनं मनसो न याति ॥१६॥ किं नाम कर्म परिसाधयितुं समीहसे ! ___ यत्सत्वरं प्रगतवाननिवेद्य सुन्दर ! अप्यस्मदाचरितुमिच्छसि गुप्तरूपतो ___याङ्मतिर्वद परं च कदा मिलिष्यति ॥१६६॥ स्पष्टं निवेदय यतीन्द्र ! महानुभाव ! कुत्र प्रयाणमकृथाश्चकिमर्थकं च अन्वेषणाय सहसा गुणरलसिन्धो ! श्रीलस्य तत्र भवतः प्रयतामहे यत् ॥१६७॥ पूर्णः शशांक उदितश्च तमोगृहीतो जातस्तरुश्च फलदः करिणा च भमः। For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) अभ्युन्नतश्च जलदः पवनाद् विकीर्णः तीरं तरी गतवती च तटाद्रिभग्ना ॥१६॥ निष्पन्नवद् ब्रीहिवणं दवाग्निना दग्धं ह ! हा ! दैववशैन सत्वरं । वैदुष्यचारित्रगुणैकसुन्दरो भूतो यतीन्द्रो यमरक्षसा हृतः ॥१६९।। अथवा मोहचिह्नोऽयं, शोको युक्तो न धीमता । सर्वेहि गत्वरा भावाः कुत्र शोकः प्रणोयते ॥१७०।। नीयमानं कृतांतेन परं शोचन् विमुग्धधीः । आत्मानं नेष्यमाणं तु मनागपि न शोचति ॥१७१।। सम्यक् मूरिचरित्राणां बालकस्य सूरीश्वरः । कालधर्मः समायातः उत्सवः सम्मतः सतां ॥१७२॥ किमन्यद् बमहे तत्र सरिरलशिरोमणौ । चित्रकृच्चरितं तस्य श्रूयमाणं मनागपि ॥१७३।। एवं प्रकारेण विचित्रवाङ्मयं, ___ लपन् सूरीन्द्रो विरराम प्रान्ते । सर्वेऽपि मावा किल गत्वराः मताः, मुग्धाश्च लोका बत तत्र संगताः ॥१७॥ श्रीपूज्यवर्याणां श्रीनेमिचंद्रसूरीश्वराणांवर्णनम् भक्तिभरा कृता सेवा, यावज्जीवं सहर्षतः । For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra & ga ==== बैठे हुए बाई ओरआ. श्री. हीराचंद्रसूरि बैठे हुए बीचमें परम पूज्य आचार्य देव श्री १००८ श्री नेमिचंद्रसूरिजी महाराज बाईं ओर - सेठ धारसी भाई www.kobatirth.org दाहिनी ओर - तेजपाल भाई खड़े हुए वृद्ध Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीछे खड़े हुए— दाहिनी ओर - सेठ सोमचंद्र भाई दाहिनी ओरपं. गोपालचंद्रजी बाईं ओर - सेठ साकरचंद्र भाई चँवर लिये हुए-सेठ शंभू भाई For Private And Personal Use Only 23 3 3 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) सूरिराड्नेमिचन्द्रेण निस्तन्द्रेण च धीमता ॥ १७५।। वह्निरसां केन्दुपरे (१९६३) तिथ्यैकादशीख्याता | ज्येष्ठे शुक्रे शुभेलग्नेऽष्टान्हिकोत्सवसंयुतः ॥ १७६॥ द्राक् खरतरगच्छीयैः श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः । " श्रीदिड् मंडलाचार्य्य" पदं दत्तं प्रभामयं ॥ १७७॥ येन सूरीश्वरेणैव उपकाराः बहवः कृताः । तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य, मनोऽपि विमनायते ॥ १७८ ॥ सौराष्ट्र- कोंकण - मरुधर - मालवादि देशेषु भव्य निकरान् प्रतिबोधयन् सन् । कार्याणि सुन्दरतराणि हि संविकुर्वन तीर्थादिनां विविधसंवसथानि यानि ॥ १७९ ॥ संस्थापितानि विविधानि मनोहराणि नव्यानि तानि च सतानि हि मन्दिराणि । अद्यापि तानि हि सतां सुखकारकाणि तिष्ठन्ति भावसहितानि कलान्वितानि (युग्मं ) ॥१८०॥ शास्त्राम्बुनिधिपारगो न कस्य स्यात् मनोवल्लभः । समरसैक निमग्नो नेमिचन्द्रः सूरीश्वरः ॥ १८१ ॥ क्रोधो हि योजनशतं किल दूरमासीत् तस्माच्छ मैकसुहृदं परिषेत्रमाणात् । For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२५) नो जातु नाम मनसा वचसाऽङ्गतश्चा वष्टम्भलेशमपि दर्शयित्वा बभूव ।। १८२ ॥ आक्रोशितोप्यतितरां कटुजन्पधारया। कुर्याद्रुपंतु कथमेष महद्यतीश्वरः । किन्तु प्रभूतपरितोषसुधामिपूरितै राक्रोशमानयत शांतिपथे गवां गणैः ॥१८॥ सत्यं समस्य परितैः परिघोषयामः शत्रुस्वभाव पतितेऽपि हि नम्रतोच्चैः । एकः क्षमाश्रमणतां क्षमितो गुणस्य श्रीलस्य तत्रभवतः प्रकटीचकार ॥१८४॥ नव्यं च वस्त्रमसको न कदापि दधे ग्रंथान् पुनः समुचितान् प्रशमानुकूलान् । एकोहमस्मि मम कोऽपि न नास्मिचाहं कस्याप्यदीनमनसा न कदापिदध्यौ ॥१८५।। निष्टंकनेऽसति सति स्वकभारती न प्रायः समाहित जिनेन्द्रवचोनुरक्तः । संशोति गोचरपदे तु महानुभावः संशीतिशब्दमपि सार्धमनुच्चचार ॥१८६॥ For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) माधुर्यपूरितमबाधितमप्यतुच्छं संप्रोचुषोऽत्रभवतः श्रमणेश्वरस्य । वचः स्यान् मृषावचनदूषणसंप्रवेशः संभावना स्वदहितग्रहणे कुतस्त्या ॥१८७॥ गांभीर्यमद्भुतमुपेतवतः समस्त कर्मक्षयात्मशिवसंपदऽवेप्सयैव ।। सम्यक् क्रियां विदधतो गुरुवाक्य आस्ते धर्मश्चकासदितिधारयतश्च चित्ते ॥१८८॥ स्वच्छप्रसादकिरणानतहर्षवर्षों वक्त्रेन्दुरक्षिपदवीविनिपातमात्रात् । पापं क्षिणोति चिनुते च शरीरभाजां श्रेयो विवर्त्यभिमतं च किमत्र वाच्यं ॥१८६॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) इत्थं युतो गुणयुतो विभवोन्मुखोऽयं । सूरीश्वरो समनिकेतन साधकोऽत्र । संचिन्तयन् निजहदि प्रभुपार्श्वनाथं । काश्यां समागतवतो हितकारको हि ॥१६॥ पूर्व प्रेमप्रपूरेण विश्वविश्वोपकारकं । पार्श्वनाथं जगन्नाथं प्रणेमुरेव मस्तकात् ॥१९१॥ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) अद्य प्रभातं समभूत् सुमंगलं महोदयो वासर एष मे पुनः । सौभाग्यसिन्धुर्नियमादयं क्षणो जातोऽद्य कल्याणतरुः सुपल्लवः ॥१९२।। अभूदहोकामगवी च सम्मुखा शये शयालुः किल कल्पवल्लगे। किमेभिराप्तैरथवानुषंगिकः प्रयोजनैर्जन्म विधृद्धिहेतुमिः ॥१९३।। प्राप्तो ध्रुवं मुक्तिविवाह मङ्गला ऽऽलयो मयाल्पेतर पुण्यढौकितः । लोकेऽधुना शारदपूर्णचन्द्रमाः सहोदरं सन्मुखमेतदर्हतः ॥१९४॥ तुभ्यं देव नमोऽहते भगवते विश्वत्रयीस्वामिने सर्वज्ञाय जगद्धिताय पुरुषश्रेष्ठाय भूमानवे । लोकोद्योतकृतेऽभयं प्रददते स्याद्वादिने ब्रह्मणे मुक्त्यादिकराय तीर्थपतये कारुण्यपाथोधये ॥१९५॥ नियामकाय परमाय भवांबुराशौ रागादिरोगसमकर्मभिषगवराय । For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) संसारकूपनिपतज्जनरज्जवे च तुभ्यं नमः परमपूरुषपुण्डरीक ? ॥१९६॥ तुभ्यं नमोऽखिलविपत्तिनिकुञ्जदन्तिने तुभ्यं नमो भुवनवांछितकल्पभूरुहे । तुभ्यं नमः स्मरकरीन्द्रभिदा मृगद्विषे तुज नमः गभदारितने ॥१०॥ नमोस्तु तुभ्यं पुरुषोत्तमाय वा स्वयम्भुवे वा परमेष्ठिनेऽथवा अगम्यरूपाय विशुद्धयोगिनां नमोस्तु तुभ्यं सुगताय शंभवे ॥१९८॥ पारं स्वयंभुरमणांबुराशैः सम्प्राप्नुवानोवियदध्वनोऽन्तम् । संपश्यमानो प्यथवा महौजाः स्तोतुं किमीश ! गुणांस्तवार्हन् ! ॥१९९।। त्रैलोक्यसाम्राज्यरमानुभाविनो भवंति दासाः खलु यस्य वज्रिणः । तथाप्यहोय्यद्भुत वीतरागतां विभ्रद् स कस्त्वं न हि कस्य चित्रकृत् ॥२०॥ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९ ) त्रैलोक्यरक्षा प्रलय क्षमं बलं शक्राच्च कीटावधि विभ्रतोऽद्भुतम् । साम्यं क्षमावारिनिधेः क्षमेत का तव स्वरूपं प्रतिपत्तुमेव वा १ ॥२०१॥ अभूतां काणादाऽऽक्षचरणमते नैगमनयात् तथा सांख्या द्वैते समुद्भवतां संग्रहनयात् । दृशो बौद्धाः प्राहुः भवनमृजुसूत्रान् प्रकटयन् किलैकस्त्वां दृष्टींसमसमनयां नन्दसि जिन ! ॥२०२॥ यन्नाम त्रिजगस्त्रिभेदविपदांभोराशिकुंभोद्भवो यद्वाचश्चितिमच्चकोरनिचये चाचंडरोचीरुचः। यन्मेधासलिलेऽखिलेन युगपल्लोकेन मीनायितं स श्रीमन् ! भगवन् ! सदा विजयसे त्रैलोक्यचिन्तामणे ! ॥२०३।। त्वां स्तुमोभिनमामस्त्वां त्वामेवोपास्महे वयं । त्वां प्रपद्यामहे नाथ ! निदर्शय करोमि किं ॥२०४।। यद्यस्ति कोऽपि निष्कर्मा सर्वज्ञो यदि कश्चन । मोक्षमार्गप्रकाशीचेवमेव परमेश्वर ! ॥२०५॥ सर्वविन्मूलकत्वेन विरोधानवकाशतः। सुधी परिगृहीतश्च प्रमाणं नस्त्वदागमः ॥२०६॥ दुर्ननेऽपि नृशंसेऽपि त्वदासं मन्यता मयि । For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३० ) __ परिस्फुरति चेन्नाथ ! तदाखल्वस्मिनिर्मयः ॥२०७॥ नरेन्द्रश्रीः सुरेन्द्रश्रीर्मुक्तीश्रीश्चेद् भविष्यति । त्वत्सेवयैव दासस्य शंका नात्रावकाशते ॥२०८॥ निदाने प्रतिषिद्धेऽपि भगवन् तव शासने । भवे भवेऽस्तु त्वत्पादसेवेत्येतन्निदान्यते ॥२०९॥ कृतांजलिनमस्कृत्यान्तिमं विज्ञापयाम्यदः । मरालं सततं स्वामिन् । मम मानस मानसे ॥२१०॥ इत्येव मानयत-पार्श्वपरेशितारं । काश्यां हि तीर्थतिलकं स्तवनैकपद्याम् ॥ इत्थं स्तुवन् जातु समाधिनिष्ठः। बभूवसूरीश्वर वीतरागः ॥२११॥ ततः सूरीश्वरेणैव ! काश्यां वासः स्थिरीकृतः । प्रयोजन मृते क्वापि गमनं नो कृतवान् कदा ॥२१२॥ चिन्तामणेजिनेन्द्रस्य मन्दिरस्य व्यरीरचत् । जीर्णोद्धार विविधोऽयं सर्वानन्दफलप्रदः ॥२१॥ पार्श्वनाथ जिनेन्द्रस्य सेवा सदैव संस्कृताः । अदीनमनसैवं तु सर्वकार्याणि साधयन् ॥२१४॥ कालवेलां समायातां अबिरां विज्ञाय-तां । For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) सर्वकार्याणि दत्तानि पट्टशिष्यस्य प्रेमतः ॥२१५।। वेलां ज्ञात्वा सूरीन्द्रस्य, आपदे हर्षतः स्वयम् । सैष पट्टसुशिष्यो श्रीहीराचन्द्र सूरीश्वरः ॥२१६।। प्रवचन-ब्रह्म-निधि-विध्वाषाढे १९९८ सितेतरे । तिथौ द्वितीयाप्रातःकाले कालामिसन्मुखः ॥२१॥ अनशनं तु कृतवान् स्वयमप्यहो विविधभावयुतं विगतस्पृहम् । परमपञ्चनमस्कृतिभावयन् विकसितांबुजकल्पशुमाननः ॥२१८।। प्रेम्णामृतं पानमहो मयाहि संकारितं, स्वल्पतरं स्वहस्ते । पीत्वामृतं ह्यमृतभूमि संगता हा ! हा! वयमेकपादे हि संस्थिताः ॥२१९।। गोपालचंद्रेण सुशिष्येन व्रतेप्सुना कृतानल्पसेवा सदापार्श्वसुसंस्थितेन धन्याश्च ते ये गुरुपार्श्ववर्तिनो भूत्वा स्वजन्म सफलीविकुर्वन् ॥२२०॥ पूज्य श्रीनेमिचन्द्र सूरिसमये सुश्रावकान् कीर्तये नित्यानन्द प्रशाद सिंह नृपति आनन्दचन्द्रोऽभिधः॥ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SEAR-OCRACHAR DEHACREASEED SD पूज्यवर श्री विद्यालंकार आचार्य श्री हीराचंद्रसूरिजी महाराज For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२ ) गांधी काशिप्रशाद सौम्य विनयी कोठारिको वींजराज ! सेवाभाव विभावितश्चनहटा उम्रावचन्द्रोऽपरः ॥२२१।। अमोघाश्रुतवागजाल काशीवासं वितन्वतः । आचार्यस्यैवोपदेशैन महामहिमशालिना ।।२२२॥ धारसीना सोमचन्द्रेण, श्रेष्ठिनाकच्छवासिना । ___तीर्थ श्रीसिंहपुरीणां, जीर्णोद्धारमकारि यत् ।।२२३।। विद्यालंकार आचार्य श्रीहीराचन्द्र सूरीश्वराणांवर्णनम्विद्यावतां ध्यानयुतां तपोभृतां सिद्धान्तपाथोनिधिसंनिमग्नाम् । अगण्यकारुण्यरसप्लुतां सतां स्मरामि तान् किंचन सुरिपादान् ॥२२४॥ दाक्षिण्ये विदधत् श्रमो हि नितरां येन प्रचंडो महान् __हिंसारोधककार्यदुस्तरतरं येन समुत्पाटितम् । हिंसा भूरि भवंति यत्र निलये सर्वे समुन्मूलिता देव्यादिस्मरणे समस्तविहिता पूरापरासात्विकाः ॥२२५॥ श्रीमत्संसारवारिनिधिविधितरणेपोतवत्संप्रसिद्धः। विद्यावतो महन्तो निजनिजघुचितैर्वाणिभिः संवदंति । धन्याः मान्याः वदान्या यतिकुलतिलकाः संघृणुयात्सदैव सिद्धिःसन्तापहर्षि विविधगुणयुता सारभूताभवेऽस्मिन् ॥२२६॥ For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३ ). ... एवंविधा गुणयुता महनीयमुख्या: शान्त्यादिसाधकसदन्तरशोभमानाः । न्याय्या विवेकसहिता गुणशुद्धशीलाः हीरादिकाः सरसचन्द्रनिभाः यतीन्द्राः ॥२२७॥ कारुण्याङ्कित वदनं मनोरमं यस्य सदैव भाति । सौजन्यं विदधाति स्वजनंप्रति सन्मुखं याति ॥२२८॥ सौराष्ट्र विहितः श्रमो मरुधरे किंचित्प्रयासः कृतः किन्तु कोंकण मालवे समुचिते प्रायः प्रवेशो महान् । मुख्यो भाग्यवतां प्रति प्रतिकलं प्रेम्णा प्रबन्धो महा____ राष्ट्र यो रचितो बिशालहृदयालंकारहारोऽद्भुतः ॥२२९।। दाक्षिण्या विद्धन्ति ते गुरुतरं मान्यं सुपूज्यं प्रति अद्यापि प्रतिजन्पनं प्रतिपदं स्मारं नु कुर्वन्त्यहो । सूरीन्द्राः प्रभुतामया बहुतमा दृष्टा विसृष्टा बुधै किन्तु भास्वरसन्निमा गुणयुता नाधापि दृष्टाहि तैः ॥२३०॥ एकैवाद्य महान्प्रतापपुनिता हीरादिचन्द्रांकिताः । सूरीन्द्राः विलसन्ति ते मुखकजे सर्वस्य लोकं प्रति । दिक्चक्रेत्यप्युपाधिधारकमहाधैर्यादिसन्धारकाः तिष्ठन्तु मम मानसे हि नितरां स्याद्वादमुद्राङ्किताः ॥२३॥ एवं वदन्ति किल शाब्दशानिणः पदे पदे हि महाराष्ट्रदेशे । पहा । For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ३४ ) न्याय्याः प्रगल्भा विनयादियुक्ताः सङ्गीतकाराश्च पुरोहिताश्च ॥ २३२ ॥ शान्त्यादिगुणसंयुता नहि कदा दृष्टा पुरैवं विधाः । धर्माधर्मविवेचने गुरुतरा प्रोढप्रतापान्विताः || वीराज्ञा परिपालका खरतरा सद्बोधिनीजाङ्कुराः । नन्दन्तु किल भारते सुविमले हीरादिचन्द्राङ्किताः ॥ २३३॥ यस्य प्रतापः परमाद्भुतो भुवि ख्यातो विशेषेण सुपूर्वदेशै । महासमुद्धारितराष्ट्र हूँ ! हो ! सर्वे प्रणेमुः द्विजसत्तमा मुदा ||२३४ || हित्वा भोगपरम्परां सुचिमनास्त्यागं सुधीर्दधिरे । शकातुल्य विशालमानन महानन्दाश्रयाधारकाः || चञ्चच्चारुचकोरनेत्रसुखदा धर्मैकतानाः सदा । द्रव्यादिषु न प्रेमधारकमताः सूरीश्वराः सन्ति नः ॥ २३५॥ जङ्गमयुग प्रधाना भट्टारकाः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपूज्या जिनधरणीन्द्रसूरीन्द्राः । विलसन्ति जयपूय नाम्नि धाम्नि सदैव सूविय्योः ॥ २३६ ॥ तैर्दतं विधियुक्तं पदं परं, दिङ्मण्डलाचार्य्यसंयुक्तम् । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३५ ) माघे धवला द्वितीयायाः संवसिद्धिनिधिनन्दनिशाकरे ॥२३७॥ प्रणिपत्य पाटोत्सवो यस्यकारम् नरीनृत्य पाटोत्सवो वारवारम् । गताः दूरदेशोद्भवा ह्यागतास्ते स्थिताः पार्श्वगाः केवलं हर्षयुक्ताः ॥२३८॥ सहस्रद्विसंवत्सरे वलक्षपक्षे वैशाखे त्रयोदश्यां भव्यभौमे । सूरीश्वरा समधिष्ठिते सार्धनवघटिकायां सर्वाङ्कामृतसिद्धियोगान्विते भव्ये ॥२३९॥ सर्वकलासम्पन्नो राज्यमलं चरिकर्ति धर्मस्य । पूर्व पार्श्वनतिकारं पश्चाद् सद्गुरुसन्निधिम् ॥२४०॥ नत्वा सधं महाभागं आज्ञालात्वा महोपरि । राजा शिवप्रसादस्य सितारेहिन्दविश्रुतः ॥२४॥ तत्पौत्रसत्यानन्दो नामधेयो विराजते । "राजासाहेबे"ति तु लब्धं विरुदसुन्दरम् ॥२४२॥ सत्यानन्दप्रसादसिंह विरुदालङ्कारधारोविः कल्याणाय करोति पूजन विधिं सत्तर्कचूडामक्षिः। येन प्रेमभराद् विशुद्धचरितं कल्याणक कारकम् For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) कारन्तिष्ठति सन्मुखं स तु जयं प्राप्नोतिपण्यं च दिक्॥२४॥ श्रीसत्यानंदेनराज्ञा पूर्व च तिलकं कृतम् । पूजानवांगिसत्कारं, कारं कारं कृतापुरा ॥२४४॥ स्वर्णमुद्रांकिताः नूनं प्रेम्णाविधिविधायिना । तदनुसंघाग्रगाहि, कुर्वति विधिवन्मुदा ॥२४५॥ कंवलानि विचित्राणि, वसनानि तथैव च । सूरीश्वरोपरिवाढं स्थापयन्ति विमोहिताः ॥२४६॥ तत्पश्चात् रजतमुद्रा डुढौकिरे विशेषतः । श्राद्धाः श्राद्धयश्च कैश्चितु स्वर्णमुद्रां डुढौकिरे ॥२४७।। श्रीगुलालचंद्र रायसुराणाप्यर्चनाकृताः। कोठारी बीजराजेन गुरुभक्तिर्बहुकृता ॥२४८॥ श्रीयुत् बाबू पन्नालाल लोढेति संज्ञकामुदा । जौहरीति परां संज्ञां लब्धा येन मनोहरी ॥२४९॥ तेनापि कृतस्फारं सत्कारो हि विवेकिना। यथा शक्ति मनोहारी, कृतं सद्गुरु पूजनम् ॥२५०॥ गांधी श्रीलालचंद्रेण सुश्राद्धेन विवेकिना। आचार्यस्य परा पूजा विहिता विनयादिभिः ॥२५१॥ गांधी श्रीफतेचंद्रो निस्तन्द्रो गुणवान् सुधीः । For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) भक्तिनिर्भर चित्तेन तेनाकृतसुपूजनम् ॥२५२॥ सुराणा नानकश्चन्द्रो लामचन्द्रोविचक्षणः। विनयीप्रतापचन्द्रो धर्मचन्द्रस्तु भाग्यवान् ॥२५३॥ चिम्मनलाल जयन्ती भाई, पोपटलालो लवजी भाई । श्रीमणीलाल खुशियालः चन्द्रप्रभृतयः श्रावकशतशः ॥२५४॥ श्रेष्ठिप्रवरा तन धन मनसा पाट महोत्सव पूर्ण चक्रुः । यतिवर विषये नैतच्चित्रम् विद्यालङ्कत्ति शम दम रूपैः ॥२५॥ एवं सर्वेऽपि सुश्राद्धाः यथाशक्ति दृढौकिरे । द्रव्यं तु पुष्कलं शुभ्रं प्रेमपूराद् विवेकिभिः ॥२५६॥ पूजा नवग्रहस्यात्र कृतपूर्वा सुभावतः । दशदिगपालस्यापि कारं कारं सुस्नेहतः ॥२५७।। श्रीणि पूजाकृतापूर्वा-विघ्नवल्ली विदारिका । प्रान्ते तु स्वामिवात्सल्यः कारं स्फारं मनोहरम् ॥२५८॥ इत्थं प्रकारेण विधि विधाय, सर्वेजनाः सम्मुदिरे समन्तात् । यथागतावानुगतास्तु सर्वे जैनाश्चजैनेतरकाश्च भव्याः ॥२५९।। अधीत्य शास्त्रं वर साङ्ग संयुतं, आपंच विंशं बहुधा परिभ्रमन् । धर्म प्रचारार्थ मनेक कृत्यक, संपादितं देश विदेश यात्रया॥२६०॥ पंचाशत्तम वर्षेऽयमाचार्य पद माप्नुवन् । ... काशी कोशल देशस्थ तीर्थोद्धारमकारयत् ॥२६१॥ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) महा महीयान् महतां महोत्सुकः संपाद्य सर्व यतिधर्म निष्ठितः । देदीप्यमानो गुण गौरवान्वितः विराजते षष्ठि तमीय वर्ष ः || २६२ ॥ श्री विद्वद् परिषद्दसं (विद्यालंकार ) भूषितं । (श्री) हीराचन्द्र सूरिं वन्दे, सद्गुरुं सुखदायिनम् ॥ २६३ ॥ श्रेष्ठवय्र्यो "भग्गुभाई" चुन्नीलाल सुश्रावकः । शांतिलाल मगनलाल श्री दयाचंद्र पारिखः ॥ २६४॥ श्रेष्ठी श्री " दामजी भाई" धारसी कुल दीपकः । सुश्रेष्ठी साकरचन्द्र श्री तेजपाल संयुतः || २६५ ॥ हाथी भाई प्रेमचन्द्र शाह श्री चुन्निलाल युक् । इमे सर्वेऽपि सुश्राद्धा: जैन संघ प्रतिष्ठिताः ॥ २६६ ॥ तीर्थोद्धारादि कार्येषु पूज्याचार्य्यस्य धीमतः । साहाय्यं प्रददुः नित्यं श्राद्वैते धर्म तत्पराः ॥ २६७॥ श्रीमान् राजा प्रियानंद प्रसाद सिंह नामतः । न्यायाधीश श्रीमान् कृष्णानंद प्रसाद सिंह भाग् ॥ २६८ ॥ सुश्रेष्ठी सुन्दरो लालः प्रसिद्धः प्रेमराजजी । चंडालिया लाभचन्द्रो, ज्ञानचन्द्र सुनाहटाः ॥ २६९॥ नीतिमान् माणिकचन्द्र-सिताबचन्द्र सुकर्मठः । श्रीमान् महेताबचन्द्रः सुराणा कुलदीपकाः || २७० ॥ गांधी श्रीकेसरीचन्द्रोऽमी चन्द्रस्तु विवेकवान् । For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९ ) कोठारी मोतिलालश्चाभयचन्द्रोऽपि नाहटाः ॥२७१॥ बाबु अबीरचन्द्र श्रीजवाहिाल दफ्तरिः । हजारिमल्ल हीरालालो लोढा जव्हेस पदात् ।।२७२।। हरिश्चन्द्रश्च सुश्रेष्ठी, चन्द्रो जगदीश पूर्वकः । लालान्तो मणि भोगीच श्रावका कुलदीपका ॥२७३॥ श्रीजैनश्वेताम्बर संघे कर्मठ वीराः सुश्रावकाचास्मिन् । अर्पित बहु धन कीर्तयः शोभन्ते सततं शतशः ॥२७४॥ विद्यालंकारभूताः गुणगणमहिताः शान्तदान्ताः नितान्ताः हीराचन्द्राः सूरीन्द्राः विबुधवस्तरा जैन धर्माधि शास्ता ।। दिकचक्रालीह्यमाना सुविहित सविधे सर्वदा सावधानाः। दाक्षिण्योद्धारकाराः विविधविषयैः सर्वदासेव्यमानाः ॥२७५।। श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ निलयालंकार हारावली । जीवोद्धार परायणे स्सुललितैस्तीथै श्चतुर्भिः पुरी ।। अन्यान्यैर्वरश्रावकैः सुरचितैः श्रीमंदिरैरष्टभिः । दोप्यन्ती गुरुगादिभिस्तु नितरां श्रीधर्मग्रंथालयः ॥२७६।। स्वाध्याय कर्तुः किल जैन साधोः । संस्थापितैका वर पाठशाला ।। तस्यान्तु यनो बहुधा व्यधायी। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४० ) "पुराचार्य वय्यः श्री बालचन्द्रः ॥२७७॥ एतचरित्रं विमलं वरेण्यं, मयाव्यलेखि बहुप्रेम निर्भरात् । संक्षिप्ततो. विश्वविनोदनाय, चन्द्रोत्तरः पूर्व मणि मया तम्।।२७८॥ सन्तुप्रसन्नाः सुधियो महान्तस्तवकलाकौशलधारका वै। क्षतिर्विलोक्यातक्षमा प्रदेया, धर्मस्थभावेन स्थितोस्म्यहं तु ॥२७९॥ हीराचन्द्रसूसैश ! ते करकमले दास्यते चरितम् । स्वल्पं गुणगणयुक्तं मुक्तव्याजादिदोषगुणशालीन् ! ॥२८॥ शिष्याः भोस्मित्वदीया विमल गुणगणाभ्यासकाः भगवन् ! । क्षन्तव्या यदिजाता ख्याताक्षतिविमलेऽस्मिन् चरिते ॥२८॥ याचे नैवधनं विभोः सुविमलं नैव स्पृहामि पदम् । - शास्त्राणि न सुरक्षतानि भगवन् ! नैवाभिकांक्षे यशः।। पात्राणि न विस्पृशामि सुधीमन् । नैवांबरं हन्त मो! याचेऽहं किल कोमलांक विमला लङ्काङ्कभूताकृपा २८२॥ किं ते धनेन मदकरणे समर्थः। कि ते पटैन विमलेन किल जीणितेन ॥ किं ते विशुद्धयशसाऽन्तिम यस्य नाशः । किं तेन भाविपरिभ्रष्ट सुपात्रकेन ॥२८३॥ तस्माद्वरा सुचितरा परमार्थ कीं। For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४१ ) भव्या परा खरतरा हि कलङ्कही। दिव्या ददंतु कलिकालविनाशिका सा सेवा कृपा गुरुतरा विगतस्पृहा मां ॥२८४॥ या जीर्णा न विभूतये न च भवेद् भूता न कालान्तरे त्रैलोक्यं किल यस्य सेवनपरं भूतं परीभाव्यते । सिद्ध श्रीनिलयं परं हितकरं सम्प्राप्यते लीलया सा मां दातु कृपाकलाकरनिभा सूरीश्वरा प्रेमतः॥२८५॥ न्यायतीर्थ काव्यतीर्थ, तीर्थव्याकरणेन वै । श्वेताम्बरीय यतिना मणिचन्द्रेण धीमता ॥२८६॥ प्रशस्ति गुरुदेवस्य, प्रेम्णैव पूर्णतामिता। निधनं त्वाकस्मिकं दृष्ट्वा, शान्त्यर्थं च तदात्मनः ॥२८७॥ पूज्याचार्यस्य प्रीत्या तु संशोधन मदकृतम् । प्रशस्ति गुरुदेवस्य जीयादाचन्द्र तारकम् ।।२८८।। पंडित श्रीगोपालचंद्र विदुषा, प्रकाशिता स्नेह भावेन । प्रशस्तिरियं सुशोधिता श्रीसर्य प्रसाद शास्त्रिणा ॥२८९॥ ॥वि० २००७ संवत्सरे माघ शुक्ला पञ्चम्यां तिथौ रविवासरे ॥ शुभं भूयात् । For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ “जैन बिन्दु वृत्तिः” -मूलकर्तावैदिक धर्माचार्य श्रीकाष्ठजिह्वा स्वामीजी महाराज -वृत्तिकारश्रीपूज्यवर जैनाचार्य श्रीबालचन्द्रसूरिजी महाराज ॐकारं हृदये ध्यात्वा, नत्वा च गुरु पत्कजं । जैन बिन्दोविवरणं, संक्षेपेण करोम्यहम् ॥१॥ "जयति जैन गेह" "जैनगेह" याने "जैनदर्शन" जयति याने सर्व से उत्कृष्टता से पर्तो, वह कैसा है, जहां परम धर्म का मेघ बरष सा है, और श्वेतांबर जैन धर्म वालों का उज्वल धर्म से ही उज्वल पट है, और जीव दया में हितकारी देह है, क्युंकि उस धर्म की आम्नाय मुनियों ने दयामूल बनाई है, इसमें संदेह नहीं है ॥१॥ इन्द्रादिक देवों के सूत्रों में जो अर्थ भिन्न-भिन्न एकांत पक्ष कर लिखा है, वह सब जिनमत में “स्याद्वाद" भाव से संगृहीत है। उसी को दयालु महापुरुषों ने भाषा रच के लोकों का पटल अंधकार को मिटाया है॥२॥ और उस मत में ईश्वर के प्रतिबिंब याने मूर्ति को बहुत स्नेह घरके पूजते हैं, इस वास्ते इस मतवालों को जो कोई और याने नास्तिक वगेरे दूषित नाम कहते है, उनके मुख में धूलि है, ॥३॥ क्युकि श्रुतिका सिद्धांत "अहिंसा" है, सर्व मत का यह रस For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४३ ) याने रहस्य है, सो जिनमत में विशेष है । इस स्थिति में दोषारोपण करना निष्फल है। परंतु दिव्य दृष्टी विगर मान की टेक धरते हुए जो लड़ते हैं, सो बावरे हैं ॥४॥ "अरहन साधुनि को भाई" सर्थ वर्ण के आदि प्रकार है, और रकार की स्वभावतः उर्धगति है. उसमें "हकार" व्याकरण के नियमानुसार महाप्राण प्रयत घाला मिलने से "अहन्" यह पद पूज्य होता है। विशेषधात्र-जिन मत में "अह" यह पद अहपूजायां धातु से सिद्ध पूज्यवाचक होता है। अथवा अकारेणोच्यते विष्णुः, रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः हकारेण हरः प्रोक्तस्तदन्त्यं परमं पदं ॥१॥ इस प्रकार से भी देव प्रयात्मक निर्विकल्प परम पुरुष का वाचक है ॥१॥ यह "अर्हन" पद सर्प का आदि है। सर्व में शिरोमणि है। जिसमें अत्यंत प्रभुता शक्ति हैं। इसी से वही अर्हन् तीन लोक में पूज्य है। और उसी की सब ईश्वरता है ॥२॥ जैन मत में अईन् देव तो मूलधर्मप्ररूपक है, उन्ही की गद्दी पर जो प्राचार्य बैठते हैं, सो ही गुरु श्रीपूज्य कहे जाते हैं, वह गुरु भी स्थानिवगाय से देववत् पूज्य है, यही अभेद है ॥३॥ गुणकर के एक देवके नाम अनेक होते हैं। जिस तरह पूज्यता से "अहन्” कहते है। इसी को "तीर्थ" याने “शासन" उसके करने से 'तीर्थकर" भी कहते हैं। अंतरंग शत्रुओं को जय करने से 'जिन" कहते हैं। राग द्वेष रहितता से "वीतराग" कहते हैं। सर्वलोकालोकप्रकाशक ज्ञान युक्त होने से "सर्वो" भी कहते हैं । इत्यादि अनेक नाम है। परंतु नाम वाला एक ही है ऐसी मति गुपने सिखाई है ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "कल्याणक पांच गणाए" "कल्याण" नाम मंगल का है। उसी को कल्याणक कहते हैं। सो मंगलीक पांच अवस्था प्रभुकी जिनमत में कल्याणक कही जाती है। व्यचन, १ जन्म, २ दीक्षा, ३ केवलज्ञान, ४ निर्वाण ५ अर्थात् गर्भागमन, १ उत्पत्ति, २ ब्रतधारण, ३ ज्ञानोत्पत्ति, ४ मुक्ति ५ ये पांच कल्याणक हैं। इन्ही को भाव से पंच अंग सिर १ मुख २ उर ३ भुज ४ पद ५ समझ के जैसे पंचकल्याणक का धरनेवाला एक है, इसी तरह पंच अंग का धरनेवाला अंगी अात्मा भी प्रति व्यक्ति एक है। ऐसा समझ के लक्ष्य प्रात्मा को लखना चाहिये, ऐसा गुरु अलक्ष्य लखाते हैं ॥१॥ यह पूर्वोक्तज्ञान, शुक्र १ कमल २ ससि २ श्वेतगण ४ ये चारों श्वेत वस्तु के समान रूपस्थ १ पदस्थ २ पिंडस्थ ३ रूपातीत ४ इन चार शुद्ध ध्यानों से लक्ष्य होता है। रूपस्थ ध्यानवर्णनम् विकार स्वरूप निहारी ताकी, संगत मनसाधारी। निजगुण अंस लहे जब कोई, प्रथम भेद उस अवसर होय ॥१॥ पदस्थ ध्यानवर्णनम् तीर्थकर पदवी पर ध्यान, गुण अनंत को जाणी थान । गुण विचार निजगुण जे लहे, ध्यान पदस्थ गुरु इम कहे ॥२॥ पिंडस्थ ध्यानवर्णनम् भेद ज्ञान अंतरगत धारे, स्वपर परणित भिन्न विचारे । एक विचार सांतता आवे, ते पिंडस्थ ध्यान कहवावे ॥ ३ ॥ रूपातीत ध्यानवर्णनम् रूप रेख जामें नहीं कोई, अष्टगुणाकर शिव पद सोई, ताकुं ध्यावत तिहां समावे, रूपातीत ध्यान सो पावे ॥४॥ उत्सव के दिन भक्त लोक कल्याणकों का स्वरूप भिन्न भिन्न आभासन कर देते हैं । इन कल्याणको की मास तिथि भी ५ भिन्न For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। उन से संख्या साहश्य से ५ तत्व सूचन होते हैं। अथवा-जैस प्रथम अवतार भगवान् श्रीऋषभदेवजी की च्यवन तिथि आषाढ़ यदि ४, जन्म, वो दीक्षा, तिथी वैशाख पदि ८, शान तिथी फागुन वदि ११, निर्वाण तिथी माघ वदि १३ हैं, इसमें ४११ चंद्र तिथि है, ८-१३ सूर्य तिथी है, इसी तरह मास में भी चंद्र सूर्य का भेद है। और पृथ्वी जल का स्वामी चंद्र है। अग्नि, वायु, आकाश, तत्व का स्वामी सूर्य है। इस तरह से भी ५ तत्व सर्व अवतार की च्यवनादिक की मास तिथी से निकलते हैं । जैसे इन तिथियों से यह कल्याणक वाला पुरुष भिन्न है । इसी तरह इन तत्त्वों से भी वह श्रात्मा परमात्मा भित्र है, ऐसा मुनियों ने कहा है । इस रहस्य के ग्रंथ जैनमत में बने हैं, जिनमें धर्म को दृढ़ किया है, घे ग्रन्थ कुछ तो तीर्थकर देव प्ररूपित हैं । और कुछ मुनिजन रचित हैं, इन ग्रन्थों से डूबते जीवों को संसार समुद्र से बचाया है ॥ ४॥ “नहीं भूस्त नगन किसी मत में" कोई मत में नगन मूर्ति नहीं है, फकत समझने में कुछ फेर पड़ा है। लोक दिगंबर यह नाम सुनते ही झूठे मार्ग में दौड़ जाते है। परंतु इतना सोचने में भालस करते हैं कि दिशा अरूपी है, यह अंबर याने वस्त्र नहीं बन सकती है ॥ १॥ किन्तु सिर से पद तक शरीर में जो दश अंग हैं, वही दस दिशा हैं। इस कारण से देह हुई दिशा वही अंबर याने पट श्रात्मा के प्रावरण स्वभाव से है, इसको नहीं जानते पुरुषदूसरा पट रखते हैं ॥२॥-जिन धर्म में साधु के २ मार्ग, हैं, जिन कल्प, १ स्थविरकल्प, २ इनमें जिनकल्प मार्ग के साधु परम हंसवत् बन में रहते हैं, तब तक नग्न रहते हैं परंतु जब नगर में श्राते हैं तब वे भी वा को धारण कर लेते हैं ऐसी बानी मुनिजनों में हैं ॥३॥ इस वास्ते जैसा भाव अपने में For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४६ ) धारण किया, ऐसा ही देव में भी धारणा, अर्थात् नग्न प्रतिमा प्रभु की एकांत में पूजनी, और समुदाय में वस सहित पूजनी ॥४॥ “धर्म के चरण च्यार यही" धर्म के यही ४ चरण हैं, दान १ शील २ तप ३ भावना, ४ इन के विना धर्म पूरा सघता नहीं, १ सर्व मतों में इसी तरह ४ चरणों की गिनती मुनियों ने कही है। सर्व मतों में एक ही बात आती है। घचन बोलने की चतुराई भिजामिन्न है, कोई इन चरणों को "अंतरंग" भीतर याने भावे मानता है, कोई "बहिरंग" बाहर याने द्रव्ये मानता है, ऐसे ही ग्रंथों में मथामथी है, परंतु भीतरं बाहर दोनों भाव मानने से सुख उपजता है, एक में केवल दुख की सहा सही है ३ अर्हन तो देव, और गुरु निग्रंथ, जो कोई से कुछ नहीं चाहते हैं, और एकांत में वास और जीवों पर दया, इतने में सर्व बात, याने धर्म का रहस्य रहा है ॥४॥ “पट् देवन के हैं सूत्र वने" इन्द्र, वृहस्पति, नारद, ब्रह्मा, विष्णु, हर, इन षट् देवों ने जो जो धर्म स्वरूप अपनी अपनी बुद्धी विलास से पृथक् पृथक एक एक बात कुं मुख्यता स्थापन करके, अपने अपने सूत्रों में रचना की है, उन सर्व रहस्यों का संग्रह, जैनमत में एकत्रित है. तद्यथाइंद्रसूत्र में कर्म प्ररूपणा, वृहस्पति सूत्र में शान स्थापना, नारद सूत्र में भक्ति की मुख्यता, ब्रह्मा सूत्र में जगत्स्वरूप, विष्णु सूत्र में जीव दशा स्वरूप, शिवसूत्र में भावना निरूपण है। इन सूत्रों में पूर्वोक्त इन छवों वस्तु का बहुत वर्णन है, और शुद्ध द्रव्य से पूजन विधि भी है। जिसके सुनने से मन को हर्ष होता है। और देवों के आयुध भूषणादिक का बहुत वर्णित है। और अवतार में भी ईश्वरता कु थाप कर डंका बजाया है। For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४७ ) इन्द्र सूत्र में "कर्म को निदान सुनों जती सती लोग" हे जती, "सती" सर्व लोगों, कर्म का निदान, याने क्रिया का निर्णय सुनो, क्यों कि इसी में शान, और इसी में योग बसता है॥१॥ पूर्व में पूर्ण के अंग नहीं लखे जाते हैं, जिस तरह पैसे में दाम लमा रोहै, पैसा मूल है, सो अभंग है। इसी तरह पूर्ण में पूर्ण के अंग समाय रहे हैं, और पूर्ण अभंग है ॥२॥ पेला मूल यद्यपि अभंग है, तथापि उसकी कौड़ी अनेक कामों में पृथक पृथक् उपकार कर सकती है। इसी तरह पूर्ण का ज्ञान भी नाना विषयोपयोगी है। यह दोनों वस्तु जब श्रात्मा में प्रतिबिंब हो जायगी, उसी समय पूर्ण और पूर्ण के अंगों की लखान हो जायगी ॥ ३ ॥ ज्ञान, कर्म, वायु, प्रमुख लाखों प्रतिबिंब पदार्थ हैं, जैसे चंद्र का कपूर, और सूर्य का बिंब याने दर्पण प्रतिबिंब है ॥ ४॥ बिंब कुंशान किंचित् मंद लखाता है, यही प्रथम क्रिया भई, ऐसा वेद कहते हैं। पूर्णता रहित जो ज्ञान है सोई व्यापार है, व्यापार है उसीका कर्म नाम है, ऐसा निश्चय है॥६॥ कर्मों से भीतर का भाव मालुम होता है। कर्म है तो भावों के प्रतिबिंब है। यह प्रगट न्याय है ॥७॥ प्रतिबिंब, और देवन, में कहो अब क्या भेद रहा, अर्थात् कुछ न रहा। ज्ञान का विलास कर्म है, यही वेद कहता है । इति इन्द्रसूत्रम् । वृहस्पतिमत धुरितक मति पहुंच जाय पथिक ज्युमुकाम" । जिस तरह मुसाफिर आखिरी मुकाम पर पहुंच जाता है, इसी तराजो बुद्धी "धुरितक" याने, पराकाष्टा तक पहुंच जाय, वहीअसल मत है, और उसी का नाम शान है ॥१॥ उसके साधन याग, तप, विरागादि, अनेक है, जो बेलाग सद्गुरु है, वे ही शिष्य को धुरतक For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४८ ) पहुंचाय देते हैं ॥२॥ पढ़ते गुणते कहते सुनते जो शान उपजता है, वह वाधिक ज्ञान है। परंतु मानसिक शान अंतर तेजी का कारण नहीं है ॥ ३॥ यथार्थ ज्ञान होने से हृदय में प्रकाश होता है। अंतर गत समझ पड़ती है, सब तरह की आशा छूट जाती है ॥४॥ निजस्वरूप को पाकर, हर दम वह मगन रहता है। और उसका ईश्वर से चकोरवत् प्रेम बढ़ता है ५ ईश्वर का प्रतिबिंब शान है। शान में ईश्वर श्राप नहीं है। ज्ञान की भक्ती व साधन से अथवा शान साधन से और भक्तिसाधन से ईश्वर से मिलाप होना सही है। ॥६॥ ख्याति, लाभ, पूजन, से शान मंद पड़ता है । जिस तरह श्रोस धूलि मेघ से निर्मल चंद्र मंद तेज होता है ॥७॥ जब तक यह शान भिन्न है, तब तक ही संसार है, ऐसा ठहराय के देव गुरु याने वृहस्पति विचार करते हैं। नारद वचन "परम प्रेम भक्ति कही दो प्रकार की" परम प्रेम सहित जो भक्ति सो दो प्रकार की है। शान सहित भक्ति १ और शान रहित भक्ति २, यह २ दो प्रकार है। जिसमें अंतर से तो हरि के पूजोपचार की तैयारी है, और ऊपर से रति विचार की तैयारी कर रहा है। वह भक्ति अंतर भाव को आश्रयण करके शान सहित कही जाती है ॥ २॥ और जो बाह्य से प्रतिबिंब याने ईश्वर की मूर्ति की उसी तरह पूजा की तैयारी करता है और अन्तर से रति विचार की तैयारी है, यह शान रहित भकि हे ॥३॥ प्रतिबिंब से बिंबक भी झलक के उठेगा, उंची नजर कर, वह शुद्ध स्वरूप श्राप झलक के उठेगा, याने प्रगट हो जायगा ॥४॥घही खिलाड़ी नगत में नानारूप कर खेल रहा है। और घट घट के राग रंग झेल रहा है ॥५॥ मेरे सरीखे सब उसके फरमाबरदार है । दम दम पर हुक्म बजाते हैं, कोई उजर For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४९ ) करता नहीं ॥६॥ जिसने इतना समझा, वह संसार के पार उतर गया, और वह मालिक के, याने ईश्वर के साथ नित्य विहार करेगा, ॥७॥ देव ऋषि याने नारद मुनि ने यह भक्ति सेवा का मार्ग सिखाया है । इस में छोटे बड़े का सब का निर्वाह है ॥ ८ ॥ ब्रह्मावचन-- "ज्ञान अज्ञान के मिलन सोई जगत" ज्ञान अज्ञान का मिलना, याने तात्विक शुद्ध ज्ञान का नहीं होना. यही जगत है। क्यों कि मिलाप से ही जगत का स्वरूप प्रकट दीखता है, जैसे शुक्र और रूधिर के संयोग से, बच्चा पैदा होता है, इसीसे चराचर जगत का नाम है। ऐसा सामवेद का मत सुन के मनरूपी मयूर हर्षित होता है ॥ १॥ ईश्वर का प्रतिबिंब जो शान है, सो ही जगत है, और ज्ञान का प्रतिबिंब सर्व वस्तु क्रिया है। ज्ञान विना जगत नहीं है, जैसे घोर निद्रा में स्वप्न नहीं होता, यह ऋग्वेद का मत सुखरूपी मेह बरसता है ॥२॥ इस नाना प्रकार के जगत का हेतु कर्म है, और कम से ही उत्पत्ति, और मरण है, ऐसा यजुर्वेद कहता है । स्वभाव, गुण, काल हैं, सो कर्म के अनुसार होकर जगत की विचित्रता का हेतु है। और जो बिना हेतु जगत को कहते हैं, वे अज्ञान धरते हैं ॥ ३॥ ज्ञान प्रतिबिंब जानने से सब बनता है। ऐसा अथर्षण कहता है। मर्म पाये विगर मूढ तरसते हैं। जगत की गति ब्रह्मदेव ने ऐसी कही है. जिसके वास्ते मुनिजन बहुत वर्षों तक श्रम करते हैं ॥४॥ विष्णु सूत्र में ___"जगत में पूरा सौदा है" अरे जीव ! सोच जगत में कैसा बराबरी का सौदा है, जैसा तुम जगत से हो, ऐसा ही जगत तुम से है। याने नेकी से नेकी For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५० ) है, बदी से बदी है, कोई पैदल चलता है, और किसी के कंचन मणि रत्न जटित हौदा है। कोई निश्चित है, कोई बड़ी फिकर में है यह सब का कारण वही है कि, जैसा जिसने किया है, वैसा ही उसको भोगना पड़ता है। यह रहस्य जो नहीं समझे वही मूर्ख है ॥२॥ जैसे रास्ते की धूल को चलने वाला जब पांव से रौंदता है, तब वह धूलि भी उसके माथे चढ़ती है, इसी तरह सर्वभावों को लखना चाहिये, उसकुं नहीं परखे सो सोदाई है ॥ ३॥ जबर है सो अवर को मारता है। जैसे विष जीवों को मारता है। और विषमर्दनी औषधी विष को भी मारती है ॥ ४॥ वासुदेव ने यह जीव गति दिखाई, पतित जो हैं सो नहीं बूझते हैं ॥५॥ शिवसूत्र में ___ "जगत में होय रही है क्या बहार०" जगत में क्या बहार हो रही है, कोई निगाहदार होगा, सो देखेगा, मालिक जो सच्चिदानंद, निज प्रात्मा.या ईश्वर,जो हुक्म करता है, मन भी उसी रास्ते चलता है। और वही भाव भागे धरता है। यह रोजगार लग रहा है ॥१॥ मन जब खद मालिक बनता है तब दुख सुख में जायके सनता है। अपनी औकात की छान करता नहीं, तब सिर पर बड़ा भार कर्मों का वा सांसारिक कामों का उठाता है॥२॥ जब मालिक दूसरा है, ये भाव मन गहता है तब सब की गाली मार सहता है। याने क्रोध करता नहीं, और किसी से कुछ आसा रखता नहीं, इसी राह से पार संसार से जाते हैं ॥ ३ ॥ सब में एक नूर है, याने सब की आत्मा तुल्य है, रंग रंग का अलग अलग देह बना है, महादेव ने ऐसा भाव जैन मत का सार मथके कहा है॥४॥ 'जुगत अति दयालुन कि." जैन धर्मप्रवर्तक बड़े दयालु थे, उनकी जुगति मेरे मन भाय For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रही है, जो श्रुति प्रमाण विगर भी प्रमाण रूप पाई जाती है ॥ १॥ जैन मत के साधु को शिर के केश लुंचन करने का अधिकार है, यद्यपि लुचन करने से पीडा अपने जीव कुं होती है, तथापि अन्य जीव की इतनी करुणा है कि, तृण भी मत तोड़ो ऐसी अाशा है, इसीसे यह मार्ग अनुभव सिद्ध प्रमाण रूप दीखता है ॥२॥ और भी जिस मार्ग में बहुत तरह से जीवों की दया छाय रही है। और दया जो है, सो सर्व धर्म का मूल है। श्रुति भी ऐसा ही कहती है ॥३॥ देह असली मलीन है, यह कभी भी विमल नहीं हो सकती है। एक केवल "अरिहंतदेव" की सेवा है, सोई पावन कर सकती है ॥४॥ __“मानी अंध जैन मंदिर में" जो लोक यह कहते हैं कि, हस्ति मारे तो भी जैन मंदिर में नहीं जाना. उस पर स्वामी जी लिखते हैं कि-मानी मताभिमानी जो पुरुष है, लो अंध है, और अंधा पुरुष है सो जैन मंदिर में कहो किस तरह श्राय सकता है, क्योंकि वहां जाने का प्रथम द्वार यही है, कि अपने समान सर्घ जीव को जानना, यह शान मानी पुरुष पा सकता नहीं ॥१॥ "नोताई" याने नम्रता विगर अगम द्वार में किस मार्ग से जा सकता है, और उस द्वार में जाने के लिये नियम धर्म की सीढ़ी बड़ी कठिन है, उसपर चढ़ते हुए सामान्य पुरुषों का दम फल जाता है, अर्थात् दम में दम समाता नहीं ॥ २॥ संग्रह से मैले जीव कभी भी गुरु दर्याव में ( सागर ) याने गुरु के उपदेश रूपी दर्याव में अथवा बड़े दर्याव में नहीं स्नान कर सकता है, मोहान्ध पुरुष को प्रभु की जगमग मूर्ति को कौन लखा सकता है ॥३॥ सत्संगत से, व गुरुदेव की दया से, जो मन का मान मिटाय सके तो, जैनमत के परमार्थ को मन में चूनाय सकता है ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५२ ) “वाद विवाद छोड़ साधन कर" वाद विवाद को छोड़, और साधन कर, तब कुछ लज्जत मिलेगी, नहीं तो कुत्ते की तरह भूक भूक के एक दिन मर जावेगा, ॥१॥किसी मत का वाद आज तक खतम हुअा हो तो दिखलावो, घर घर सभी मत जारी है, कौन किस को मिटा सकता है ॥२॥ क्यों कि मति से मत होता है, बुद्धि विलास जिधर दौड़ता है, उधर ही बात बढ़ाता है। यद्यपि अपनी बात को वृथा समझी तो भी हठवाद से मत को नहीं हटावेगा ॥३॥ बाद नाम वृथा का है, ऐसा कोई एक महापुरुष के ही मन में आता है। वादीजन अरिहंत देव को मन में कभी भाता नहीं, क्योंकि अरिहंत वीतराग है, उन्होंने राग, द्वेष, को शत्रु समझ के जीता है, और वाद राग द्वेष से होता है। इस वास्ते वादी पुरुष अरिहंत के शत्रु राग द्वेष को स्थान देने से कभी उनके मन में अच्छा लगेगा नहीं ॥ ४ ॥ न्यून का वाद है, पूर्ण को है नहीं। "तपो भूमि उज्जैन पुरी में" तपो भूमि, याने तपस्या करने को भूमि उज्जैनपुरी है। वहां श्री पद्मावती देवी का बन है, पंचरंगी कमलों का सरोवर है । सोई पंचरंग पद्मावती का शरीर है॥ १॥ लाल रंग के हाथ पांव के तलीये है, स्तन हरित है, पोत याने स्वर्ण वर्ण मुख है, श्याम नेत्र है। दृष्टि के कोण श्वेत है, तन में जिसके बड़ी सुगंधी महकती है ॥२॥ सुगंध जल अंबर पत्रों करके भषा जिसकी है, रसिक भ्रमर जहां गुंज रहे हैं, परमहंस पदकमल के उपासक मीनवत् चंचल जो मन, अथवा कंदर्प उसकी या उससे जो समाधि याने चित्त ध्येय वस्तु पर स्थिर करना इसके करनेवालों का समुदाय जहां है ॥३॥ तपस्वी लोक जिस देवी के सिर के भूषण समान है. श्राप स्वयं तपस्विनी स्थिर मनवाली है। देवेन्द्र प्रमुख देव जिसके सेवक हैं, For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐसा चितवन करे सो मनुष्य धन्य है॥४॥ यह पद्मावती देवी भगवान् श्री पार्श्वनाथ जी की शासन अधिष्ठात्री देवी हैं । 'पूज्य सोई अरिहंत, न और" । पूज्य वही है, जो अरिहंत है, और पूज्य नहीं है, जगत पूज्य ईश्वर है, अथवा प्रणव ॐकार भी उसी तरह पूज्य है, क्योंकि जैन मत में पद ५ परम इष्ट उपासना किये जाते हैं, वे यह है १ अरिहंत २ अशरोर (सिद्ध), ३ श्राचार्य, ४ उपाध्याय, ५ मुनि, इन पांचों पदों का एक एक प्रथम अक्षर जैसे-श्र, अ, आ, उ, मु, को व्याकरण रीति से संधी करके "ॐ" सिद्ध होता है ॥ १॥ और जो अरिहंत की गद्दी पर बैठते हैं, सो श्रीपूज्य कहे जाते हैं, उनकी नवांगी पूजा श्रादि होते हैं। प्रकारांतर से वह अरिहंतो का ही बहुमान है। वे ही अरिहंत के वचनों का उपदेश करने से गुरु कहे जाते हैं । श्वेतांबर जैन श्रीपूज्ययति प्राचार्यों का आज भी श्वेतांवर जैन श्रीसंघ उसी भाव से श्रादर करते हैं, दिगंबरों में श्रीपूज्य भट्टारकों का होता है। यह व्यवहार जैन मत में है, इस पर भी थोड़ा विचार कर ले ॥२॥ गायत्री प्रणव का प्रतिबिम्ब है। जिसमें चौबीस अक्षर हैं, वही जैन मत में २४ तीर्थकर अवतार हुए हैं। संतन के सिर के मोर समान है ॥३॥ "प्रणव" मुख्य देव जैन मत में हैं, मन में विचार कर लो, और देव सब इसकी परछाई है. इसको अच्छी तरह समझ. इसमें कुछ झकझोर मत कर । "चार मूल साधन, और करुणा" दान १, शील २, तप ३, भाव ४, ये चार मूल साधन, और करुणा, यह ५ रतन कहे जाते हैं, इनमें करुणा मुख्य है, क्योंकि. करुणा से चारो साधन प्रतिदिन बढ़ते हैं, और करुणा विगर ४ साधनपूर्ण फल देते नहीं ॥१॥ इन्द्रिय, मन, मति, ये जीवों के प्रत्यक्षकरण है, इनमें से एक भी जिसको प्रत्यक्ष नहीं है, तो बे For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५४ ) फायदे मूंड मूंडाया है ॥ २ ॥ बिना कुछ देखे वेद वचन पर किस तरह प्रतीति होगी, और प्रतीति न होने से यद्यपि ऊपर से कुछ न कहेगा, तथापि मन में सब झूठ समझेगा ॥ ३ ॥ ये साधन ग्रन्थों मैं नहीं है, गुरुगम्य से ही किसी को मिलते हैं । देवराज को भी दुर्लभ ऐसा ध्यान संत लोग लगाते हैं ॥ ४ ॥ "ज्यों का त्युं आतम को जाने" जैसा श्रात्मा का स्वरूप है, उसको उसी तरह से यथार्थ जानना, यही असल फकीरी है, क्योंकि जैसे फकीर सर्वत्यागी होता है, इसी तरह इसने भी सर्व त्याग कर, केवल आत्मस्वरूप का ज्ञान किया है, और तन मन कि जो दुरस्ती का बनाना याने अशुभ व्यापारों ( प्रवृत्तियों) से रोक कर शुभ व्यापार में प्रवतना इसीको अमीरी कहते हैं। क्योंकि अमीर जैसे शरीरादिक की शोभा करता है, ऐसे इसने भी तन मन की दुरुस्ती करी है ॥१॥ तन मन मति को आत्मा कर मानना, यह बजीरी सेज हैं, क्योंकि आत्मा के वजीर समान तन मन मति है, इन्हीं पर यह रह गया, श्रागे बढ़ा नहीं, सुलतानी दरजा जो आगे है, जहाँ अनहत तूर बजते हैं, “सोऽहं” ज्ञान होकर, शुद्ध सच्चिदानंदमय होना, सा हो लाल गंभीरी है, क्योंकि शुद्ध ज्योति का लाल वर्ण श्रारोपतः मानते हैं ॥ २ ॥ वहां जो लज्जत उसको मिलती है, वह श्रवाच्य है, परंतु दृष्टांत कर बताते हैं कि, जगत में अमृत उत्तम पदार्थ है किन्तु श्रमृत में जो लज्जत है, सो उस लज्जत की कुछ सीरी है, अर्थात् कुछ अंश है, याने अमृत से भी बहुत अधिक अनंत वहां लज्जत है, और इस खलकत में ( दुनिया ) जो कुछ चेतनता दिखाई देती है, उसमें सब उसी चिदानंद ब्रह्म की ही अकसीरी याने शक्ति छाय रही है ॥ ६ ॥ जैन मत में ज्ञान कला सो ही धन है, जो निज रूप याने श्रात्मस्वरूप दिखा रही है, इसके साधन की भी For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महिमा जैसे मिट्टी में रूप रस, गंधादि, गुण स्वभाव सिद्ध है, वह कारण पाकर प्रकट हो जाता है, इसी न्याय से श्रात्मा में ज्ञान गुण भी स्वभाव सिद्ध है, कारण से उत्तेजित हो जाता है ॥७॥ निग्रंथी गुरु जगत में दुर्लभ है, क्योंकि माया सब कुं नाच नचा रही है, परंतु श्री "अर्हत" देव की करुणा है, सो बिगड़ी बात कुँ भी बना देती है ॥८॥ "जे चउदे उपकरण भणे." । ___ जैन श्वेतांबर यति साधुओं के १४ उपकरण जैन शास्त्रों में कहे हैं, सो सब प्रणव ही में मिल जाते हैं । जैसे १४ उपकरण में पात्र ३ जो कहे हैं, वही प्रणव में ३ मात्रा है, और जो उपकरण में ३ वस्त्र है, सो ही प्रणव में रजोगुण प्रमुख ३ भाव है, इसी तरह मारणादि पटकर्म यंत्र मंत्र भेद से १२ भाव जो प्रणव में हैं, वही जैन मुनि का १२ कवल आहार प्रमाण है, उनोदरी तप में १और विलस्त भर याने १२ अंगुल प्रमाण जो सहस्त्र दल प्रमाण में प्रणव स्थापना का कमल है। उसकी संख्या को द्विगुण करो तो, रजोहरण उपकरण का दंड वड का २४ अंगुल प्रमाण होता है, उस दंड में बंध से ३ भाग करते हैं, सोई ३ के अंक से उस पूर्वोक्त १२ की संख्या को गुणा करो तो, ३६ होते हैं, वही ३६ श्राचार्य के गुण हैं ॥२॥ इस वास्ते यह धर्मध्वज श्राप आचार्य हुश्रा, और यह धर्मध्वज मंगल स्वरूप है, रज के दोष को दूर कर्ता है, यह धर्मध्वज जैसे जीव दया के वास्ते जैन साधु का उपकरण है, इसी तरह आप समझिये कि जैन मुनियों के सर्व उपकरणों में हिंसा ही की मनाई है ॥ ३॥ प्रणव यही अरिहंत देव है, अर्थात् प्रणव अरिहंत रूप है, इसमें भेद नहीं, यही अन्तिम निष्कर्ष है, और गायत्री में के जो २४ अक्षर हैं, वे ही २४ अवतार जैन मत में हैं, वे कैसे हैं परम आनंद उपजाते हैं ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) " " उतरा सो अवतार ० उतर के आया सो अवतार, वह ईश्वर किस तरह से हो सकता है, जिस तरह उतरा सहना मरदक होता है, और वह कर्ता भी नहीं है, ईश्वरता विगर पूज्य भी वह न होगा, और भगतन का उद्धार भी वह नहीं कर सकेगा ॥ १ ॥ तब अवतार क्या है ?, लाखो प्राणियों का भाव जब समुद्र सदृश बढ़ता है, और पुकार पड़ती है, तब उससे, याने उस समय में एक महाभाव याने श्रद्धितीय भाव ईश्वरता प्रादुर्भाव का कारण जो है, उसकी छाया पड़ने से, एक आकार बनता है, याने एक स्वरूप का जन्म होता है ॥ २ ॥ वह ईश्वरता के धर्मप्रवृत्ति प्रमुख कार्य लोक में साधकर सिद्ध याने मुक्त होता है, तब वहाँ भाव का विस्तार मिट जाता है, रहता नहीं, क्योंकि भाव मनोविषयक है, सो सिद्ध अवस्था में है नहीं, तब वह भाव ही के अनुसार सम्पूर्ण अवतार होता है || ३ || महाभाव की छाया पड़ने से उसमें अपार तेज चमक जाता है, तब वह देव, भाव को प्रकाशन करता है, और त्रिभुवन श्रृंगार होता है, ॥ ४ ॥ "नित पवन हिंडोला झूलि रहे" नित्य पवन हिंडोले में भूल रहे हैं, अथवा पवन का हिंडोला झूल रहा है, जीव कर्म वश, और इन्द्रिय, व मन, यह सब पवन के ही संग तन में आते हैं, और पवन ही के साथ निकल जाते हैं, ॥ १ ॥ इसी कारण से जगत में सर्व कर्म पवन के ही हैं, जीव उनको वृथा अपना कर मानता है, कर्म बंध भी इसी से है, और "चौराशी लाख योनियों में शरीर धारण भी मूर्ख इसी से करता है || २ || बात बात में जो यह चेते, याने समझे कि, सब कर्म यह पवन ही करता है, तो जड़ और चेतन की गांठ छुट जायगी, और निज स्वरूप में मगन हो जायगा ॥ ३ । तीन काल में वह अहिंसक रहेगा, उसको जप तप वगैरह साधन की कुछ जरूरत नहीं है । For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७ ) पूर्ण देव के अनुग्रह से यह यद्यपि अनवन है, अडोल है, सो भी सुधरता है, ॥४॥ चंद्राब्धि निधि भूमाने, वर्षे माघासिते दले। सप्तम्यां बुधवारे च, पूर्णीभूतमिदं मुदा ॥ १॥ अचार्यगुण ३६ ये है-आर्य देशोत्पन्न १ कुलसंपन्न २ जातिसंपन्न ३ रूपवान् ४ संहननमुक ५ धृतियुक्त ६ अनाशंसो ७ अविकथन अमायी ६ स्थिरपरिपाटि १० गृहीत वाक्य ११ जितपरिषद् १२ जितनिद्रः १३ मध्यस्थः १४ देशज्ञः १५ कालज्ञः १६ भावशः १७ श्रासन्न लब्धप्रतिभः १८ नानाविधदेशभाषाज्ञः १६ ज्ञानाचारयुतः२० दर्शनाचारयुतः २१ चारित्राचारयुतः २२ तपाचारयुतः २३ वीयांचारयुतः २४ सूत्रार्थोभयशः २५ श्राहरण निपुणः २६ हेतुनिपुणाः २७ उपनय निपुणः २८ नय निपुणः २६ ग्रहणाकुशल ३० स्वसमय निपुणः ३१ पर समय निपुणः ३२ गंभीर ३३ दीप्तिमान् ३४ शिवः ३५ सौम्यः ३६ गुणाः सम्पूर्णाः । पात्र १ पात्रबंध २ पात्र प्रस्थापन ३ पात्र केसरिका ४ पटलक ५ रजत्राण ६ गुच्छक ७ पात्र त्रय १० मुख पत्रिका ११ रजोहरण १२ चोल पटक १३ मात्रक १४-ये १४ उपकरण जैन मुनियों के है, इनमें मुख वस्त्रिका १ पात्र केसरिका २ गुच्छक ३ पात्र प्रस्थापनं ४ जघन्य पटलानि ५रजस्त्राणं ६ पात्रबंध ७ चोल पट्टक ८ मात्रक ६ रजोहरण १० मध्यम पतग्रह १२ कल्पत्रयं १३ उत्कृष्ट १४ उपकरण। जैन बिन्दुवृत्ति श्रीसद्गुरु श्री १०८ श्रीदिग मंडलाचार्य श्री बालचंद्र सूरिजी महाराजजी ने किया, श्री काष्ठजिह्वा स्वामीजीकृत "जैन बिन्दु" ग्रन्थ पर टोका करी। रामघाट पर लिपिकृतं ज्ञानचंद्रेण तच्छिश्येन । शुभं भूयात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक प्राप्तिस्थानम्श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर रामघाट-बनारस. 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