SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रही है, जो श्रुति प्रमाण विगर भी प्रमाण रूप पाई जाती है ॥ १॥ जैन मत के साधु को शिर के केश लुंचन करने का अधिकार है, यद्यपि लुचन करने से पीडा अपने जीव कुं होती है, तथापि अन्य जीव की इतनी करुणा है कि, तृण भी मत तोड़ो ऐसी अाशा है, इसीसे यह मार्ग अनुभव सिद्ध प्रमाण रूप दीखता है ॥२॥ और भी जिस मार्ग में बहुत तरह से जीवों की दया छाय रही है। और दया जो है, सो सर्व धर्म का मूल है। श्रुति भी ऐसा ही कहती है ॥३॥ देह असली मलीन है, यह कभी भी विमल नहीं हो सकती है। एक केवल "अरिहंतदेव" की सेवा है, सोई पावन कर सकती है ॥४॥ __“मानी अंध जैन मंदिर में" जो लोक यह कहते हैं कि, हस्ति मारे तो भी जैन मंदिर में नहीं जाना. उस पर स्वामी जी लिखते हैं कि-मानी मताभिमानी जो पुरुष है, लो अंध है, और अंधा पुरुष है सो जैन मंदिर में कहो किस तरह श्राय सकता है, क्योंकि वहां जाने का प्रथम द्वार यही है, कि अपने समान सर्घ जीव को जानना, यह शान मानी पुरुष पा सकता नहीं ॥१॥ "नोताई" याने नम्रता विगर अगम द्वार में किस मार्ग से जा सकता है, और उस द्वार में जाने के लिये नियम धर्म की सीढ़ी बड़ी कठिन है, उसपर चढ़ते हुए सामान्य पुरुषों का दम फल जाता है, अर्थात् दम में दम समाता नहीं ॥ २॥ संग्रह से मैले जीव कभी भी गुरु दर्याव में ( सागर ) याने गुरु के उपदेश रूपी दर्याव में अथवा बड़े दर्याव में नहीं स्नान कर सकता है, मोहान्ध पुरुष को प्रभु की जगमग मूर्ति को कौन लखा सकता है ॥३॥ सत्संगत से, व गुरुदेव की दया से, जो मन का मान मिटाय सके तो, जैनमत के परमार्थ को मन में चूनाय सकता है ॥४॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020453
Book TitleKushalchandrasuripatta Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
PublisherGopalchandra Jain
Publication Year1952
Total Pages69
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy